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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - 181 क्षपक मुनिराज की दैनन्दिनी

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    Vidyasagar.Guru

    पत्र क्रमांक-१८१

    १५-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर

    अज्ञ अंधकार को ज्ञानप्रभा से भेदने वाले परमपूज्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में त्रिकाल ज्ञानदीप प्रकाशनार्थ नमस्कार नमस्कार नमस्कार... हे गुरुवर ! जैसे ही आपने आचार्यपद का त्याग किया और नियम सल्लेखना व्रत को धारण किया, तब नूतन आचार्य के निर्देशन में आपकी दैनन्दिनी के बारे में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने ०८-११२०१५ भीलवाड़ा में बताया-

     

    क्षपक मुनिराज की दैनन्दिनी

    ‘‘नियम सल्लेखना व्रत को देने के बाद नूतन आचार्यश्री के निर्देशन में प्रातः ७:३०-९:00 बजे तक आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी विरचित परमपूज्य समयसार ग्रन्थराज का स्वाध्याय चलता था। गाथाओं को निर्यापकाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज लयबद्ध पढ़ते थे उसका अर्थ गुरुदेव क्षपकराज ज्ञानसागर जी महाराज करते थे। दोपहर में २-४ बजे तक परमपूज्य शिवकोटी आचार्य विरचित पूज्य भगवती आराधना ग्रन्थराज का स्वाध्याय चलता था। जिसकी मूलगाथा एवं संस्कृत टीका को आचार्य महाराज पढ़ते थे और उसका भावार्थ क्षपक मुनिराज समझाते थे एवं बीच-बीच में विशेषार्थ भी बताते थे इस स्वाध्याय में ऐलक सन्मतिसागर जी, क्षुल्लक आदिसागर जी, क्षुल्लक सुखसागर जी, क्षुल्लक सम्भवसागर जी, क्षुल्लक विनयसागर जी, क्षुल्लक स्वरूपानंदसागर जी और कुछ समय तक ब्रह्मचारिणी दाखाबाई जी, ब्रह्मचारिणी मणिबाई जी, ब्र. सोहनलाल जी छाबड़ा (टोडारायसिंह), ब्र. विकासचंद जी इत्यादि त्यागिगण एवं अनेकों श्रावक-श्राविकाओं के साथ पंण्डित श्री चंपालाल जी जैन विशारद भी नित्यप्रति ज्ञान लाभ लेते थे। शाम की सामयिक के पश्चात् रात्रि में श्रावक लोग वैयावृत्य करने के लिए आ जाते थे। तब श्रीमान् गम्भीरमल जी सेठी आध्यात्मिक भजन सुनाते थे। जिनमें दौलतराम जी, भूधरदास जी, द्यानतराय जी, बनारसीदास जी, भागचंद जी, जिनेश्वरदास जी, बुधचंद जी आदि पुराने कवियों के द्वारा रचित भजन हुआ करते थे। इसी प्रसंग में नसीराबाद के ताराचंद जी सेठी सेवानिवृत्त आयकर अधिकारी ने भी भीलवाड़ा में बताया-

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    ‘‘हम युवा लोग जिनमें श्री शान्तिलाल जी सोगानी, श्री प्रवीणचंद जी गदिया, श्री रतनलाल जी पाटनी, श्री सीताराम जी गदिया आदि कई लोग उनकी वैयावृत्य करने रात्रि में प्रतिदिन जाते थे। दिन में तो मुनि विद्यासागर जी और संघ के साधु वैयावृत्य करते थे। वैयावृत्य के समय पर श्रीमान् गम्भीरमल जी सेठी पुराने गीत एवं लावनियाँ सुनाया करते थे। कभी-कभी राजकुमार गदिया भी लावनियाँ सुनाया करते थे। तब आचार्य महाराज विद्यासागर जी भी सुना करते थे। एक दिन हम युवाओं ने उनसे पूछा-महाराज! आपको ये लावनियाँ समझ में आ जाती हैं क्या? तो आचार्यश्री बोले- ‘बार-बार सुनने से भाव समझ में आ जाता है और शब्दकोश तैयार हो जाता है। इस प्रकार आपके प्रिय निर्यापकाचार्य आपकी सेवा में चौबीसों घण्टे लगे हुए थे और आपके आध्यात्मिक भजन सुनकर एकत्व-विभक्त्व की अनुभूति में रुचि देखकर वे भी आध्यात्मिक पद लिखते और आपको सुनाते थे।'' इस सम्बन्ध में २१ मार्च २०१८ दोपहर, डिण्डौरी प्रवास में मेरे गुरुवर आचार्यश्री जी ने मेरी जिज्ञासाओं का समाधान देते हुए श्री दीपचंद जी छाबड़ा को बताया-

     

    ‘‘गुरु महाराज ने जब सल्लेखना व्रत धारण कर लिया था। तब आध्यात्मिक भजन लिखकर गुरु महाराज को सुनाता था।" इस प्रकार निर्यापकाचार्य अवस्था में मेरे गुरुवर ने जो आध्यात्मिक गीत लिखे थे, वे प्रकाशित होकर आप तक पहुँच चुके हैं किन्तु एक और गीत उनका कमल कुमार जैन, यू.डी.सी. जे.एल.एन. मेडिकल कॉलेज अजमेर की डायरी में मिला जो उन्होंने १९७५ में प्रतिलिपि की है वह आपको बता रहा हूँ-

     

    प्रवृत्ति का फल संसार

    कभी मिला सुर विलास,तो कभी नरक निवास।

    पुण्य पाप का परिणाम, कभी न मिलता विश्राम ॥१॥

    मूढ़ पाप से डरता, अतः पुण्य सदा करता।

    तो संसार बढ़ाता, भव वन चक्कर खाता ॥२॥

    पाप तज पुण्य करेंगे, तो क्या नहीं मरेंगे?।

    भले ही स्वर्ग मिलेगा, भव दुख नहीं मिटेगा ॥३॥

    प्रवृत्ति का फल संसार, निवृत्ति सुख का भण्डार।

    पहली अहो पराश्रिता, दूजी पूज्य निजाश्रिता ॥४॥

    मत बन किसी का दास, पर बन परसे उदास।

    जिससे कर्मों का नाश, उदित हो वो प्रकाश ॥५॥

    अतः मेरा सौभाग्य, मुझको हुआ वैराग्य।

    पुण्य पाप तो नश्वर, शुद्धात्म ही ईश्वर ॥६॥

    सुख दुख में समान मुख, रहे तो, मिले शिव सुख।

    अन्यथा तो दुस्सह दुःख, ऊर्ध्व, अधो, पार्श्व सम्मुख ॥७॥

    स्नान स्वानुभव सर में, यदि हो, तो पल भर में।

    तन, मन, निर्मल-तम बने, अमर बने मोद घरे ॥८॥

    सब पर कर्म परम्परा, यों लख तू स्वयं जरा।

    निज में धन खूब भरा, अविनश्वर औ खरा ॥९॥

    आलोकित लोकालोक, करता वही आलोक।

    जो मुझ में अव्यक्त रूप, व्यक्त हो, तो सुख अनूप ॥१०॥

    क्यों करता व्यर्थ शोक, निज को जान मन रोक।

    बाहर दिखती पर्याय, अभ्यंतर 'द्रव्य' सुहाय ॥११॥

    ‘विद्या' रथ पर बैठकर, मनोवेग निरोध कर।

    अब शिवपुर है जाना, फिर लौट नहीं आना ॥१२॥

     

    इस प्रकार-

    २. अब मैं मम मन्दिर में रहूँगा...

    ३. पर भाव त्याग तू बन शीघ्र दिगम्बर...

    ४. मोक्ष-ललना को जिया! कब वरेगा...

    ५. भटकन तब तक भव में जारी...

    ६. बनना चाहता यदि शिवांगना पति...

    ७. चेतन निज को जान जरा...

    ८. समकित लाभ...  

    ९. अहो! यही सिद्ध शिला...

     

    इन गीतों को पढ़कर एक आत्मा की तड़फन सुनाई देती है। वह भव-भव के कारागार से छूटना चाहती है। इस तरह सन् १९७२ के पन्नों पर सच्चे मुमुक्षुओं का स्वर्णिम इतिहास रचा गया एवं जाते हुए वर्ष ने आगत वर्ष को चेताया! सावधान !! अप्रमत्त रहना !!! दुनियाँ का इतिहास लिखने में चूक हो जाए तो हो जाए किन्तु जो प्राणीमात्र के लिए जीते हैं, सबके हित में सोचते हैं, सर्व सुखी बनने का मार्ग बताते हैं, ऐसे तपस्वी ज्ञानी-ध्यानी साधक महापुरुषों के पल-पल को, उनकी हर श्वांस के अनुभवों को लिखना न भूलना। वही तुम्हारी लेखनी को स्वर्णिम बनाएगी। वर्ष १९७३ कलम ले सावधान हो गया। ऐसे मुमुक्षुओं के चरणों में नमस्कार करता हुआ...

    आपका शिष्यानुशिष्य

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    ज्ञानमूर्ति श्री ज्ञानसागर जी महाराज को विनम्र श्रद्धाञ्जलि

     

    (तर्ज—आ जाओ तड़पते हैं अरमां-चित्र-'आवारा')

     

    श्रद्धा से झुका सर चरणों में, मुनिराज को वंदन करते हैं।

    इन दो नैनों के पैमाने, कर दर्श, हर्ष से छलकते हैं । टेर।।

    तेज के पुंज, शान्ति शिरोमणि, करुणा के तो ये आगार हैं।

    हैं परम तपोनिधि, जो जग में, आदर्श अनुपम रखते हैं। श्रद्धा से ।।१।।

    जन्म लिया ग्राम राणोली, महिमा राजस्थान की बढ़ाई है।

    प्रकटे कोख से देवी घृतवली की, चतुर्भुज जी के लाल मनभावते हैं ॥२॥

    माता-पिता धरा नाम भूरामल, वैराग्य जगा शिशुकाल ही,

    वर्ष अट्टारा ब्रह्मचर्यधारा, ज्ञान उपार्जन अनुरत रहते हैं। श्रद्धा से ॥३॥

    वीरसागर आचार्य सानिध्य पा, क्षुल्लक, ऐलक पद अभ्यस्त हुए,

    आचार्य शिवसागर से, ज्ञान रवि दीक्षा ले, चारित्र गगन पे चमकते हैं ॥४॥

    जिन आगे मदन भी हार गया, माया मोह राग भी दूर हुए।

    धन्य ऐसे बाल-ब्रह्मचारी मुनि, जो मन इन्द्रिय वश करत हैं। श्रद्धा से ॥५॥

    गुणमूल, महाव्रतधारी हैं, निष्परिग्रह, निराभिमानी वैरागी।

    निर्ग्रन्थ दिगम्बर सतवक्ता, जो निज पर हित रत रहते हैं। श्रद्धा से ॥६॥

    जिनागम के प्रकाण्ड-पण्डित हैं, पूर्ण रत्नत्रय गुण मण्डित हैं,

    मुनि संघ उपाध्याय रूप में, मानव कल्याण ये करते हैं। श्रद्धा से ॥७॥

    ‘प्रभु' ज्ञान के सागर आप हैं और हम तो निरे अज्ञानी हैं,

    गुण आप बखाने, वो शक्ति कहाँ, फूल श्रद्धा ही अर्पित करते हैं।८।।

     

    (श्रद्धा सुमन, रचयिता-प्रभुदयाल जैन,

    प्रकाशक-श्री दि. जैन आगम सेवा मण्डल,

    अजमेर, वीर नि. सं. २४९३)

     

     


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