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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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  1. गुरु वह आध्यात्मिक शिल्पकार हैं, जो शिष्य को दीक्षा के साँचे में ढालकर न केवल एक मूर्ति का रूप देते हैं, बल्कि निर्वाण प्राप्ति के लिए आवश्यक संस्कारों के रंग-रोगन से भरकर उसके जीवन को श्रेष्ठ बनाते हुए उस पर अनुग्रह करते हैं। गुरु के द्वारा शिष्य में पोषित किए जाने वाले ऐसे ही अनमोल संस्कारों एवं शिक्षाओं से जुड़े कुछ प्रसंगों को इस पाठ का विषय बनाया जा रहा है। आचार्यश्रीजी उच्चकोटी के साधक होने के साथ-साथ श्रमण परंपरा को संप्रवाहित करने के लिए शिष्यों को संग्रहित एवं अनुग्रहित करने वाले संघ संचालन कला विशेषज्ञ कहे जाते हैं। वर्तमान में उन्होंने जिनधर्म का सूर्य बनकर हजारों भव्य कमलों को विकसित कर दिया है।अल्पवय, अल्पसमय में श्रमणों के महाश्रमण, नायकों के महानायक बनकर एक विस्तृत बाल ब्रह्मचारी संघ का अकर्तृत्त्वभाव से संचालन करना उनकी कुशल संचालक गुण की असाधारण क्षमता का परिचायक है। आचार्यश्रीजी की आज्ञा एवं निर्देशन से जगह-जगह उनकी शिष्य मंडली साधना, तप, ध्यान, नियम, संयम, त्याग आदि के माध्यम से जिनशासन की ध्वजा फहरा रही है। साधु-साध्वियों के अलावा उच्चस्तरीय शिक्षा प्राप्त विद्वान्, राजनेता, धर्मनेता, समाजनेता भी आपके बुद्धिकौशल के सामने नतमस्तक होकर आपसे मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए प्रतिसमय लालायित रहते हैं। आचार्य श्रीजी के वचनों से पोषित हुए शिष्य अपने पथ पर स्थिर हो निष्ठा पूर्वक अपने लक्ष्य आत्मपोषण से शुद्धात्म प्राप्ति तक की यात्रा में अग्रसर हैं। मुक्ति का सोपान दीक्षा 'दीक्षा आत्मा से परमात्मा बनने का सोपान है। राग से वैराग्य और संसार से उदासीनता का नाम दीक्षा है। दीक्षा कहो या प्रव्रज्या कहो एक ही बात है। आचार्य श्री कुंदकुंद महाराज कहते हैं, 'पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता' अर्थात् प्रव्रज्या वह है, जिसमें सर्व परिग्रहों का त्याग है। दीक्षा लेने वाला मुनि बाह्य एवं अभ्यंतर दोनों प्रकार के परिग्रह का त्यागी होता है। बोधपाहुड' गाथा ४५ में कहा गया है कि जो निवास स्थान और परिग्रह के मोह से रहित है, बाईस परिषहों को जीतने वाला है, कषाय से रहित है तथा पाप के आरंभ से मुक्त है, ऐसी प्रव्रज्या कही गई है। परवस्तु के ममत्व भाव के त्याग बिना दीक्षा नहीं हो सकती और बिना दीक्षा के मोक्षमार्ग पर चलना संभव नहीं होता है।' दीक्षा दीनता का क्षय कराती, वीरता जगाती, भिक्षा का संकल्प कराती, समता को साधती और मोक्ष तक पहुँचा देती, उसका नाम है दीक्षा। दीक्षा ग्रहण के बाद ही रत्नत्रय की पूर्णता, चारित्र का ग्रहण, केवलज्ञान की उत्पत्ति, संसार का नाश और स्वरूप की सिद्धि संभव है। जिसमें शत्रु-मित्र में, प्रशंसा-निंदा में,लाभ-अलाभ में और तृण-कंचन में समभाव होता है वही प्रव्रज्या कही गई है। हमेशा रहे यादअपना दीक्षा काल सन् १९९३, रामटेक (नागपुर) महाराष्ट्र वर्षायोग में 'अष्टपाहुड' ग्रंथ की वाचना चल रही थी। तब ‘भावपाहुड' की १०८वीं गाथा- “दिक्खाकालाईयं भावहि अवियारदसणविसुद्धो। उत्तमबोहिणिमित्तं असारसंसार मुणिऊण।' की व्याख्या करते हुए आचार्यश्रीजी ने कहा- 'इस गाथा में दीक्षित को दीक्षा काल के बारे में स्मरण करने के लिए कहा जा रहा है। बहुत दिन की प्रतीक्षा के बाद ये गाथा आई है। बार-बार इसका उदाहरण दे देते थे हम, स्मरण में था।आप लोग भी अब स्मरण में रखेंगे और मुनि महाराजों को तो पहले याद रखना चाहिए । १०८ की उपाधि लिखते हैं अपने आपको, वह सार्थक हो जाए। यह सबसे उत्तम गाथा मानी जाती है तपस्वियों के लिए और जिन्होंने घर-वार छोड़ दिया उनके लिए भी। आचार्य भगवन् कह रहे हैं कि दीक्षा काल को हमेशा याद करो, घर से जब बाहर निकले थे उस समय को याद करो। हमें उन दिनों को हमेशा याद रखना चाहिए, जिन दिनों के द्वारा हमारा वैराग्य दृढ़ हुआ था। उस परिणाम के बारे में कम से कम स्मृति तो लाओ, जिस समय तुमने पंचेन्द्रिय के विषयों के बारे में संकल्प किए थे कि हम आज से जीवनपर्यंत पंचेन्द्रिय के विषय की ओर देखेंगे नहीं, हम आरंभ-परिग्रह की ओर किसी प्रकार से देखेंगे नहीं, हम हिंसा इत्यादिक कार्य करेंगे नहीं, और रात-दिन सुख चाहते हुए भी उसको चाहूँगा नहीं। पाक्षिकादि मुनि (आर्यिका) प्रतिक्रमण में ये आता है- 'अरहंत-सक्खियं सिद्ध-सक्खियं...' ये इस प्रकार की सक्खिय का अर्थ क्या है? साक्षी। इन-इन को साक्षी बनाकर के हमने ये संकल्प किए हैं, इसलिए उसमें यदि गड़बड़ी होती है, तो उस साक्षी के दिन को कम से कम स्मरण में तो लाओ। दीक्षा तिथि को याद करने का अर्थ है कि हम किस वैराग्य से आए थे। घर छोड़ने के इरादे को याद करो ताकि अपने आप ही वैराग्य भाव दृढ़ होता चला जाता है। तुम उस वैराग्य को दृढ़ बनाए रखो, तुम्हारा कल्याण इसी में निहित है। जिन भावों को लेकर आए थे, यदि उन भावों को बनाए रखोगे, तो मोक्षमार्ग मजबूत होगा। सभी से आप भय खाते आए हो, लेकिन वैराग्य अभय है। यह गुरु के वचन हैं। तीन लोक की सम्पदा भी दी जाए, लेकिन वैराग्य भाव में जो आनंद आता है, उसकी सम्पदा को हम खरीद नहीं सकते हैं। दीक्षा दिवस मनाने के लिए नहीं कहा जा रहा है। याद करो का अर्थ ये है कि किस भाव के साथ तुमने इतना बड़ा काम किया था और अपने आपको धन्य माना था या नहीं, और उसका उद्देश्य क्या था ? दीक्षा के वर्ष गिनने से क्या होगा? मैं चिर दीक्षित हूँ,ज्येष्ठ हूँ- यह अहंकार व्यर्थ है। आत्मशोधन ही दीक्षा की उपलब्धि है। उसे निरंतर बनाए रखना ही सच्चा पुरुषार्थ है,सच्ची साधना है। ऐसे मनाएँ दीक्षा दिवस २१ अप्रैल, २००१, बहोरीबंद (कटनी) मध्यप्रदेश, ग्रीष्मकाल में मध्याह्न का समय था। आचार्य संघ की ईर्यापथ भक्ति संपन्न हो चुकी थी। आचार्यश्रीजी एवं सभी साधुजन कुछ ही समय में सामायिक आवश्यक में लीन होने वाले थे। ईर्यापथ भक्ति के बाद और सामायिक के पूर्व के बीच में कुछ मिनट ऐसे रहते हैं, जब संघ के साधुजन गुरुजी से अथवा आपस में भी कुछ प्रशस्त वार्तालाप कर लेते हैं। आज के दिन गुरु और शिष्य के मध्य जो वार्तालाप चल रहा था, उसे देखकर ऐसा लग रहा था मानो बच्चे अपने पिता से बात कर रहे हों। ऐसे क्षण अलग ही होते हैं, जिसकी अनुभूति चिरस्थायी सुख देती हैं । एक मुनिश्रीजी ने आचार्यश्रीजी से कहा- 'आचार्यश्रीजी! कल २२ तारीख है। कल के दिन २३ मुनि दीक्षाएँ हुई थीं। थोड़ा रुककर बोले- यूँ तो संघ में किसी का दीक्षा दिवस नहीं मनाया जाता, फिर धीरे से कहा, लेकिन दीक्षा दिवस तो मनाना चाहिए न।' आचार्यश्रीजी बोले- 'मैंने कब मना किया?' तभी एक मुनिश्रीजी हँसते हुए, विनम्र भाव से, बच्चों के जैसे बनकर बोले- 'पर, आचार्यश्रीजी! आपने हाँ भी कब कहा?' आचार्यश्रीजी बोले- ‘अच्छा ठीक है, मेरी ओर से आशीर्वाद है।' कुछ पल ठहर कर गुरुवर आगे बोले, परंतु यह ध्यान रखना, जिस दिन दीक्षा हुई थी उस दिन मौन रहकर विचार करना चाहिए कि दीक्षा क्यों ली थी? साल भर में क्या अनुभूति हुई? कितना तप किया? कितनी कर्म निर्जरा हुई? इन सब बातों का ध्यान करना ही सही मायने में दीक्षा दिवस मनाना है, बोलना आदि तो औपचारिक है।' इतना सुनते ही एक अन्य मुनिश्रीजी बोल उठे- 'आचार्यश्रीजी! आप अपना दीक्षा दिवस नहीं मनाते?' आचार्यश्रीजी बड़ी ही आत्मीयता से बोले 'हमारा तो बहुत मनाया गया, तुम लोगों का नहीं मनाया गया। इसलिए अब तुम लोग अपना दीक्षा दिवस मनाओ, और पूज्यवर आचार्य कुंदकुंद महाराजजी की बात हमेशा याद रखना। उन्होंने दीक्षा तिथि याद रखने के लिए कहा है। सन् २००६, शीतकाल, कुंडलपुर (दमोह) मध्यप्रदेश में बड़े बाबा को नए मंदिर में उच्चासनासीन किए जाने के अवसर पर प्रायः सभी आर्यिका संघ गुरुचरणों में उपस्थित थे।९ फरवरी, गुरुवार, माघ शुक्ल द्वादशी के दिन प्रथम दीक्षित आर्यिका श्री गुरुमतिजी आदि ११ आर्यिकाओं का दीक्षा दिवस पड़ा। इस दिन सभी ने आचार्यश्रीजी से आर्यिका दीक्षा दिवस मनाने का निवेदन किया। तब आचार्यश्रीजी उस दिन के दृश्य का स्मरण करते हुए बोले 'नैनागिरि में गजरथ हो रहा था। उसमे दीक्षा कल्याणक था। वह दृश्य सामने आ रहा है। काफी जनता थी।सबको वैराग्य हो रहा था। आर्यिका दीक्षा पहली बार हो रही थी। आज १९ वर्ष का कालखंड व्यतीत हुआ। देखो, हमें विचार करना चाहिए कि दीक्षा से हमने क्या जाना? क्या माना? दीक्षा के बाद शिक्षा यानि आत्मपोषण का काल आना चाहिए। आत्मा में क्या कमियाँ थीं, कितनी निकल गईं आदि-आदि।जैसे बच्चा जब स्कूल में १२वीं कक्षा पास कर लेता है फिर पिताजी उससे कहते हैं कि जाओ स्कूल में बैठ जाओ। बेटा कहता है स्कूल भेजना चाहते हो तो दुकान पर मत भेजो। इसी प्रकार हमें अब दूसरे कार्य याद न आएँ। जहाँ हम चल पड़े उसी ओर का कार्य हमें करना चाहिए। दूसरे कार्य बताने वाला भी कोई नहीं है। हमारी जागृति कितनी है? वह जगा दे। शब्द के साथ भावानुभूति होनी चाहिए, इसमें कमी नहीं आनी चाहिए। यही दीक्षा दिवस मनाने की सार्थकता है। इस तरह आचार्य भगवन् जो बातों ही बातों में अपने शिष्यों का ध्यान प्रत्येक क्रिया के उद्देश्य, लक्ष्य, कर्त्तव्य आदि की ओर केन्द्रित कराते रहते हैं। ऐसी कोई भी चर्चा शेष नहीं जाती जब वह किन्हीं न किन्हीं सूत्रों को प्रदान कर उन्हें मोक्षमार्ग पर अडिग-अटल रहने हेतु पोषित न करते हों। वर्षायोगकाअर्थ अहिंसा की पृष्ठभूमि पर विकसित साधना क्रम में वर्षायोग का विशेष महत्त्व है। वर्षायोग अर्थात् चौमासा। इसका प्रारंभ आषाढ़ सुदी चतुर्दशी से होता है। इस काल को सूक्ष्म जीव-जंतुओं की उत्पत्ति का काल माना जाता है। मार्ग हरित (स्वजीवी-परजीवी) वनस्पति से पूरित हो जाता है। अतः श्रमण संस्कृति का साधक दिगंबर श्रमण एक ही स्थान पर रहकर हिंसा से बचने का प्रयास करता है। साथ ही अपनी चर्या पापशून्य, कषायशून्य बनाने हेतु सतत साधना करता है। परिग्रह वृत्ति से परहेज रखने वाले निस्पृही साधक वर्षायोग की बहुप्रतीक्षा के बाद प्राप्ति होने पर सहज वैराग्य में डूब जाते हैं । वे आत्मा में जागृत रहते हुए लोक व्यवहार में सो जाते हैं। उनका समय स्वाध्याय, ध्यान, तप में ही व्यतीत होता है। वे अपने एक पल को भी व्यर्थ नहीं खोना चाहते हैं। सचमुच में अध्यात्म योगी का वर्षायोग आत्मानुभूति-शुद्धोपयोग का आनंद मिलने पर ही सार्थक होता है। पंचम काल के सच्चे श्रमण, साधक, साधु अपने आत्मा के स्वरूप में रमण कर भावलिंग को प्राप्त होते हैं। वर्षायोग संक्लेशों को समाप्त करने के लिए सबसे अच्छा अवसर है। जब चलता हूँ, तब चला पाता हूँ सन् २००९, ग्रीष्मकाल, सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर (दमोह) म.प्र. में आचार्यश्रीजी विराजमान थे। ११ जून को सायं 0४ बजे उन्होंने वहाँ से अचानक विहार कर दिया। आचार्यश्रीजी के साथ ज्येष्ठ मुनि श्री समयसागरजी एवं मुनि श्री महासागरजी गए।ज्येष्ठ मुनि श्री योगसागरजी आदि शेष मुनिराजों ने सोचा कि अभी धूप तेज है एवं जमीन भी गर्म होगी,अतः ३०-३५ मिनट बाद भी विहार करेंगे तो भी विश्राम स्थान पर पहुँच जाएँगे।कुछ देर से विहार करने पर शेष सभी मुनिजन आचार्यश्रीजी जहाँ ठहरे थे वहाँ तक नहीं पहुँच पाए। रात्रि होने को थी, अतः उन्हें रात्रि विश्राम आचार्यश्रीजी से चार किलोमीटर दूर हिनौती, म. प्र. के समीप में करना पड़ा। उन्होंने सोचा कि कोई बात नहीं चार किलोमीटर ही तो है। सुबह शीघ्र चलकर आचार्यश्रीजी तक पहुँच जाएँगे। पर आचार्यश्रीजी ने कुलआ-कुम्हारी गाँव में न रुक कर सीधे सगौनी गाँव के लिए विहार कर दिया। अब इन शेष महाराजों में मुनि श्री योगसागरजी के साथ १८ महाराज आचार्यश्रीजी के पास न पहुँच सके, इसलिए उन्हें अपनी आहार चर्या कुम्हारी में ही करनी पड़ी। इनमें कुछ महाराज थोड़ा-सा ज़्यादा चलकर गुरुजी के पास सगौनी गाँव तक पहुंच गए। और आचार्यश्रीजी को नमोऽस्तु कर उन्हीं के पास बैठ गए। आचार्यश्रीजी वात्सल्य भाव से मुस्कराए और बोले- 'आ गए आप लोग।' पास में मुनि श्री महासागरजी बैठे थे, जो गुरुजी के साथ ही आ गए थे, वे बोले- 'आचार्यश्रीजी! कुण्डलपुर से जब विहार किया तो बड़े बाबा तक आने में ऐसा लग रहा था कि दस किलोमीटर का विहार हो गया हो। आप कैसे चले होंगे?' यह सुनकर गुरुजी ने बड़े ही सहज भाव से उत्तर दिया, यह मोक्षमार्ग है।जब चलते हैं, तभी चला पाते हैं।" सचमुच गुरुजी जिन आदर्शों को अपने जीवन में उतार लेते हैं, उन्हीं की शिक्षा अपने शिष्यों को देते हैं। दोषों से बचते,और बचाते २५ दिसंबर, २००९, सतना, म.प्र. का प्रसंग है। एक दिन सायंकालीन आचार्य भक्ति के बाद कुछ मुनिराज आचार्यश्रीजी से वैयावृत्ति करवाने के लिए निवेदन करने लगे।आचार्यश्रीजी ने उन्हें मना करते हुए कहा- 'आप लोगों को यहाँ से जाने में अँधेरा होने के कारण पिच्छी से परिमार्जन करते हुए जाना पड़ेगा। अतः अभी समय है, जाओ अपने-अपने स्थान पर बैठो।वैयावृत्ति करोगे तो इसका दोष मुझे लगेगा।' उनमें से दो मुनिराजों ने कहा कि हम लोग तो यहीं सोते हैं। मुनि श्री अनंतसागरजी ने कहा कि हम भी बाजू के ही कमरे में सोते हैं। आचार्यश्रीजी बोले- 'जाना तो पड़ेगा, कुछ कम दोष लगेगा, पर दोष तो लगेगा।' मुनिश्रीजी ने कहा- 'अभी तो कुछ प्रकाश है, जब तक थोड़ी-सी वैयावृत्ति करने का मौका मिल जाएगा।' आचार्यश्रीजी बोले- 'यदि अँधेरा हो गया तो दोष किसे लगेगा?' मुनिश्रीजी ने कहा- 'मुझे लगेगा।' आचार्यश्रीजी बोले- 'पर निमित्त तो मैं बनूँगा, तो दोष मुझे ही जाएगा।' यह सुनकर सभी मुनिराज अपने अपने स्थान पर चले गए। अँगुली पकड़ चलना सिखाते सन् १९८३, ईसरी (गिरिडीह) बिहार (वर्तमान झारखण्ड) में आचार्यश्री ससंघ वर्षायोग -रत थे। २५ सितंबर, आश्विन कृष्ण तृतीया, विक्रम संवत् २०३४, रविवार के दिन आचार्यश्रीजी ने यहाँ पर एलक श्री परमसागरजी, एलक श्री समतासागर जी,एलक श्री स्वभावसागरजी, एलक श्री समाधिसागरजी एवं एलक श्री भावसागरजी इन पाँच एलक महाराजों को मुनि दीक्षा प्रदान की। एलक श्री परमसागरजी का नाम मुनि श्री सुधासागरजी एवं एलक श्री भावसागरजी का नाम मुनि श्री सरलसागरजी रखा, शेष एलक महाराजों के नाम परिवर्तित नहीं किए। और दीक्षा देकर कहा- 'केवल एक चटाई लेना। वही बिछाना और वही ओढ़ना।' इस समय तक शिष्यगण जमीन पर ही विश्राम किया करते थे। नव दीक्षित मुनिराजों को रात्रि में जल्दी सोने की आदत नहीं थी और आगम का अध्ययन करने की मन में तीव्र अभिलाषा थी। सारा दिन कक्षा एवं आवश्यकों के पालन में कब निकल जाता, पता नहीं चलता था। सो एक दिन उन्होंने आचार्यश्रीजी से कहा- 'हम लोगों को रात में पढ़ने की छूट दे दीजिए।' आचार्यश्रीजी ने उन्हें लाइट में पढ़ने से मना कर दिया। उन्होंने पुनः कहा- 'लाइट नहीं जलवाएँगे, लेम्प से पढ़ लेंगे, दिन में याद नहीं होता।' आचार्यश्रीजी बोले- "चिंता मत करो मैं परीक्षा नहीं लूंगा।' शिष्य तो शिष्य ठहरे, पाँचों ही शिष्यों ने सोचा कैसे भी गुरुवर को मना लेते हैं, सो पुनः निवेदन चरणों में रख दिया- 'आचार्यश्रीजी! अभी मुनि प्रतिक्रमण याद नहीं है, अतः रात में तीन-चार बजे कर लिया करेंगे, वहाँ गलियारे में कर्मचारी रोज लालटेन जला कर रखते हैं, उसी में पढ़ लेंगे।' आचार्यश्रीजी बोले- ‘सुबह रोशनी होने पर कर लिया करो।' उन्होंने कहा 'सुबह तो सामायिक, स्वयंभू स्तोत्र पाठ के बाद शौच क्रिया, फिर कक्षा लग जाती है। तदुपरांत आहार चर्या और १०-१५ मिनट का समय बस मिलता है तो उतने में नहीं हो पाता है। गुरु तो गुरु होते हैं, शिष्यों की येन-केन-प्रकारेण स्वीकृति प्राप्ति की कोशिश नाकामयाब रही। और निर्दोष चारित्र परिपालन के दृढ़ संस्कार प्रत्यारोपित करने में उन्हें सफलता हासिल हो गई। गुरुवर की चारित्र-निष्ठा देख उन शिष्यों में गुरुवर के प्रति अगाध समर्पण भाव जाग्रत हो गया। वह सोचने लगे कि हमारे गुरुवर तो बहुत ऊँची क्वालिटी के हैं, इसलिए हमें ऐसे गुरु को पाकर अपने आप को धन्य समझना चाहिए। आचार्यश्रीजी की दायित्व रूप परिणति ग्राह्य है। वह स्वयं आत्मकल्याण के साथ-साथ शिष्यों के कल्याण के प्रति भी प्रतिपल सजग रहते हैं। वह कहा करते हैं कि दो समानांतर रेखाओं में से एक रेखा में यदि एक अंश के अंतर के साथ बढ़ना प्रारंभ करें, तो जो अंतर अभी समान था, वह आगे बढ़कर किलोमीटर में हो जाएगा। इसी प्रकार से यदि छोटे-छोटे दोषों की ओर अभी ध्यान न दिया जाए, तो ये दोष आगे चलकर महादोष का रूप धारण कर लेंगे।अतः समय रहते छोटे-छोटे दोषों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। उन्हें गौण नहीं करना चाहिए। जगह चरणों में नहीं,आचरणों में है एक दिन सायंकालीन आचार्य भक्ति के बाद दो मुनिराज आचार्यश्रीजी की वैयावृत्ति कर रहे थे। तभी एक और मुनिराज आ गए।आचार्य महाराज ने पूछा- 'कौन?' और आगंतुक महाराज की ओर देखने लगे। वे महाराज आचार्य महाराज को नमोऽस्तु करके मुस्कुराने लगे। तो आचार्य महाराज ने उन महाराज का नाम लेकर कहा- 'अच्छा! इस समय यहाँ क्यों आए? अपनी जगह पर रहो।' मुनिश्रीजी ने कहा 'हमारी जगह तो आपके चरणों में है।' आचार्यश्रीजी बोले- 'चरणों में नहीं, बल्कि आचरणों में है। भीड़में नीड का अहसास करो सुबह का समय था। ठंड ज़्यादा होने के कारण भक्ति के तुरंत बाद ही सुबह का स्वाध्याय शुरू हो गया। स्वाध्याय में विषय रोचक होने के कारण कक्षा में कुछ ज़्यादा समय लग गया। आठ बजने वाले थे। मुनि श्री प्रसादसागरजी को जंगल जाना था। कक्षा समाप्ति की ओर थी। मुनिश्रीजी ने शीघ्रतापूर्वक जिनवाणी स्तुति करके कहा- 'मुझे जंगल जाना है।' यह सुनकर आचार्यश्रीजी बोले- 'आपको जंगल जाना है और हम जंगल में रहते हैं।' यह सुनकर सभी महाराज हँसने लगे। आचार्यश्रीजी सबके बीच में रहते हुए भी एकत्व भावना को भाते हुए हमेशा अपने आपको ऐसा रखते हैं, जैसे कि जल में कमल हमेशा निर्लिप्त रहता है। और सभी साधकों को शिक्षा देते हैं कि भीड़ में रहकर भी नीड़ का अहसास करो अर्थात् महसूस करो कि हम जंगल में हैं। जब-जब वचन खिरे,सीख मिले ५ नवंबर, २००९ में आचार्यश्रीजी का छत्तीसगढ़ में विहार चल रहा था। आचार्यश्रीजी के पैर में चोट होने से वह विहार धीरे-धीरे कर पा रहे थे। यह देख साथ में चल रहे एक भक्त यादवजी ने आचार्यश्रीजी से अपना कमण्डलु देने का बार-बार निवेदन किया, पर कमण्डलु नहीं मिला। आचार्यश्रीजी जब विश्राम हेतु सड़क के एक ओर बैठ गए, तब यादव जी विनम्र भाव से बोले- 'आचार्यश्रीजी! यदि आप कमण्डलु दे देते तो आप का विहार आराम से हो जाता।' आचार्य भगवन् बोले- 'सामायिक के समय, चर्या के समय आप कमण्डलु ले सकते हैं, पर विहार के समय नहीं।' आगे बोले- 'हमारे उपकरण हमारे पास, तुम्हारे उपकरण तुम्हारे पास। हमारे उपकरण आपके पास, तो आपको परेशानी और आपके उपकरण (परिग्रह, मोबाइल आदि) हमारे पास, तो हमें परेशानी। कषाय से बचने का उपाय किसी साधक ने आचार्यश्रीजी से जिज्ञासा व्यक्त करते हुए कहा- 'वैसे तो धर्मात्मा लोग कषाय से बचे रहते हैं, किन्तु आपसी कषाय से नहीं बच पाते। आपसी कषाय से बच सकें, ऐसा उपाय बताने की कृपा करें।' आचार्यश्रीजी ने समाधान करते हुए कहा- 'कषाय से बचना चाहते हो तो एक सूत्र है दूसरे के बारे में मत सोचो। सहपाठी से बचोगे तो कषायें उद्वेलित नहीं होंगी। उन्हें ध्यान का विषय मत बनाओ, अपने बारे में चिंतन करो। दूसरे के बारे में सोचना है तो उसकी अच्छाई के बारे में सोचो। भूलकर भी दूसरों के बारे में बुरा नहीं सोचना चाहिए। दूसरों की बुराइयों को याद करते रहने से वह बुराइयाँ अपने मन पर हावी होने लगती हैं। हमारी कषाय नोकर्म (शरीरादि) को देखकर उद्वेलित हो जाती हैं।' आचार्यश्रीजी ने उदाहरण देते हुए कहा- 'हमारे अंदर कषायों का बारूद भरा है। आग का सम्पर्क मिलते ही वह फूट पड़ता है। करंट स्विच के अनुसार कार्य करता रहता है। करंट वही है, स्विच पंखे वाला दबाओ, पंखा चलने लगेगा। हीटर, बल्ब जिसका चाहो उसका स्विच दबाकर उसे काम में ले सकते हो। वैसे ही परिणामों के अनुसार कषायों के उत्पन्न होने एवं फल देने के कार्य चलते रहते हैं। इसलिए दूसरे की गलती, बुराई, दोष आदि के बारे में न सोचें, क्योंकि यही निमित्त है जो हमारी कषायों को भड़का देते हैं। गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज को स्मरण करते हुए आचार्यश्रीजी बोले- 'आचार्य महाराज ने बताया कि हम कषाय की परिभाषा में उलझकर भी कषाय कर जाते हैं, लेकिन कषायों का उपशमन नहीं कर पाते। एक बार उन्होंने किसी पंडितजी से पूछा कि कषाय किसे कहते हैं? दो-तीन बार पूछा। फिर थोड़ा ज़ोर से बोले, अरे! परिभाषा भी नहीं आती आपको। महाराजजी भी मुस्कुराते हुए बोले- अपनी बात ज़बरन मनबाना, ज़ोर से बोलना, यह भी कषाय की सूक्ष्म परिणति है। शिष्य, मुझसे भी पहले भगवान बनें आचार्यश्रीजी द्वारा दीक्षाएँ प्रदान की जा रहीं थीं, जिसे देखकर, दीक्षा के बाद एक श्रावक ने आचार्यश्रीजी से पूछा- 'आचार्यश्रीजी आप दीक्षा देते - समय क्या सोचते हैं, ये शिष्य विद्वान बनें ?' आचार्यश्रीजी बोले- 'नहीं।' पुनः' वह श्रावक बोले- 'तो क्या यह सोचते हैं कि ये शिष्य महान् बनें?' आचार्यश्रीजी बोले- 'नहीं, मैं तो यह सोचता हूँ कि यह शिष्य मुझसे भी पहले भगवान बनें। पर-कल्याण की इतनी चाह, संसारी जीवों के प्रति करुणा के यह भाव शीघ्र ही उनकी गणना तीर्थंकर प्रकृति के बंधक जीवों में करवाने वाले होंगे।अहो! परम धन्य हैं। नोकर्मों से बचो एक बार विहार के दौरान रास्ते में तेज बारिश आ गयी। आचार्यश्रीजी उपस्थित शिष्य समूह के साथ एक आम्र वृक्ष के नीचे खड़े हो गए। पानी जब पश्चिम दिशा से आ रहा था, तो आचार्यश्रीजी पूर्व दिशा में खड़े हो गए, और जब पानी उत्तर दिशा से आने लगा तो आचार्यश्रीजी इसके दूसरी तरफ घूम गए। जैसे जैसे पानी घूम रहा था, वैसे-वैसे आचार्यश्रीजी भी घूमते जा रहे थे। एक मुनि शिष्य ने कहा- 'आपका अभिषेक करने बादल आए हैं।' आचार्यश्रीजी मनोविनोद करते हुए बोले- 'वह जितना घूमेगा हम भी घूमते जाएँगें।' फिर गंभीर होकर बोले- 'देखो महाराज! जिस प्रकार हम निमित्त (वृक्ष) की सहायता से अपने आपको बचा रहे हैं, उसी प्रकार निमित्तों से, नोकर्मों से बचने पर कर्मों का प्रभाव कम हो जाता है। बाँटते निर्ममत्व भाव सन् २००३, अमरकंटक (अनूपपुर) मध्यप्रदेश में संघस्थ मुनि श्री प्रवचनसागरजी को कुत्ते ने काट लिया था। उन्होंने सदोष उपचार ग्रहण नहीं किया। अपितु सल्लेखना व्रत ग्रहण कर कटनी, म. प्र. में समाधिपूर्वक देह विसर्जन किया। उनकी असमय में समाधि होने पर किसी ने आचार्यश्रीजी से पूछा 'आचार्यश्रीजी! असमय में एक अल्पवयी शिष्य मुनि के समाधि के विषय में सुनकर आपको कैसा लगा?' आचार्य भगवन् बोले- 'मुझे अच्छा लगा कि एक साधक की साधना सफलता पर पहुँची। वे आगे बोले 'मेरे पास सभी आकर के बैठ गए। मैंने कहा कोई रोना नहीं। सभी की सल्लेखना हो, किसी की जल्दी, किसी की देर से। इसलिए तो कहता हूँ, कर्म करते समय हमेशा अपने परिणामों को शुद्ध रखना चाहिए। इस तरह आचार्य भगवन् स्वयं निर्ममत्वी रहकर सभी साधकों को निर्ममत्वी भाव की प्रायोगिक शिक्षा देते रहते हैं। अद्भुत प्रेरक सिद्धक्षेत्र नैनागिरिजी (छतरपुर) मध्यप्रदेश में आचार्यश्रीजी का वर्षायोग चल रहा था। आचार्यश्रीजी को आहार दान देने की तीव्र भावना मन में लिए एक व्यक्ति आए और बोले- 'आचार्य महाराज! मैं आपको आहार देना चाहता हूँ। आहार दान की मेरी भावना तो तीव्र है, पर सुना है नियम काफ़ी कठिन होते हैं, और मैं त्याग कुछ भी नहीं कर सकता।' आहार दान देने की पात्रता समझकर आचार्यश्रीजी ने उनसे आहार ले लिया, और कुछ त्याग भी नहीं कराया। इसलिए वे श्रावक बहुत खुश हो गए। आहार पूर्ण हो जाने पर वे आचार्य भगवन् को छोड़ने के लिए मंदिरजी तक आए। आचार्यश्रीजी ने उनसे पूछा- 'वैसे, आप करते क्या हैं?' उन्होंने कहा- 'आचार्यश्रीजी! मैं वकील हूँ, वकालत करता हूँ।' आचार्यश्रीजी बोले- 'आप विशेष त्याग मत करिएगा, लेकिन विटामिन आर लेने का तो त्याग कर ही सकते हैं?' उन्होंने कहा- 'विटामिन आर?' आचार्यश्रीजी बोले- “विटामिन आर यानी रिश्वत लेना। इसका त्याग कर दो।' उन्होंने कहा- 'हाँ, यह तो मैं कर सकता हूँ।' और उन्होंने रिश्वत लेने का त्याग कर दिया। आचार्यश्रीजी बोले 'आपके इस छोटे से त्याग में मानो पाँच अणुव्रतों का ग्रहण हो गया।' उन्होंने पूछा- 'भगवन्! कैसे?' आचार्यश्रीजी ने कहा 'देखो! आप जिस किसी से रिश्वत लेते हो तो उसको दुःख अवश्य होता होगा। दुःख होने से हिंसा हो गई।' आपने रिश्वत लेने का त्याग किया तो आप इस हिंसा से बच गए, आपका 'अहिंसा अणुव्रत' हो गया। रिश्वत लेने के लिए आपको झूठ बोलना पड़ता है। रिश्वत लेने का त्याग होने से झूठ बोलने का त्याग हो गया। यह ‘सत्य अणुव्रत' हो गया। रिश्वत लेना शासकीय कानून के विरुद्ध है। शासकीय कानून के विरुद्ध कार्य करना चोरी है।आप इससे भी बच गए, अतः यह अचौर्य अणुव्रत' हो गया। रिश्वत लेंगे, पैसा अधिक होगा तो इंद्रिय विषयों में यद्वा-तद्वा प्रवृत्ति होगी। विटामिन आर नहीं मिलेगा तो इससे भी बच गए। इसका नाम ही 'ब्रह्मचर्य अणुव्रत' हो गया। रिश्वत नहीं लेंगे तब पैसा सीमित होगा, तो अपव्यय भी नहीं करेंगे। इस प्रकार परिग्रहपरिमाण अणुव्रत' हो गया। पैसा सीमित होगा तो यहाँ-वहाँ जाना भी कम होगा। इसलिए समय बच जाएगा।आप घर पर समय से आएँगे तो रात्रिभोजन करने से बच जाएँगे। आपका रात्रिभोजन त्याग' भी हो जाएगा। यह सुनकर उस व्यक्ति ने आचार्य भगवन् के चरण पकड़ लिए, और वह बोल उठा- 'भगवन्! आज हम धन्य हो गए। त्याग के नाम मात्र से डरने वाले मुझे आपने त्यागी बना दिया। अनुशासन, पाप नाशक २० जनवरी, २००६, कुंडलपुर (दमोह) मध्यप्रदेश में आचार्यश्रीजी शिष्यों को जीवन में अनुशासन की अनिवार्यता को समझाते हुए कहते हैं- 'कार्य अनुशासन से होना चाहिए। रेखा खींचनी पड़ेगी, लेकिन रेखा भी लक्ष्मण रेखा होनी चाहिए। तभी सीता की रक्षा होगी। हमें अनुशासन प्रिय है और हम अनुशासन ही चाहते हैं। लाड़-प्यार अलग वस्तु है और अनुशासन अलग वस्तु है। इसलिए अनुशासन के स्थान पर अनुशासन करना और लाड़-प्यार के स्थान पर लाड़ प्यार। बच्चों को हमेशा लाड़-प्यार देते हैं तो वो बिगड़ जाते हैं। अनुशासनहीनता होगी तो कभी भी पाप का अंत नहीं होगा। जिस जीवन में अनुशासन का अभाव है, वह सर्वथा निर्बल है। अनुशासनविहीन व्यक्ति सबसे गया बीता व्यक्ति है। जिस प्रकार फूल की सुरक्षा काँटों से होती है, वैसे ही व्रतों की रक्षा अनुशासन से होती है। अनुशासन कठोर नहीं, पालना कठिन १४ फरवरी, २००७, भाग्योदय तीर्थ, सागर, मध्यप्रदेश में आचार्यश्रीजी शिक्षा देते हुए कहते हैं 'हमेशा मुझसे लोग कहते हैं, अनुशासन कठोर है। अनुशासन कभी कठोर नहीं होता। उसकी गरिमा और फलश्रुति क्या है, यह तो वही जानता है, जो पालन करता है। आप लोगों को अनुशासन भले ही कठोर लगता है, क्योंकि कठिनाई से पाला जाता है। कहने में, सुनने में कोई कठिनाई नहीं होती, किन्तु पालन करने में कठिनाई है। अनुशासन पालन करने पर दिन में भी तारे दिखते हैं। मुझे ही अनुशासन में कठोर न मानों,सबको ऐसा बनना है। शीत सहन करो दिसंबर-जनवरी माह की कड़कड़ाती ठंड में आचार्य संघ का विहार नरसिंहपुर, मध्यप्रदेश की ओर चल रहा था। एक दिन रात्रि विश्राम की व्यवस्था एक स्कूल में कर दी गई।वह स्कूल क्या था मानो पूरा हवामहल ही था। उसकी छत खप्पर की थी। बड़े-बड़े कमरों में बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ एवं दरवाजे थे। वहाँ जाकर जब संघ विराजमान हुआ, तब श्रावकों की दृष्टि उस हवामहल की ओर गई। तत्काल ही आस पास के पक्के मकानों में संघ के ठहरने की व्यवस्था की गई। चूँकि रात होने से पूर्व व्यवस्था हो गई थी, सो अधिकांश मुनिजन वहाँ चले गए, पर आचार्य भगवन् वहाँ से हिले भी नहीं। और शिष्यों से कहा- 'ध्यान लगाओ, जिससे अग्नि/ताप पैदा होगा एवं उस ताप से आपकी ठण्ड की रात आसानी से गुज़र जाएगी।' भयंकर कड़ाकेदार ठंड वाली यह रात उन्होंने ध्यान करते-करते निकाल दी। आचार्यश्रीजी जो उपदेश साधुओं को या फिर श्रावकों को देते हैं, उसका स्वयं भी पालन करते हैं, चाहे वे अनुकूलता में हों या फिर कितनी ही कठिन विपरीतता में ही क्यों न हों। अनुशासन का पालन पापभीरु बन करो आचार्यश्रीजी कहते हैं- 'श्रावक को मर्यादा एवं अनुशासन का पालन किसी के भय से नहीं, बल्कि पाप के भय से करना चाहिए। जो पाप के भय से त्याग किया जाता है या अनुशासन में रहा जाता है, वही सच्चा त्याग एवं अनुशासन माना जाता है। गुरु से व कानून से मत डरो। डरना ही है तो पाप से डरो। अनुशासन में रहना ही पापभीरुता का प्रतीक है, और पाप से भयभीत होने से सम्यग्दर्शन का संवेग भाव नाम का गुण प्रकट होता है। हम सभी को किसी दूसरे के नियंत्रण में नहीं, बल्कि अपने नियंत्रण में रहना चाहिए।और यदि संघ में भी रहते हैं तो अपने नियंत्रण में रहना चाहिए। वैसे भी मोक्षमार्ग बाहर नहीं, अंदर है। एकता अनुशासन का अपना एक अलग प्रभाव पड़ता है। अनुशासित करने के लिए पहले स्वयं को अनुशासित होना जरूरी है। त्यागी-व्रती मर्यादा कायम रखें सन् १९९९, गोम्मटगिरि, इंदौर, मध्यप्रदेश में मूल दीपावली के दिन आचार्यश्रीजी ने कहा- ‘सादा जीवन उच्च विचार वाली बात आना चाहिए। ब्रह्मचारी लोग अपनी सादगी को भूलें नहीं। वैराग्य को भूलें नहीं। अपने पहनावे में परिवर्तन न लाएँ। जैसे गाँधीजी सादगी से घुटने तक पहनकर रहते थे उसी प्रकार पहना करें, सादगी इसी में है। मर्यादा कायम रखें। त्यागी मर्यादा भंग करता है, तो गृहस्थ उससे भी ज़्यादा करता है, क्योंकि उसकी तो कोई मर्यादा ही नहीं होती है। संयम की रेखा तो हमारी रहती है। त्यागी किसी भी प्रकार से अपना आत्मगौरव, मूल्य व मर्यादा नहीं खोएँ। समाज को कुछ देना चाहते हैं तो यही मार्ग सही है। गुरुवर ज्ञानसागरजी ने कहा था- 'देखो, ऐसे वस्त्र पहनना चाहिए जिनमें से भीतरी अंग नहीं दिखें।' हाँ, बिल्कुल इसी प्रकार के वस्त्र ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणियों को पहनना चाहिए। उनमें नील, टिनोपॉल वगैरह नहीं लगाना चाहिए। साड़ी ऐसी होना चाहिए जिससे अंगोपांग ढक सकें, लज्जा सुरक्षित रहे।गृहस्थों से थोड़ी भिन्न होना चाहिए। मर्यादा से दी मर्यादा की शिक्षा सन् १९७७, कुंडलपुर (दमोह) मध्यप्रदेश में आचार्यश्रीजी का ससंघ वर्षायोग चल रहा था। उस समय तत्कालीन ब्रह्मचारिणी पुष्पा दीदी, पटेरा (वर्तमान में आर्यिका प्रशांतमतिजी) ने ब्रह्मचर्य व्रत लेते ही साथ साड़ी पहनना तो शुरू कर दिया था, पर उन्हें सिर ढकने में संकोच होता था। वह अल्पवयस्क थीं। अतः वह आचार्यश्रीजी के दर्शन करने भी प्रतिदिन खुले सिर ही चली जाती थीं। आचार्यश्रीजी के लिए व्रतियों को खुले सिर रहना कतई पसंद नहीं था। वह उन्हें आशीर्वाद तो दे देते, पर मर्यादा के कारण कुछ कह नहीं पाते थे। एक दिन आचार्यश्रीजी ने सेठ कजौड़ीमलजी, अजमेर, राजस्थान वालों से कहा- 'उससे कह देना वह सिर भी ढका करे।' कजौड़ीमलजी बोले- 'आचार्यश्रीजी! ब्रह्मचारिणी बहन आपके दर्शन करने आती है, आप ही उनसे कह दीजिए कि सिर ढका करो।' आचार्यश्रीजी ने कहा- 'अगर मैं कहूँगा तो वह शरमा जाएगी, तुम्हीं कह देना।' कजौड़ीमलजी ने ब्रह्मचारिणी बहन से कहा- 'बेटी! कल तुम जब गुरुजी के दर्शन करने जाओगी, तो सिर ढक कर जाना।' वह बोली- “सिर ढकने में मुझे शरम आती है।' कजौड़ीमलजी बोले- 'क्यों, तुम गुरुजी का कहना नहीं मानोगी?' उन्होंने पूछा- 'क्या! ऐसा गुरुजी ने कहा है कि सिर ढकना है।' कजौड़ीमलजी बोले- 'हाँ।' उन्होंने फिर पूछा- 'कब-कब ढकना है- पूरे दिन या मात्र आचार्यश्रीजी के सामने?' कजौड़ीमलजी बोले 'अभी तो आचार्यश्रीजी के सामने ढकना, चल इतना तो कर सही।' दूसरे दिन ब्रह्मचारिणी बहन सिर ढककर आचार्यश्रीजी के दर्शनार्थ गई। आचार्य भगवन् ने मुस्कराते हुए आशीर्वाद दे दिया। बाद में, आचार्यश्रीजी कजौड़ीमलजी से बोले- 'आज वह सिर ढककर तो आई थी, लेकिन बाल नहीं दिखना चाहिए, इस प्रकार सिर ढकना चाहिए।' कजौड़ीमलजी ने ब्रह्मचारिणी दीदी से कहा- 'गुरुदेव ने ऐसा ऐसा कहा है, और आचार्य भगवन् के पास ही नहीं, बल्कि कहीं भी, कभी भी सिर खुला नहीं रखना है।' तब से फिर वे उसी प्रकार से सिर ढकने लगीं। इसके बाद से उनका सिर आज तक कभी भी खुला नहीं रहा। शिष्यों को मर्यादा का पाठ पढ़ाने वाले गुरुवर स्तुत्य हैं। हस्तांतरित हों मर्यादा-संस्कार आचार्यश्रीजी को अनुशासनहीनता, मर्यादाविहीनता कतई पसंद नहीं है। वे चाहते हैं कि हमने जो सिखाया, वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता चला जाए। इसके लिए वह ज्येष्ठ साधु, आर्यिका या ब्रह्मचारिणी बहनों से प्रायःकर कहा करते हैं कि मैं कब तक एक-एक को सिखाता रहूँगा, अब आप लोग भी इन्हें सिखाओ, इनमें संस्कार डालो।' सन् २००७, भाग्योदय तीर्थ, सागर, मध्यप्रदेश, शीतकाल में आचार्य भगवन् के सान्निध्य में १९ से २५ फरवरी तक पंचकल्याणक एवं गजरथ महोत्सव संपन्न हुआ। ज्येष्ठ आर्यिका श्री गुरुमतिजी के साथ-साथ आचार्यश्रीजी से ही दीक्षित अन्य आर्यिका संघ की कुल ८४ आर्यिकाओं को भी इस महामहोत्सव एवं गुरुचरण सान्निध्य का लाभ मिला। एक दिन आर्यिकाएँ आचार्यश्रीजी से चर्चा कर रही थीं। तभी एक ब्रह्मचारिणी बहन आचार्यश्रीजी के दर्शन करने आई, उनका सिर आधा-सा ढका था। वह दर्शन हेतु झुकी कि पूरा सिर खुल गया। आचार्यश्रीजी आर्यिकाओं की तरफ देखकर बोले- 'क्यों, तुम लोगों ने यह नहीं सिखाया कि सिर कितना ढकना चाहिए, चार आना (२५ प्रतिशत) या बारा आना (७५ प्रतिशत)?' फिर आर्यिकाओं की ओर इशारा करते हुए बोले- 'मैंने इतना सिखाया, तब कहीं ये लोग मर्यादित रहना सीख पाए।' वह बहन बोली – 'जी गुरुवर! क्षमा करें, आगे से सावधानी रखूगी। शरीर को वेतन दो, कामचेतन कालो आचार्यश्रीजी कहते हैं- 'धर्मध्यान के लिए, वैयावृत्ति, स्वाध्याय, तप, ध्यान, संयम के लिए स्वस्थ शरीर होना चाहिए। आप लोग अच्छी तरह से अपनी गाड़ी को सुरक्षित रखो। ड्राइविंग अच्छे ढंग से करो। आप लोगों को गाड़ी अच्छी दी गई है। उसमें तैल वगैरह अच्छा डालो, छानकर डालो। आप इस शरीर को वेतन देते जाओ और चेतना का काम लेते जाओ। इस शरीर का उपयोग दया धर्म के पालन में करो, तभी इस शरीर की सार्थकता होगी। शरीर स्वभाव से ही अपवित्र है, लेकिन रत्नत्रय रूपी धर्म से पवित्र हो जाता है। जो इस शरीर की अपवित्रता को समझ लेता है, फिर वह कभी भी इस शरीर को साफ़-सुथरा बनाने का प्रयास नहीं करता है। देते आहार संबंधी चिंतन १० फरवरी, २००६, कुंडलपुर (दमोह) म. प्र. में आचार्यश्रीजी अपने शिष्यों को आहार संबंधी चिंतन देते हुए कहते हैं- 'आहार देना और आहार करना दोनों दुर्लभ हैं। भोजन (आहार) करना, एक बार भोजन करना, एषणा-समिति के साथ भोजन करना, यह एक मूलगुण है। भोजन करते रहते हैं तो भी निर्जरा होती रहती है। यदि अविरति भोजन करता है तो कर्म बंध करता रहता है। इसलिए हे साधो! अच्छे ढंग से आहार करो। उपवास करने वाला ही निर्जरा करता है, ऐसा नियम नहीं। क्योंकि एषणा-समिति के साथ जो भोजन किया जाता है, वह भोजन नहीं अपितु गाड़ी में पेट्रोल डालना है। इसलिए एक-आधा-डेढ़ घंटे तक किया जाने वाला वह भोजन भी कर्म निर्जरा का कारण है। जो रोज़-रोज़ आहार करते हैं, उन्हें दीनता भी नहीं आना चाहिए। क्योंकि कुछ गाड़ियाँ ऐसी होती हैं, जिन्हें रोज़ पेट्रोल चाहिए। और कुछ गाड़ियाँ ऐसी होती हैं, जो कम पेट्रोल खाती हैं और काम ज़्यादा करती हैं। मैं आहार ले रहा हूँ या आहार छोड़ रहा हूँ ऐसा भाव न आना ही सबसे बड़ा अध्यात्म है। तीर्थंकर भी आहार के लिए उठे थे।' ऐसे करें आहार साधक की साधना व्यवस्थित सधती रहे, इसके लिए उसे अपने पेट में आहार संबंधी ओंगन कब, कितना, कैसे डालना चाहिए? इसको बताते हुए १३ जनवरी, २००३, चौक मंदिर, भोपाल, मध्यप्रदेश में आचार्यश्रीजी ने कहा- 'जैसे दोहा या छंद में मात्राएँ ठीक रहती हैं, तो लय ठीक बनती है। लय ठीक होने से वन्स मोर होता है, अन्यथा सब बोर हो जाते हैं। ऐसे ही भोजन में पानी मात्रानुसार सेवन करने से प्रतिकूल भोजन भी नुकसान नहीं करता। इससे साधना का मार्ग ठीक बनता है। प्रारंभ में आठ अंजुली पानी गिन करके पी ही लेना चाहिए, आहार के बीच में और अंत में तो लेते ही हैं। लेकिन प्रारंभ के पानी का असर (प्रभाव) अलग होता है। किडनी, पेट आदि संबंधी रोगों में यह प्रक्रिया फ़ायदेमंद है। उदाहरण में प्रारंभ का पानी पुराने मल को निकालने में समर्थ होता है। पानी की मात्रा कम होने पर ही सारे रोग होते हैं। अजीर्ण आदि होने पर मुँह से बास आती है, खट्टी डकारें आने लगती हैं। जैसे खिचड़ी में पानी की मात्रा कम होने पर वह जल जाती है, उसमें बास आने लगती है, वैसी ही पेट की स्थिति है। जैसे- चावल (भात) जब बनता है तो पहले पानी डालते हैं, फिर उसमें चावल धोकर डालते हैं। फिर चार अंगुल नाप कर, दुगुना पानी डालते हैं, तब सही भात (चावल) बनता है। वैसे ही भोजन में पानी की मात्रा पर्याप्त होना चाहिए। आधा भोजन व दुगुना पानी होना चाहिए। तिगुना श्रम एवं चौगुनी हँसी। हाँऽऽ तभी वर्ष सवासौ (१२५ वर्ष) जी सकता है। शुरू में पानी आदिनाथ से चन्द्रप्रभ बोलकर गिनकर आठ अंजुली, फिर बीच में पुष्पदंत से शांतिनाथ तक गिनकर आठ अंजुली और अन्त में कुंथुनाथ से महावीर तक गिनकर आठ अंजुली। इस प्रकार इतना पानी तो आहार के साथ होना ही चाहिए। शुरू में पानी इतना (आठ अंजुली) लेने पर धीरे-धीरे उल्टी आदि सभी शमन को प्राप्त हो सकती हैं। जैसे- क्रेन को बैलेंस से उठाते हैं, वैसे ही अंजुली को धीरे-धीरे उठाना चाहिए। ऐसे करेंअनुग्रह सन् १९८०, सिद्धक्षेत्र नैनागिरिजी (छतरपुर) मध्यप्रदेश में एक दिन आहार के पूर्व एक श्रावक आचार्यश्रीजी की शरण में आया, और अपनी गरीबी की व्यथा सुनाकर खूब रोया। आचार्यश्रीजी करुणा से भरकर बोले- 'अच्छा! इतने परेशान हो , ऐसा करो थोड़ा-थोड़ा दान देना शुरू कर दो।' वह भी पूर्ण समर्पित भाव से ‘जी महाराज' कहकर चला गया। गुरु वचनों पर उसकी इतनी श्रद्धा कि उसने इतना भी मुख से नहीं निकाला कि गुरुवर! जब पेट में खाने को नहीं तो दान कहाँ से करूँगा? वहीं पास में कुछ नवदीक्षित साधुगण बैठे थे, उन्हें यह देखकर बड़ा दुःख हुआ कि आचार्यश्रीजी यदि चाहते तो किसी सेठ से कुछ रुपये दिलवा सकते थे, पर उन्होंने तो और दान का ही बोल दिया। दोपहर को जब कक्षा शुरू हुई, तो महाराजों ने प्रश्नों की झड़ी-सी लगा दी, जैसे दया किस पर करनी चाहिए आदि-आदि। आचार्यश्रीजी बोले- 'आज आप लोगों को क्या हो गया?' एक महाराजजी ने कहा- आचार्यश्रीजी! आहार के पहले एक गरीब व्यक्ति आया था। आचार्यश्रीजी को बात समझ में आ गई, वह बोले- 'अच्छा-अच्छा, आप सब तो गरीबों के मसीहा हो, और हम क्या दुश्मन हैं?' वे आगे बोले- 'तो क्या दूसरे की जेब से पैसा निकलवाकर दे देता? पिच्छी या मंत्र से गरीबी हटती होती तो सभी गरीबों को कर दो अमीर। नहीं, पर ऐसा होता नहीं। ध्यान रखना, अमीर होने का बीज बोये बिना अमीरी आ नहीं सकती। अतः पुण्य बढ़ाओ।' छह माह बाद वह व्यक्ति अपने परिवार के साथ आया और बोला- 'महाराज! मेरा सब कुछ बहुत अच्छे से चल रहा है। आपने बहुत बड़ा उपकार किया। प्रतिदिन जो आता है, मैं उसमें से अवश्य कुछ दान करता हूँ। दो रोटी भी होती तो मैं एक टुकड़ा पक्षियों को डाल देता हूँ।आचार्यश्रीजी आपका नियम ठीक से चल रहा है। मूलगुणपालन में रहें स्वाश्रित आचार्यश्रीजी का कहना रहता है कि साधकों को केशलुंचन, प्रतिक्रमण आदि मूलगुणों के परिपालन में स्वाश्रित होना चाहिए। इसके लिए वह अपने शिष्यों को तदनुकूल प्रेरित एवं प्रोत्साहित भी करते रहते हैं। एक बार नवदीक्षित दो मुनिराजों ने मध्य रात्रि से केशलुंचन करना प्रारंभ किया, लगभग छह घंटे हो गए करते-करते, पर लुंचन १० प्रतिशत ही हो पाए। प्रातः आचार्य भगवन् उनके कमरे में आए। संघस्थ ज्येष्ठ साधु ने बताया कि छह घंटे में मात्र इतने ही हो पाए हैं। आपका आशीर्वाद हो तो हम कर दें। गुरुजी ने केशलुंचन कर रहे मुनिराजों से पूछा कि ठीक लग रहा है, आप कर लेंगे? उन्होंने स्वीकृति में विनत भाव हो, हाथ जोड़ लिए। हमारा आशीर्वाद है, लगे रहो सैनिको!' ऐसा कहकर आचार्यश्रीजी अपने स्थान पर चले गए। जिस तरह सैनिक शत्रु सेना को मात करने के लिए बॉर्डर पर सजग होकर तैनात रहते हैं, इसी तरह साधक को भी कर्म शत्रु की सेना को परास्त करने के लिए प्रतिसमय सतर्क रहना चाहिए। इस दृष्टि से आचार्यश्रीजी मोक्षमार्ग के साधकों को कभी-कभी सैनिक भी कह देते हैं। ऐसा कहकर गए हुए उन्हें आधा-पौन घंटा ही हुआ था कि दोनों मुनिराज केशलुंचन करके गुरु चरणों में आशीर्वाद लेने पहुँच गए। जहाँ गुरु आशीष है, वहाँ कोई भी कार्य असंभव नहीं है। उस समय यदि करुणा करके आचार्यश्रीजी अन्य मुनिराज द्वारा केशलुंचन करवा देते, तो ये नवदीक्षित मुनिराज स्वाश्रित न बन पाते। इसी तरह सन् १९८९, सिद्धक्षेत्र कुंडलपुर (दमोह) म.प्र. में आर्यिका श्री अनंतमतिजी ने दीक्षा के बाद प्रथमबार केशलोंच किया। वह अपने हाथ से पूरा नहीं कर पाईं, अतः उन्हें सहयोग लेना पड़ा। जब उन्होंने प्रातः जाकर गुरुचरणों में नमोऽस्तु पूर्वक निवेदन किया- 'आचार्यश्रीजी! आप की छत्रच्छाया में बहुत अच्छा लग रहा है, आज दूसरा उपवास करने की भावना है।' आचार्यश्रीजी मुस्कुराकर बोले- 'पहले गाड़ी पटरी पर लाओ, फिर स्पीड बढ़ाओ। यानी पहले केशलोंच रूपी मूलगुण स्वाश्रित करो, फिर उत्तरगुण (बेला - दो उपवास आदि) का पालन करो' जब-जबझरे,अमृत झरे ग्रीष्मकाल में सिद्धक्षेत्र कुंडलपुर (दमोह) म.प्र. में आचार्यश्री ससंघ विराजमान थे। कुंडलपुर के चारों ओर कुंडलाकार पहाड़ी होने से यहाँ गर्मी अपेक्षाकृत ज़्यादा पड़ती है। साधुजन शौच क्रिया हेतु पहाड़ पर ही जाते थे। एक दिन शौच क्रिया के उपरांत आचार्यश्रीजी सहित कुछ महाराज पेड़ के नीचे बैठे हुए थे। चर्चा चलने लगी थी। चर्चा के दौरान, आचार्य महाराज ने शिक्षा देते हुए कहा- 'पहले मुनिराज ऐसे ही जंगलों में, पहाड़ों पर, गिरि-गुफाओं में रहा करते थे। आज हीन संहनन की वजह से नगरों में रहने लगे। आज हम उतनी साधना नहीं कर सकते, कोई बात नहीं, लेकिन मौन की साधना, नासादृष्टि रखे रहने की साधना अवश्य कर सकते हैं। नेत्र इन्द्रिय के व्यापार से, इधर-उधर देखने से, पर पदार्थ की ओर दृष्टि ले जाने से राग-द्वेष अधिक होता है। बोलने के माध्यम से पर से परिचय होता, मन में चंचलता आती है यदि हमने नेत्र इन्द्रिय एवं जिह्वा इन्द्रिय को संयत बना लिया तो समझना आज भी बहुत बड़ी साधना कर ली। वचनबल का सिखाते प्रयोग आचार्यश्रीजी अल्पभाषी एवं निवृत्तिपरक साधु हैं। वे कहते हैं- “जिस प्रकार अर्थ (धन) की प्राप्ति होने के उपरांत खर्च कितना-कैसा-क्या करना है, यह सोचा जाता है। उसी प्रकार लाभ-हानि समझकर बनती कोशिश प्रवृत्ति नहीं करना चाहिए। बातों-बातों में पैसा खर्च नहीं किया जाता, तो बातों बातों में वचन बल भी खर्च नहीं करना चाहिए। बोलते हैं तो शारीरिक श्रम लगता है, खून ज़्यादा खर्च होता है। खून तो कम बन रहा है और बोलते ज़्यादा हो, तो क्या होगा? खर्चा ज़्यादा होगा कि नहीं? फिर रात में भी बड़बड़ाने लग जाओगे। "आमद कम खर्चा ज़्यादा लक्षण है मिट जाने का। कूबत कम गुस्सा ज़्यादा लक्षण है पिट जाने का ॥ तो पिटते भी हैं और मिटते भी हैं, लेकिन टिकते तो हैं नहीं। इसलिए कम बोला करो। कम बोलने से गंभीरता बनी रहती है, सोचने की क्षमता बढ़ जाती है। यह इन पंक्तियों का तात्पर्य है। ज़्यादा नहीं बोलना सभ्यता का प्रतीक माना जाता है। अधिक बोलना अनेक व्रतों में दोष का कारण है। जैसे- संक्लेशता का भी वह कारण हो सकता है, आचार्य कुंदकुंद महाराज की आज्ञा का उल्लंघन हो सकता है, विकथाओं से नहीं बच सकता है, अमूल्य समय का अपव्यय होता है, शारीरिक शक्ति का ह्रास होता है, भगवान की आज्ञा भंग होती है, विवाद भी बन सकता है,प्रेम- वात्सल्य भी भंग हो सकता है, उसका व्रत तो खण्डित हो ही जाता है तथा वह कभी भी अनुभय वचन का पालन नहीं कर सकता। एक पाव दूध पीने से जितनी शक्ति आती है, उतनी शक्ति एक अक्षर के उच्चारण करने में नष्ट हो जाती है। आचार्यश्रीजी अल्पभाषी तो हैं ही। उनके अल्पभाषित्व को प्रकट करने वाला एक रोचक प्रसंग श्री सुरेश जैन सरल, जबलपुर ने 'विश्व वंद्य' नामक पुस्तक में पृष्ठ ४३ पर लिखते हैं- 'उस समय का प्रसंग है, जब आचार्यश्रीजी की उम्र ३८ वर्ष रही होगी।वे सन् १९८४ में पिसनहारी की मढ़िया, जबलपुर,मध्यप्रदेश में विराजमान थे। आचार्यश्रीजी से जब कोई वरिष्ठ विद्वान् पंडित वार्ता करने आते तब मैं अनुभव करता था कि पंडित जी तो कड़क भाषा में शिक्षक की तरह बोल रहे हैं, परंतु आचार्यश्रीजी छात्र की तरह झिझकते हुए सीमित शब्दों में उत्तर दे रहे हैं। कोई आधा घंटा वार्तालाप करता, तो कोई पौन घंटा, मगर आचार्यश्रीजी उन्हें समय देने में कतराते नहीं थे। मैं उस समय युवकही था। मेरा वार्ता श्रवण और निरीक्षण का ज्ञान परिपक्व नहीं था, यह बात मैं लगभग बीस वर्ष बाद जान पाया। जब तक नहीं जान पाया था, तब तक यही समझता रहा कि आचार्यश्रीजी झिझकते हैं। एक बार मैंने वार्ता करने वाले विद्वान् को बीच में ही टोक दिया था कि आप विनयपूर्वक वार्ता क्यों नहीं करते। मेरा वाक्य सुनकर वह विद्वान् क्षण भर को चुप रह गए, किंतु आचार्यश्रीजी मुझे देखकर मुस्कुरा उठे और हाथ से संकेत किया जैसे कह रहे हों- वार्ता में यह चलता है। यह बात मुझे अब समझ में आई कि वे न तब, न अब कभी नहीं झिझके।एक महान् पुरुष की तरह वाणी का शिष्टाचार बनाए रहते थे, जो जन-जन के लिए श्लाघनीय हैं। कदम-कदम पर शिक्षा २१ मई, २००१, अतिशयक्षेत्र बहोरीबंद (कटनी) मध्यप्रदेश में आचार्यश्रीजी का ससंघ शौच क्रिया हेतु एक खेत पर जाना हुआ।वहाँ पर एक किसान तालाब की मिट्टी खोद-खोद कर अपने खेत में डाल रहा था। उसे देखकर संघ सहित आचार्यश्रीजी वहाँ खड़े हो गए। आचार्यश्रीजी की दृष्टि इस संसार में कोई भी क्रिया देखे, पर वह उसे आत्महित (अध्यात्म) में ही घटा लेती है। यह क्रिया देखकर आचार्यश्रीजी बोले- 'देखो! किसान जमीन खरीद कर उसे उपजाऊ बनाए , रखने के लिए अलग से खाद और उपजाऊ मिट्टी डालता है। उसी प्रकार मुनि बनने के बाद तुम लोगों को भी नियम और उपनियम लेते रहना चाहिए, जिससे विशुद्धि बढ़ती रहे और। आत्मा की अच्छी लहलहाती हुई फसल आ सके। यह मत समझना चाहिए कि मुनि बन गए और बस हो गया काम।खेत । के समान मुनि पद है और उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए खाद के समान नियम हैं। इसी तरह एक दिन कुछ महाराज छत पर खड़े। सूर्यास्त देख रहे थे, तभी आचार्यश्रीजी आ गए और पूछने । लगे- 'क्या देख रहे हो?' वे बोले- 'आचार्यश्रीजी! देखिए, सूर्य आधा अस्त हो गया और आधा होने वाला है। आचार्यश्रीजी बोले- ‘ऐसे ही हमारा जीवन कब अस्त हो जाए पता नहीं। इसलिए दृष्टि में वैराग्य व तत्त्वदृष्टि होना चाहिए। समय-समय पर शिष्यों को प्रोत्साहित करते आगम में आचार्य को अल्पकौतूहली' गुण से भी नवाज़ा गया है। और आचार्य भगवन् तो आगम की छाया ही हैं, अतः यह गुण उनमें खाली कैसे रह सकता हैं । २१ फरवरी से २७ फरवरी, २००१ में सिद्धक्षेत्र कुंडलपुर (दमोह) मध्यप्रदेश में बड़े बाबा का महामस्तकाभिषेक एवं समवसरण मंदिर का पंचकल्याणक एवं त्रय गजरथ महोत्सव आचार्यश्रीजी के विशाल चतुर्विध संघ के सान्निध्य में सानंद संपन्न होने के बाद समिति के कुछ लोगों ने अपनी प्रसन्नता एवं गुरुदेव के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहा 'महाराज! कुंडलपुर में पानी की बहुत समस्या थी, किंतु आपके आशीर्वाद व इतने सारे सागरों के होने से पानी की कमी नहीं आई और कार्यक्रम सानंद संपन्न हुआ।' तब आचार्यश्रीजी संघस्थ मुनि श्री प्रशांतसागरजी की ओर देखकर हँसते हुए बोले- 'सागर ही नहीं, बल्कि प्रशांत महासागर कहो। इसी प्रकार मुनि श्री प्रवचनसागरजी महाराज ने कहा- 'आचार्यश्रीजी आपके आगे के दाँत टूट गए तो आहार लेने में परेशानी होती होगी?' आचार्यश्रीजी मनोविनोद करते हुए बोले- 'हमारा शोरूम भले ही खराब है, पर गोदाम अच्छा है। क्योंकि उनके आगे के दाँत निकल गए थे, लेकिन दाँदें अच्छी थीं। सन् १९९७, सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट (खण्डवा) मध्यप्रदेश में आर्यिका श्री दृढ़मतिजी के लिए ४ वर्ष के अंतराल के बाद आचार्यश्रीजी के दर्शन हुए।अतः वे बहुत रोईं। उन्हें देखकर आचार्यश्रीजी बोले- 'वृक्ष जब बड़ा हो जाता है, तब माली को उसकी हर समय देखरेख की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसको हरा भरा देखकर माली दूर से ही खुश हो जाता है। उसी प्रकार अब आप लोग बड़े हो गए हो। अपने सभी शिष्यों को समय-समय पर आचार्यश्रीजी प्रोत्साहन देते रहते हैं। यही तो इनकी महानता है। शिष्यों को प्रोत्साहित करने की उनकी कला ही निराली है। तनसे चलो,मन को कसो ९ जनवरी, १९९७, गुरुवार के दिन गुजरात यात्रा से लौटते समय आचार्यश्रीजी का नडियाद (खेड़ा) गुजरात नगर में प्रातःकाल प्रवेश हुआ। जनवरी माह की ठंड उसमें भी बारिश होने लगी। आहारचर्या के बाद क्षुल्लक श्री प्रज्ञासागरजी (सम्प्रति मुनि श्री अजितसागरजी) सहित कुछ शिष्यगण आचार्यश्रीजी के कक्ष में ही बैठे थे। क्षुल्लकजी का शरीर एकदम काँप रहा था, जिसे देख आचार्यश्रीजी बोले- ‘क्यों प्रज्ञा! क्या हो रहा है?' वह बोले- 'आचार्यश्रीजी, बहुत ठण्डी लग रही है, वैसे ही ठंडी अधिक है और उस पर बारिश भी हो रही है। आचार्यश्रीजी बोले- 'अच्छा, ठंडी अधिक लग रही है। तो, अब क्या करना चाहिए?' क्षुल्लकजी थोड़ा हँसते हुए बोले- 'आज ठंडी में विहार नहीं होना चाहिए।' आचार्यश्रीजी बोले- 'कौन कहता है तुमसे विहार करने को? अरे! विहार तो तन से होता है, मन से स्थिर रहना चाहिए। क्षुल्लकजी बोले- 'बहुत कठिन काम है।' आचार्यश्रीजी बोले- 'श्रमण जो होता है, वह तन से विहार करता है, मन से सदा स्थिर रहता है। जो गृहस्थ लोग होते हैं, वे तन से स्थिर रहते हैं, मन से सदा विहार करते रहते हैं। तुम गृहस्थ नहीं हो, साधक हो। ठंडी से डरने से साधना नहीं होती, कदमों को आगे बढ़ाने से साधना होती है। पुण्य में प्रमाद नहीं एक आर्यिकाश्रीजी को असाध्य रोग हो गया। पत्र के माध्यम से उन्होंने प्रत्यक्ष गुरु दर्शन की भावना रखी। पुण्योदय से आचार्यश्रीजी की कृपा दृष्टि हो गई और उन्हें आने का आशीर्वाद मिल गया। उन्होंने दलपतपुर से विहार कर रहली में विराजमान आचार्य भगवन् के प्रत्यक्ष दर्शन का सौभाग्य पाया। गुरुदर्श पा वह अत्यंत खुश हुईं। आचार्यश्रीजी शब्दशः आशीर्वाद देते हुए बोले- 'अब दर्शन हो गया न, सब ठीक हो जाएगा।' दूसरे दिन आर्यिकाश्रीजी किन्हीं कारणवश समय पर दर्शनार्थ नहीं पहुँच सकीं। तो समयपर्यायी आचार्यश्रीजी बोले- 'पुण्य में प्रमाद नहीं करना चाहिए।' आर्यिकाश्रीजी ने क्षमा निवेदित की। वह बोलीं- 'आपके अपूर्व दर्शन को पाकर मुझे अपने स्वास्थ्य की बिल्कुल चिंता नहीं है?' आचार्यश्रीजी बोले- 'हाँ, अपनी चिंता करनी भी नहीं चाहिए। जो अपनी चिंता करते हैं, गुरु उसकी चिंता नहीं करते। देखो, मैं भी अपनी चिंता नहीं करता, मेरी चिंता तो आचार्य ज्ञानसागर महाराज करते हैं।' जब शिष्य, गुरु चरणों में अपने को समर्पित कर देता है, तो उसके सुख-दुःख की जिम्मेदारी गुरु अपने ऊपर ले लेते हैं। उपसंहार इस तरह आचार्यश्रीजी अपने शिष्यों को मोक्षपथ पर अग्रसर बने रहने हेतु हर पल पोषित करते रहते हैं, उनकी मुद्रा, वाणी, चर्या से ही शिक्षा सूत्र नहीं निकलते, अपितु उनकी दृष्टि मात्र ही चरित्र निर्माण का संदेश देती है। इससे केवल शिष्यगण ही नहीं, उनके संपर्क में आने वाला प्रत्येक भव्यजीव लाभान्वित होता रहता है । सन् १९८१ में प्रकाशित ‘सागर में विद्यासागर' नामक स्मारिका में 'युग-प्रवर्तक संत' इस शीर्षक में पृष्ठ १२३-१२४ पर श्री मूलचंदजी लुहाड़िया, मदनगंज-किशनगढ़ (अजमेर) राजस्थान लिखते हैं- 'आज विद्यासागर के रूप में सचमुच विद्या का सागर पाकर आश्चर्य मिश्रित प्रमोद होता है। उनके प्रवचनों में अनुभवसिक्त तत्त्वदेशना हृदय को छूती है। किशनगढ़, राजस्थान पंचकल्याणक महोत्सव के अवसर पर एक बार पंडित श्री कैलाशचंद्रजी सिद्धांतशास्त्री ने कहा था कि आचार्यश्रीजी की वाणी सुनकर हम जैसे विद्वान् भी आश्चर्यचकित हो जाते हैं। भगवान कुंदकुंद के अध्यात्म ग्रंथों के स्वाध्याय का इन दिनों इतना अधिक प्रचार है कि इस युग को अध्यात्म युग कहा जाने लगा है। किन्तु आगम ग्रंथों के पर्याप्त स्वाध्याय एवं नय व्यवस्था के समुचित बोध से शून्य अनेक व्यक्ति भ्रांत धारणाओं से ग्रसित रहते हैं। ऐसे कठिन समय में युग प्रवर्तक पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज का समीचीन दिशाबोध मध्यस्थ जिज्ञासुओं के लिए ज्योति-स्तम्भ का काम कर रहा है। अध्यात्म की बातें तो बहुत की जाती हैं, किंतु विषय-कषायों की निवृत्ति से होने वाली आत्मस्थता रूप अध्यात्म क्या बातों से या भाषाओं से जीवन में उतर सकता है? अध्यात्म की साक्षात् मूर्ति सातिशय प्रभावक आचार्यश्रीजी अपनी वृत्ति से एवं वाणी से अध्यात्म प्राप्ति का समीचीन मार्ग दिग्दर्शित कर रहे हैं। आचार्यश्रीजी के प्रवचनों में सराग-वीतराग सम्यग्दर्शन, व्यवहार-निश्चय रत्नत्रय, शुभोपयोग-शुद्धोपयोग के परस्पर कार्य-कारणता एवं पूर्वोत्तर अवस्थिति का अध्यात्म ग्रंथों के आधार पर युक्तियुक्त विवेचन सुनकर जिज्ञासुओं के ज्ञानचक्षु खुल जाते हैं। कुंदकुंद साहित्य के टीकाकार आचार्य श्री अमृतचंद्रजी एवं श्री जयसेन स्वामी के साहित्य के सूक्ष्म अध्ययन के फलस्वरूप आचार्यश्रीजी ने अनेक तत्त्व उद्घाटित किए हैं, जिनसे प्राप्त दिशा दृष्टियों के लिए निराग्रही मध्यस्थ वृत्ति स्वाध्यायशील जिज्ञासु आचार्यश्रीजी का सदैव अनंत उपकार मानते रहेंगे। और भी विशिष्टता की बात है कि आचार्यश्रीजी के दिव्य आध्यात्मिक व्यक्तित्व ने अनेक बाल ब्रह्मचारी युवा वर्ग को आकर्षित कर वैराग्य के पथ पर ला खड़ा कर दिया हैं। आचार्यश्रीजी का निर्दोष उज्ज्वल चरित्र, निरीह वृत्ति, सौम्य मुद्रा, हृदय को झनझना देने वाली अमृत वाणी दर्शक के हृदय में प्रथम दर्शन में ही अमिट छाप अंकित कर देती है। सभी प्रकार की विकथाओं से दूर निरत, ध्यानाध्ययन में रत इस संत में श्री समंतभदाचार्य एवं श्री अकलंक देव की छवि के दर्शन होते हैं। हम लोग धन्य भाग्य हैं कि ऐसे तपस्वी वीतराग गुरु के दर्शनों का एवं वाणी सुनने का हमें सौभाग्य प्राप्त हो रहा है।' 'पुरुषार्थ करो और अंतरंग सुधारो' जैसे सूत्र वाक्यों का शंखनाद करने वाले आचार्यश्रीजी धन्य हैं। गुरु के समागम से देव-शास्त्र-गुरु तीनों मिल जाते हैं। उनकी वाणी जिनवाणी होती है। उनकी मुद्रा देखते हैं तो वह भगवान के समान होती है। और चर्या देखते हैं तो मोक्षमार्ग के पथिक की अनुभूति हो जाती है। इस तरह गुरु में तीनों का समावेश हो जाता है।
  2. आचार्य भगवन् कहते हैं- 'आत्मा के स्वभाव की उपलब्धि रत्नत्रय में निष्ठा के बिना नहीं होती और रत्नत्रय में निष्ठा दया धर्म के माध्यम से, क्षमादिधर्मों से ही मानी जाती है।' मूल गुणों में पठित दस धर्मों का आचार्यश्रीजी पूर्ण निष्ठा एवं उत्कृष्टता से किस तरह परिपालन करते हैं, इससे जुड़े हुए कुछ प्रसंगों को यहाँ पर प्रस्तुत किया जा रहा है। श्रमणत्व अंगरक्षक : दस धर्म * अर्हत्वाणी * धम्मो वत्थु-सहावो ... .... जीवाणं रक्खणं धम्मो ॥ ४७८॥ वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं। क्षमा आदि दस प्रकार के भावों को धर्म कहते हैं। रत्नत्रय को धर्म कहते हैं। और जीवों की रक्षा करने को धर्म कहते हैं। दशलक्ष्मयुतः.........प्रकीर्तितः। जिनेन्द्र भगवान ने धर्म को दस लक्षण युक्त कहा है। धर्म के भेद उत्तमखममद.............................दसविहं होदि ॥७०॥ उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये दस भेद मुनिधर्म के हैं। इन दसों को धर्म क्यों कहा? तेषां संवरण.............संज्ञा अन्वर्थेति। इन धर्मों में चूँकि संवर (कर्म निरोध) को धारण करने की सामर्थ्य है, इसलिए धारण करने से धर्म' इस सार्थक संज्ञा को प्राप्त होते हैं। 'उत्तम'विशेषणक्यों? उत्तमग्रहणं ख्यातिपूजादिनिवृत्त्यर्थम्। ख्याति व पूजा आदि की भावना की निवृत्ति के अर्थ उत्तम विशेषण दिया है। अर्थात् ख्याति, पूजा आदि के अभिप्राय से धारी गई क्षमा आदि उत्तम नहीं है। यथासंभव श्रावक भी पालें आद्योत्तमक्षमा.................यथाशक्ति यथागमम् ॥५९॥ उत्तम क्षमा है आदि में जिसके तथा जो दश भेदों से युक्त है, उस धर्म का श्रावकों को भी अपनी शक्ति और आगम के अनुसार सेवन करना चाहिए। * विद्यावाणी * संसाररूपी दुःख से आत्मा को जो ऊपर उठा ले उसका नाम धर्म है। धर्म करने की चीज है, पढ़ने की नहीं। यह दस प्रकार का धर्म रत्नत्रय केधारी मुनि महाराज ही पालन करते हैं।। रत्नत्रय मुनिराजों की शोभा है, तो क्षमादि दस धर्म उनके अलंकार हैं। धन साधन है, जबकि धर्म साधना है। धन पेट के लिए है और धर्म आत्मा की शांति के लिए है। जैसे कोई व्यक्ति धागे को गले में नहीं लटकाता, किंतु फूलों की माला के साथ वह धागा भी गले में शोभा पाता है। इसी प्रकार यदि धर्म साथ है, तो शरीर भी शोभा पाता है। धर्म के अभाव में जीवन शोभा नहीं पाता। दसलक्षण धर्म उस मानसरोवर में रहते हैं, जहाँ कषाय रूपी मगरमच्छ नहीं रहते। इसलिए अपने मन रूपी सरोवर को कषाय रूपी मगरमच्छ से रहित निःशंक बनाओ। तभी धर्म को प्राप्त कर पाओगे। प्रमादरक्षक दस धर्म- प्रवृत्ति के समय प्रमाद की संभावना भी हो सकती है। उस समय दस धर्मों का आलंबन लिया जाता है। जैसे- छाता लगाते हैं, तो कब लगाते हैं? घर में लगाते हैं क्या? नहीं, धूप व वर्षा के पानी से बचने के लिए छाता लगाते हैं। उसी प्रकार प्रमाद से बचने के लिए दस धर्म यहाँ बताए हैं। क्रोध विनाशक : उत्तम क्षमा धर्म * अर्हत्वाणी * कोहुप्पत्तिस्स .............खमा होदिधम्मोत्ति ॥७१॥ क्रोध के उत्पन्न होने के साक्षात् बाहरी कारण मिलने पर भी थोड़ा भी क्रोध नहीं करना, उसके क्षमा धर्म होता है। * विद्यावाणी * भाव पूर्वक किया हुआ क्षमा धर्म का पालन विपरीत भावों को उपशांत करने में जैसा सक्षम होता है, वैसा अन्य कोई भाव सक्षम नहीं होता। क्षमा वह अलौकिक निधि है, जो कभी समाप्त होती नहीं। जैसे भरत चक्रवर्ती की निधि कभी समाप्त नहीं होती थी। आप क्षमावाणी मनाते हैं। पर उनके साथ क्षमा मनाओ, जिनके साथ वैर (द्वेष) है। मन की गाँठों को खोलो। क्षोभ का पलायन- क्रोध के अभाव में ही क्षमा धर्म जीवन में प्रकट होगा। एक बार यदि यह क्षमा धर्म अपनी चरम सीमा तक पहुँच जाए, तो लोक में होने वाला कोई भी विप्लव उसे प्रभावित नहीं कर सकता अर्थात् उसे स्वभाव से च्युत नहीं कर सकता जैसे, सरोवर का जल स्वच्छ होकर बर्फ बनकर जम जाए, तो उसमें कंकर फेंककर कोई क्षोभ उत्पन्न नहीं कर सकता। ऐसा ही आत्मा के स्वभाव के बारे में समझना चाहिए। हमें आत्मा की शक्ति को पहचानकर, उसे ऐसा ही सघन बनाना चाहिए कि क्षोभ उत्पन्न न हो सके। हमारा ज्ञान, घन रूप हो जाना चाहिए। अभी वह पिघला हुआ होने से छोटी-छोटी-सी बातों को लेकर के भी क्षुब्ध हो जाता है। हमारे अंदर छोटी-सी बात भी क्रोध कषाय उत्पन्न कर देती है। और हम क्षमा धर्म से विमुख हो जाते हैं। बचो बचाओ पाप से पापी से ना पुण्य कमाओ। * विद्याप्रसंग * क्षमा नीर से सिंचित जीवन मई-जून, १९७६, कुंडलपुर, दमोह, मध्यप्रदेश में एक दिन आचार्यश्रीजी के नेत्रों में जलन हो रही थी। अतः संघस्थ क्षुल्लक श्री स्वरूपानंदजी ने आचार्यश्रीजी की आँखों में चंदन का तेल डाल दिया।ज्यों ही तेल डाला, जलन शांत होने की बजाय और अधिक बढ़ गई। आँखें एक दम सुर्ख लाल हो गईं। उनमें इतना खून उतर आया, जिसे देखकर ऐसा लगता मानों अभी बहने को हैं । आँखों की असह्य वेदना देख क्षुल्लकजी घबरा गए और बोले- 'महाराजजी! यह क्या हो गया ? क्षमा कीजिए।' यह सुनकर क्षमा धर्मधारी आचार्यश्रीजी बोले- 'आपने तो आँखों को आराम पहुँचाने के लिए यह चंदन का तेल डाला था, पर मेरे तीव्र असाता कर्मोदय के कारण आँखों में जलन और ज्यादा हो गई।' आँखों जैसे नाजुक एवं महत्त्वपूर्ण भाग में खून को तैरता देख क्षुल्लकजी स्वयं को दोषी मान दुःखी हो रहे थे। उन्हें देख आचार्यश्रीजी इस विकट स्थिति में भी उन्हें सांत्वना देते हुए बोले- 'देखो, नारायण श्री कृष्ण और बलभद्रजी ने द्वारिका की अग्नि को बुझाने के लिए जल डाला था, पर वह जल भी उस समय अग्नि में घी का काम कर गया था, जिससे अग्निज्यादा भभक-भभक कर जलने लगी।' क्षुल्लकजी को अपनी अविवेक पूर्ण वैयावृत्ति पर बहुत पश्चात्ताप हुआ। तत्काल डॉ. शिखरचंद्रजी जैन हटा, दमोह, म.प्र. वालों को सूचना दी। उन्होंने आकर उपचार किया। कुछ दिनों तक गुरुवर को तकलीफ़ रही, फिर धीरे-धीरे आराम हुआ। जब क्षुल्लकजी ने चंदन का तेल, जो आँखों में डाला था, उसका परीक्षण करवाया तब पता चला कि उस तेल में स्पिरिट मिला हुआ था। धन्य हैं! क्षमा धर्म से ओत-प्रोत गुरुवर, जिन्हें क्षुल्लकजी की असावधानी पूर्ण वैयावृत्ति पर किंचित् भी रोष नहीं आया, बल्कि क्षमा रूपी नीर से सिंचित होकर उन्हें भी सांत्वना दे दी।और स्वयं भी शीतलता का अनुभव करने लगे। मानमर्दक : उत्तम मार्दव धर्म * अर्हत्वाणी * कुलरूव ........हवे तस्स ॥७२॥ जो मनस्वी पुरुष कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, शास्त्र और शील आदि के विषय में थोड़ा-सा भी घमण्ड नहीं करता, उसके मार्दव धर्म होता है। * विद्यावाणी * जो मान को जीतने का पुरुषार्थ करता है, वही मार्दव धर्म को अपने भीतर प्रकट करने में समर्थ होता है। एक-एक पत्थर/पर्त निकालने पर भीतर से पानी का स्रोत निकल आता है। तब हमें नीचे जाने की आवश्यकता नहीं होती। वैसे ही भीतर मान या कषायों की पर्त को समाप्त करते जाने पर मार्दवता रूपी स्वभाव भीतर से प्रस्फुटित हो जाता है। मार्दव धर्म की प्राप्ति हो, यह कहने की अपेक्षा भीतर मृदुता को जाग्रत करें। चारित्र में मृदुता लाना ही कषायों का हनन है। इसलिए मार्दव धर्म के द्वारा स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। मृदुता के बिना ज्ञान का पात्र नहीं होता। अपने अंदर जाना सीखो- आप महामोक्ष रूपी महल बनाना चाहते हो, तो पहले यह सोच लो कि आपकी धर्म की नींव कितनी मजबूत है। महामोक्ष रूपी महल खड़ा करना है, तो मार्दव धर्म की ही नींव मजबूत बनानी होगी। इसलिए जीवन में ऊपर उठना है तो अंदर जाना सीखो। जैसे, पेड़ पर नज़र तो डालो, देखो और समझो वह हरा-भरा पेड़ इसीलिए ऊपर उठता जाता है, क्योंकि जमीन के अंदर उसकी जड़ें मजबूत हैं। अंदर जड़ मजबूत करते जाओ, तो आप ऊपर उठते जाओगे। बड़े-बड़े मकान भी बिना नींव के नहीं बनाए जा सकते। जितना ऊँचा मकान होगा, उसकी नींव भी जमीन में उतनी ही गहराई तक बनाई जाएगी। दर्प को छोड़ दर्पण देखता तो अच्छा लगता। * विद्याप्रसंग * मनोविनोद में भी झलकता मार्दव धर्म मृदुता अर्थात् मृदु, सुकुमार, सुकोमल, नम्र। आचार्य भगवन् बाहर अर्थात् शारीरिक दृष्टि से और अंदर अर्थात् आत्मा और मन से इन गुणों से परिपूर्ण हैं। मान का अभाव होने पर ही ये गुण अपना स्थान बनाते हैं। मान किया जा सके जिन पर, ऐसे गुणों के धनी होने पर भी आचार्य भगवन् में मान की कणिका भी नहीं है। स्वयं के ही शिष्यों को अपने साथ अपने आसन पर बैठा लेना यह इसका ज्वलंत उदाहरण है। ऐसा ही हुआ सन् १९९९ में। आचार्यश्रीजी का विहार सिद्धोदय क्षेत्र नेमावर, (देवास,म.प्र.) से गोम्मटगिरिजी (इंदौर, म.प्र.) की ओर चल रहा था। श्रावकों ने रास्ते में विश्राम हेतु एक प्लाई का पाटा लगा दिया, और आचार्यश्रीजी से उच्चासन पर विराजने का निवेदन करने लगे। आचार्यश्रीजी निवेदन स्वीकार कर पाटे पर बैठ गए। फिर जब अन्य महाराज आए, तो आचार्यश्रीजी हाथ से इशारा करते हुए उन्हें भी बुलाने लगे कि 'आओ महाराज अत्र-अत्र, तिष्ठ-तिष्ठ! यह आसन शुद्ध है, आकर मेरे पास बैठिए।' वे महाराज गुरुवर की आज्ञा मानकर बैठ गए। इतने में ही मुनि श्री समयसागरजी महाराज आ गए, सभी महाराजजी हँसने लगे और उन्हें भी बुलाने लगे। तब आचार्यश्रीजी पाटे की ओर देखकर बोले- 'उनकी हमारे यहाँ विधि नहीं मिलेगी।' क्योंकि पाटे पर इतना अब स्थान शेष नहीं था कि वह विराज पाते। अतः वह आगे बढ़ गए और आगे जाकर बैठ गए। आचार्यश्रीजी की मनोविनोद में भी मार्दव धर्म, मृदुता की झलक स्पष्टतः मिल जाती है। वास्तव में जिनशासन को गौरवान्वित करने वाले आचार्यप्रवर जो सबके प्रभु होते हुए भी इतने लघु बन जाते हैं। उनकी प्रभुता और लघुता प्रणम्य है, स्तुत्य है। नम्रता से पाई गुरुता गुरुणांगुरु श्री ज्ञानसागरजी महाराज के सल्लेखना के अंतिम क्षण चल रहे थे। आचार्यश्रीजी हमेशा गुरुजी के निकट ही बैठे रहते थे। एक पल भी गुरु से दूर नहीं जाते थे। चार उपवास हो चुके थे।अचानक ही एक दिन पूज्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज बोले- मेरी अंतिम इच्छा है। आचार्यश्रीजी- कहिए... गुरुदेव क्या इच्छा है? गुरुणांगुरु- शायद तुम पूरी नहीं कर सकोगे। आचार्यश्रीजी- कहिए तो आप। तब पूज्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज बोले- मैंने : तुम्हें अपना गुरु बनाया है, पर आपने मुझे अपना शिष्य बनाया कि नहीं? तब आचार्यश्रीजी ने बड़ी मार्मिक बात कही- कौन गुरु? कौन शिष्य? यह तो मोक्षमार्ग है, उत्तर पाकर पूज्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज गद्गद हो गए। फिर कहने लगे- गर तुमने मुझे शिष्य बनाया है तो एक बार वत्स कहकर हाथ से सहला दो। और...अंतिम परीक्षा में भी गुरुदेव पास हो गए। आश्चर्य! महत् आश्चर्य! आचार्यश्रीजी में ऐसी कितनी नम्रता होगी कि गुरुणांगुरु श्री ज्ञानसागरजी महाराज जाते-जाते भी उन्हें गुरुत्व की अनुभूति प्रदान कर गए। कणभर भी मान नहीं ब्रह्मचारी सुकौशल भैया व क्षुल्ल्क श्री प्रज्ञासागरजी महाराज, एक दिन आचार्यश्रीजी की वैयावृत्ति कर रहे थे। तब आचार्यश्रीजी ने कहा- ऐसी वैयावृत्ति तो हमारे ज्ञानसागरजी महाराज इतने वृद्ध होते हुए भी नहीं करवाते थे। शिष्य ने कहा- उनका इतना त्याग भी नहीं था जितना आपका है। तब आचार्यश्रीजी ने उत्तर दिया- हाँ, तुम्हारे जैसा ध्यान रखने वाला शिष्य भी उनके पास नहीं था। धन्य है ! गुरु की महानता, इतने महान् होकर भी अपने आपको इतना लघु बताते हैं।" जबकि आचार्यश्रीजी ने अपने गुरु की ऐसी सेवा की कि देखने वाले कहने लगते थे कि ऐसी सेवा तो एक बेटा अपने बाप की भी नहीं करता होगा। यहाँ तक कि स्वयं ज्ञानसागरजी महाराज को भी कई बार लगने लगता कि विद्या' के स्पर्श में जादू है। वह जहाँ हाथ धर देता, वहाँ का दर्द चला जाता है। वे अपने प्रिय शिष्य की सेवा से चकित हो उठते और कहते कि तू वैद्य बनकर आया है मेरी देख-रेख करने। कैसे सीखा है तूने वैयावृत्ति का यह वेदना निग्रहगुण। माया संहारक : उत्तम आर्जव धर्म * अर्हत्वाणी * मोत्तूण कुडिलभावं............... संभवदि णियमेण ॥७३॥ जो मनस्वी पुरुष कुटिल भाव वा मायाचारी परिणामों को छोड़कर शुद्ध हृदय से चारित्र का पालन करता है, उसके नियम से तीसरा आर्जव नाम का धर्म होता है। * विद्यावाणी * मन वचन-काय की सरलता का नाम आर्जव धर्म है। मुनि महाराज जब तन और मन से सीधे होते हैं, तो उनमें आर्जव (सरलता, छल, कपट का अभाव) धर्म प्रवेश करता है। इन्द्रिय-विषयों एवं कषायों से संबंध नहीं रखने पर ऋजुता स्वयमेव प्राप्त हो जावेगी। आर्जवता को चाहने वाला स्वयं सीधा बनता है। इसे पाने के लिए भीतर और बाहर से यथावत् (जैसे पैदा हुए वैसे रहना) होना अनिवार्य है। तन से यथावत् होना सरल है, लेकिन मन से होना बहुत कठिन है, मुश्किल भी है। ऋजुता से आत्मलीनता- सर्प जब अपने बिल में या घर में प्रवेश करता है तब वह सीधा सरल हो जाता है। ठीक उसी प्रकार आप अपने आत्मा में आना चाहते हैं तो टेढ़ापन छोड़ना होगा। कुटिल चाल छोड़े बिना अपने घर (आत्मा) में प्रवेश नहीं किया जा सकता है। जिस प्रकार बड़े-बड़े पंखों वाले पक्षी भी आकाश में पंख फैलाकर उड़ते हैं, पर अपने नीड़ों के छोटे से छिद्र में प्रवेश करते समय उन्हें संकुचित कर लेते हैं, संयत बन जाते हैं। वैसे ही हम अपने असंयम/चंचलता को त्यागें तथा दो नयों रूपी पंखों की फड़कन को बंद कर, संयत होकर, अपने स्वभाव रूप ऋजुता को प्राप्त कर आत्मलीनता को प्राप्त करें। बाहर टेढ़ा बिल में सीधा होता भीतर जाओ। * विद्याप्रसंग * क्या आसन...? क्या सिंहासन...? सन् १९७७, सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर, दमोह, म.प्र. में आचार्य भगवन् का वर्षायोग चल रहा था। उस समय पंडित जगन्मोहनलालजी शास्त्री, कटनी वाले कुण्डलपुर के उदासीन आश्रम में ही रहते थे। जिस दिन बरसात नहीं होती, मौसम खुला रहता, उस दिन १०-२० लोग सायं ५.३०-६.00 बजे के लगभग वहीं मानस्तम्भ के पास चौक में फर्श पर बैठ कर धार्मिक चर्चा किया करते थे। एक दिन आचार्यश्रीजी उन सभी को देखकर उनकी चर्चा का आनंद लेने के लिए बाहर चौक में आए और आकर पाषाण पट्टिका पर ही बैठ गए। एक श्रावक तुरंत चटाई लाए और आचार्यश्रीजी से प्रार्थना करने लगे, ‘महाराजजी! चटाई पर बैठ जाइए।' (उस समय आचार्यश्रीजी चटाई का प्रयोग करते थे) आचार्य महाराज ने बड़ी ही सरलतापूर्वक कहा- 'आप बैठ जाइए, इस चटाई पर।आपकी धोती भूमि पर बैठने से खराब (गंदी) हो सकती है। हमारी धोती तो है नहीं, जो मैली हो जाएगी।' और वहीं जमीन पर बैठे रहे। धन्य है आचार्यश्रीजी की सरलता! जिनके मन में आसन-सिंहासन विषयक कोई भी विकल्प नहीं उठते। ऐसे तन और मन से यथाजात रहने वाले आचार्यश्रीजी आर्जव धर्म नाम के मूलगुण को प्रायोगिक रूप से जी रहे हैं। लोभ घातक : उत्तम शौच धर्म *अर्हत्वाणी * सम-संतोस-जलेणं.. .....................सउच्च हवे विमलं ॥३९७॥ जो सम-भाव और संतोष रूपी जल से तृष्णा और लोभ रूपी मल के समूह को धोता है, तथा भोजन की गृद्धि नहीं करता, उसके निर्मल शौच धर्म होता है। * विद्यावाणी * शौच धर्म का सहज अर्थ है- मन की शुचिता, मन की पवित्रता। हमें भावों में शुचिता/निर्मलता लानी चाहिए। शुचिता, निर्मलता, पवित्रता आत्मा की प्रकृति है। अशुचि भाव का विमोचन किए बिना उसकी प्राप्ति संभव नहीं है। धार्मिक क्षेत्र में शौच धर्म वह औषधि या रसायन है, जो इहलोक तथा परलोक दोनों को सुधारने वाला है। शरीर अशुचिमय है और आत्मा से पृथक् है। हमारा कर्त्तव्य है कि हम उसकी अशुचिता को समझें, और उसके प्रति आसक्ति को छोड़कर, रत्नत्रय से पवित्र आत्मा के प्रति अनुरक्त हों। अनासक्त भाव शौच धर्म में साधक- भावों में मलिनता का कारण शरीर के प्रति बहुत आसक्त होना ही है। जब तक शरीर के प्रति आसक्ति बनी रहेगी, आत्मा का दर्शन उपलब्ध नहीं होगा। जैसे, गाय, भैंस के थन (स्तन) पर चिपक जाने वाली जोंक खराब खून तो पी लेती है, लेकिन थन से दूध नहीं पी पाती।उसी प्रकार अशुचिता में डूबा व्यक्ति आत्मा में लीन नहीं हो सकता। अपना ज्ञान शुद्ध ज्ञान न जैसे वाष्प पानी न। * विद्याप्रसंग * बालकवत् निर्मल हृदयी ३१ मई, २०१५, रविवार की शाम जबलपुर, मध्यप्रदेश में शाम ४-५ बजे के करीब आचार्यश्रीजी कमरे के बाहर अकेले बैठे थे। तीसरी कक्षा का एक बालक देव जैन, जयपुर, राजस्थान कागज-पेंसिल हाथ में लिए आचार्यश्रीजी के समक्ष पहुँचा। आचार्यश्रीजी ने पूछा- ‘क्या है?' वह बोला- 'आपका चित्र बनाना है।' आचार्यश्रीजी मुस्कुराने लगे।' वह बालक आचार्यश्रीजी के सामने बैठकर उनका चित्र बनाने लगा। इतने में मुनि श्री संभवसागरजी महाराज आए। उन्होंने आचार्यश्रीजी से कमरे में चलने का निवेदन किया। आचार्यश्रीजी बोले- 'देखो, यह बालक चित्र बना रहा है। इसके लिए कोई व्यवधान न हो।' मुनिश्रीजी बोले- 'आप कमरे में चलेंगे तो यह भी पीछे-पीछे आ जाएगा।' आचार्यश्रीजी कमरे में बैठ गए। मुनिश्री ने उस बालक को भी अंदर बुला लिया। वह छोटा-सा बालक एक कुशल चित्रकार की भाँति सामने बैठकर आचार्यश्रीजी का चित्र बनाने लगा। और आचार्यश्रीजी भी राजा-महाराजा की भाँति एक आसन में ही बैठे रहकर मानो चित्र बनवाने लगे। जब तक वह बालक चित्र बनाता रहा, आचार्यश्रीजी ने किसी को भी समय नहीं दिया। जिनके सामने अच्छे-अच्छे, बड़े-बड़े लोग भी डरते हैं, वहाँ आधे घंटे बैठकर जिस आसन में गुरुजी बैठे थे उसी आसन का उस नन्हें चित्रकार ने हू-ब-हू चित्र बना दिया। वह चित्र आचार्यश्रीजी को दिखाया और उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। आचार्यश्रीजी बोले- 'देखो, यह कैसे इस प्रकार चित्र निकाल रहा है।' उस बालक का नाम देव जैन, जयपुर, राजस्थान है। इसी तरह दयोदय, जबलपुर, मध्यप्रदेश में ९ जून, २०१५ के दिन गुरुजी का केशलोंच हुआ। गर्मी चरम पर थी। एक बालक आर्जव (सुपुत्र पंकज जैन, दिल्ली, पारस चैनल) वैयावृत्ति के समय उबली हुई कैरी (कच्चा आम) लाया और बोला 'आचार्यश्रीजी इसे लगवाने से गर्मी कम लगती है। ऐसा कहकर उसने कैरी का छिक्कल हटा दिया। आचार्यश्रीजी हँसने लगे। वह बालक आचार्यश्रीजी के पैरों में कैरी लगाने लगा। आचार्यश्रीजी बोले- 'मैंने २७-२८ साल बाद कैरी लगवाई। इससे पहले ललितपुर में जब बहुत गर्मी रहती थी, तो रात में श्रावक लोग कैरी ले आते थे और पैरों में घिसते रहते थे। धन्य है आचार्यश्रीजी की निर्मलता! जहाँ वे एक मिनट का समय भी किसी को आसानी से नहीं देते। फोटो आदि निकालने पर, अविनय होती है ऐसा कहकर मना कर देते हैं, वहीं जिस उम्र में बच्चों को पेंसिल भी पकड़ना नहीं आती, उस उम्र में चित्र बनाने का प्रयत्न करने वाले बालक को प्रोत्साहन देने हेतु बालक की भाँति निर्मलहृदयी आचार्यश्रीजी ने न केवल समय ही दिया, अपितु बिना हिले-डुले एक ही आसन में बैठे भी रहे। और जहाँ २७-२८ वर्ष से कैरी का उपयोग नहीं किया था, वहाँ एक बालक के सामने मौन हो गए। कीर्तिप्रदायक : उत्तम सत्य धर्म * अर्हत्वाणी * परसंतावयकारण............................धम्मो हवेसच्चं ॥७४॥ जो मुनि दूसरे को क्लेश पहुँचाने वाले वचनों को छोड़कर अपने और दूसरे के हित करने वाले वचन कहता है, उसके चौथा सत्य धर्म होता है। * विद्यावाणी * स्व और पर का हित जिसमें हो, वह सत्य है। जो असत्य को धोता है, वही सत्य है । सत्य सफ़ेदी है। हजार वर्ष अन्याय के समर्थन में जीने की अपेक्षा एक पल सत्य के साथ जीना उचित है। अधर्म से चलने पर असत्य हावी हो जाता है। सत्य से चलने पर असत्य का राज्य नहीं आ सकता। हम थोड़ा-सा भीतर देखने का प्रयास करें और अपना इतिहास समझें कि मैं कौन हूँ? किस तरह छोटे से बड़ा हो गया और एक दिन मरण के उपरांत सारे के सारे लोग इस देह को जला आएँगें। मैं फिर भी नहीं जलूँगा। यह सत्य है। दुनिया में सभी लोग दुनिया को देख रहे हैं। दुनिया को पहचानने की चेष्टा में लगे हैं, लेकिन सत्य को पहचानने की जिज्ञासा किसी के अंदर नहीं उठती। बार-बार कहने, सुनने के उपरांत भी ज्ञान नहीं होता, तो यह मोह की प्रबलता का ही प्रभाव समझना चाहिए। शाश्वत सत्य- भेद रत्नत्रय से अभेद रत्नत्रय को पाने वाले मुनिराज कभी बाहर आना ही नहीं चाहते हैं । जैसे, आप लोग एयर कंडीशन में से बाहर नहीं आना चाहते। वैसे ही वे मुनि अपने अभेद रत्नत्रय (आत्मानुभूति) रूपी एयर कंडीशन से बाहर नहीं आना चाहते। अपने स्वरूप के दर्शन, अपने शाश्वत सत्य को पाने में लीन होते हैं। वे सत्य धर्म के बारे में कहते नहीं, अनुभव करते हैं। तेरा सत्य है भविष्य के गर्भ में असत्य धो ले। * विद्याप्रसंग * यही सत्य है सन् १९७४ में अजमेर, राजस्थान, वर्षायोग के पश्चात् आचार्यश्रीजी का शीतकालीन प्रवास मदनगंज-किशनगढ़, अजमेर, राजस्थान में हआ। वहाँ आयोजित सिद्धचक्रमंडल विधान में समाज के अनुरोध पर जैनदर्शन के प्रकाण्ड विद्वान् पंडित श्री कैलाशचंद्रजी सिद्धांतशास्त्री, बनारस,उत्तरप्रदेश ने मात्र एक प्रवचन देने की अनुमति दी थी। उनके साथ जैन न्याय और दर्शन के एक मात्र विद्वान् पंडित श्री दरबारीलालजी कोठिया भी पधारे थे। ये दोनों विद्वान् आचार्यश्रीजी के प्रवचन और चर्या से प्रभावित होकर स्वेच्छा से तीन दिन तक रुके रहे। और जब वे जाने लगे, तब आचार्यश्रीजी से बोले 'महाराजजी! मैं जा रहा हूँ।' आचार्यश्रीजी ने कहा- 'पंडितजी! आना-जाना तो लगा हुआ है।' यह सुनकर पं. श्री दरबारीलालजी विस्मयभरी दृष्टि से आचार्यश्रीजी को देखने लगे। उन्हें बात समझ में आ गई कि आना तो हुआ उत्पाद'। जाना अर्थात् 'व्यय'। लगा हुआ, यही द्रव्य की ध्रुवता है। अर्थात् जीव द्रव्य ध्रुव है। और 'है' यानी सत्। यही सत् का लक्षण है। यह अनुभव में आ जाए, तो बनने-मिटने पर हर्ष-विषाद नहीं होगा। छोटे-बड़े की बात नहीं आएगी। कौन, किसका पिता है? कौन, किसका पुत्र है? यह मात्र पर्याय की ओर दृष्टिपात करने पर ही दिखाई देता है। शरीर का अवसान होने पर यह सारे संबंध छूट जाते हैं । सत्य ही तो है कि सारा संसार एक रंगमंच की तरह है, जो सत्य को जान लेता है, वह मुग्ध नहीं होता। हर्ष-विषाद नहीं करता है । सत्य को जानने वाला फालतू बोलता नहीं है। धन्य है आचार्य भगवन्! एक वाक्य में ही आगम का पूरा सार उड़ेल देते हैं आप। आपका एक-एक वाक्य सूत्र रूप में रहता है। प्रदर्शक नहीं,आत्मदर्शक हूँ आचार्यश्रीजी ऐसे पुण्यात्मा महापुरुष हैं, जिनकी छत्रच्छाया में आने वाले जीवों का, प्राणियों का उद्धार हो जाता है। फिर वह चाहे आध्यात्मिक क्षेत्र में हो अथवा संसारिक क्षेत्र में। जहाँ कहीं भी उनका प्रवास होता है, वहाँ कई व्यक्तियों को रोजगार प्राप्त हो जाते हैं। व्यक्ति अपनी-अपनी दुकान लगा लेते हैं, फल-सब्जी, घर-गृहस्थी की सामग्री, आचार्यश्रीजी के प्रवचन-भजन आदि की सीडी, पूज्य पुरुषों की फोटो एवं शुद्ध भोजन, चाय, नाश्ता आदि-आदि की दुकानों से बहुतों को जीविकोपार्जन के सात्त्विक साधन सुलभ हो जाते हैं। एक बार श्री अतिशय क्षेत्र कोनी जी, पाटन-जबलपुर, म.प्र. का प्रसंग है। आचार्यश्रीजी प्रातः जंगल (शौच) जा रहे थे। जाते समय अचानक उनकी दृष्टि एक दुकान पर पड़ी। जहाँ पर आचार्यश्रीजी सर्पों को आशीर्वाद दे रहे हैं, ऐसी एक बड़ी-सी फोटो रखी थी। शौच क्रिया से लौटकर आचार्यश्रीजी ने उस दुकान वाले को बुलवाया। वह घबराते हुए आचार्यश्रीजी के पास पहुँचा। हाथ जोड़कर विनय भाव से नमोऽस्तु करके बैठ गया। आचार्यश्रीजी ने उससे पूछा- 'सर्पों को आशीर्वाद देने वाली फोटो तुमने खींची है?' दुकानदार बोला- 'नहीं।' आचार्यश्रीजी ने पूछा- 'तो कहाँ से आई?' बड़े शान से वह बोला- 'हमने कम्प्यूटर से बनाई है।' आचार्यश्रीजी बोले- 'ऐसी झूठी फोटो नहीं बनाई जाती। इससे पाप बंध होता है। इस फोटो को मत बेचना। और आगे भी इस तरह की झूठी फोटो मत बनाना।' दुकानदार को अपनी गलती का अहसास हुआ। वह आगे से ऐसा नहीं करने का नियम लेकर एवं आशीर्वाद प्राप्त कर वापस चला गया। धन्य है सत्य धर्म के पालन कर्ता आगमोक्तपुरुष आचार्य भगवन्! जिन्हें स्वयं की यथार्थ प्रशंसा ही इष्ट नहीं, फिर झूठी प्रशंसा कैसे भा सकती है? उन्हें प्रदर्शन में नहीं,आत्मदर्शन में आनंद आता है। सर्वज्ञविभूति दायक : उत्तम संयम धर्म * अर्हत्वाणी * वदसमिदिपालणाए ....... हवे णियमा ॥७६॥ व्रत व समितियों का पालन, मन-वचन-काय की प्रवृत्ति का त्याग, इन्द्रिय जय, यह सब जिसको होते हैं, उसको नियम से संयम धर्म होता है। * विद्यावाणी * संयम वह है, जिसके द्वारा अनंतकाल से बँधे । संस्कार समाप्त हो जाते हैं। तीर्थकर भगवान भी घर में रह कर मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते हैं। वे भी संयम लेने के उपरांत निर्जरा करके सिद्धत्व को प्राप्त करते हैं। संयम के माध्यम से ही आत्मानुभूति होती है। संयम वह है, जिसके द्वारा जीवन स्वतंत्र और स्वावलंबी हो जाता है। ऐसा संयम सरल भी है और कठिन भी। जो चौबीसों घंटे अपने में लीन रहे, अपनी आत्मा के आनंद का पान करे, उसे तो सरल है। और जब कोई अपने अकेले होने से आनंद के स्थान पर दुःख का अनुभव करने लगे, तो यही उसे कठिन हो जाता है। मनुष्य जीवन में नाइट लेम्प के समान संयम जलता (प्रकाश देता) रहता है। उसके बिना तो जीवन चल ही नहीं सकता। जैसे,समय-समय पर इकट्ठा किया हुआ कण-कण मेरु के समान हो जाता है। इसी प्रकार एक-एक क्षण संयम के साथ निकालते-निकालते मोक्ष मंज़िल तक पहुँच सकते हैं। इस बात को ध्यान से सुनना, इसे 'रंग पंचमी' के रंग के समान यूँ ही नहीं उड़ा देना। रावण ने असंयम को नहीं छोड़ा। इसलिए परिवार को ही नहीं, सभी के जीवन के लिए कंटकाकीर्ण बन गया। संयम ही है, जो ज्ञान को क्षायिक बनाता है, और सम्यग्दर्शन को परम अवगाढ़ बनाता है। संयम महत् आवश्यक- संयम के बिना आत्मा का विकास संभव नहीं है। यह ऐसा सहारा है , जिससे आत्मा ऊर्ध्वगामी होती है, पुष्ट और संतुष्ट होती है। सम्यग्दृष्टि संयम को सहज स्वीकार करता है। इसलिए वह सब कुछ छोड़कर भी आनंदित होता है। जैसे, गाड़ी चलाना सीखने और समझने के उपरांत भी संयम और सावधानी की बड़ी आवश्कता है। ऐसे ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान हो जाने के उपरांत भी संयम की बड़ी आवश्यकता है। कछुवे सम इन्द्रिय संयम से आत्म रक्षा हो। * विद्याप्रसंग * निर्बंध बनाता बंधन एक बार संयम धर्म' पर प्रवचन करते हुए आचार्यश्रीजी ने अपने बचपन की घटना सुनाई- 'जब हमें साइकिल चलाना तो आता नहीं था, और मन करता था कि साइकिल चलाएँ और पूरी गति से चलाएँ, तभी आनंद आएगा। साइकिल बड़ी थी और सीट पर हम बैठ नहीं पाते थे, क्योंकि शरीर की ऊँचाई कम थी।और यदि सीट पर बैठ भी जाएँ, तो पैर पैडल तक नहीं पहुंच पाते थे। तब कोई एक व्यक्ति एक हाथ से पीछे पकड़ता था। और दूसरे हाथ से आगे हैंडिल भी पकड़ता था। धीरे-धीरे हैंडिल पकड़ना आने लगा। लेकिन बिना सहारे चला नहीं पाते थे। जब पैरों में अभ्यास हुआ और हाथ से पकड़ने की क्षमता भी आ गई और अपने बोझ को सँभालने का साहस भी आ गया, तब हमने कहा कि भैया तुम पकड़ते क्यों हो, छोड़ दो।' लेकिन कुछ दिन तक वह पीछे से सहारा दे कर पकड़े रहता था। कभी ज़रा भी छोड़ता था, तो गिरने की नौबत आ जाती थी। फिर उसने कहा- 'देखो, मैं इस तरह पकड़े हूँ कि तुम्हें चलाने में बाधा नहीं आती। पीछे पकड़कर मैं खींचता नहीं हूँ, मैं तो मात्र सहारा दिए रहता हूँ।' यह संयम का बंधन ऐसा ही सहारा देने वाला है। फिर जब पूरी तरह अपने बल पर चलने की क्षमता आ गई, तो उसने अपने आप छोड़ दिया। लेकिन समझा दिया कि ध्यान रखना, मोड़ आने पर या किसी के सामने आ जाने पर ब्रेक का सहारा अभी भी लेना पड़ेगा। संयम के पालन में निष्णात हो जाने पर भी प्रतिकूल परिस्थितियों में विशेष सावधानी की आवश्कता पड़ती है। इस प्रकार प्रारंभ में तो संयम बंधन जैसा लगता है। लेकिन बाद में वही जब हमें निर्बंध बना देता है और हमारे विकास में सहायक बनता है, तब हमें ज्ञात होता है कि यह बंधन तो निबंध करने का बंधन था।' संयम परीक्षक : उत्तम तप * अर्हत्वाणी * विसयकसाय .............. होदि णियमेण ॥ ७७॥ जो मुनि पंचेन्द्रियों के विषय और कषाय परिणामों का निग्रह कर आत्मध्यान और शास्त्र स्वाध्याय करते हुए अपनी आत्मा का निरंतर स्वरूप चिंतवन करते हैं, उसका वह उत्तम तप धर्म नियम से कहलाता है। * विद्यावाणी * दशलक्षण धर्मों में तप एक प्रौढ़ धर्म है। इस तप के द्वारा अन्य धर्मों में भी पास हो जाते हैं। आनंद की चरम सीमा तक पहुँचने का एक अनन्य साधन तप है। आप लोग धूप खेकर सुगंधी बिखेरते हैं। लेकिन उत्तम तप धर्म को स्वीकार करने वाले महामुनि प्रतिदिन तपाग्नि में कर्म रूपी धूप को जलाते हैं,और अपनी आत्मा को सुगंधित करते जाते हैं। सम्यग्दर्शन युक्त तप ही समीचीन तप है। सम्यक् तप करने से पुरुष, बंधु की तरह लोगों को प्रिय होता है। मुक्ति पाने के लिए चतुर्विध आराधना करनी होगी। रत्नत्रय अर्थात् ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना के साथ ही साथ तप की आराधना करनी भी आवश्यक है। तुझको तपना होगा- एक इच्छा की पूर्ति कई इच्छाएँ पैदा कर देती है। इच्छाएँ तो अनंत हैं, जो मरते दम तक समाप्त नहीं हो सकतीं। अब इच्छा की समाप्ति करना है। इच्छा की गुलामी ही मन को भटकाती रहती है। मन को इस गुलामी से मुक्त करना है, सो तप की अग्नि में सारी इच्छाएँ जला डालो। मन में कुछ पाने की इच्छा ही नहीं रहेगी, तब वह सब पा लोगे, जिसकी प्राप्ति हेतु प्रयास छोड़कर रखे हैं। तप रूपी अग्नि में सब इच्छाएँ जल जाएँगी, मोह खत्म हो जाएगा, तो मोक्षमार्ग आसान हो जाएगा। जैसे लकड़ी में अग्नि तत्त्व है, दूध में घी तत्त्व है, वैसे ही आत्मा में परमात्म तत्त्व है। जो भी सिद्ध हुए हैं, उन्होंने कर्म को तप रूपी अग्नि में जलाया है। सोना भी तभी सोना माना जाता है जब सोलह बार तप कर बाहर आए। पारे को हम हाथ से पकड़ नहीं सकते, लेकिन अग्नि उसे भी भस्म कर देती है। आप सोचें कि हमारे लिए कोई और तप कर लेगा, तो दूसरे का तप हमारे काम नहीं आ सकता। जीवन सार्थक करना है, तो तप हमें ही करना होगा। नौ मास उल्टा लटका आज तप (रहा पेट में) कष्ट कर क्यों ? * विद्याप्रसंग * साधु की साधना आचार्यश्रीजी के साथ संघस्थ साधुओं की चर्चा चल रही थी। चर्चा का विषय था साधु की साधना कैसी होनी चाहिए? आचार्यश्रीजी ने बताया कि समयानुसार हमें कभी कठोर, तो कभी मृदु चर्या के माध्यम से अपनी साधना को विकासोन्मुखी बनाना चाहिए। लेकिन तेज गर्मी, तेज सर्दी में साधना करना बड़ा मुश्किल है। आज खुले में साधना करने वालों के दर्शन दुर्लभ हैं। इस चर्चा के दौरान आचार्यश्रीजी से किसी शिष्य महाराजजी ने पूछा- 'आप जब राजस्थान में थे, तब खुले में पहाड़,श्मशान आदि में जाकर तप-साधना करते थे।' यह सुनकर आचार्यश्रीजी कुछ क्षण मौन रहे, फिर बोले _ 'केकड़ी, अजमेर, राजस्थान के पास बघेरा गाँव है, जहाँ १००८ श्री शांतिनाथजी भगवान का मंदिर है। वहाँ से १ किलोमीटर की दूरी पर पहाड़ है।गाँव में आहार चर्या करके सीधे ही पहाड़ पर चले जाते थे। वहाँ पर उस समय गर्मी का समय था, सो गरम-गरम हवा चलती थी। वहाँ पर बड़े-बड़े पत्थर थे। उन पत्थरों की ओट में बैठ जाते थे। उस समय साथ में क्षुल्लक मणिभद्रजी (समाधिस्थ मुनि श्री ब्रह्मानंदजी) भी थे। उनकी आँखों में गरम हवा की वजह से जलन होती थी। सो मैंने उनसे कहा कि आप अपने दुपट्टे को कमण्डलु के पानी से गीला करके आँखों पर रख लिया करो। हम लोग रात्रि विश्राम वहीं एक गुफा में किया करते थे।' फिर आचार्यश्रीजी हँसकर बोले- 'एक बार पहाड़ पर ज्यादा ऊपर चढ़ गए, और रास्ता भटक गए। नीचे उतरते वक्त हाथ पकड़कर, कमण्डलु पत्थरों से टिकाते हुए नीचे उतर आए। कभी-कभी श्मशान में चले जाते थे, वहाँ एक छतरी जैसी बनी थी, वहीं रात्रि विश्राम करते थे। और कभी-कभी नदी की रेत में रात्रि विश्राम हो जाता था। तभी एक शिष्य महाराजजी बोले- 'आचार्यश्रीजी! रेत तो गरम रहती होगी? तब आचार्यश्रीजी बोले- 'हाँ, देर रात होने तक ठंडी हो जाती थी।' दूसरे महाराजजी ने पुनः पूछा 'आचार्यश्रीजी! वहाँ दिन-रात क्या करते थे?' तब आचार्यश्रीजी बोले- 'वहाँ सामायिक, स्वाध्याय आदि करते रहते थे। समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय आदि का पाठ करते थे। धन्य है! आचार्यश्रीजी की ऐसी अनोखी तप साधना को। प्रवृत्ति, बिन इच्छा कहाँ? सन् १९७५, फिरोजाबाद, उत्तरप्रदेश, वर्षायोग का प्रसंग है। यहाँ आचार्यश्रीजी के प्रवचन प्रतिदिन होते थे। आचार्यश्रीजी की चर्या और प्रवचन से प्रभावित होकर उनके पास सभी वर्ग के लोग चर्चा करने आ जाते थे। एक बार कुछ समयसारपाठी सज्जन आचार्यश्रीजी के दर्शन और चर्चा करने आए। और कहने लगे- 'महाराज! हमें तो कुछ इच्छा है नहीं। न खाने की इच्छा है, न पीने की इच्छा है और न ही कोई अन्य इच्छाएँ होती हैं। सब कुछ सानंद चल रहा है।' उनकी बात सुनकर आचार्यश्रीजी को बड़ा आश्चर्य हुआ। और फिर आचार्यश्रीजी बोले- 'अगर आपको खाने की इच्छा नहीं है, तो फिर लड्डू आदि मुँह में ही क्यों डाले जाते हैं? कान में या और किसी के मुँह में क्यों नहीं डाल दिए जाते? बिना इच्छा के ये सब क्रियाएँ कैसे चल सकती हैं? आगे आचार्यश्रीजी ने उन्हें समझाते हुए कहा- 'भइया! प्रवृत्ति इच्छा के बिना नहीं होती। इच्छाएँ प्रत्येक के पास हैं, किंतु इच्छा का निरोध केवल तप द्वारा ही संभव है। यदि इच्छाओं का निरोध नहीं हुआ, तो ऐसा तप भी तप नहीं कहा जाएगा।(तत्त्वार्थसूत्र के नौवें अध्याय में आया है) 'तपसा निर्जरा च' तप से संवर एवं निर्जरा भी होती है । यदि तप करने से आकुलता हो और निर्जरा न हो, तो वह तप भी तप नहीं है। अतः प्रवृत्ति को छोड़कर निवृत्ति के मार्ग पर जाना ही श्रेयस्कर है। धन्य है! आचार्यश्रीजी की तपानुभूति को, जिसके द्वारा वे अच्छे से अच्छे कट्टरपंथियों को भी सहजता से समझाकर सत्पंथी बना देते हैं। स्व-पर प्रभावक : उत्तम त्याग धर्म * अर्हत्वाणी * णिव्वेगतियं भावइ .............. भणिदं जिणवरिंदेहिं ॥ ७८॥ जिनेन्द्र भगवान ने कहा है कि जो जीव सारे परद्रव्यों के मोह को छोड़कर संसार, देह और भोगों से उदासीन परिणाम रखता है, उसके त्याग धर्म होता है। * विद्यावाणी * उत्तम त्याग का आशय है, जो अनुत्तम है अर्थात् उत्तम नहीं है, उसे मन, वचन और कर्म से त्यागना उत्तम त्याग है। जो आत्मा का स्वभाव है, उसका त्याग तो मनुष्य अनंतकाल से करता आया है, लेकिन राग-द्वेष नहीं छोड़ पा रहा है। अच्छे को त्यागकर बुरा अपनाने का नाम ही तो संसार है। जो लोभ कर्म हमारे आत्मप्रदेशों पर मजबूती से चिपक गया है, जिससे हमारी स्वर्ग और मोक्ष की गति रुक गई है, उस लोभ-कर्म को तोड़ने का काम यही त्याग धर्म करता है। त्याग जीवन का अलंकार है। गृहस्थावस्था में भले ही राग भाव से विभिन्न प्रकार के अलंकार धारण किए जाते हैं, लेकिन मुनि आश्रम में त्याग भाव ही अलंकार है। त्याग धर्म के अंतर्गत दो शब्द आते हैं- दान और त्याग। दोनों में थोड़ा-सा अंतर है। राग-द्वेष से अपने को छुड़ाने का नाम त्याग है। और दान में भी राग-भाव हटाया जाता है, किंतु जिस वस्तु का दान किया जाता है, उसके साथ किसी दूसरे के लिए देने का भाव भी रहता है। दान पर के निमित्त को लेकर किया जाता है, किंतु त्याग में पर की कोई अपेक्षा नहीं रहती। किसी को देना नहीं है, मात्र छोड़ देना है त्याग। 'त्याग' स्व को निमित्त बनाकर किया जाता है। मोह घाव, तो त्याग मरहम पट्टी- त्याग एक ऐसा सरोवर है, जिसके पास जाने के बाद गर्म लू भी ठण्डी बन जाती है। मोह एक प्रकार का घाव है, उसे ठीक करने के लिए त्यागरूपी मरहम पट्टी करते रहना चाहिए। जिनसे यह मोह रूपी घाव बढ़ता है, ऐसे कषाय, राग-द्वेष, परिग्रह आदि भावों से बचना चाहिए। अर्पित यानी मुख्य समर्पित सो अहं का त्याग। * विद्याप्रसंग * त्याग धर्म पोषक सन् १९८२ में नैनागिरि, छतरपुर, मध्यप्रदेश के वर्षायोग के बाद आचार्यश्रीजी विहार करके बण्डा, जिला सागर, म.प्र. पहुँचे। ठंड के दिन थे। उस समय कोई संत भवन तो था नहीं, सो मंदिर में ही ऊपर के एक कच्चे से कमरे में सारा संघ रुक गया। वहीं रात्रि विश्राम हुआ। उस कमरे का छप्पर लगभग टूटा-सा था। बहुत सारी खिड़कियाँ थीं और दरवाजा भी हवादार था। उसमें बहुत-सी दरारें होने के कारण सनसनी हवा आ रही थी। उस समय आचार्यश्रीजी का चटाई का त्याग नहीं था, परंतु एक ही चटाई का प्रयोग भी न के बराबर ही करते थे। और संघ के सभी साधुओं का भी एक ही चटाई लेने का संकल्प था। संघ में घास आदि का प्रयोग होता नहीं था। जैसे-जैसे रात बढ़ती गई, वैसे-वैसे ठंड का प्रकोप भी बढ़ता गया। इस तरह सारी रात बैठे-बैठे गुजर गई। सुबह हुई तो आचार्य भक्ति के बाद आचार्यश्रीजी ने मुस्कुराते हुए सभी से पूछा-'रात में ठंड बहुत ज़्यादा थी। आप लोगों के मन में क्या विचार आए, कैसा लगा?' तब सभी छोटे-छोटे अल्पवयी महाराज सोच में पड़ गए कि गुरुजी से क्या कहें? परंतु एक महाराज साहस करके अपने मन की बात बताते हुए बोले 'आचार्यश्रीजी ठंड बहुत लग रही थी, तो ऐसा लग रहा था कि एक चटाई और होती तो ठीक रहता।' प्रायः सभी महाराजों के मन में ऐसा विचार आया था। इतना सुनकर आचार्यश्रीजी के चेहरे पर हर्ष छा गया। और शिष्यों को प्रोत्साहित करते हुए बोले- 'देखो! यह त्याग का मार्ग है। त्याग का यही महत्त्व है कि तुम सभी के मन में शीत से बचने के लिए त्यागी हुई वस्तुओं के ग्रहण करने का विचार भी नहीं आया। तुम सबसे यही आशा थी। हमेशा त्याग के प्रति सजग रहना। त्यागी गई वस्तु के ग्रहण का भाव मन में न आए, यह सावधानी रखना, क्योंकि मुनि अवस्था में त्याग भाव ही अलंकार, आभूषण है। धन्य हैं ऐसे त्याग धर्म के धारी आचार्यश्रीजी! जो अपने शिष्यों को भी त्याग धर्म की प्रेरणा देते रहते हैं। उन्हें प्रोत्साहित करते रहते हैं। कुछ वर्षों के बाद आचार्यश्रीजी का जब चटाई न लेने की साधना का अभ्यास हो गया, तब उन्होंने सन् १९८५, सिद्धक्षेत्र अहारजी, टीकमगढ़, म.प्र. में चटाई का पूर्णतः त्याग कर दिया था। परम सुखदायक : उत्तम आकिंचन्य धर्म * अर्हत्वाणी * होऊण य णिस्संगो...........अणयारो तस्स किंचण्ह ॥७९॥ जो मुनि सर्व प्रकार के परिग्रहों से रहित होकर और सुख-दुःख के देने वाले कर्मजनित निज भावों को रोककर निर्द्वन्द्वता से अर्थात् निश्चिन्तता से आचरण करता है, उसके आकिञ्चन्य धर्म होता है। * विद्यावाणी * आकिंचन्य धर्म का अर्थ है- मन को इच्छाओं से खाली कर देना, परिग्रह के संस्कार त्याग देना, भूत को भुला देना, भविष्य की अपेक्षा नहीं रखना और वर्तमान को लात मार देना और मन-वचन काय से खाली हो जाना। सारी इच्छाएँ जहाँ विसर्जित हो जाएँ, वह आकिंचन्य धर्म है। शारीरिक बीमारी के उपचार के लिए तो बहुत से डॉक्टर-वैद्य मिल जाएँगे, परंतु मन को जिन इच्छाओं की बीमारी ने घेर रखा है, उसका उपचार आकिंचन्य धर्म के पास ही है। आकिंचन्य आत्मधर्म है। यह एक ऐसा भारी पदार्थ है, जो हर किसी के पास नहीं होता। एकाकी होने में है सुख- दुनिया के सारे संबंधों के बीच भी मैं अकेला हूँ, यही भाव बना रहना, आकिंचन्य धर्म का सूचक है। जैसे अनेक आवाजों के बीच टेलीफोन की आवाज आप सुन लेते हैं, बाकी छोड़ देते हैं। नगाड़े के बीच बाँसुरी की आवाज चलती है, तो जो संगीत प्रेमी हैं या संगीतकार हैं, वह उसे पहचान लेते हैं। इसी तरह हम लोगों को अपने स्वरूप को देखने की रुचि हो जाए, हम अंतर्मुखी होते चले जाएँ, तो बाहर कुछ भी होता रहे पता ही नहीं चलेगा। सुख तो अपने भीतर एकाकी होने में है।अन्यत्र कहीं नहीं है। भरा घट भी खाली-सा जल में सो हवा से बचो * विद्याप्रसंग * अद्भुत बैंक बैलेंस आचार्यश्रीजी एक ऐसे कीर्ति प्राप्त आचार्य हैं, जिनका नाम पूरे भारत वर्ष में ही नहीं, अपितु विश्व-भर में सुविख्यात है। अतः इनकी छवि को निहारने सभी सम्प्रदाय के बंधुजन प्रायः कर आते ही रहते हैं । २९ जून, २००५,अतिशय क्षेत्र बीना बारहाजी, जिला सागर, म.प्र. में एक जिज्ञासु व्यक्ति आचार्यश्रीजी के दर्शनार्थ आए। दर्शन करते ही उन्होंने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। इसी बीच उन्होंने एक प्रश्न किया- “महाराज साब! आपका बैंक बैलेंस कितना है?' आचार्यश्रीजी समझ गए कि यह जैनेतर बंधु है, जो जैन साधु की निष्परिग्रही वृत्ति से अनभिज्ञ है। आचार्यश्रीजी ने कहा- 'बस, यह पिच्छी कमण्डलु है, मेरे पास।' उसने पुनः प्रश्न किया- 'लेकिन आपके नाम से जो बड़ी-बड़ी दाल मिलें, दुकानें, ट्रक, बसें, फैक्ट्री, स्कूल, बैंक न जाने और क्या-क्या चलता है, कुछ तो होगा? आप बताएँ नहीं, यह बात अलग है।' उस व्यक्ति की बात सुनकर आचार्यश्रीजी को हँसी आ गई, और हँस कर बोले- 'अरे भाई! हमारे पास तो मात्र दो उपकरण रहते हैं- एक पिच्छी और दूसरा कमण्डलु । यही बैंक बैलेंस समझो।वे भी सामायिक के समय छूट जाते हैं। उस समय तो इस शरीर को भी पड़ोसी मानकर शुद्ध एकाकी आत्मा का आनंद लेने का प्रयास करता हूँ। जो पर अर्थात् दूसरा है, उसे पड़ोसी कहा जाता है। पर:+असि परोऽसि। यह शरीर भी पड़ोसी है, जो हमारे साथ जाने वाला नहीं है। इस तरह शरीर से भी ममत्व भाव का त्याग हो जाता है। वह व्यक्ति समझ गया कि जिनके लिए श्रावक तन, मन, धन, यहाँ तक कि अपना सब कुछ न्यौछावर करने तत्पर हैं, उनके लिए इन सब चीजों का कोई मूल्य नहीं, यहाँ तक कि इन्हें तो अपने शरीर से भी ममत्व नहीं है। धन्य हैं चेतन रूपी धन के धनी गुरुवर! जो मन, वचन और काय से अपने जीवन में आकिंचन्य धर्म को जी रहे हैं, पी रहे हैं। नायक नहीं,ज्ञायक हूँ २५ अप्रैल, २००२, गुरुवार के दिन आचार्य भगवान ससंघ मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में विराजमान थे। महावीर जंयती के दिन आचार्य भगवन् लाल परेड ग्राउंड से प्रवचन करके चौक धर्मशाला वापस आ रहे थे। तब गुरुभक्ति के वशीभूत भक्तगण तरह-तरह के नारे लगाकर गुरु-गरिमा गुणगान कर रहे थे। और ख्याति, पूजा, लाभ से दूर रहने वाले आचार्य भगवन् ईर्यापथ शुद्धि से आगे बढ़ते चले जा रहे थे। चौक मंदिर पहुँचने के बाद एक सज्जन ने आचार्यश्रीजी से कहा- 'आपकी आत्मा चतुर्थकाल की है, काया पंचम काल की' तब आचार्यश्रीजी ने कहा- 'भैया! आत्मा तो अनंत काल की है।' तब उन सज्जन ने पुनः गुरुजी की प्रशंसा करते हुए कहा- 'वर्तमान में, विश्व में अभी तक किसी का इतना बड़ा संघ देखने में नहीं आया। आप विशाल संघ के नायक हैं।' तब आचार्यश्रीजी गंभीर होकर बोले- 'सुनों! मैं किसी संघ का 'नायक' नहीं हूँ, मैं तो अपनी आत्मा का ज्ञायक हूँ।" ज्ञायक बन गायक नहीं,पाना है विश्राम। लायक बन नायक नहीं,जाना है शिव-धाम ॥८॥" ऐसे आकिंचन्य धर्म के धारी आचार्य भगवन् जयवंत रहें, जो नित नूतन इतिहास लिखते हुए भी अपने आत्मतत्त्व को ही लखते हैं। शीलसमुद्र वर्धक : उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म * अर्हत्वाणी * सव्वंगं पेच्छंतो............... सुक्कदि खलु दुद्धरं धरदि ॥ ८०॥ जो पुण्यात्मा स्त्रियों के सुन्दर अंङ्गों को देखकर भी उनमें रागरुप बुरे परिणाम करना छोड़ देता है, वही दुर्द्धर ब्रह्मचर्य को धारण करता है। * विद्यावाणी * आत्मा में रमना ही सच्चा ब्रह्मचर्य है, जिसके उपरांत किसी भी प्रकार की विकृति या विकारी भावों का प्रादुर्भाव होना संभव नहीं है। उपयोग को विकारों से बचाकर, राग से बचाकर वीतरागता में लगाना चाहिए। यही ब्रह्मचर्य है। पाँचों इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होने का नाम ही 'ब्रह्मचर्य धर्म' है। दान, पूजा, शील एवं उपवास- ये चार धर्म श्रावक के लिए बताए हैं। शील का अर्थ स्वभाव होता है, ब्रह्मचर्य होता है। स्वतत्त्व में रमण, ब्रह्मचर्य- ब्रह्मचर्य का अर्थ है अपनी परोन्मुखी उपयोग धारा को स्व की ओर मोड़ना। बाहरी पथ पर यात्रा न होकर अंतर पथ पर यात्रा होना। बहिर्जगत् शून्यवत् हो जाए एवं अंतर्जगत् उद्घाटित हो जाए। जिस प्रकार आप लोग खिचड़ी बनाने के लिए चावलों को साफ़ करते हैं, तो कंकड़ अलग कर देते हैं और चावल रख लेते हैं। उसी प्रकार भेद-विज्ञान के द्वारा हमें स्वतत्त्व और परतत्त्व की पहचान करके स्वतत्त्व में रमना चाहिए तथा परतत्त्व से राग को हटाना चाहिए। लजा न बेचो शील का पालन सो ढीला ढीला न। * विद्याप्रसंग * मैं चैतन्य पुँज हूँ सन् १९७९, जयपुर, राजस्थान में आचार्यश्रीजी के प्रवचन के पूर्व कुछ लोगों के द्वारा आचार्यश्रीजी के आकर्षक व्यक्तित्व से संबंधित परिचय दिया जा रहा था। आचार्यश्रीजी चुपचाप नीची निगाह किए बैठे शांत-भाव से सब सुन रहे थे। चेहरे पर कोई हाव-भाव की झलक नहीं थी। जब आचार्यश्रीजी के प्रवचन का समय हुआ, तब वे बोले- 'आजकल सभी लोग शरीर में अटक जाते हैं, आत्मा तक नहीं पहुँचते। अभी कुछ लोग मेरा परिचय दे रहे थे, पर वह मेरा परिचय कहाँ था? मेरा परिचय देने वाला तो वही है, जो मेरे अंदर आए, जहाँ मैं हूँ। आपकी दृष्टि भौतिक काया तक ही जा पाती है। आत्मा से परिचय नहीं हो पाता। मेरा सही परिचय है कि 'मैं चैतन्य पुँज हूँ', जो इस भौतिक शरीर में बैठा हुआ है। यह ऊपर, जो अज्ञान दशा में कर्मफल चिपक गया है, उसे हटाने में मैं लगा हूँ, और चाहता हूँ कि वह हट जाए और साक्षात्कार हो जाए आतमराम का, परमात्मा का।' आगे भाव-विभोर होते हुए बोले- 'बस एक बार अनंत चैतन्य के साथ मिलन हो जाए। जब ध्यान में लीन होते समय कुछ अनुभूति के बिन्दु मिल जाते हैं, तो हम आनंद-विभोर हो जाते हैं। उस समय अनंत सिंधु में गोता लगाने वाले के सुख की कोई सीमा नहीं होती, वह सुख असीम है।' बालयति योगीराज आचार्यश्रीजी धन्य हैं! धन्य हैं! आप अपनी चैतन्य आत्मा में रमण कर ब्रह्मचर्य धर्म के सुख की अनुभूति करते रहते हैं। उपसंहार सितंबर, १९८१, सिद्धक्षेत्र नैनागिरिजी, छतरपुर, म.प्र., वर्षायोग में दशलक्षण पर्व के समय प्रवचन करते हुए आचार्यश्रीजी ने कहा- 'जिस प्रकार आप लोग कोई बहुमूल्य हार पहन लेते हैं, तो उसकी सुरक्षा के साथ चलते हैं। उसी प्रकार रत्नत्रय का हार पहनने वाला व्यक्ति (मुनि) इस प्रकार की सुरक्षा के साथ चलता है। मुनि महाराज दस प्रकार के अंगरक्षकों को साथ लेकर के चलते हैं। क्योंकि उनके पास रत्नत्रय का बहुत बड़ा पिटारा, रत्नत्रय की खान है। कोई चुरा ले, तो क्या करेंगे? इसलिए दस धर्म रूपी व्यक्तियों को लगा रखा है। दसों दिशाओं में वो चलते रहते हैं, और बीच में रक्षा के साथ मुनि महाराज चलते हैं। जैसे धनुर्विद्या में अर्जुन निष्णात थे। किधर से भी बाण आ जाएँ, उसके प्रतिकार के लिए उनके पास तैयारी रहती है। और दसों दिशाओं में बाण छोड़ने की क्षमता भी उन्हीं के पास रहती है। शब्दभेदी बाण हैं। देखने की कोई आवश्यकता नहीं, शब्द सुन करके ही, कि किधर से आवाज आ गई? इधर से आ गई तो यूँ करके छोड़ दिया। एक साथ एक ही धनुष के माध्यम से कई-कई दिशाओं में वे बाणों की वर्षा करते थे। रणांगण में किधर से भी, कोई भी आ जाए, तब भी वे सुरक्षित रहते हैं। उसी प्रकार दसों दिशाओं में ये दस धर्म दस बाण के समान हैं। ये रक्षा करने वाले हैं। हमारे पास दशलक्षण धर्म हैं, तो कहीं भी जाओ रक्षा गेरेन्टेड (अवश्य) होगी, और इसमें एक भी अंश की गलती नहीं हो सकती। जब प्यास लगती है तो मालूम है क्या दशा होती है? भागते फिरते हैं आप पानी की तलाश में । जहाँ मिले, वहीं जाएँगे।रेल से जाएँगे या पैदल भी जाएँगे आप। नदी आपके घर नहीं आएगी और आ भी जाए, तो भी आपको ही अंजुली बाँध कर प्यास बुझानी होगी।अब तो प्यास बुझाने के लिए घर में ही नलों में टोंटी लगी हुई है। यह तो आपके हाथ में है उस टोंटी को खोलो अथवा न खोलो।बटन को ऑन कर दो और जी भर कर पानी पी लो। बटन बंद कर दो, तो पानी मिलेगा नहीं। इसी तरह पर्युषण पर्व सदा आपके साथ हैं। आप चाहो तो दस दिन अनुभव कर लो, वर्ष भर अनुभव करो अथवा बिल्कुल भी अनुभव न करो। दशलक्षण धर्म को अपने जीवन में धारण करने के बाद पूरा जीवन पर्वमय हो जाता है। धर्म हमारा पुष्प है और दशलक्षण उसकी पंखुड़ियाँ। धर्म एक सागर है और दशलक्षण उसकी लहरें। आचार्यश्रीजी जिनशासन रूपी सरोवर में सहस्रदलीय कमल की भाँति सुशोभित हैं, जिससे ३६ मूलगुण रूपी पूर्ण विकसित पंखुड़ियों से आकर्षित होकर सरोवर के जल-पान हेतु सभी खिंचे चले आ रहे हैं। गुप्ति, संवर का सबसे उत्तम साधन है। गुप्ति की प्राप्ति समिति के माध्यम से होती है, इसलिए उसके साथ समिति को रखा है। और समिति को समीचीन बनाना चाहो तो वे दशलक्षण धर्म के बिना नहीं बन सकतीं। और दशलक्षण धर्म में बारह भावनाओं के चिंतन को करने से उत्तमता प्राप्त होती है। तो बारह भावनाओं का चिंतन कहाँ करें? एयर कंडीशन मकान में बैठकर या जहाँ पंखा चल रहा हो, कूलर चल रहा हो, हीटर लगे हों, रेडियो भी चल रहा हो वहाँ हो सकता है क्या? ऐसा नहीं है। बारह भावनाओं का चिंतन करना चाहो तो उसके योग्य बाईस परीषह अपनाने होंगे। बारह भावनाएँ, जो संवर का कारण मानी गई हैं उनको कैसे पढ़ना चाहिए, कैसे चिंतन करना चाहिए? तो यह बाईस परीषह सहन करते हुए करना चाहिए। और यह बाईस परीषह बिना चारित्र के सहन करना संवर की कोटि में नहीं आएगा। चारित्र धारण करने के उपरांत परीषह, परीषह कहलाते हैं। सही-सही रूप में तो चारित्र के माध्यम से इन्हें प्राप्त किया जा सकता है।
  3. पंचाचार संसार सागर से पार होने में घाट के समान होने से परम तीर्थ तथा जन्म-मरणादि की बाधा दूर करने में सहायक होने से परम मंगल रूप हैं। इन पंचाचारों का निर्मल रीति से पालन स्वयं करने एवं अपने शिष्यों को भी करवाने से जिनका जीवन एक उत्कृष्ट तीर्थ बन गया है, ऐसे आचार्य भगवन् के जीवन में परिपालित पंचाचारों से संबंधित प्रसंगों को इस पाठ का विषय बनाया जा रहा है। शुद्धात्म-परिचायक : पंचाचार * अर्हत्वाणी * सुदृनिवृत्ततपसां.......आचारो वीर्याच्छुद्धेषु तेषु तु॥७/३५॥ मुक्ति की इच्छा करने वाले भव्य जीवों के द्वारा अपनी शक्ति के अनुसार निर्मल किए गए सम्यग्दर्शनादि में स्थिर रहने का जो यत्न किया जाता है, उसे आचार कहते हैं। दंसणणाणचरित्तेतवे विरियाचारह्मि पंचविहे।.... दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य-ये पाँच प्रकार के आचार हैं। * विद्यावाणी * दीक्षा के समय पहले पंचाचार दिए जाते हैं, जो आध्यात्मिक पद्धति है। प्रत्येक साधु श्रमण बनता है, तो पंचाचार के माध्यम से बनता है, उसके अनुसार ही चलता है। 'प्रवचनसार' ग्रंथ की चूलिका में आचार्य कुन्दकुन्द देव कहते हैं कि आत्मानुभूति के लिए पंचाचारों का होना अनिवार्य है। और पंचाचार का सीधा-सा अर्थ है कि पाँच पापों को मन, वचन, काय से छोड़ना होगा। शुद्धात्मानुभूति को प्राप्त करना ही श्रामण्य है। उस श्रामण्य पद को प्राप्त करने के लिए पंचाचार को ग्रहण किया जाता है। ये पंचाचार की शरण तभी तक है, जब तक कि शुद्धात्मा की प्राप्ति नहीं हो जाती। उद्देश्य शुद्धात्मा की प्राप्ति का होना चाहिए। मुक्ति का बीज : दर्शनाचार * अर्हत्वाणी * तत्त्वार्थविषयपरमार्थश्रद्धानुष्ठानं दर्शनाचारः। परमार्थभूत जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान करना और उन्हीं रूप श्रद्धाविषयक अनुष्ठान-आचरण करना दर्शनाचार है। * विद्यावाणी * सम्यग्दर्शन के बिना आपके चारित्र की शुद्धि नहीं हो सकती है और न ही चारित्र में विकास हो सकता है। इसलिए हमें सम्यग्दर्शन को अच्छे से विशुद्ध बनाए रखना चाहिए। जिस प्रकार माँ कहती है कि जल्दी-जल्दी बेटा बड़ा हो जाए और घर में बहु आ जाए। उसी प्रकार सम्यग्दर्शन रूपी माँ कहती है कि बेटा जल्दी-जल्दी बड़े हो जाओ और चारित्र ग्रहण कर लो, तो मुक्ति रूपी वधू आकर तुम्हारा वरण कर लेगी। सम्यग्दर्शन रूपी बयाना देकर, फिर ज्ञान और चारित्र रूपी पूर्ण मूल्य देकर ही मोक्ष को शीघ्र अपने हाथ में ले लो। आस्था ही बयाना है। उसके बिना खरीदी नहीं होती। जिस प्रकार ललाट पर तिलक (बिंदी) के अभाव में स्त्री का संपूर्ण शृंगार अर्थहीन है, मूर्ति के न होने पर जैसे मंदिर की कोई शोभा नहीं है। इसी प्रकार बिना संवेग के सम्यग्दर्शन कार्यकारी नहीं है।संवेग सम्यग्दृष्टि साधक का अलंकार है। सम्यग्दर्शन है, तो ही मोक्षमार्ग है- सम्यग्दर्शन पेट के लीवर के समान है। यदि लीवर ठीक है, तो पूरी पाचन प्रणाली (स्वास्थ्य) ठीक रहेगा। उसी प्रकार यदि सम्यग्दर्शन है, तो मोक्ष का मार्ग भी है। * विद्याप्रसंग * होता सम्यग्दर्शन का दर्शन सन् २००२, मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में आचार्यश्रीजी ससंघ विराजमान थे। वैसे तो चेहरे का हमेशा ही प्रसन्न एवं प्रशस्त रहना गुरुवर की अपनी एक स्वतंत्र पहचान है। पर एक दिन ईर्या भक्ति के समय आचार्यश्रीजी की कुछ विशेष प्रशस्त भाव से भरी मुस्कान थी। ईर्यापथ भक्ति के उपरांत सभी महाराजों ने साहस कर आचार्यश्रीजी से पूछ ही लिया- आचार्यश्रीजी, आज आप क्यों मुस्कुरा रहे थे? तब आचार्यश्रीजी बोले- 'आप लोगों के लिए मैं एक अकेला दिख रहा हूँ। परंतु मुझे तो अपने सामने ४०-४0 भावी सिद्धों (निग्रंथ साधुओं) के दर्शन हो रहे हैं। इसलिए प्रसन्न हो रहा हूँ। धन्य हैं आचार्यश्रीजी! स्वयं के द्वारा दीक्षित श्रमणों में भावी सिद्धों के दर्शन एक शुद्ध सम्यग्दृष्टि पुरुष को ही हो सकते हैं । सम्यग्दर्शन जब भावों की परिधि से बाहर निकल कर आचार में ढलता है, तब कहीं जाकर ऐसी परिकल्पना आकार पाती है। मुक्ति का दीपदान : ज्ञानाचार * अर्हत्वाणी * पंचविधज्ञाननिमित्तं शास्त्राध्ययनादिक्रिया ज्ञानाचारः। पाँच प्रकार के ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय एवं केवलज्ञान) के निमित्त शास्त्र अध्ययन आदि क्रियाएँ करना ज्ञानाचार है। कालविनयोपधानबहुमाना............तदु भयसंपन्नत्वलक्षणज्ञानाचारः॥१६ कालाचार, विनयाचार, उपधानाचार, बहुमानाचार, अनिह्नवाचार, अर्थाचार, व्यंजनाचार, और उभयाचार संपन्न ज्ञानाचार है। * विद्यावाणी * विश्व के जितने भी पदार्थ हैं, उनको ज्ञानाचार प्रकाशित करता है। इसलिए विश्व दीपक संज्ञा ज्ञानाचार को दी है। सिद्धालय को देखने के लिए टार्च के समान ज्ञानाचार है। ज्ञानी का ज्ञान, वही माना जाता है, जो विषयों एवं कषायों से बचा रहता है। लेकिन जो विषय कषायों में लगा है, वह ज्ञान किसी काम का नहीं है। आत्मज्ञान ही ज्ञानाचार है। जिससे आत्मज्ञान नहीं होता है, वो ज्ञान नहीं है। पापों से यदि मुक्ति नहीं मिलती है तो वो ज्ञान किस काम का? वह ज्ञान बेकार है, जो क्रिया से रहित है। यदि ज्ञान का सदुपयोग करें, उसे अच्छे कार्यों में लगाएँ तो हमारे मन में उत्पन्न होने वाले संकल्प विकल्प समाप्त हो सकते हैं। धर्म से जो बचाए (धर्म की ओर न जाने दे), सत्कार्यों से जो बचाए उसे पाप कहते हैं। जो पाप से बचाए, धर्म की ओर ले जाए उसे पुण्य कहते हैं। जो पुण्य-पाप को एक मानकर चल रहे हैं वह ज्ञान का दुरुपयोग कर रहे हैं। ज्ञान के दुरुपयोग से पुण्य नहीं, पाप का बंध होता है। ज्ञान का उपयोग दुर्लभ है। आस्था व चारित्र से पोषित ज्ञान- संयमित ज्ञान होना चाहिए। ज्ञान को दर्शन व चारित्र के मध्य में रखा जाता है। जैसे, मेले में घूमने जाते हैं तो छोटा लड़का बीच में रहता है। उसका एक हाथ माँ पकड़ती है, दूसरा हाथ पिता पकड़ लेता है। उसी प्रकार दर्शन (आस्था) माँ है, ज्ञान लड़का है, चारित्र कठोर है सो पिता है। इसलिए लड़के को बीच में रखा। आस्था मजबूत होगी तो ज्ञान का पोषण होगा। जिसके पीछे आस्था व आगे चारित्र हो तो वह ज्ञान सही होता है। ज्ञान ज्ञेय से बड़ा आकाश आया छोटी आँखों में। विशुद्धिकारक : कालाचार * अर्हत्वाणी * पूर्वाह्नस्यापराह्नस्य................सिद्धान्तपाठाद्ययोग्यमेव च ॥१६२९-१६३०॥ पूर्वाह्न के पूर्व प्रहर की एक घड़ी, बाद के प्रहर की एक घड़ी, मध्य की दो घड़ी, अपराह्न के अंतिम की एक घड़ी, आगे के प्रहर की पूर्व घड़ी, मध्य की दो घड़ी। मध्य रात्रि के पूर्व और पश्चिम बाद की एक-एक दो घड़ी, मध्याह्न की भी पहले और बाद की एक-एक घड़ी ऐसे दो-दो घड़ी का मध्यकाल से सिद्धान्त ग्रन्थों को पढ़ने के लिए अयोग्य काल है अथवा संधि काल के पहले और बाद की दो-दो घड़ी छोड़कर स्वाध्याय का काल है। संधि काल के आगे और पीछे की दो-दो घड़ी (चारों संधियों की) स्वाध्याय के लिए अयोग्य है। * विद्यावाणी * स्वाध्याय करने के काल को कालाचार के अन्तर्गत रखा जाता है। विशेष रूप से सिद्धांत ग्रंथों का निषेध है। पर्व आदि के दिनों में सिद्धांत ग्रंथों के स्वाध्याय का हम लोगों को भी निषेध किया है। अब आज कोई पालन नहीं कर रहा है। ग्रहण लग जाने पर एवं अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा, इन दिनों में स्वाध्याय नहीं किया जाता है। सल्लेखना के समय सिद्धांत ग्रंथों का वाचन नहीं करने को कहा है, क्योंकि पूरे संघ को विकल्प रहता है। कालाचार जरूरी- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव इन चारों की शुद्धिपूर्वक सिद्धांत ग्रंथों का पठन-पाठन करते हैं, तो इसमें संघ की, श्रुत की, परंपरा की सुरक्षा होती है। स्वाध्याय करते समय १००-१०० हाथ का क्षेत्र शुद्ध होना चाहिए। क्रोध, मान, माया आदि विभाव परिणामों को त्याग कर स्वाध्याय करें ये भाव शुद्धि है। पूज्यवर धरसेन, गुणभद्र आदि आचार्यों द्वारा लिखे शास्त्र पढ़ने जा रहे हो तो मन शुद्ध होना चाहिए। द्रव्य व मन बिगड़ा है तो वचन कैसे सुधरेगा? आज एक कमरे में सब कुछ होता है, और सिद्धांत ग्रंथों का संपादन भी ऐसा हुआ कि एक हाथ से जलेबी खा रहे हैं और दूसरे हाथ से पढ़ते हुए संपादन हो रहा है। आज ये बात हो रही है, इसी का दुष्परिणाम भी देखने को मिल रहा है। * विद्याप्रसंग * क्रिया में विधि आवश्यक कोई भी क्रिया करो विधि के अनुसार करो, दाता और पात्र को देखकर करो। इन सभी बातों को ध्यान में रखकर करने से ही क्रिया फलवती होती है। किसी पेट के रोगी को वैद्यजी ने दवाई में गोली दी और कहा कि सुबह-शाम लेते जाओ, पेट ठीक हो जाएगा। बीस गोलियाँ थीं। उसने पूछा नहीं कि एक बार में कितनी लेना है और एक ही दिन में इकट्ठी बीस गोली ले लीं। गर्मी ज़्यादा हो गई, बर्दाश्त नहीं हुई, आँखें जलने लगीं, और भूख-भूख कहने लगा। पूछा, अरे भैया! पेट तो ठीक है, अब तो पेट भी गड़बड़ होने लगा। दस दिन की खुराक एक दिन में लेंगे, तो क्या होगा? सहन नहीं कर सका। आस्था बिगड़ गई। अनुपात चाहिए औषधि सेवन में । जैसे वैद्य के अनुसार खुराक और अनुपात का ध्यान रखा जाता है, इसी प्रकार प्रत्येक क्रिया में विधि आवश्यक है। स्वाध्याय करो, कहने से आज प्रायः ऐसा ही करते हैं। उस व्यक्ति के समान गोली एक दिन में ही खा लेते हैं । एक वर्ष में जो स्वाध्याय करना है उसे एक माह में कर लो। रात-दिन एक कर लो, किंतु ऐसा नहीं है। अपना अनुपात बिगाड़ लेते हैं। संभव है इसलिए अष्टमी, चतुर्दशी, प्रतिपदा इत्यादि के दिन श्री वीरसेन भगवान ने सिद्धांत ग्रंथों के पढ़ने का निषेध किया है। हम यह नहीं करते हुए बंदर के समान गाल भर लेते हैं। बंदर इसलिए भर लेता है कि आप लोग ले न लें। फिर बंदर एकांत में जाकर उसको निकाल कर खा लेता है और आप लोग क्या करते हैं? कल और सुन लेंगे, क्या बात हो गई? पर ध्यान रखो, उसका कुछ भी पाचन नहीं होगा। उसके प्रति बहुमान, उसके प्रति विनय, उसके लिए कुछ काल अपेक्षित है। कोई भी एक वस्तु को ग्रहण करते हैं, तो उसके बाद ग्रहीत वस्तु का चिंतन करना आवश्यक होता है। और फिर धारणा बनाओ, फिर आगे बढ़ो।" धन्य है! आचार्यश्रीजी को, जो आगम में कथित निषेध प्रकरणानुसार ही सिद्धांत ग्रंथों की वाचना करते हैं। उनकी कथनी एवं करनी में साम्य है।वह उपदेश में जो आगम का कथन करते हैं, उसका तो हू ब-हू परिपालन करते ही करते हैं, साथ ही साथ स्वाध्याय के दौरान जिन विषयों की मात्र अनुभूति होती है, पर जिन्हें अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता, उनके परिपालन के प्रति भी वह सजग -सतर्क रहते हुए अपने आचारों का पालन स्वयं करते हैं एवं शिष्यों को भी करवाते हैं। ज्ञानसिद्धि सोपान : विनयाचार * अर्हत्वाणी * सुपर्यंकार्द्ध...........................विनयो मतः ॥१६६२-१६६३॥ मुनि लोग जो पर्यंकासन, अर्द्धपर्यंकासन, वीरासन आदि में से कोई एक आसन लगाकर, हाथों को शुद्धकर, सिद्धांत सूत्रों को ही नमस्कार कर तथा उन्हीं को हृदय में विराजमान कर मन-वचन-काय की शुद्धतापूर्वक जो सूत्र वा सूत्र के अर्थको पढ़ते हैं, उसको ज्ञान का विनय वा विनयाचार कहते हैं। * विद्यावाणी * सम्यग्दर्शन के आठ अंगों के बारे में तो चर्चा बहुत हो जाती है, पर सम्यग्ज्ञान के आठ अंग हैं तथा उनके लक्षण, परिभाषा, भेद आदि किसी को नहीं मालूम। उसमें एक विनयाचार भी है। अधिक शास्त्र होने से आज विनय में कमी आती जा रही है। बहुमान नहीं रख पाते हैं। उन्हें कहीं भी रख देते हैं, कैसे भी उठा लेते हैं। ऐसा होता हुआ देखते हैं, तो मन में खेद खिन्नता हो जाती है। शास्त्र कम मात्रा में होने से अध्ययन परिश्रम से होता है। उसकी विनय भी बनी रहती है। पढ़ना इतना आवश्यक नहीं, जितना आचरण होना चाहिए। वे पार्सल से आए, कैसे पटके गए, कैसे रखे गए हैं? यह सब विनय नहीं है। शास्त्र जिस स्थान से लाते हैं, उसी स्थान पर रखना चाहिए।जैसे श्रीजी को वेदी से उठाते हैं,थाली में रखते हैं, अभिषेक आदि करके पुनः विराजमान कर देते हैं। बीच में और कोई बातें आदि नहीं करते हैं। ये विनय है। कम से कम ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणी, त्यागी, तपस्वियों को तो इस ढंग से रखना, उठाना चाहिए। पात्र का महत्त्व समझो- जिस किसी को भी नहीं पढ़ना चाहिए। इससे भी जिनवाणी का अनादर होता है। पात्र को ही पढ़ना चाहिए।और पात्र को ही पढ़ाना चाहिए। यदि योग्यता नहीं है, तो नहीं पढ़ाना चाहिए। सम्यग्दृष्टि जीव विद्या का दुरुपयोग नहीं करता है। इसीलिए पात्रता को देख शुद्धि और विशुद्धि दोनों के साथ आर्षप्रणीत ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए। जो विनयशील हो, ग्रहण करने की योग्यता रखता हो, हमारी बात समझने की पात्रता जिसमें हो, उसे ही विद्या का दान करना चाहिए। विनयहीन को शिक्षा देना व्यर्थ है। वह अकीर्ति का कारण बनेगा। * विद्याप्रसंग * ज्ञान विनयी ८ जून, २०१८, पपौराजी (टीकमगढ़) म.प्र. में गर्मी अपनी चरम सीमा पर नृत्य कर रही थी। आचार्यश्रीजी एवं संघ के प्रायःकर अधिकांश साधु पुरानी चौबीसी में विराजमान थे। चौबीसी के बीच चौक में एक मुख्य मंदिर है, उसके चारों तरफ़ दहलान, और दहलान में दीवाल की ओर से पंक्तिबद्ध मढ़िया रूप में बनी चौबीस वेदियाँ हैं। इस समय जीर्णोद्धार का कार्य चलने से वेदियों में श्रीजी विराजमान नहीं थे। मुख्य मंदिर के दाहिनी ओर की खुली दहलान में आचार्य भगवन् विराजमान थे। शेष तीनों तरफ़ की दहलान में अन्य साधुओं के आसन लगे हुए थे। किन्हीं-किन्हीं मुनिराजों के वेदी के भीतर भी स्थान थे। आचार्यश्रीजी को अपने स्थान से अन्यत्र कहीं जाना होता, तो इन दहलानों से निकलना होता। निकलते समय उनके दोनों हाथ में पिच्छी ऐसे झूलती जैसे देव वंदना के समय उठी रहती है। मस्तक भी नम्रीभूत रहता। एक दिन यह दृश्य जब टीकमगढ़ की बहन ब्र. अनीता दीदी ने देखा, तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। वेदियों में भगवान् नहीं, फिर भी देववंदनावत् गुरुजी की मुद्रा क्यों ? सो पूछ बैठी वहीं उपस्थित मुनि श्री नीरोगसागरजी से- 'महाराजश्रीजी! वेदी में भगवान् भी नहीं, फिर भी आचार्यश्रीजी ढोक देते हुए यहाँ से निकल रहे हैं, आखिर क्यों ?' महाराजश्रीजी बोले- 'अरे! अर्हत् प्रभु को नहीं, हम लोगों के बाजोटे पर जो माँ जिनवाणी विराजमान हैं, उन्हें ढोक देते हुए निकलते हैं गुरुवर।' यह सुनकर उनका हृदय आश्चर्य एवं आनंद से भर गया। उसने पूछा- 'जब-जब निकलते, तब तब हमेशा?' वह बोले- 'हाँ, हमेशा। जब कभी भी वह शास्त्रों के सामने से निकलते हैं, तब वह पिच्छी हाथ में लेकर ढोक देते हुए ही निकलते हैं।' गुरुजी के निकलने पर सारे साधु हाथ में पिच्छी लिए गुरुजी की विनय हेतु नमोऽस्तु मुद्रा में खड़े थे और गुरुजी माँ जिनवाणी की विनय हेतु नमोऽस्तु मुद्रा में गमन कर रहे थे। उस समय बड़ा ही हृदयहारी दृश्य था। इसे देखकर लगा कि कितनी ज्ञानविनय अंतस् में समाई होगी, तब कहीं बाह्य में इस प्रकार से प्रस्फुटित हो जाती है। निश्चित ही गुरुवर की ज्ञानविनय केवलज्ञान प्रकटाने में शीघ्र ही साक्षात् कारण बनेगी। श्रेष्ठमति का हेतु : उपधानाचार * अर्हत्वाणी * आचाम्लनिर्विकृताद्यैः............. स्मृतो महान् ॥१६६४-१६६५॥ शास्त्रज्ञान की उत्कट इच्छा रखने वाले मुनि ग्रंथ की समाप्ति तक केवल भात मिला माड़ खाने का निर्विकृति (विकार रहित पौष्टिक रहित) आहार ग्रहण करने का वा पक्वान्न रस को त्याग करने का जो नियम लेते हैं और ऐसा नियम लेकर अपनी आत्मा का कल्याण करने के लिए आग्रह पूर्वक जो सिद्धांतों का पठन-पाठन करते हैं, उसको ज्ञान का उपधान नाम का आचार कहते हैं। * विद्यावाणी * उपधानाचार विनय में किसी वस्तु का त्याग अथवा कोई नियम लिया जाता है। स्वाध्याय काल में अर्थात् ग्रंथ के पूर्ण होने तक इष्ट वस्तु का त्याग करना चाहिए। इससे ज्ञान में वृद्धि होती है। किन्तु त्याग मन से करना चाहिए। रटें नहीं, अर्थ खोलते-खोलते पढ़ें तो याद हो जाएगा। आज सेल्फ रीडिंग हो गई है, तो खूब सारी किताबें छपने लगीं। याद करने की आज बात रही नहीं। रत्नकरण्डक श्रावकाचार, मूलाचार, कुन्दकुन्द भारती जीवित रहे। मूल को सुरक्षित रखना है। पहले आम्नाय के माध्यम से सुरक्षित रखते थे। आचार्यों की गाथा को हृदय में स्थान देना चाहिए। उसमें बहुत विशुद्धि घुली होती है। मूल बीज सुरक्षित रखें- जैसे, किसान बीज को बचाए रखता है, वैसे ही हमें आचार्यों के मूल ग्रंथ बचाए रखना चाहिए । यहाँ-वहाँ के सम्पादित ग्रंथ नहीं पढ़ना चाहिए। शास्त्र परिवर्तन से दोष आ जाते हैं। आज भारत का मूल बीज प्रायः समाप्त होता चला जा रहा है, विदेशी आता जा रहा है। शैथिल्य (शिथिलता) अलग वस्तु है और शास्त्र का परिवर्तन अलग वस्तु है। आज घर घर डॉक्टर बन रहे (सम्पादक) हैं, ऐसा नहीं होना चाहिए, वरना रोग कभी ठीक नहीं होगा। * विद्याप्रसंग * जिनवाणीआराधक सन् १९९७, सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर (देवास) म.प्र. का प्रसंग है। कई वर्षों के अंतराल के बाद आचार्यश्रीजी ने संघ के लिए षट्खण्डागम-धवला पुस्तक-४ की कक्षा लगाने का मन बनाया।और अपनी यह भावना संघ के समक्ष रखी। इसे सुनकर संघस्थ ब्रह्मचारी भाइयों ने उत्साह व्यक्त करते हुए कहा 'आचार्यश्रीजी हम लोगों को भी आपके मुखारविंद से धवला ग्रंथों को सुनने का सौभाग्य प्राप्त होगा। तब आचार्यश्रीजी बोले- 'नहीं, षट्खण्डागम-धवला पुस्तक-९ में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की शुद्धि का वर्णन आया है। अतः हमें ग्रंथों का बहुमान रखना चाहिए। जब तक आरंभ-परिग्रह के त्यागी नहीं बनते, तब तक इन ग्रंथों का पठन नहीं करना चाहिए। आप लोग अभी ग्रंथ पढ़ने के योग्य नहीं हो, इसलिए मैं कक्षा में बैठने की अनुमति नहीं दे सकता। हाँ! यदि आरंभ परिग्रह त्याग कर दशवीं प्रतिमा का संकल्प ले लें, तो बैठ सकते हैं। श्रावण कृष्ण प्रतिपदा-वीर शासन जयंती के दिन कतिकर्म पूर्वक बड़े ही बहुमान के साथ षट् खण्डागम- धवला पुस्तक-४ की कक्षा प्रारंभ होने से पूर्व आचार्यश्रीजी ने कहा- 'सिद्धांत ग्रंथों का जब भी अध्ययन करो, तो कोई विशेष संकल्प अथवा कोई इष्ट वस्तु का त्याग करके ही करना चाहिए।' तब क्षुल्लक श्री प्रज्ञासागरजी (वर्तमान में मुनि श्री अजितसागरजी) ने सेवफल का त्याग किया। अन्य महाराजों ने भी इष्ट वस्तु के त्याग का संकल्प लिया। आचार्यश्रीजी ने भी कोई न कोई संकल्प अवश्य ही लिया होगा, पर वह अपने विषय में कुछ भी बताते कहाँ हैं, सो अज्ञात ही रहा। और ब्रह्मचारी भाई रजनीशजी (वर्तमान मुनि श्री संभवसागरजी), ब्र. भाई अजयकुमारजी (मुनि श्री प्रभातसागरजी), ब्र. भाई सर्वेशजी (मुनि श्री प्रणम्यसागरजी), ब्र. भाई अजितजी (मुनि श्री प्रसादसागरजी) आदि ने आरंभ-परिग्रह त्याग कर अनुमति त्याग' रूप दशवी प्रतिमा का संकल्प लेकर कक्षा में बैठने की योग्यता प्राप्त की। इस तरह आचार्यश्रीजी के द्वारा कराए गए उपधानाचार पूर्वक सिद्धांत ग्रंथों के अध्ययन-अध्यापन की कक्षा शुरू हो गई, तब से अब तक संघ में षट्खण्डागम-धवला, कषायपाहुड-जयधवला, महाबंध-महाधवला की कक्षाएँ अनवरत चलती रहती हैं । उपधानाचार का ही फल समझा जाए कि इन ब्रह्मचारी भाइयों के ऊपर ऐसी गुरुकृपा हुई जिससे आचार्य श्री जी ने सिद्धोदय तीर्थ नेमावर में एक माह में ही ९ अगस्त, १९९७, श्रावण शुक्ल षष्ठी के दिन क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की। धन्य है! जिनवाणी के आराधक गुरुवर, जो आगम में कथित स्वाध्याय पद्धति का पूर्णतः पालन स्वयं करते और करवाते हैं। गुणकीर्तन का उपाय : बहुमानाचार * अर्हत्वाणी * अङ्गपूर्वश्रुतादीना................ लभेत सः ॥१६६६-१६६७॥ अंग पूर्व और अन्य शास्त्रों का सूत्र अर्थ जैसा है उसी प्रकार जो वाणी से उच्चारण करते हैं, उसी प्रकार दूसरों के लिए प्रतिपादन करते हैं । यह सब पठन-पाठन केवल कर्मों के क्षय के लिए करते हैं तथा अभिमान से आचार्य,शास्त्र वा किसी योगी का कभी तिरस्कार नहीं करते उसको बहुमान नाम का ज्ञानाचार कहते हैं। * विद्यावाणी * कालाचार आदि अष्टांग युक्त जिनवाणी का बहुमान होता है, तो तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता। ज्ञान का दुरुपयोग पाप को लाने वाला होता है। ज्ञान के द्वारा पुण्य होना चाहिए। उससे कर्म की निर्जरा होनी चाहिए। एक-एक क्षण मोक्षमार्ग में ही लगाना चाहिए। पसीना बहा-बहा करके एक-एक क्षण की साधना की, तो उसका दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। यह बीज है। उसे अच्छी तरह बोना चाहिए। ऐसे बीज बोओ कि हजार गुणित फल आए, भटकन मिट जाए। ज्ञान का बहुमान यही है। जिनवाणी को रेवड़ी की तरह बाँटना नहीं है। आज यही हो रहा है। यह बाँटने की चीज है ही नहीं। इसके प्रति आप बहुमान नहीं रखेंगे, तो यह गलत हो जाएगा।आप इसका बहुमान करो। जिनवाणी का क्या गौरव होना चाहिए? उसे कैसे रखें, उठाएँ-इसका ख्याल रखना चाहिए। शास्त्रों को यदि पवित्र मन से छूते हैं, तो अलग प्रकार की अनुभूति-संवेदना होती है। वही एक बात आचार्यों ने बता दी कि जिनवाणी की उपासना करने से हमें सम्यग्ज्ञान की उपलब्धि होती है। ऐसे करो माँ का बहुमान- लोग जब धुले हुए साफ़ सुथरे अच्छे कपड़े पहनकर आ जाते हैं, तो कैसे बैठते हैं? मालूम है आपको? उनके बैठने में आदान-निक्षेपण समिति (बैठने से पूर्व मार्जन करना) आ जाती है, भीतरी जेब में रखी हुई रूमाल, एक प्रकार से पिच्छी का काम करने लग जाती है। उस समय हम सोचते हैं कि भैया! यह कौन से मुनि महाराज आ गए। कैसी आदान निक्षेपण समिति चल रही है? यदि रूमाल नहीं है उनके पास, तो फंक ही मारते हैं, और ऐसे बैठ जाते हैं जैसे बिल्कुल ठीक आसन लगाकर प्राणायाम होने वाला हो। ऐसे कैसे बैठ गए? कौन सी आसन है? आसन-वासन कुछ नहीं वह, किन्तु वसन गन्दी न हो, इसलिए ऐसा बैठते हैं। इस प्रकार की प्रवृत्ति करते समय जरा सोचो तो बंधुओ! इससे किसकी रक्षा हो रही है? वस्त्र की या जीवों की? जब वस्त्रों की रक्षा आप इतने अच्छे ढंग से करते हैं, तब जिनवाणी की रक्षा किस प्रकार करना चाहिए? आचार्यों ने कहा है- उसको नीचे मत रखो।उसे कहीं ऊँचे स्थान पर रखो। उसके प्रति आदर से खड़े होओ। * विद्याप्रसंग * अनोखा दृश्य आचार्यश्रीजी द्वारा संघ में सामूहिक कक्षा के रूप में अध्ययन-अध्यापन का कार्य अनवरत चलता रहता है। सामूहिक कक्षा के लिए एक उचित स्थल नियत होता है। आचार्यश्रीजी सिंहासन पर विराजकर कक्षा नहीं लगाते । कक्षा के समय वह एक सामान्य तख़्त पर विराजमान हो जाते एवं उनके तीनों ओर भूमि पर एक-डेढ़ इंच ऊँचे पाटे रखे होते हैं जिन पर शिष्यगण विराजमान होते हैं। कक्षा प्रारंभ होने से कुछ समय पूर्व कोई एक मुनि महाराज आचार्यश्रीजी के कक्ष में जाकर जिस ग्रंथ की कक्षा चल रही होती है, उस ग्रंथ को आचार्यश्रीजी जिस पुस्तक से पढ़ रहे होते हैं, उसे लाकर कक्षा स्थल में स्थित आचार्यश्रीजी के बाजौटे पर रख देते हैं। प्रतिदिन का यही क्रम रहता है। ३ अप्रैल, २००५, कुण्डलपुर (दमोह) मध्य प्रदेश ग्रीष्मकालीन वाचना के समय मध्याह्न में मूलाचार ग्रंथ की कक्षा चल रही थी। जैसे ही कक्षा का समय हुआ कि संघस्थ ५२ साधु अपनी-अपनी पुस्तक हाथ में लिए विद्यार्थी की तरह कक्षा स्थल में आकर आचार्यश्रीजी की प्रतीक्षा में खड़े थे। तभी देखा कि ज्ञान साधना' संज्ञक संत निवास में बड़े बाबा छाया' नामक कक्ष से निकलते हुए आचार्य महाराज स्वयं ही एक हाथ में अपना ग्रंथ लिए और दूसरे हाथ में पिच्छी लिए हुए एक आकर्षक विद्यार्थी के रूप में चले आ रहे हैं। यह देखकर सभी महाराज आपस में एक-दूसरे को प्रश्नवाचक दृष्टि से देखने लगे कि क्या आज कोई भी आचार्यश्रीजी के ग्रंथ को लाने नहीं पहुँचा और सभी अपने आप में लज्जा का अनुभव करने लगे। परंतु आचार्य भगवन् इन सभी विकल्पों से परे, प्रसन्न मुद्रा में,प्रतिदिन की भाँति आज भी उत्साह पूर्वक आकर अपने स्थान पर आसीन हो गए। धन्य है आचार्य भगवन् को! कक्षा के समय उनका उत्साह, उनके चेहरे का तेज कुछ अलग ही रहता है। कितने भी अस्वस्थ्य अवस्था से क्यों न उठे हों, पर कक्षा में उनका रूप कुछ अलग ही आकर्षक होता है।आचार्यश्रीजी के इस अनोखे दृश्य ने उनके शिष्यों के लिए सरलता, सहजता, कर्त्तव्य परायणता एवं जिनवाणी के प्रति बहुमान की एक अमिट छाप छोड़ दी। परम कल्याण साधक : अनिह्नवाचार * अर्हत्वाणी * सामान्यादि.............सर्वोऽप्यनिह्नवाचार उच्यते ॥५२ कोई अभिमानी पुरुष किसी उत्तम शास्त्र को किसी सामान्य मुनि से पढ़कर यह कहे कि मैंने तो यह शास्त्र अमुक महर्षि से पढ़ा है अथवा किसी उत्तम शास्त्र को किसी निग्रंथ मुनि के समीप पढ़कर यह कहे कि मैंने तो यह शास्त्र अमुक मिथ्या साधु से, कुलिंगी से पढ़ा है अथवा पढ़े हुए शास्त्र के लिए भी यह कहे कि मैंने यह शास्त्र नहीं पढ़ा है अथवा नहीं सुना है अथवा मैं इसको नहीं जानता इस प्रकार जो मूर्ख लोग कहते हैं उसको निह्नव कहते हैं। इस निह्नव दोष का त्याग कर आचार्य आदि योगियों की, गुरु की, उपाध्याय की, शास्त्रों की और सुनने व पढ़ने की प्रसिद्धि करना लोक में आचार्य, गुरु, उपाध्याय आदि के गुण प्रकाशित करना मोक्ष की इच्छा करने वाले मुनियों के अनिह्नवाचार कहलाता है। * विद्यावाणी * जिस ग्रंथ का अध्ययन किया जाता है उसके प्रति बहुमान रखना। जिनसे पढ़ता है, जिनसे सुनता है, उनका नाम बता देना उसको छुपाना नहीं। उनकी पूजा, उनका गुणस्तवन इत्यादि करना। बहुत अच्छा पढ़ाते हैं। बिल्कुल ऐसा पढ़ाते हैं कि क्या बताएँ? हमें पढ़ना नहीं आता था, इनसे बहुत बड़ी पढ़ाई कर ली तभी अब आज तत्त्वनिष्ठ हो गए हैं। ऐसा उनका गुणानुवाद करना, अनिह्नवाचार है।हमारा नहीं, गुरुदेव का है, मात्र ऐसा कहना भी पर्याप्त है। हमने बहुत परिश्रम किया, तब ज्ञान हो पाया। वो कम बताते थे, लेकिन हम तीक्ष्ण बुद्धि वाले थे। हमारी प्रतिभा जन्मजात थी और हमने इसको यूँ पकड़ा कि बस...बहुत मेहनत की है, तब ज्ञान हुआ है। कई बार हम ही उनकी शंका का समाधान कर देते थे। ऐसा कहना उल्टा काम है। यह निह्नव नामक दोष है। निह्नव कर देंगे, तो गड़बड़ जो जाएगा। परंपरा टूट जाएगी। जैसे कोई मुनि पहले अच्छे से पढ़ाते हों और बाद में यदि वो भ्रष्ट या किसी गलत मार्ग या यद्वा-तद्वा आचरण करने लग जाएँ, तो उसका नाम नहीं लेना चाहिए। यदि हम उनका नाम लेते हैं तो जिनवाणी के बारे में और आपके आचरण के बारे में भी प्रश्नचिह्न लगने लगते हैं । इसलिए ऐसे नाम नहीं लेना चाहिए। किससे क्या सुनना चाहिए, किससे क्या पढ़ना चाहिए, यह विवेक होना चाहिए। जिस किसी से मोक्षमार्ग संबंधी बातें नहीं सीखते। इसलिए गुरु बनाए जाते हैं। आज ऋद्धि-सिद्धि, तपों में वृद्धि होनी चाहिए, पर नहीं हो रही है। मतलब कहीं न कहीं विशुद्धि में, गुरु की विनय में कमी है।" * विद्याप्रसंग * अनिह्नवाचार गुण बताऊँ कैसे अनिवाचार का 'विद्याप्रसंग' लिखने का जब अवसर आया, तब ऐसा लगा कि जिसका रोम रोम, कण-कण अनिह्नवाचारी हो, गुरु के परोक्ष (समाधिस्थ) हो जाने पर भी जो स्वयं के द्वारा किए जाने वाले हित संपादनों के पीछे अपने गुरु का ही हाथ मानते हों। जब कभी भी कोई उनकी प्रशंसा करे या उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करे, तब वह तुरंत ही इस सबका श्रेय अपने गुरु को देते हुए कहते हैं- इसमें मेरा कुछ भी नहीं, सब कुछ गुरु महाराज का ही है। वह जो बताकर गए हैं, वही तो मैं कर रहा हूँ। यह सब कुछ वही तो करा रहे हैं। वो हमें दिशा निर्देश देते रहते हैं,हर क्षण मेरे साथ रहते हैं। वो कहीं गए ही नहीं। आज्ञा रूप में, शिक्षा रूप में हमेशा-हमेशा हमारे साथ हैं।' इस तरह जो पल-पल, पग-पग पर अपने गुरु को स्मरण करते हों, उनके प्रसंगों को यदि लिखा जाएगा, तो एक स्वतंत्र शास्त्र तैयार हो जाएगा। ऐसे समर्पण एवं कृतज्ञता से भरे हुए व्यक्तित्व के अनिवाचारत्व के विषय में क्या लिखा जाए? कितना लिखा जाए? कैसे बताया जाए? असंभव ही है। पाठक भी अब तक के पठित चरित्र में समय-समय पर आचार्यश्रीजी के मुख से कथित गुरु उपकारों से परिचित हुए हैं। यहाँ उपलक्षणभूत कुछे के प्रसंग प्रस्तुत हैं- गुरु उपकार गाऊँ कैसे १२ जून, १९८०, गुरुवार, सागर, म.प्र. में दादा गुरु आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज के समाधि दिवस ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या के दिन श्रद्धांजलि के अवसर पर आचार्यश्रीजी का अनिह्नवाचार गुण स्पष्टतः परिलक्षित हुआ था। उन्होंने कहा- 'पूर्व भव का संस्कार या संयोग ही समझना चाहिए कि मैं हिन्दी तथा संस्कृत-प्राकृत के ज्ञान से शून्य अवस्था में, दूर देश कन्नड़ प्रांत से पूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के संपर्क में आ पहुँचा। और उन्होंने सिर्फ पाँच वर्ष में मुझे जैन सिद्धांत, व्याकरण, न्याय तथा साहित्य का अध्ययन करा दिया। अध्ययन ही नहीं कराया, किंतु संसार सागर से पार करने वाली दैगंबरी दीक्षा भी प्रदान की। उन्होंने मेरे प्रति महान् उपकार किया है। किन शब्दों में उनका उपकार प्रकट करूँ? प्रकट करने की मुझमें क्षमता नहीं है। 'गुरु आपकी कृपा से सब काम हो रहा है, करते हैं मेरे गुरुवर मेरा नाम हो रहा है', ऐसे भावों से भरे आचार्यश्रीजी के अनिह्नवाचार को देखकर ऐसा लगता है कि जिस तरह सम्यग्दर्शन के आठ अंगों में आठ व्यक्ति प्रसिद्ध हुए हैं, वैसे ही आगामी तीर्थंकरों की वाणी में भरत क्षेत्र के पंचम काल के ज्ञानाचार के अंग अनिह्नवाचार' गुणधारी में आचार्यश्रीजी का नाम प्रसिद्धी को प्राप्त होगा। धन्य है! धन्य है!! वही सिखाता हूँ, जो मेरे गुरु ने मुझे सिखाया एक बार विहार के दौरान आचार्यश्रीजी के पैर के अंगूठे में चोट आ गई। और खून बहने लगा। सभी ने आचार्यश्रीजी को ठहरने का निवेदन किया। उसी समय एक आर्यिका संघ को आचार्य भगवन् के दशना का लाभ प्राप्त हुआ। उन्हान भा ठहरन का बहुत बहुत बार विनम्र निवेदन किया। पर मोक्षपथ के अथक राही बीच राह में ठहर भी कैसे सकते थे, सो जाकर मुकाम पर ही विश्राम किया। आर्यिकाजी ने गुरुवर से कहा 'भगवन्! विहार के दौरान अँगूठे में इतनी चोट आ जाने पर निवेदन किया, फिर भी आप ठहरे नहीं। नदी की प्रवाह की । तरह अबाधगति से चलते ही रहे। यह देखकर हमें बहुत दुःख हो रहा था।' अपनी चिर-परिचित मुस्कान के साथ गुरुदेव । बोले- 'यदि मैं रुक जाता, तो असंख्यातगुणी निर्जरा का ।लाभ एवं तृण परीषह, चर्या परीषह विजय करने का सुअवसर नहीं मिल पाता। और फिर अभी तक वचनों के द्वारा उपदेश दिया है, कुछ ‘प्रवृत्तिमूलक शिक्षा भी होनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं करूँगा. तो अधूरा निर्देशन, अधूरा उपदेश एवं अधूरी शिक्षा कहलाएगी। मेरे गुरुदेव ने भी मुझे ऐसा ही सिखाया है। जो भी मिला है, उन्हीं से मिला है। उन्होंने यही कहा कि आपको मिला है, आप भी बाँटते जाओ।' जिन्होंने मुझे बालक अवस्था में प्रारंभिक शिक्षा से ही पढ़ाया है,वो तो परम उपकारी हैं। स्वाध्याय की पृष्ठ भूमि : व्यंजनाचार * अर्हत्वाणी * अक्षरस्वरमात्राद्यैर्यच्छुद्धं............. व्यंजनाचार एव सः॥ चतुर पुरुष गुरु के उपदेश के अनुसार जो अक्षर, स्वर ,मात्राओं का शुद्ध उच्चारण करते हैं उसको व्यंजनाचार कहते हैं। * विद्यावाणी * मोक्षमार्ग में पदार्थ की ओर दृष्टि बाद में जाती है। सर्वप्रथम शब्द की ओर दृष्टि जाती है, क्योंकि जिस शब्द के द्वारा अर्थ प्ररूपित होने वाला है, जिसको वाच्य बोलते हैं, वाचक के बिना नहीं हो सकता और वाचक यानी शब्द है। तो शब्दरूप नय, अर्थरूप नय, और भाव यानी ज्ञानरूप नय-ये तीन नय कम से कम अपने पास होना चाहिए। भाव प्रत्यय की ओर यात्रा तब होती, जब हमारा अर्थ प्रत्यय मजबूत होता है। और अर्थ प्रत्यय हमारा यदि मजबूत है, तो निश्चित है कि हमारा शब्द प्रत्यय मजबूत है। इस शब्द का संबंध इस वाले वाच्यभूत जो पदार्थ हैं, उससे है। यह निर्णय जब तक हम सही नहीं लेते, तब तक भाव प्रत्यय की ओर हमारी गति नहीं होगी। वस्तुतः वाच्य-वाचक संबंध एक घनिष्ठ संबंध है। इस संबंध के मर्म को आप लोगों को पहले समझना चाहिए। क्योंकि शास्त्रों में आपको शब्द मात्र मिलेंगे।शब्दों के कर्ता किस रूप में लिख रहे हैं, ये हम शब्दों के माध्यम से ही समझ सकते हैं। * विद्याप्रसंग * व्यंजनाचार में ढला जीवन सन् १९८१, कुंडलपुर (दमोह) मध्यप्रदेश में आचार्यश्रीजी पहाड़ के मंदिर में ही शयन करते थे। वह प्रतिदिन प्रातः सामायिक के पश्चात् उच्चारण पूर्वक 'स्वयंभूस्तोत्र' का पाठ करते थे। उनका उच्चारण इतना स्पष्ट एवं सुमधुर होता था कि वहाँ से आने-जाने वालों को उनके मुख से उच्चरित होने वाले पाठ का एक-एक अक्षर, पद, वाक्य, यति, छंद आदि का पूर्ण बोध हो जाता था। अतः संघ में आई हुईं, नई-नई, छोटी-छोटी ब्रह्मचारिणी बहनें- कमला दीदी, गीतमाला दीदी, जयंती दीदी आदि चुपके से दूर जाकर स्वयंभूस्तोत्र' का उच्चारण गुरुमुख से सुनने हेतु बैठ जातीं। एक दिन गुरुवर ने पिपासु की भाँति बैठी हुईं इन बहनों को देखकर अपने पाठ की गति थोड़ी और धीमी कर ली एवं स्वर हल्का-सा बढ़ा दिया। इससे बहनों का उत्साह बढ़ गया और उन्होंने एक दिन पाठ की पुस्तक 'धर्मध्यान दीपक' प्राप्त कर ली। पाठ के समय पहुँचना और गुरुमुख से 'स्वयंभूस्तोत्र' का उच्चारण पुस्तक में मिला-मिलाकर सीखना, यह उनका रोज़ का क्रम हो गया। और इन पुण्यशाली बहनों को गुरुमुख से पाठ उच्चारण सीखने का परम सौभाग्य मिला। धन्य है व्यंजनाचार धारी आचार्य भगवन्! जिनके विषय में जो भी कहा जाए, जितना भी कहा जाए, वह सब अलौकिक-सा ही लगता है।आश्चर्य होता है यह देखकर कि प्रतिदिन किए जाने वाले पाठ को भी वह इतनी धीमी-धीमी गति से, सुस्पष्ट रीति से, मंद-मंद, मधुर स्वर में पूर्णतः व्यंजनाचार पूर्वक पढ़ते हैं कि सुनने वालों ने शुद्ध उच्चारण तक सीख लिया! व्यंजनाचार का इतने सूक्ष्म ढंग से पालन करने वाले यतियों में आचार्य भगवन् महा यतिराज हैं । ढालते व्यंजनाचार में आचार्यश्रीजी की संस्कृत प्रौढ़ है। जहाँ वह स्वयं एकदम शुद्ध एवं स्पष्ट उच्चारण करते हैं, वहीं वह अपने शिष्यों को भी न केवल इसकी प्रेरणा देते है, अपितु उन्हें शुद्ध उच्चारण करना भी सिखाते हैं। साथ-ही-साथ अक्षर, पद, वाक्य, छंद, यति, विराम आदि का ज्ञान भी प्रदान करते हैं। सन् १९९७, सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट (खण्डवा) म.प्र. ग्रीष्मकालीन प्रवास के दौरान संघ में परीक्षामुख' ग्रंथ का स्वाध्याय आरंभ हुआ। उस समय संघ में नए-नए क्षुल्लकजी महाराज थे। इन क्षुल्लक महाराजों के लिए आचार्यश्रीजी स्वयं अलग से 'परीक्षामुख' ग्रंथ के सूत्रों का शुद्ध उच्चारण सिखाते थे। अगले दिन सभी से सारे सूत्रों का पाठ करने को कहते। जब सही उच्चारण नहीं होता, तो पुनः स्वयं उच्चारण करके शुद्ध उच्चारण करवाते थे। फिर अगला सूत्र पढ़ाते थे। धन्य है व्यंजनाचार का पालन कराने वाले आचार्य भगवन्! जिनकी अध्यापन कराने की कला ही अनौखी है। भावप्रत्यय प्राप्तिकारक : अर्थाचार * अर्हत्वाणी * अर्थेनात्र विशुद्धं............सोर्थाचाराश्रुतस्य वै॥ अर्थ से अत्यंत सुशोभित शास्त्रों का शुद्ध अर्थ पढ़ना और शुद्ध ही अर्थ पढ़ाना ज्ञान का अर्थाचार कहलाता है। * विद्यावाणी * जो व्यक्ति आशय नहीं समझता, वह भावार्थ नहीं निकाल सकता।और जिस व्यक्ति ने भावार्थ को पकड़ने का प्रयास नहीं किया, वह कभी भी अर्थ प्रत्यय को प्राप्त नहीं कर सकता। और जो अर्थ प्रत्यय को प्राप्त नहीं कर सकता, तो वो भाव प्रत्यय को भी प्राप्त नहीं कर सकता। जब तक अर्थ सुनिश्चित नहीं होता, तब तक भटकन होती है। आगमार्थ को जिसने आत्मसात् किया, वह व्यक्ति आगम के अनुसार ही अर्थ निकालेगा।और जिसको आगम का भाव ज्ञात नहीं, केवल छहढाला' पढ़ करके करने लग जाए, तो वो काम कभी भी नहीं बना सकेगा। मैं तो एक-एक शब्द का अर्थ चाहूँगा। चोटी के विद्वानों को लेकर के आएँ। आज तो सब कटी चोटी वाले हैं। हम तो व्याकरण से चलेंगे।शब्द नय इसी का नाम है। यदि आस्था नहीं, बहुमान नहीं, हमने जो कह दिया सो कह दिया बस, तो यह गलत बात है। जो टीका लिखी गई है, उसका सही अर्थ तो करो, आचार्यप्रवर श्री जयसेनजी, श्री अमृतचंद्रजी सारे के सारे टीकाकार हैं। यदि उल्टा हो जाए तो आचार्य श्री अमृतचंद्रजी, जयसेनजी के प्रति हमारा क्या बहुमान हुआ? आप समझो। जब हिन्दी सही नहीं आती और संस्कृत के बारे में आप पढ़ो नहीं, तो क्या अर्थ निकलेगा ? जो लिखा अर्थ, वही निकालें- ऊपर कुछ लिखा है, नीचे कुछ अनुवाद किया जा रहा है, तो हम कैसे स्वीकार करेंगे? आज भी ऐसा हो रहा है। ध्यान रखना, वे कुन्दकुन्द की बात तो कहेंगे, लेकिन कुन्दकुन्द की बात व्याख्या में नहीं आएगी।कुन्दकुन्द स्वामी के ग्रंथों का उद्धरण तो दिया जाएगा, गाथा तो पढ़ी जाएगी, लेकिन हिन्दी किसने की है- इसका कोई पता नहीं चलेगा। वे अंडर-लाइन करके बता देंगे, यह-यह महत्त्वपूर्ण है। पर हमारे लिए यह महत्त्वपूर्ण नहीं है, (कि ग्रंथ में क्या-क्या महत्त्वपूर्ण है) बल्कि कुन्दकुन्द देव क्या कह रहे हैं, यह जानना महत्त्वपूर्ण है। * विद्याप्रसंग * आगमार्थ के यथार्थ शुद्धग्राही आचार्यश्रीजी की मेधा अद्वितीय है। उनका ज्ञान मँज चुका है, एवं पच चुका है। आगम में कौन-सा शब्द, किस विवक्षा से, किस अर्थ में डाला गया है, उसको वह उसी रूप में अवधारण करते हैं। एक दिन विद्वान् पंडित श्री रतनलालजी बैनाड़ा, आगरा, उत्तरप्रदेश ने गुरुवर के समक्ष एक जिज्ञासा रखी- 'आचार्यश्रीजी! श्रेणी चढ़ने के सम्मुख जो मुनिराज हैं, उन्हें ही द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन होता है। अन्य किसी को नहीं हो सकता, इसका प्रमाण क्या है ?' तब आचार्यश्रीजी बोले- 'कषायपाहुड की जयधवला' पुस्तक - १ में लिखा है कि जो ‘गुणी' श्रेणी चढ़ने के सम्मुख हैं, उसी को द्वितीयोपशम सम्यक्त्व होता है। परंतु पंडितजी! आपने 'जिनभाषित' पत्रिका में 'गुणी' शब्द के स्थान पर 'मुनि' क्यों लिख दिया ?' गौरतलब है कि पंडितजी जिनभाषित' पत्रिका के सहयोगी संपादक थे, वह बोले- 'जीवकाण्ड, मुख्तारजी' वाले ग्रंथ में, और भी अन्य ग्रंथों में यही आता है कि श्रेणी चढ़ने के सम्मुख जो मुनि होते हैं, उन्हीं के द्वितीयोपशम सम्यक्त्व होता है। और मुनि ही तो अंतर्मुहूर्त में श्रेणी चढ़ने के योग्य होते हैं।' तब आचार्यश्रीजी बोले- 'देखो, आचार्यों ने जो लिखा है, वो ही लिखो।ग्रंथ में तो 'गुणी' लिखा है। आगम के शब्दों को हिलाओ-डुलाओ नहीं, हेर-फेर नहीं करो।अभी अपने पास आगम की एक बूंद है, द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के स्वामी के विषय में आचार्यों ने और कुछ भिन्न भी बताया है ? यदि उन्हें मुनि ही कहना होता तो उन्होंने 'गुणी' शब्द क्यों डाला, यह विचारणीय है। धन्य है! आचार्य भगवन् को, यद्यपि प्रायः मुनि को ही द्वितीयोपशम सम्यक्त्व का पात्र बताया गया, तथापि गुरुवर्य का अर्थाचार इतना दृढ़ है कि वह 'गुणी' शब्द के विषय में आर्ष आचार्य का क्या अभिप्राय छुपा है, अतः उसे परिवर्तित करने की अनुमति भी नहीं देते।अहोभाग्य! जो ऐसे गुरुवर के शासन में जन्म हुआ। ज्ञान-विज्ञान का मूल : उभयाचार * अर्हत्वाणी * अर्थाक्षरविशुद्धं यदधीयते...................... ज्ञानस्य कथ्यते महान्॥ जो जिनागम को शब्द-अर्थ दोनों से विशुद्ध अध्ययन करता है उसकों विद्वान् लोग ज्ञान का महान् उभयाचार कहते हैं। * विद्यावाणी * वाचना से प्रारंभ करते हैं, तो वाचना का अर्थ मात्र पढ़ना नहीं। निर्दोष शब्द व अर्थ दोनों होना चाहिए। शब्द की यात्रा यदि अर्थ की ओर नहीं जाती है, तो शब्द का कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है। व्यंजन शुद्धि में दोनों हो गए यानी शब्द का भी शुद्ध उच्चारण करना, और अर्थ का भी स्पष्ट रूप से ग्रहण करना। * विद्याप्रसंग * शब्द-अर्थ के पठन-पाठन में माहिर सन् १९९५, कुंडलपुर (दमोह) मध्यप्रदेश, वर्षायोग में आचार्यश्रीजी ने संघ के लिए 'आलाप पद्धति' की कक्षा आरंभ की। आलाप पद्धति' नय का ग्रंथ है। उभयाचार परिपालक आचार्य भगवन् इस ग्रंथ के सूत्रों का सर्वप्रथम उच्चारण करवाते, पहले वे स्वयं बोलते, पश्चात् शिष्यों से बुलवाते। फिर एक एक शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए बताते जाते कि आचार्यों ने किस शब्द का, किस विवक्षा में क्या अर्थ किया। और हाँ, केवल वह पढ़ाते मात्र नहीं थे, अपितु दादागुरु श्री ज्ञानसागरजी की भाँति कंठस्थ भी करवाते थे। कक्षा प्रारंभ होने से पूर्व शिष्यों से जब तक रोज़ पूरा सूत्र, उसके पारिभाषिक शब्द और शब्दों के अर्थ, सूत्र का शुद्ध उच्चारण आदि सब पूछ न लेते, तब तक अगला पाठ नहीं पढ़ाते थे। यदि कोई शिष्य से पिछला पाठ सुनाने में, सूत्र के उच्चारण अथवा उसका अर्थ सुनाने में कुछ गलती हो जाती, तो वह उसे पुनः उच्चारण करवाकर ठीक करवाते थे। कदाचित् कोई शिष्य यदि याद करके नहीं आता तो कहते, पहले पिछला पाठ अच्छे से याद करो, दोहराओ, फिर आगे का पाठ पढ़ाएँगे। धन्य है! आचार्य भगवन् धन्य है! आपके गुरु ने जिस तरह आपको आगमार्थ का सही-सही बोध कराया, इसी तरह आप भी अपने शिष्यों को तैयार कर रहे हैं। आगम का यथारूप अर्थ ग्रहण करने वाला ही तो सच्चा मोक्ष पथिक है। मोक्ष का साक्षात्कारण : चारित्राचार * अर्हत्वाणी * प्राणिवधपरिहारेन्द्रियसंयमनप्रवृत्तिश्चारित्राचारः। प्राणियों के वध का त्याग करना और इंद्रियों के संयमन-निरोध में प्रवृत्ति होना चारित्राचार है। * विद्यावाणी * पंचाचार में जो आचार आते हैं, उसके साथ चारित्र जुड़ा रहता है। चारित्र वे चरण हैं, जो हमें गंतव्य स्थान तक पहुँचाने में सहायता देते हैं। पूर्ण शक्ति के साथ एक मात्र सुनिश्चित लक्ष्य की ओर जब साधक की गति होती है, तब वह चारित्रवान् कहलाता है। ज्ञान व दर्शन के बिना चारित्र में गति नहीं आती है तो चारित्र के बिना ज्ञान-दर्शन भी पूर्णपने (केवलज्ञान, केवलदर्शनपने) को प्राप्त नहीं हो सकता। ज्ञान नेत्र हैं। नेत्र के बिना लक्ष्य को देखना कठिन है। किंतु पैरों के बिना क्या नेत्र लक्ष्य तक पहुँचने में समर्थ होंगे? कदापि नहीं।अतः सुख प्राप्ति के उपायों में चारित्र का स्थान प्रमुख है। चारित्र में शिथिलता आने पर संयमी की मोक्षमार्ग में शोभा नहीं रहती। छन्द पद्धति तो है अपने यहाँ, किंतु स्वच्छन्दता पद्धति नहीं है। तीनों की (सम्यग्यदर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) एकतापूर्वक मोक्षमार्ग है। बीच में विराम नहीं, स्वल्प विराम भले ही रखा जाता है। अन्यथा छन्द भंग हो जाएगा, मजा नहीं आएगा। इसलिए तीनों में द्वन्द्व समास रखा है, अन्यथा परस्पर में द्वन्द्व छिड़ जाएगा मोक्षमार्ग में। चारित्राचार कारण व शुद्धानुभूति कार्य- चारित्राचार- पाँच महाव्रत, पाँच समिति एवं तीन गुप्ति- यह तेरह प्रकार का चारित्र धारण करना। यह तेरह प्रकार का चारित्र कारण है और शुद्धात्मानुभूति कार्य है। जिस प्रकार टेलीविजन में देखने से एक्शन देखकर पूरे भाव समझ में आ जाते हैं, रेडियो में नहीं। उसी प्रकार चारित्र का पालन करने में आत्मा की अनुभूति होती है, मात्र श्रद्धान में नहीं। आत्म-साधना करने वाले मुनिराजों के दर्शन बड़े भाग्य से मिलते हैं। ये दुनियाँ से दूर रहने वाले हैं। ऐसे चारित्रवान् मुनियों के दर्शन मात्र से कर्मों का क्षय हो जाता है। * विद्याप्रसंग * चलते और चलाते आचार्यश्रीजी शायद ही है कि कभी किसी शिष्य को टोककर शिक्षा देते हों। पहले वह स्वयं चलते, पश्चात् शिष्यों को चलने की शिक्षा स्वयं ही मिल जाती। एक बार आचार्य महाराज संध्या-कालीन प्रतिक्रमण खड़े होकर कर रहे थे। वह खड़े होकर प्रतिक्रमण कभी-कभार ही करते हैं, प्रायःकर बैठकर ही करते हैं। प्रतिक्रमण के उपरांत एक मुनि महाराज ने अवसर पाकर आचार्यश्रीजी से पूछ लिया- आज आप खड़े होकर प्रतिक्रमण कर रहे थे, कोई विशेष बात थी क्या ? आचार्य महाराज हँसकर बोले- 'जब मैं खड़े होकर करूँगा, तभी तो तुम लोगों को सजग होकर प्रतिक्रमण करने की प्रेरणा मिलेगी। बाद में मालूम पड़ा कि संघ में कोई एक मुनिराज दीवार से टिककर प्रतिक्रमण कर रहे थे। गुरुवर ने उन्हें देख लिया था, पर बोले कुछ नहीं और आकर स्वयं खड़े होकर प्रतिक्रमण करने लगे। यह प्रसंग संघ में फैल गया।शिष्यों को सजग, सावधान एवं प्रमाद से रहित होकर प्रतिक्रमण करने की शिक्षा मिल गई। मूलाचार ही है आचार संहिता ०२ अप्रैल, २००५, दोपहर में मूलाचार की कक्षा कुंडलपुर (दमोह) मध्यप्रदेश में चल रही थी। उसमें ९५५वीं गाथा की व्याख्या करते हुए आचार्यश्रीजी ने कहा- 'आज वर्तमान में कई समितियाँ, कई महासभाएँ श्रावकों की चल रही हैं। वे आकर कहते हैं कि वर्तमान में जो साधु-साध्वियों को लेकर अपवाद हो रहे हैं, उनकी एक आचार संहिता बनाना चाहिए। परंतु उन श्रावकों को सोचना चाहिए कि इतने महान् आचार्य पहले से 'मूलाचार' के रूप में आचार-संहिता बना कर गए हैं। इसमें इतना स्पष्ट कथन है कि आर्यिकाओं की वसतिका में रहने वाले साधु की दो प्रकार से जुगुप्सा (निंदा) होती है- एक व्यवहार से एवं दूसरी परमार्थ से। लोकापवाद होना व्यवहार निंदा और व्रत भंग होना परमार्थ निंदा। आर्यिकाओं की वसतिका में साधु का रहना, आना-जाना, स्वाध्याय आदि करना अनुचित है। इस प्रकार से अनेक कथन किए गए हैं कि साधुओं को कहाँ रहना, कैसी चर्या करना, आर्यिकाओं के साथ कैसा व्यवहार करना। फिर नई आचार संहिता की क्या आवश्यकता ?' इसी बीच आचार्यश्रीजी ने एक-दो ऐसे प्रसंग सुनाए जहाँ ब्रह्मचारी एवं ब्रह्मचारिणी को एक साथ बैठ कर ग्रंथ रचना, पठन-पाठन करना, शोध आदि करने का कार्य करते हुए जैनेतरों ने देखा, तो वे उन्हें पति-पत्नी समझ बैठे। ऐसा अपवाद होने के कारण हमेशा मुनि, आर्यिका, ब्रह्मचारी एवं ब्रह्मचारिणियों को अलग-अलग रहना चाहिए। इसी बीच किसी महाराजश्रीजी ने आचार्यश्रीजी से पूछा क्या ‘मूलाचार' ग्रंथ का श्रावकों के बीच स्वाध्याय कर सकते हैं। तब आचार्यश्रीजी ने कहा-वर्तमान में 'समयसार' की तरह 'मूलाचार' के स्वाध्याय का प्रचार-प्रसार भी होना चाहिए। धन्य हैं कुशल शिष्टाचारी आचार्य भगवन्! जो यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्धं, न करणीयं न चरणीयं' की उक्ति को स्वयं चरितार्थ करते हुए अपने शिष्यों को भी समय-समय पर इसकी शिक्षा देते रहते हैं। महान् कल्पद्रुम : तपाचार" * अर्हत्वाणी * कायक्लेशाद्यनुष्ठानं तप ध्ययनादिक्रिया तपाचारः। कायक्लेश आदि तपों का अनुष्ठान करना तप-आचार है। इसका वर्णन पूर्व के बाह्य एवं अभ्यंतर तप के पाठों में विस्तार से किया जा चुका है। स्व सामर्थ्य प्रकाशक : वीर्याचार अर्हत्वाणी अणुगूहियबलविरिओ .......................विरियाचारो त्ति णादव्वा॥४१३॥ अपने बल एवं वीर्य को न छिपाकर जो मुनि यथोक्त तप में यथास्थान अपनी आत्मा को लगाता है, उसे वीर्याचार जानना चाहिए। * विद्यावाणी * चारों प्रकार के आचारों की सुरक्षा के लिए वीर्याचार आवश्यक है। ज्ञान-दर्शन में तो अधिक शक्ति खर्च करते हैं और चारित्र एवं तप के लिए तो शक्ति ही नहीं है, ऐसा कहते हैं। अपनी शक्ति सबमें सुनियोजित करना चाहिए। रुचि पैदा करने से भी भीतर से वीर्यांतराय कर्म का क्षयोपशम होता रहता है। वीर्यांतराय कर्म के बिना रत्नत्रय में आगे नहीं बढ़ सकते।सावधानी के साथ शक्ति का प्रयोग करो। शक्ति का सही-सही उपयोग करें, तो आत्मानुभूति का लाभ भी प्राप्त हो सकता है। वीर्याचार का महत्त्व निकट भव्य ही समझता है। क्षयोपशम का लाभ मिला है तो काम में ले लो, समय मिला है, पुण्य मिला है, तो चूको नहीं।समयावधि रहते हुए कर लो बस..। वीर्यांतराय कर्म के क्षयोपशम से शक्ति मिलती है, शरीर मिला है। उसका सही उपयोग नहीं करोगे तो बीमारी आएगी, और फिर पछताना पड़ेगा कि कुछ नहीं किया। थकना नहीं है, करते चले जाओ।काल ही ऐसा है। कठिनाई बहुत है, परंतु आमदनी भी बहुत है। घबड़ाना नहीं, थोड़ा-सा तप और निर्जरा बहुत है। मन रूपी तराजू को संतुलित रखो- ग्रंथराज 'मूलाचार' की वाचना के समय आचार्यश्रीजी ने वीर्यांतराय कर्म के महत्त्व को बताते हुए कहा- बहुत तप करने की भावना होती है, होनी भी चाहिए। पर वीर्यांतराय कर्म का क्षयोपशम नहीं है, तो जल्दी नहीं करना। जैसे गाड़ी हमारी है, सड़क भी अच्छी है पर ड्राइवर सही नहीं है, तो काम गड़बड़ है। लेकिन हमें शक्ति को ढकना भी नहीं चाहिए।मन रूपी तराजू को (पालड़ी को) संतुलित रखना बहुत कठिन होता है।तप करना उतना सही है कि शरीर टूटना नहीं चाहिए। एक दिन तो दिवाली कर लो, फिर दूसरे दिन क्या करोगे? गति रुकना नहीं चाहिए। * विद्याप्रसंग * वन में रहने की चाह वर्तमान के देश, काल (पंचम काल) परिस्थिति, वीर्यांतराय कर्म का क्षयोपशम, हीन संहनन आदि के रहते आज साधु चतुर्थकाल की भाँति वन में विचरण नहीं कर पा रहे हैं, जंगलों, गुफाओं में ध्यान नहीं लगा पा रहे हैं। इसकी पीड़ा आचार्यश्रीजी को हमेशा-हमेशा सताती रहती है। यद्यपि इसी भावना के रहते वह जन कोलाहल से दूर तीर्थस्थलों पर, एकांत स्थानों पर ही प्रायः वास करते हैं तथापि समय-समय पर उनकी पीड़ा बाहर प्रकट हो जाती है। जनवरी, १९९२, आचार्यश्रीजी रामटेक से विहार करते हुए बालाघाट पहुँचे। प्रातःकाल ससंघ उनका शौच क्रिया के लिए नगर से जुड़े फॉरेस्ट एरिया में जाना हुआ। फॉरेस्ट अधिकारी एस. डी. ओ. सोनी साहब के बंगले पर शेर के दो शावक थे। उन्होंने आचार्यश्रीजी के लिए शावकों को दिखाते हुए कहा कि आचार्यश्रीजी आपने श्रावकों को तो उपदेश दिया है, इन शावकों को भी दीजिए। आचार्यश्रीजी के साथ बालाघाट के प्रतिष्ठित नागरिक भी थे। समाज के मंत्रीजी ने इन शावकों पर जब हाथ फेरना चाहा तो शावकों ने मुँह फाड़कर पंजा उठा लिया, लेकिन जब उन्हें आचार्यश्रीजी ने आशीर्वाद के लिए हाथ उठाया तो वे पालतू गाय की भाँति एकदम शांत हो गए। उन शावकों को आशीर्वाद देते हुए आचार्यश्रीजी ने कहा 'देखो देश-काल की परिस्थिति. वन में स्वतंत्र विचरण करने वाले वनराज भी आज भवन में रह रहे हैं। इसी प्रकार सिंह वृत्ति वाले, वन में रहकर तपस्या करने वाले मुनिराज को भी आज शहरों में रहना पड़ रहा है। भवनों में रहना हमारा स्वभाव नहीं। भवन में रहकर भी वन में रहने की चाह रखने वाले आचार्य भगवन् धन्य हैं। साधनाहो बलानुसारी १४ मई, २००५, कुंडलपुर, दमोह, मध्यप्रदेश की बात है। आचार्य भक्ति के बाद संघस्थ कुछ साधु आचार्यश्रीजी की वैयावृत्ति के निमित्त से उनके पास गए। वहाँ वर्तमान के परिवेश को लेकर कम्प्यूटर से होने वाली बीमारियों की चर्चा चल रही थी। एक महाराजजी ने कहा- 'आचार्यश्रीजी! न तो मैं कम्प्यूटर चलाता, न ही टी.व्ही. देखता, फिर मुझे रीढ़ एवं आँखों में तकलीफ़ क्यों हो रही है?' आचार्यश्रीजी ने कहा- 'देखो, पढ़ने-लिखने की भी सीमा होनी चाहिए। सुबह से शाम तक पुस्तक पर ही आँखें लगाकर, गर्दन नीचे करके रखोगे तो आँख और रीढ़ खराब होगी ही।' फिर अत्यंत वात्सल्य भरे शब्दों में कहने लगे 'ध्यान रखना । ये आँखें तुम्हारी नहीं, अब मेरी हैं। मैं जैसा कहूँगा, वैसा करना होगा। 'ध्यान-अध्ययन आदि कार्य भी उतना करो जितना बल-वीर्य हो' शिष्यों को इस प्रकार की शिक्षा देने वाले गुरुवर की महिमा क्या, कहाँ तक कहें। निष्कंप साधक आचार्यश्रीजी कहते हैं कि जिसने मोक्षमार्ग का चयन कर लिया उसके चेहरे पर कभी भी खिन्नता के भाव नजर नहीं आना चाहिए। कैसी भी प्रतिकूल परिस्थिति क्यों न हो, उसमें समता-भाव लाने की सामर्थ्य प्रकट करनी चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि हमारे चेहरे की खिन्नता देख, दूसरा कोई मोक्ष पथ पर आगे बढ़ने के भाव रखने वाला भव्य जीव अपने कदम पीछे कर ले। हमें अपने बल वीर्य का प्रयोग केवल पाँच इन्द्रियों के विजय में ही नहीं, मन को विजय करने में भी लगाना चाहिए। यदि हमने अपने मन को जीत लिया और प्रतिकूलता के समय मन में किसी भी प्रकार की कोई हलचल नहीं होने दी, तो हमारे चेहरे पर परेशानियों के भाव नज़र नहीं आ सकते। हमें ऐसी सामर्थ्य अपने वीर्य से प्रकट करनी चाहिए। आचार्य श्री विद्यासागरजी ऐसे ही साधक हैं, जिन्होंने अपने वीर्य का प्रयोग छहों इन्द्रियों को जीतने में किया। सम्मेद शिखर की यात्रा के दौरान लगभग २१ जनवरी, १९८३ को आचार्य संघ का विहार हजारीबाग, बिहार प्रान्त, वर्तमान में झारखण्ड से तीर्थराज सम्मेदशिखरजी को ओर हुआ। आचार्य संघ के साथ हजारीबाग समाज की आबाल-वृद्ध जनता ने बैंड बाजे के साथ २२ किलोमीटर तक का पैदल विहार करवाया। रास्ते के नाम पर मार्ग में नुकीले पत्थर और काँटे बिछे हुए थे। इस कारण आचार्यश्रीजी के पैरों से खून छलकने लगा। उसे देखकर कलकत्ता निवासी एक श्रावक ने आचार्यश्रीजी से कहा- 'आचार्यश्रीजी! आप इस पथरीले रास्ते में भी वही चाल से चल रहे हैं, जो अच्छे रास्ते में चाल होती है। यह दृश्य भी हमें याद रहेगा।' तब आचार्यश्रीजी ने साधना पथ के पथिक से संबंधित दो पंक्तियाँ सुनाई- 'वह पथ क्या और पथिक भी क्या? पथ में बिखरे यदि शूल न हों। उस नाविक की धैर्य परीक्षा क्या? यदि धारा प्रतिकूल न हो।' आचार्यश्रीजी की कठिन साधना और अडिग चर्या को देख जनसाधारण ने कहा- कि भगवान महावीर का नाम किताबों में तो बहुत पढ़ा है, लेकिन भगवान महावीर कैसे थे, उनकी चर्या कैसी थी, वह आज देखने को मिल गई। २४ जनवरी, १९८३ को संघ ने तीर्थराज सम्मेदशिखरजी में मंगल पदार्पण किया।०९ धन्य है! ऐसे निष्कंप साधक की साधना, जिनका हर कदम पूर्ण सुविचारित, निश्चित और अडिग है। आत्मरक्षक : गुप्ति * अर्हत्वाणी * यतः संसारकारणादात्मनो गोपनं भवति सा गुप्तिः। सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः। जिसके बल से संसार के कारणों से आत्मा का गोपन अर्थात् रक्षा होती है, वह गुप्ति है। योगों का सम्यक् प्रकार से निग्रह करना गुप्ति है। सा त्रितयी कायगुप्तिर्वाग्गुप्तिर्मनोगुप्तिरिति। वह गुप्ति तीन प्रकार की होती हैं- काय गुप्ति, वचन गुप्ति और मनो गुप्ति। * विद्यावाणी * जिसके द्वारा आत्मा की रक्षा, रत्नत्रय की रक्षा और मन प्रशस्त हो, इसी का नाम गुप्ति है। आगम भाषा में जिसे ध्यान कहते हैं, उसे ही अध्यात्म भाषा में गुप्ति कहते हैं। आत्मानुभूति के लिए गुप्ति आवश्यक है, जैसे मंजिल के लिए सीढ़ी आवश्यक है। गुप् गोपने संरक्षणे वा। गुप् धातु जो है, वह संरक्षण के अर्थ में आती है। गुप्ति एक ऐसा संबल है, जो संरक्षण करता है। जब गुप्ति के माध्यम से कर्मों का आना रुक जाता है, तभी आगे का काम ठीक-ठीक बनता है। कर्मों का आना बना रहे और हम अपने गुणों का विकास करना चाहें, तो यह संभव नहीं है। तीन गुप्ति में शुक्ल लेश्या होती है और गुप्ति के बिना शुद्धोपयोग की भूमिका बन ही नहीं सकती। यदि एक मिनट भी मिल गया, तो गुप्ति लगाइए। जब-जब समय मिले, तभी गुप्ति में लीन हो जाइए। भले एक कायोत्सर्ग ही क्यों न लगाएँ। शल्यचिकित्सक सम एकाग्रता गुप्ति सम्यक् प्रकार निरोध मन-वच-काय आतम ध्यावते। तिन सुथिर मुद्रा देखि मृगगण, उपल खाज खुजावते॥६/४॥ इसमें गुप्ति की बात छहढालाकार ने कही है, जिसमें उदाहरण दिया है कि मुनिराज पत्थर की तरह ध्यान में स्थिर बैठे हैं। जिनके शरीर से हरिण आदि पशु खाज खुजाते हुए चले जाते हैं। गुप्ति के जैसा ही दृश्य ऑपरेशन थियेटर में रहता है। डॉक्टर घंटों तक भीतर ऑपरेशन थियेटर में काम करता है। तब उसे खाना-पीना आदि कुछ याद नहीं आता। वह बाहर आता ही नहीं है। बाहर के पूरे कनेक्शन काट दिए जाते हैं। ऑपरेशन करते समय डॉक्टर्स की एकाग्रता देखकर लगा कि श्रमण भी त्रिगुप्ति में गुप्त होकर ध्यान में ऐसे ही लीन हो जाते हैं। इससे बड़ा ध्यान हो ही नहीं सकता।आप लोग कहते हैं कि ध्यान में तो हमारा मन लगता ही नहीं आदि-आदि...।जब मन में लगन-निष्ठा होती है, दुःख-दर्द दूर करने का लक्ष्य हो जाता है, उस समय न स्पर्श-रूप-रस-गंध-वर्ण का ज्ञान रहता है, और न ही भूख-प्यास लगती है। बाहर की हवा भी भीतर नहीं जा सकती। कितनी एकाग्रता, मनोयोग कितना सधा हुआ है। आत्मा को किस प्रकार बाहरी हवा से सुरक्षित रखना, ध्यान कैसे करना, यह ऑपरेशन थियेटर देखकर ज्ञान हो जाता है। वक्ता व श्रोता बने बिना लूंगा-सा निजी स्वाद ले। कर्म निर्झरणी : काय गुप्ति * अर्हतवाणी * स्थिरीकृतशरीरस्य.....कायगुप्तिर्मता मुनेः॥१८॥ स्थिर किया है शरीर जिसने तथा परीषह आ जाए तो भी अपने पर्यंकासन से ही स्थिर रहें, किंतु डिगे नहीं, उस मुनि के ही काय गुप्ति मानी गई है। * विद्यावाणी * शरीर की निष्पंदता का नाम काय गुप्ति है। पर्यंकासन, अर्द्धपद्मासन, सुखासन आदि अनेक प्रकार के आसनों से बैठा स्थिर शरीर है। और परीषह का होना प्रारंभ हुआ, फिर भी वह शरीर हिलता-डुलता नहीं। उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। इसको बोलते हैं 'काय गुप्ति'। इसके द्वारा क्या होता है? आचार्य कहते हैं, कि इससे कर्म निर्जरा होती है। निर्जरा शब्द सुना है? जो कि साक्षात् मुक्ति के लिए कारण है, उसका संपादन इस ढंग से हुआ करता है। ध्यान को जन्म देने के लिए काय गुप्ति माँ के समान है। ध्यान की सिद्धि चाहते हो, तो प्रतिदिन काय गुप्ति लगाइए।इसके द्वारा आसन सिद्धि होती है। संदेह होगा देह है तो देहाती! विदेह हो जा। * विद्याप्रसंग * मूसलाधार वर्षा में आत्मस्थ १५ अप्रैल, २००१, बहोरीबंद (कटनी) मध्यप्रदेश का प्रसंग है। सायंकालीन आचार्य भक्ति के उपरांत आचार्यश्रीजी बाहर खुले आकाश में पाटे पर विराजमान थे। उस दिन गर्मी कुछ ज्यादा ही थी। आचार्य भगवन् खुले आसमान के नीचे आसन लगाकर सामायिक में लीन हो गए। वह ध्यानस्थ होकर जैसे-जैसे आत्मा के शीतल समुद्र में गोता लगाते जा रहे थे, वैसे-वैसे बाहर का मौसम भी परिवर्तित होता जा रहा था। लगभग एक घंटा ही हुआ था कि मूसलाधार वर्षा होने लगी। वर्षा की वे बड़ी-बड़ी बूंदें तेज हवा के साथ तीर के समान लग रही थीं। परंतु आचार्यश्रीजी त्रिगुप्ति से गुप्त होकर ऐसे ध्यानस्थ थे, जैसे कुछ हो ही न रहा हो।थोड़ी देर बाद ही कुछ श्रावक आ गए और उन्होंने गुरुजी का पाटा उठाकर दीवाल के किनारे रख दिया एवं ऊपर से पन्नी की व्यवस्था कर दी। परंतु आचार्यश्रीजी अभी भी पूर्ववत् आत्मस्थ रहे। अगले दिन प्रातःकाल जब सामायिक के पश्चात् एक महाराजजी ने गुरुवर से पूछा- 'आपको रात्रि में बहुत कष्ट हुआ होगा?' तब आचार्यश्रीजी ने बड़े सहज भाव से कहा- 'मैं परीषह-उपसर्ग सहन करना भी चाहता हूँ, पर लोग मुझे सहन करने ही नहीं देते। देखो, वे मुनिराज जो चार माह तक उपसर्ग-परीषह जंगलों में रहकर सहन करते हैं। वह दिन मेरा कब आएगा, जब मैं भी वैसा ही सहन कर सकूँगा। अटल काययोगी सन् १९७९, मदनगंज-किशनगढ़ (अजमेर) राजस्थान पंचकल्याणक हेतु आचार्य भगवन् का विहार सिद्धक्षेत्र कुंडलपुर, मध्यप्रदेश से ३0 जनवरी, १९७९ को हुआ। मार्ग में एक दिन दोपहर के समय दादिया से संखाड़ की ओर विहार हुआ लेकिन स्थान पर पहुँचने के पूर्व ही शाम हो गई। अतः आचार्य भगवन् सड़क के किनारे ही सामायिक आदि करने बैठ गए। वहीं पास में लाल चीटियों का बिल होगा। हजारों चीटियाँ आचार्यश्रीजी के शरीर पर चढ़कर काटने लगीं। पर एकाग्रता के स्वामी आचार्य भगवन् गुप्ति में लीन रहे। उपसर्ग दूर होने पर ही उन्होंने स्थान छोड़ा। इसी प्रकार सारोल (कोटा) से आगे थूबौनजी जाते समय हिंसक वन्य पशुओं से भरे हुए निर्जन वन में नदी के किनारे आचार्य भगवन् सारी रात ध्यान में लीन रहे। धन्य है! उत्कृष्ट से उत्कृष्ट साधनारत रहते हुए भी वन में जाकर पूर्ण आत्मस्थ होने की चाह रखने वाले गुरुदेव की एक-एक क्रिया मनभावक एवं आत्मप्रदेशों को स्पंदन करने वाली होती है। गुण मणियों की खानि : वचनगुप्ति * अर्हत्वाणी * थीराजचोरभत्तकहा....अलीयादिणियत्तिवयणं वा॥६७॥ पाप के कारणभूत स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा और भक्तकथा आदि वचनों का त्याग करना अथवा मिथ्या आदिवचनों का त्याग करना वचन गुप्ति है। * विद्यावाणी * वचन गुप्ति में पाप से बचने रूप और पुण्य का संचय करने रूप प्रवृत्ति भी होती है, लेकिन प्राथमिकता में तो वचन प्रयोग का अभाव ही है। आगम के अनुसार वचन बोलना वचन गुप्ति में आता है। मौन धारण करना वचन गुप्ति है।मौन में ज्ञान ठोस होता है, केवलज्ञान को लाता है। संयम के द्वारा, इन्द्रिय और मन के व्यापार का शमन करना मौन है। ‘मौनं सर्वत्र साधनम्' मौन समस्त सिद्धियों का मूल है। मौन साधना, स्वर साधने से भी कठिन है। बोलना सीखने में एक वर्ष लगता है, पर चुप रहना सीखने में सारा जीवन चला जाता है । सोचने से मन में गर्मी आती है। कम सोचो, कम बोलो, अहिंसा से ये होगा। स्वस्थ रहेंगे। 'मा बहू जंप- कहा है बहुत मत बोलो। हम बोलकर वचन गुप्ति को नष्ट क्यों करें? हमारी वचन गुप्ति पल जाए तो अच्छा माना जाता है। बनती कोशिश मौन रहना चाहिए, तभी एकाग्रता बनती है। मुख से निकलने के बाद वर्गणाएँ पुनः शब्द के रूप में परिवर्तित नहीं होती, लोक के अंत तक जाती हैं। यहाँ से वह शब्द यात्रा करता हुआ सात राजू तक चला गया। आजू बाजू सभी दिशाओं में त्रस जीव भी वहाँ हैं और स्थावर भी हो सकते हैं। वह शब्द उन्हें आहत करते जा रहा है, हिंसा हो रही है। पिच्छी से तो वहाँ परिमार्जन किया नहीं, वायु में कितने जीव हैं? कहाँ तक परिमार्जन किया, बताओ? कोई वस्तु रखते-उठाते हैं तो परिमार्जन करते हैं। शब्द कहाँ-कैसे जा रहे हैं, परिमार्जन कहाँ करते- सोचो तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं । अतः हिंसा से बचना चाहो तो मौन रहो। अहिंसा का पालन बहुत विवेक के साथ करना चाहिए। यह बहुत सूक्ष्म बात है। तभी यह काम हो सकता है। व्रत व मूलगुण का तुलनात्मक अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि अहिंसा ही मूल है। मूल में अहिंसा देवता है। एक दिन मौन लो, दूसरे दिन दुगुना बोल लो, ऐसा नहीं। सामने वाला कुछ भी बोले, फिर भी उत्तर न दो। इतना साहस, इतना संयम होना चाहिए। और जवाब भी देंगे, तो सामने वाला कितना ग्रहण करता है? उसका महत्त्व समझता है अथवा नहीं, विचार करो? गूंगा गुड़ का स्वाद क्या नहीं लेता? वक्ता क्यों बनें? * विद्याप्रसंग * वचन गुप्ति संरक्षक भाषा समिति पूर्वक ही वचन गुप्ति का पालन होता है। और वचन गुप्ति से अहिंसा महाव्रत का पालन होता है, जिससे आत्मा का संरक्षण हो जाता है। एक बार आचार्यश्रीजी के प्रवचन चल रहे थे, तभी अचानक तेज वर्षा होने लगी। पांडाल पर पानी की बूंदों के गिरने से उसकी आवाज तेज आ रही थी। और माइक होते हुए भी आचार्यश्रीजी की आवाज श्रोताओं तक स्पष्ट रूप से नहीं पहुंच पा रही थी। सो बोलते बोलते आचार्यश्रीजी चुप हो गए। जब बाद में उनसे पूछा- 'आप चुप क्यों हो गए थे?' तब आचार्यश्रीजी बोले-'भइया! आचार्यों ने हमारे लिए भाषा समिति पूर्वक बोलने का आदेश दिया है। आचार्यों ने कहा कि हमेशा संयम का ध्यान रखना। असंयमी के बीच बैठकर असंयम का व्यवहार नहीं करना। जिस समय सहजरूप से बोलना संभव हो, उसी समय बोलना। यदि बोलते समय किसी व्यवधान के कारण बोलने में विशेष शक्ति लगानी पड़े, तो भाषा समिति भंग होने की संभावना रहती है।और भाषा समिति गई, तो वचन गुप्ति भी कैसे पल सकती है? अतः वर्षा की तेज आवाज के कारण मुझे भी बहुत तेज आवाज में बोलना पड़ता, जो ठीक नहीं था। इसलिए चुप रह गया। क्योंकि मौन से गुप्ति आएगी, समिति नहीं।और फिर हम जोर से बोलेंगे, तो भी दोष मुझे ही लगेगा। जोर-जोर से बोलने से कान और मन पर प्रभाव पड़ता है। वचन गुप्ति जितनी पावन होगी, उतनी ही अहिंसा महाव्रत की भी रक्षा होगी। आप बोलें और उसे (सुनने वाले)अर्थ समझ में नहीं आया, तो आपका बोलना भी व्यर्थ चला गया। भो वचन गुप्ति अनुपालक गुरुवर! आप कहते हैं- शब्द पंगु हैं, जवाब न देना ही, लाजवाब है। धन्य है ! जो मोक्षमार्ग रूपी रथ में आरुढ़ होकर संयम रूपी यात्रा पथ पर निर्बाध विचरण कर रहे हैं। परम पद साधिका : मनो गुप्ति * अर्हत्वाणी * विहाय सर्वसंकल्पान् .............मनोगुप्तिर्मनीषिणः॥१५-१६॥ राग-द्वेषसे अवलंबित समस्त संकल्पों को छोड़कर जो मुनि अपने मन को स्वाधीन करता है और समताभाव में स्थिर करता है तथा सिद्धान्त के सूत्र की रचना में निरन्तर प्रेरणारूप कार्य करता है, उस बुद्धिमान् मुनि के सम्पूर्ण मनो गुप्ति होती है। * विद्यावाणी * जैसे-जैसे तत्त्वों के सागर में डूबता है उसकी मनो गुप्ति होती है। नदी के जैसे-जैसे पास में गया ठंडक मिलती है, डुबकी लगाई तो और ठंडक एवं जब गहराई में जाता है तो और भी अधिक ठंडक मिलती है। उसी प्रकार जैसे-जैसे तत्त्वों में डुबकी लगाएगा, हीरा-पन्ना रूपी तत्त्वों का निखार आने लगता है। जिसका धैर्य है वही श्वास रोक सकता है। पानी में वही डूबता है जिसके मुख से पूरा-पूरा श्वास निकल जाता है। वैसे ही आप मनो गुप्ति के द्वारा पानी की तरह हवा में भी डूब (गिर) सकते हैं, उड़सकते हैं, ऊपर उठ सकते हैं तथा तैर सकते हैं। मन प्रशस्त होने से बड़े-बड़े संकल्प की धारणाएँ बन जाती हैं। व्रत निर्दोष होने लगता है और मोक्षमार्ग अपने आप खुल जाता है। मन में विकार रहेंगे तो वह आगे की चर्या में प्रशस्तता ला नहीं सकता। मन में तृप्ति का अनुभव नहीं होगा, चर्या में सुन्दरता नहीं आएगी। इसलिए यदि मन में विकार है तो उसे निकाल दो, नहीं तो सेप्टिक हो जाएगा। किसी से बोलो नहीं, तो क्या करो- जैसे रेडियम वाली घड़ी दिन में चार्ज करते हैं, तब रात में वह रेडियम चमकता है। ठीक उसी तरह अपने आपको दिन में चार्ज करो और रात में चर्वण करते रहो। किसी से बोलो नहीं। जो मुखाग्र है उसको अपने चिंतन की धारा बनाना। परिभाषा वगैरह, पंक्ति की पंक्ति सामने दिखने लग जाती हैं। दिन के प्रकाश में पंक्ति देख लें,वह रात में अपने आप दिखती हैं। दिन में चर्वण होता, रात में जुगाली करो, मंथन करो।श्लोक का अर्थ लगाना हो, सो लगा लो।कविता बनाना हो, तो बना लो।दुहराना हो, तो दुहरा लो, तो गुप्ति बन जाएगी।दोपहर में संस्कृत या प्राकृत की कारिका या गाथा देख लो, और रात में उसका अर्थ लगा लो। सबसे अच्छा बारह भावनाओं का चिंतन ‘राजा-राणा छत्रपति'... (भूधरदास कृत) अथवा 'कहाँ गए...वह सुवरन की नगरी' (मंगतराय कृत) आदि का चिंतन कर लो।रात में जितना अँधेरा रहेगा उतना अधिक चिंतन होगा, जितनी लाइट में रहेंगे, उतने हिंसक विचार होंगे। कब बोलते ? क्यों बोलते ? क्या बिना बोले न रहो ? * विद्याप्रसंग * मनोगुप्ति में अधिकतम वास आचार्यश्रीजी कहा करते हैं कि 'मौन और गौण' इन दो को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। आचार्य भगवन् कहते वही हैं, जो वह स्वयं किया करते हैं। उनकी दिनचर्या की ओर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होगा कि उनका अधिकतम समय मौन में ही व्यतीत होता है। कदाचित् उन्हें मौन से बाहर आना भी पड़ता है तो उस समय वह 'गौण' गुण से सुसज्जित दिखाई देते हैं। उदाहरण के तौर पर जैसे उन्हें किसी से चर्चा करनी भी पड़े तो उस समय वह अपने बोलने को गौण एवं सामने वाले का सुनना मुख्य किए रहते हैं। और उनका बोलना तब तक गौण बना रहेगा, जब तक उन्हें लगेगा कि उनका बोलना अभी आवश्यक मात्र है, अनिवार्य नहीं। जब उन्हें लगने लगे कि अब बोलना अनिवार्य है, तब कहीं जाकर उनके वचन झरते हैं। नहीं तो यह भी संभव है कि चर्चा पूरी हो जाए और वह मौन ही बने रहें । उनका अनुमान ज्ञान बड़ा ही पुख्ता है। प्रायः कर वह भाँप ही लेते हैं कि यह सामने वाला किस उद्देश्य से बात करने आया है। ऐसे में वह पहले से अपनी बात मात्र रखकर मौन होकर चर्चा खत्म-सी कर देते हैं। सामने वाले को बोलने का अवसर ही नहीं देते हैं। आगे न तो कुछ सुनते हैं और न ही स्वयं कुछ बोलते हैं। उन्हें एक अक्षर अतिरिक्त बोलना तो ठीक, सुनना भी पसंद नहीं है। वह समय के इतने पाबंद हैं कि स्वयं समय तक इन्हें देखकर सतर्क हो जाए। उन पर तो किसी से लेना एक, न देना दो' वाली कहावत पूर्ण चरितार्थ होती है। अपनी चर्या परिपालन करने में वह बड़े कुशल हैं। नीचे आचार्य भगवन् की दिनचर्या समयसारणी प्रस्तुत की जा रही है। वैसे तो उनका समय एकदम नियत ही रहता है, पर उसमें ऋतु परिवर्तन के अनुसार कुछ आगे-पीछे होना संभव है। रात्रि १.३०/२.00 से ५.१५/५.३० -प्रातःकालीन प्रतिक्रमण, सामायिक, सामायिक पाठ,ध्यान, स्वयंभूस्तोत्र पाठ एवं नंदीश्वरभक्ति पाठ प्रातः ५.३०/६.00 से ६.००/६.३० -प्रातःकालीन आचार्यभक्ति ६.३०/७.00 से ७.३०/७.४० -शौच क्रिया तत्पश्चात् देववंदना ७.३०/७.४0 से ८.४०/८.५० -प्रातःकालीन संघस्थ कक्षा ९.00 से ९.३०/९.४५ तक -गुरुपूजन एवं गुरुवचन ९.४५/१०.00 से १०.४५/११.00 -आहारचर्या १०.४५/११.00 से ११.२० -आहार पश्चात् मंचासीन ११.२० से ११.३०/११.३५ -परकल्याणार्थ ११.३५ से ११.४५/११.५० -ईर्यापथ-भक्ति १२.०० से १.४०/२.00 -मध्याह्न सामायिक, सामायिक पाठ, स्वयंभू स्तोत्र पाठ एवं नंदीश्वरभक्ति पाठ २.00/२.१० से ३.00/३.१० -परहितार्थ चर्चा या स्वतंत्र स्वाध्याय ३.00/३.१० से ४.१५/४.३० -सामूहिक स्वाध्याय ४.३० से ५.०० -स्वतंत्र चिंतन-पठन-आलेखन अथवा परकल्याणार्थ चर्चा ५.00 से ५.४० -सायंकालीन प्रतिक्रमण ५.४५ से ६.०० -देववंदना ६.00 से ६.२० -सायंकालीन आचार्यभक्ति ७.00/७.१५ से ९.00/९.३० -सामायिक पाठ, स्वयंभूस्तोत्र पाठ एवं नंदीश्वरभक्ति पाठ तत्पश्चात् सायंकालीन सामायिक एवं ध्यान ९.००/९.३० से १०.00 -वैयावृत्ति १०.00 से १.३०/२.00 -रात्रि विश्राम आचार्यश्रीजी की उपरिलिखित अत्यंत व्यस्तम दिनचर्या के बीच देश-विदेश से आए हुए श्रावकगण प्रयासरत रहते हैं कि अवसर मिलते ही कुछ समय का सदुपयोग अपने हित के लिए गुरुवर से पा लेवें। कुछ श्रावक, ब्रह्मचारीगण एवं ब्रह्मचारिणी बहनों के अलावा संघस्थ साधुजन भी इस बीच अपने आत्महित हेतु निर्देश या प्रायश्चित्तादि को प्राप्त करने के लिए प्रतीक्षातुर रहते हैं, तो कुछ शिष्यगण वैयावृत्ति के अवसर की बाट जोठते रहते हैं। और इस बीच जिसे भी अवसर मिल जाता है वह अपना परम सौभाग्य मानता है। आचार्यश्रीजी विशाल संघ का संचालन करते हुए भी स्वयं को राग-द्वेषात्मक विषयों से बचा लेते हैं। जब कभी कोई अपने राग-द्वेषात्मक विकल्पों को लेकर आता भी है तो वह इशारे से कहते हैं- 'देखो, अभी नहीं, बाद में आना।' ऐसा बार-बार करते-करते समय निकल जाने पर बहुत कुछ विकल्प बिना उलझे ही धीरे-धीरे शांत हो जाते हैं । यदि कुछ शेष रह भी जाता तो वह मुख्य विषय पर चर्चा कर विषय को खत्म कर देते हैं। किसी की गलती पर वह उसे डाँटना, फटकारना, बड़बडाना आदि नहीं करते। इसके लिए उपेक्षा-संयम उनका सबसे बड़ा अस्त्र-शस्त्र है। इससे धीरे-धीरे उसे अपनी गलती स्वयं समझ आ जाती है। और यदि नहीं भी आई तो वह स्वयं पूछकर क्षमा याचना कर लेगा और आगे के लिए सतर्क हो जाएगा। वह बोलने से तो ऐसे डरते हैं जैसे कोई तत्काल का जन्मा चिड़िया का बच्चा घोंसले से बाहर झाँकने में डरता है। वह ऐसे कुशल गोताखोर हैं, जो संसार सागर में रहकर भी अपनी आत्मा की गहराइयों में गोता लगाते ही चले जा रहे हैं। राग-द्वेष रूपी कषाय एवं विकारी भाव रूपी बड़ी-बड़ी व्हेल जैसी मछलियों से स्वयं को सुरक्षित बचाकर अपने में भीतर ही भीतर उतरत चले जा रहे हैं। शीघ्र ही वह एक दिन अपनी आत्मनिधि को प्राप्त कर हमेशा-हमेशा के लिए शाश्वत सुख में ठहर जाएँगे। वर्तमान समय में मनो गुप्ति की सर्वोच्च साधना करने वाला यदि साधक कोई हैं तो वह आचार्य भगवन्ही हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है। उनके यह गुण सभी मोक्ष पुरुषार्थियों में आवें, यही इस प्रस्तुति का उद्देश्य है। उपसंहार एक कला वह होती है जो पाषाण में छुपे भगवान को प्रकट करती है तो दूसरी कला वह होती है जो आत्मा में छुपे परमात्मा को प्रकट कर देती है ।आत्मा में परमात्मा को प्रकट करने वाले वर्तमान के पुरुषार्थी कलाकारों मे आचार्य भगवन् शिरोमणि कलाकार हैं। वह अपनी आत्मा के साथ-साथ शरण में आए सभी भव्य पुरुषों को भी अपनी भेद-विज्ञान रूपी छैनी से तराश कर उन्हें भी परमात्म रूप की प्राप्ति हेतु पुरुषार्थरत हैं। साधना, तप, त्याग और अध्यात्म की अतल गहराइयों में उतर कर जिस शाश्वत सत्य का शंखनाद उन्होंने किया है, उसे सुनकर श्रद्धा और विश्वास के कारण प्रत्येक मानव नतमस्तक हो उठता है। उनके व्यक्तित्व का सान्निध्य जिन्हें प्राप्त हो जाता है उनके जीवन में स्फूर्ति और ऊर्जा का एक नवीन संचार हो उठता है। उन्हें जीवन की सार्थकता का बोध होने लगता है। उनके दर्शन मात्र से अध्यात्म की जो दृष्टि मिलती है उससे जीवन में एक अलग ही प्रकार की ताजगी.का अहसास होने लगता है। उनके पास रत्नत्रय एवं पंचाचार की अमूल्य निधियाँ हैं, जिनका पालन पूर्ण आस्था, संकल्प और दृढ़ता के साथ वे स्वयं करते हैं और शिष्यों को भी करवाते हैं । २० अगस्त, सन् २000, अमरकंटक (शहडोल) मध्यप्रदेश, वर्षायोग में रविवारीय प्रवचन में विद्वान् डॉ. राजारामजी द्वारा संपादित शास्त्र ‘पुण्यास्रव कथाकोश' अपभ्रंश भाषा में प्रथम बार प्रकाशित हुआ। उसके विमोचन के समय पंडितजी ने कहा- 'मूलाचार की मूल पाण्डुलिपि इस देश में नहीं बल्कि जर्मनी के म्यूजियम में है। कितना दुर्भाग्य व दुःख की बात है कि इसे हम सुरक्षित नहीं रख पाए।' तब आचार्यश्रीजी ने कहा- 'वहाँ विदेश में 'मूलाचार' की द्रव्यलिपि हो सकती है, किंतु यहाँ (संघ की ओर इशारा करते हुए) तो भावलिपि मंच पर विराजमान है, अतः चिंता की कोई बात नहीं है।' सर्वांगीण ज्ञान, दूरदृष्टि, अंतर्मुखी व्यक्तित्व, उदारवादी चिंतन, लक्ष्य निष्ठा, स्पष्ट चर्या आपके जीवन के श्रेष्ठतम गुण हैं। यही वजह है कि वह आज आचार्यों में शिरोमणि आचार्य' कहे जाते हैं।
  4. छह ढाला ऑनलाइन परीक्षा -छठी ढाल 18/11/2020 बुधवार दोपहर 2 बजे प्रारम्भ होगी बंधुओं परीक्षा के प्रश्नपत्र की लिंक आपकी सुविधा के लिए पहले ही दी जा रही है आप अधिक से अधिक संख्या में अपने स्वाध्याय प्रेमी बंधुओं को यह लिंक भेजे धन्यवाद https://forms.gle/dt9h4HSXPSs6vQLw9
  5. 26 november *आचार्य भगवन का हुआ विहार* अभी 1:30 बजे खातेगांव से नेमावर की और हुआ विहार.... 🙏🏻 . * *२३ नवम्बर २०२०* * *परम पूज्य* *आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज* *ससंघ* ■ *आज रात्रि विश्राम* टांड़ा जी का वेयर हाउस एस आर पेट्रोल पंप के पास ■ *कल की आहार-चर्या* खातेगांव में प्रातः मंगल प्रवेश एवम आहार चर्या खातेगांव में होगी ■ *आगामी कार्यक्रम* कल रात्रि संभावित संदलपुर ■ *सम्भावित नेमाबर जी प्रवेश* 25 नवम्बर प्रातःकाल * २२ नवम्बर २०२० परम पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ ■ आज रात्रि विश्राम कन्नौद (परिणय गार्डन) ■ कल की आहार-चर्या सौभाग्य : कन्नौद की समाज को ■ मंगल विहार की दिशा खातेगांव : 20 किमी नेमाबर जी : 35 किमी ■ सम्भावित नेमाबर जी प्रवेश 25 नवम्बर दोपहर बाद या 26 नवम्बर प्रातःकाल *आचार्यश्री जी मंगल विहार अपडेट* 21 नवम्बर, दोपहर बेला। ■ *परम पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ का मंगल विहार जारी-* ● *आज का संभावित रात्रि विश्राम-* कलवार पंचायत भवन। ● *कल की सम्भावित आहार चर्या-* बागन खेड़ा स्कूल भवन। ● *विहार की संभावित दिशा-* सिद्धक्षेत्र, सिद्धोदय तीर्थ श्री नेमाबर जी। *आचार्यश्री जी मंगल विहार अपडेट* 20 नवम्बर, दोपहर बेला। ■ *परम पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ का मंगल विहार नेमावर की ओर...!!* ● *आज का रात्रि विश्राम-* बन उपज चेकिंग नाका, धन तलाव बन चौकी। ● *कल की सम्भावित आहार चर्या-* हथनोरी विद्यालय भवन ( 6 किमी) *आचार्यश्री जी मंगल विहार अपडेट* 19 नवम्बर, दोपहर बेला। ■ *परम पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ का मंगल विहार जारी-* ● *आज का संभावित रात्रि विश्राम-* शासकीय माध्यमिक विद्यालय, अमरपुरा। ● *कल की सम्भावित आहार चर्या-* बाडमोर। ● *विहार की संभावित दिशा-* सिद्धक्षेत्र, सिद्धोदय तीर्थ श्री नेमाबर जी। * * *मंगल विहार अपडेट-* *पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ* ■ कल की सम्भावित आहार चर्या- *संशोधित स्थल- बेड़ामऊ* (अमरपुरा से 6 किमी आगे) 18 नवम्बर, दोपहर बेला। ■ परम पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ का मंगल विहार जारी- ● आज का संभावित रात्रि विश्राम- पशु आहार केंद्र (पेट्रोल पंप के बाजू में) कर्णावट ग्राम ● कल की सम्भावित आहार चर्या- चापड़ा , द्वारिकाधीश मांगलिक भवन। ● विहार की संभावित दिशा- सिद्धक्षेत्र, सिद्धोदय क्षेत्र श्री नेमाबर जी। *आचार्यश्री जी मंगल विहार अपडेट* 17 नवम्बर, दोपहर बेला। ■ *परम पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ का मंगल विहार जारी-* ● *आज का संभावित रात्रि विश्राम-* मालवांचल स्कूल (इंडेक्स हॉस्पिटल के बाजू में) ● *कल की सम्भावित आहार चर्या-* डबल चौकी, आइडियल स्कूल भवन। ● *विहार की संभावित दिशा-* सिद्धक्षेत्र, सिद्धोदय क्षेत्र श्री नेमाबर जी। *विहार अपडेट 16 नवंबर 20* 👣 👣👣👣 👣👣👣👣 *संत शिरोमणि आचार्य गुरुदेव श्री विद्यासागर महाराज का मंगल विहार आज महालक्ष्मी नगर इंदौर से नेमावर की ओर दोपहर 2 बजे हुआ।* *रात्रि विश्राम 9 किमी दूर गुराडिया मैं हो सकता है* *इंदौर से नेमावर की दूरी लगभग 130 किमी है* 16 नवम्बर 2020 पूज्य आचार्यश्री जी ससंघ का हुआ विहार अभी-अभी परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ 7 मुनिराज का मंगल विहार विजयनगर से महालक्ष्मी नगर इंदौर की ओर हुआ । 1. मुनिश्री सौम्यसागर जी 2. मुनिश्री दुर्लभसागर जी 3. मुनिश्री नीरोगसागर जी 4. मुनिश्री निरामयसागर जी 5. मुनिश्री शीतलसागर जी 6. मुनिश्री श्रमणसागर जी 7. मुनिश्री संधानसागर जी (5 मुनिराज का उपसंघ विजयनगर में ही विराजमान हैं) मुनिश्री निर्दोषसागर जी मुनिश्री निर्लोभसागर जी मुनिश्री निरापदसागर जी मुनिश्री निराकुलसागर जी मुनिश्री निरुपमसागर जी
  6. इंदौर 15 नवम्बर 2020 इंदौर में विराजमान संत शिरोमणि आचार्य गुरुदेव श्री विद्यासागर महाराज का ससंघ पिच्छिका परिवर्तन समारोह संपन्न हुआ आचार्य श्री की पिच्छी राजेंद्र जी जैन वास्तु-श्रीमती अंचल वास्तु इंदौर को लेने का सौभाग्य को प्राप्त हुआ सभी नाम इस प्रकार हैं
  7. ◆इंदौर - संत शिरोमणि आचार्य भगवन श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज ससंघ की नवीन पिच्छी◆
  8. *भव्य पिच्छिका परिवर्तन समारोह* *● विजयनगर, इन्दौर ●* *15 नवम्बर, दोपहर 1:30 बजे* ➖◆➖◆➖◆➖◆➖◆➖◆➖◆ परम सानिध्य *पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज* ससंघ (13 मुनिराज ) *विशेष 😘 1. इन्दौर के अन्य जिनालयों में विराजमान, मुनिउपसंघ भी गुरुचरणों में विजयनगर पधार चुके हैं। 2. इसी समारोह में चातुर्मास निष्ठापन, कलश वितरण का भव्य कार्यक्रम भी आयोजित होगा।
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