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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - 184 - आगमोक्त निर्यापकाचार्य

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    Vidyasagar.Guru

    पत्र क्रमांक-१८४

    १९-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर

    जन्म-जरा-मृत्यु रोग के भिषगाचार्य परमपूज्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी दादा गुरु के त्रिकाल पूज्य चरणों की शाश्वत् आरोग्य प्राप्त करने के लिए पूजा-अर्चना करता हूँ... हे गुरुवर ! नसीराबाद में १४ माह का लम्बा प्रवास आपने किया इस दौरान आपका स्वास्थ्य दिनप्रतिदिन गिरता ही जा रहा था। आपके स्वास्थ्य को लेकर आपके प्रिय आचार्य मेरे गुरुवर काफी चिंतित रहते थे। इस सम्बन्ध में नसीराबाद के वैद्य अनंतस्नेही जैन (जमोरिया) ने २०१५ भीलवाड़ा में बतलाया-

     

    आगमोक्त निर्यापकाचार्य

    ‘‘क्षपक मुनिराज श्री ज्ञानसागर जी महाराज के स्वास्थ्य को लेकर आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से विशेष बातचीत होती थी, तब उस समय आचार्य श्री विद्यासागर जी की गुरु सेवा देखने को मिली। वे औषधोपचार को लेकर बहुत सावधान थे। उनसे बहुत सारी बातें सीखने को मिलीं। मेरे पिता वैद्य श्री लक्ष्मीचंद जैन (जमोरिया), वैद्य नंदकिशोर जी जैन (केकड़ी), वैद्य कृष्णगोपाल शर्मा (केकड़ी) तीनों ही वैद्य मिलकर प्रतिदिन क्षपक ज्ञानसागर जी मुनिराज की नाड़ी देखते और उस हिसाब से औषध तैयार करते । तब आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज औषधि की पूरी जानकारी लेते । उसकी शुद्धता के बारे में पूछते, उसका नाम पूछते और उस योग में क्या-क्या मिश्रण है? इसके बारे में पूछते । वह कैसे बनती है? किस प्रकार से बनती है? सारी जानकारी लेते । दिगम्बर जैन साधु क्या चीज ले सकते हैं? क्या चीज नहीं? ये वे बताते थे। एक दिन मेरे पिताजी ने आचार्य महाराज को कह दिया कि महाराज यदि कोई कमी या अशुद्धि रह जाती है तो वह पाप हम गृहस्थों को लगेगा, आप विकल्प न करें। तब आचार्य महाराज समझाते हुए बोले- ‘दान वही है जो स्व-पर कल्याणकारी हो, निर्दोष औषधि पवित्र भाव व विनयपूर्वक दी जाये तो ही औषधदान है अन्यथा कड़वा रस मात्र है वह। जिससे शरीर शुद्धि होने वाली नहीं है। जिस प्रकार ८ वर्ष तक के बालक के पालन करने की जवाबदारी माता-पिता की होती है, उसी प्रकार सल्लेखनाधारी की परिचर्या की जवाबदारी सल्लेखना कराने वाले की होती है और फिर विचारकरो असंयमी एवं संयमी के उपचार में क्या अन्तर है। जो संयमी के व्रत नियमों के अनुसार निर्दोष औषधि करता है, वही सही वैद्य है।' तब पिताजी ने कहा- आज से मैं नियम करता हूँ कि कभी भी किसी त्यागी-व्रती साधु-संतों के लिए अशुद्ध दवा का प्रयोग नहीं करूंगा।"

     

    इस तरह आपश्री के द्वारा भगवती आराधना का अध्ययन-अध्यापन करने कराने से निर्यापकाचार्य नई-नई दृष्टियाँ पाते रहे और सल्लेखना में किस प्रकार सावधानी वरतनी चाहिए। वह बड़ी गम्भीरता से अनुभूत करते रहे और व्यवहार में उतारते रहे। ऐसे आत्मचिकित्सक गुरु-शिष्य के चरणों में अपना जीवन समर्पित करता हुआ...

    आपका शिष्यानुशिष्य

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