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वतन की उड़ान: इतिहास से सीखेंगे, भविष्य संवारेंगे - ओपन बुक प्रतियोगिता ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. मैं निर्दोषी हूँ, प्रभु ने देखा वैसा, किया करता। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  2. चाँद को देखूँ, परिवार से घिरा, सूर्य सन्त है | भावार्थ- सौरमण्डल में देखते हैं तो चन्द्रमा इन्द्र है और अपने परिवार यानि अन्य ग्रह, नक्षत्र, तारों से घिरा रहता है लेकिन सूर्य दिन में आकाश में अकेले ही दैदीप्यमान होता है । उसी प्रकार संत-साधु निस्संग, एकाकी ही विचरण करते हैं, गृहस्थ परिवार जनों से घिरे रहते हैं । संस्मरण-आचार्य श्री से किसी ने कहा कि आप इतने विशाल संघ के नायक हैं। तब आचार्यश्री ने उत्तर दिया कि हम नायक नहीं, ज्ञायक हैं । - आर्यिका अकंपमति जी हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  3. तेरी दो आँखें, तेरी ओर हज़ार, सतर्क हो जा | भावार्थ - लौकिक शिक्षा के साथ पारलौकिक सुख की प्राप्ति का उपाय बताते हुए आचार्य महाराज कह रहे हैं कि हे प्राणी ! जगत् की परीक्षा अथवा समीक्षा या आलोचना करने के लिए तेरे पास केवल दो आँखें हैं लेकिन तेरी परीक्षा या समीक्षा या आलोचना की दृष्टि से जगत् में हजारों आँखें तेरी ओर देख रही हैं इसलिए सर्वजन हिताय की भावना से और कर्मबंध से बचने के लिए कायिक और वाचनिक क्रियाओं में सावधानी रखते हुए मानसिक विचारों से भी बचें। - आर्यिका अकंपमति जी हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  4. किसी वेग में, अपढ़ हो या पढ़े, सब एक हैं | भावार्थ - जम्हाई, नींद, छींक, खाँसी आदि सामान्य वेगों में महायोगियों को छोड़कर शेष संसारी प्राणी असहाय या परवश हो जाते हैं। इन वेगों में पढ़े लिखे हों या अनपढ़ सभी समान हैं । यहाँ मोक्षमार्ग का प्रसंग होने से वेग शब्द का अर्थ कर्म बंध कराने वाले मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग आदि वेगों को समाहित किया जा रहा है अर्थात् पुस्तकीय ज्ञान सम्पन्न व्यक्ति हो या अनपढ़ दोनों के ही मिथ्यात्व आदि वेगों में कोई अंतर नहीं है । वैराग्य भावना, बारह भावना और अध्यात्म की भूमिका में कौन कितना पढ़ा-लिखा है, इसकी समीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है । - आर्यिका अकंपमति जी हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  5. द्वेष से बचो, लवण दूर् रहे, दूध न फटे | भावार्थ- जिस प्रकार लवण अर्थात् नमक के सम्बन्ध से दूध विकृत हो जाता है उसी प्रकार द्वेष करने से जीव विकृत-सारहीन और दुःखमय हो जाता है क्योंकि द्वेष करने से इस लोक में मधुर सम्बन्ध भी कड़वे हो जाते हैं। मित्र भी शत्रु बन जाते हैं। यहाँ तक कि अपने भी पराये हो जाते हैं तथा द्वेष करने वाला पाप कर्म का बंध करता है अतः परलोक में भी दुःखी रहता है - आर्यिका अकंपमति जी हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  6. छोटी दुनिया, काया में सुख दुःख, मोक्ष नरक | भावार्थ - जिसकी दृष्टि में दुनिया बहुत छोटी है और जो दुनिया में रहकर भी बहुत छोटा है अर्थात् अपनी आत्मा में स्थित होकर उसने अपनी दुनिया को समेट लिया है तो उसे शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त हो जायेगा । आत्मा से बढ़कर कुछ नहीं है । शेष सब पदार्थ मूल्यहीन हैं, ऐसा मानकर जो जीर्ण- शीर्ण तिनके के समान पर पदार्थों का त्याग कर देता है, वह मोक्ष का पात्र होता है किन्तु जो दुनिया को अपने पैरों की धूल समझकर अपने को ही सब कुछ मानता है तो वह नरक जाता है । - आर्यिका अकंपमति जी हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  7. ज्ञान प्राण है, संयत हो त्राण है, अन्यथा श्वान| भावार्थ - ज्ञान जीव का त्रैकालिक लक्षण है। कर्म योग से सांसारिक दशा में वह ज्ञान सम्यक् और मिथ्या, दोनों प्रकार का हो सकता है सम्यग्ज्ञान भी व्रती और अव्रती के भेद से दो प्रकार का होता है। आचार्य भगवन् ने यहाँ संयमी जीव के ज्ञान के विषय में कहा है कि संयमी का सम्यग्ज्ञान संसार-सागर से पार लगा देता है लेकिन मिथ्यादृष्टि का ज्ञान श्वान अर्थात् कुत्ते के समान पर पदार्थों का रसास्वाद लेते हुए व्यर्थ हो जाता है और जीव को चौरासी लाख योनियों में भटकता रहता है । - आर्यिका अकंपमति जी हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  8. संदेह होगा, देह है तो, देहाती ! विदेह हो जा | भावार्थ - देह का अर्थ शरीर है और केवली भगवान् ने औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण; ये पाँच प्रकार के शरीर बताये हैं जो संसार भ्रमण के मुख्य कारण हैं । पौद्गलिक और पर-रूप शरीर में अपनत्व मानकर जीव स्वयं के वास्तविक स्वभाव को भूल जाता है । उसे अपने सत्यार्थ स्वरूप पर भी संदेह होने लगता है । अतः वह शरीरगत अनेक प्रपंचों में फँसकर गहनतम दुःखों से जूझता है । ऐसी देह में निवास करने वाले देहवान आत्मा को आचार्य देहाती का सम्बोधन करते हुए समझा रहे हैं कि हे देहाती ! देह का छोड़ने के उपायभूत रत्नत्रय की आराधना कर ताकि पर पदार्थों से अत्यन्त भिन्न निर्मल आत्मस्वरूप को प्राप्त कर चिरकाल तक स्वाश्रित सुख में निमग्न हो सके । - आर्यिका अकंपमति जी हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  9. जुड़ो ना जोड़ो, जोड़ा छोड़ो जोड़ो तो, बेजोड़ जोड़ो। भावार्थ आचार्य भगवन् का यह सूत्र पूर्णतः आध्यात्मिकता से जुड़ा हुआ है । यहाँ जुड़ो और जोड़ो से तात्पर्य अपनी आत्मा के अतिरिक्त सम्पूर्ण जड़-चेतन पदार्थों से मन-वचन-काय पूर्वक पूर्ण या आंशिक सम्बन्ध स्थापित करना है । अतः संसारी प्राणी सुख चाहता है तो उसे मन- वचन-काय से चेतन परिग्रह एवं जड़-पदार्थ, धन-सम्पदा आदि से अपनत्व भाव नहीं रखना चाहिए। अज्ञान दशा में जिन जड़-चेतन पदार्थों से ममत्व भाव रखकर सम्बन्ध स्थापित किया था, उसे पूर्णतः समाप्त कर जोड़ रहित अर्थात् समस्त परिग्रह से रहित निस्संग आत्म तत्त्व में लीन हो जाना चाहिए, जो कि अभिन्न रत्नत्रय रूप आत्मा का स्वभाव है । गृहस्थों को भी एकत्रित किए गये धनादि का दान कर उससे ममत्व छोड़ना चाहिए। तभी ऐसा बेजोड़ यानि परिग्रह रहित एकत्व आत्म तत्त्व से सम्बन्ध जुड़ पाएगा । - आर्यिका अकंपमति जी हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  10. ☀☀ संस्मरण क्रमांक 43☀☀ ? महादयालु ? रेशिंदीगिरी जिसका दूसरा नाम नैनागिरी है,यह तीर्थ पारसनाथ भगवान का समोशरण आने के कारण से विख्यात है,वरदत्तादि 5 ऋषियों की यह सिद्ध भूमि है। आचार्य गुरुदेव विहार करके यहां 1978 ईस्वी में आए,भगवान पारसनाथ की 14 फीट की कायोत्सर्ग की प्रतिमा के दर्शन करके आचार्य महाराज का मन प्रसन्न हुआ,तथा कहा- "यहां कितनी शांति है वास्तव में यह सिद्ध भूमि साधना स्थली है" डाकुओं की प्रधानता वाले क्षेत्र में कोई भी अधिक समय तक वहां नहीं रूकता था, आचार्य महाराज की वर्षायोग के लिए मना स्थिति को जानकर क्षेत्र के संरक्षण सदस्य चिंता में पड़ गए। एक बार जब कुख्यात डाकु हरिसिंह को इस बात का पता चला तो वह स्वयं आकर के उपस्थित हो गया और कहने लगा- महाराज आप संघ सहित निश्चिंत होकर रुके,मेरा डाकुओं का समुदाय आपके संघ और भक्तगणों को कुछ भी बाधा नहीं पहुंचाएगा,मेरे लिए सेवा का अवसर प्रदान करें। आचार्य महाराज की सन्निधि मात्र से उस डाकू के भाव में परिवर्तन सभी के लिए आश्चर्यकारी लगा वर्षा योग प्रारंभ हुआ उस क्षेत्र के जंगल में सिद्ध शिला इस नाम से ख्यात एक पत्थर पर आचार्य श्री जी ने सामायिक की क्रिया विधि संपन्न की। वहां पर एक केरवना (जिला दमोह)गांव का निवासी रावखेत सिंहजूं शिकार क्रिया का शौकीन था,वह बंदूक को धारण किए हुए एक हिरण का घात करने के लिए उससे पीछे दौड़ रहा था, दौड़ता दौड़ता हुआ वह हिरण उन निर्ग्रन्थ गुरुदेव के पीछे आकर बैठ गया। मृग की यह दशा देखकर वह शिकारी सहसा आचार्य श्री जी के चरणो में नमस्कार करके स्वयं ही किसी की भी प्रेरणा के बिना यह निवेदन करने लगा-आज के बाद से शिकार करने का त्याग करता हूं। इस तरह से मृग की रक्षा और शिकारी को शुभाशीष की प्राप्ति हुई। धन्य है ऐसे आचार्य भगवंत जिनको देखकर डाकू और शिकारी भी अपना बैर भाव भूल जाते है, जैसे भगवान के समवशरण में सर्प-नेवला, शेर-गाय अपना बैर भाव नष्ट कर देते है, उसी प्रकार आचार्य भगवंत की सौम्यछवि को देखकर लोग सारे पापों का त्याग कर देते है, उनके सामने आत्म समर्पण कर देते है। ? अनासक्त महायोगी पुस्तक से साभार ? ✍ मुनि श्री प्रणम्यसागर जी महामुनिराज✍
  11. ☀☀ संस्मरण क्रमांक 42☀☀ ? निर्भयता ? बुंदेलखंड में आचार्य महाराज का यह पहला चातुर्मास था। 1 दिन रात्रि अंधेरे में कहीं से बिच्छू आ गया, और उसने एक बहन को काट लिया।पंडित जगनमोहन लाल जी वही थे, उन्होंने उस बहन की पीड़ा देखकर सोचा कि बिस्तर बिछा कर लिटा दूं, तो जैसे ही बिस्तर खोला,उसमें से एक सर्प निकल आया उसे जैसे तैसे भगाया गया। दूसरे दिन पंडित जी ने आचार्य महाराज को सारी घटना सुनाइ, और कहा कि- महाराज यहां तो चातुर्मास में आपको बड़ी बाधा आएगी।पंडित जी की बात सुनकर आचार्य महाराज हंसने लगे।बड़ी उन्मुक्त हसीं होती है महाराज की। हँसकर बोले कि- "पंडित जी यहाँ हमारे समीप भी कल दो,तीन सर्प खेल रहे थे।यह तो जंगल है।जीव-जंतु तो जंगल में ही रहते हैं। इसमें चातुर्मास में क्या बाधा?वास्तव में,हमें जंगल में ही रहना चाहिए और सदा परिषद सहन करने के लिए तत्पर रहना चाहिए कर्म निर्जरा परीषय-जय से ही होती है उपसर्ग और परीषय को जीतने के लिए इतनी निर्भयता व तत्परता ही साधु की सच्ची निशानी है। कुंडलपुर (1976) ? आत्मान्वेशी पुस्तक से साभार? ✍ मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज शिक्षा- धन्य है ऐसे आचार्य महाराज,जो किसी भी बाधा, उपसर्ग से नहीं डरते बल्कि निरंतर मोक्ष मार्ग में आगे बढ़ते जा रहे हैं और निश्चित ही आगामी भवों में जल्द से जल्द मुक्ति को प्राप्त कर लेंगे,हमें भी अपने मार्ग में आई हुई बाधाओं का सामना करते हुए आगे बढ़ते जाना चाहिए। ?
  12. ☀☀ संस्मरण क्रमांक 41☀☀ ? गुरुजी का हमारी आत्मा में निवास ? आहारजी सिद्धक्षेत्र पर चातुर्मास के उपरांत आचार्य महाराज संघ सहित सिद्ध क्षेत्र नैनागिर आ गए। शीतकाल यहीं बीत गया। 1 दिन अचानक दोपहर में आचार्य महाराज ने बुलाया ।मुनि श्री योग सागर जी भी आए,मैं भी(क्षमासागर जी) पहुंचा। आचार्य महाराज बोले कि-"ऐसा सोचा कि तुम दो-तीन साधु मिलकर सागर की ओर विहार करो।वहां स्वास्थ्य लाभ भी हो जाएगा और धर्म प्रभावना भी होगी। तुम सभी को अब बाहर रहकर धीरे-धीरे सब बातें सीखनी है। संघ में पहली बार हम लोगों पर यह जिम्मेदारी आई थी,तो हम घबराए कि ऐसा तो कभी सोचा भी नहीं था हम तो अपना जीवन आचार्य महाराज के चरणों में समर्पित करके निश्चिंत होकर आत्मकल्याण में लगे थे।कुछ समझ में नहीं आया।गुरु की आज्ञा अनुलंघनीय हुआ करती है, पर मन को कैसे समझाए, मन भर आया। हमने कहा कि महाराज जी आपसे दूर रहकर हम क्या करेंगे?कैसे रह पाएंगे? आचार्य महाराज गंभीर हो गये, बोले- मन से दूर चले जाओगे क्या? हमने फौरन कहा-कि यह तो कभी संभव ही नहीं स्वप्न में भी नहीं"तब वे हंसने लगे।बोले कि- "जाओ हमारा खूब आशीर्वाद है। घबराना नहीं।अध्यात्म में मन लगाना। ☀☀ मेरी आज्ञा में रहने वाला मुझसे दूर रहकर भी मेरे अत्यंत समीप ही है, और मेरी आज्ञा नहीं मानने वाला मेरे निकट रहकर भी मुझसे बहुत दूर है।☀☀ आज भी हम उनसे दूर रहकर भी उन्हें अपने अत्यंत समीप पाते हैं। कभी दूरी का एहसास नहीं होता सचमुच गुरु की आज्ञा में अब रहना ही सच्चा सामीप्य है। नैनागिरी (1986) ? आत्मान्वेशी पुस्तक से साभार? ✍ मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज ? शिक्षा- सच मे गुरु जी की आज्ञा में चलने पर गुरु हमेशा हमारे साथ रहा करते है,हमे हमेशा आगे बढ़ाते रहते है।आज गुरुजी रामटेक में है , पर कभी भी नही लगता कि वो हम से दूर है,ऐसा लगता है कि वो हमेशा हमारे साथ है,उनका हमारी आत्मा से कभी वियोग ही नहीं हुआ,गुरुजी हृदय की धड़कन की तरह हमेशा हमारे हृदय में धड़कते रहते है।?
  13. ☀☀ संस्मरण क्रमांक 40☀☀ ? निमित्त ? जिनेंद्र वर्णी जी ने अपने अंत समय में आचार्य महाराज को अपना गुरु बना कर उनके श्री चरणों में समाधि के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया था। सल्लेखना अभी प्रारंभ नहीं हुई थी,इससे पहले ही एक दिन अचानक संघ सहित आचार्य महाराज बिना किसी से कुछ कहे ईसरी से निमिया-घाट होकर पार्श्वनाथ टोंक की वंदना करने के लिए निकल पड़े,सारा दिन वंदना में बीत गया इसलिए आश्रम आते-आते शाम हो गई। चूंकि बिना किसी पूर्व सूचना कि यह सब हुआ, इसलिए वर्णी जी दिनभर बहुत चिंतित रहे कि पता नहीं आचार्य महाराज कब लौटेंगे जैसे ही ईसरी आश्रम में आचार्य महाराज लौट कर आए वर्णी जी ने उनके चरणों में माथा रख दिया,आंखों में आंसू भर आए और अवरूद्ध कंठ से बोले कि- महाराज आप मुझे बिना बताए अकेला छोड़ कर चले गए,मन बहुत घबराया मुझे तो अब आपका ही सहारा है मेरे जीवन के अंतिम समय में अब,सब आपको ही संभालना है। आचार्य महाराज क्षण भर को गंभीर हो गए फिर मुस्कुरा कर बोले कि- वर्णी जी सल्लेखना तो आत्माश्रित है,अपने भावों की संभाल आपको स्वयं करनी है। अपने उपादान को जाग्रत रखिए, मैं तो निमित्त मात्र हूं। इस तरह अपने प्रति समर्पित हर शिष्य को संभालना, सहारा देना, संयम के प्रति जागृत रखना,और नियंतर आत्मकल्याण की शिक्षा देते रहना परंतु स्वयं असंपृक्त रहना यह उनकी विशेषता है। (ईसरी 1983) ? आत्मान्वेषी पुस्तक से साभार? ✍ मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज
  14. ☀☀ संस्मरण क्रमांक 39☀☀ ? श्मशान में ध्यान ? पहले जब संघ इतना बड़ा नहीं था,आचार्य श्री जी अष्टमी और चतुर्दशी को जंगल में वीराने शमशान में ध्यान किया करते थे उपवास रहता था और 24 घंटे तक एक ही आसन पर स्थिर रहा करते थे।ऐसा तप श्रेष्ठ मुनि करते हैं। एक बार राजस्थान केकड़ी ग्राम का प्रसंग है आचार्य महाराज के साथ एक क्षुल्लक जी भी थे। संध्या समय वहां के श्रावक गुरु- भक्ति के लिए आये।देखा- आचार्य महाराज जी नहीं है आचार्य श्री विहार कभी बताकर नहीं करते।सब चिंतित हो गए लोगों ने सोचा कहीं महाराज जी विहार तो नहीं कर गए सब लोग ढूंढने लगे,दो ग्रामीण कहीं से जा रहे थे उन्होंने बताया हमने दो नागा बाबाओं को शमशान में देखा है लोग वहां गए तो देखा आचार्य श्री जी पद्मासन में प्रतिमा प्रतिमासम ध्यान में लीन है।यह है *विविक्त शय्यासन तप भीड़ से, कोलाहल से परे एकदम निर्जन एकांत में अपनी आत्मा में निमग्न हो जाना,सब संबंधों से मुक्त हो जाना सबसे अनासक्त हो जाना। ? धर्म जीवन का आधार? ✍ मुनि श्री प्रमाणसागर जी महाराज✍
  15. ☀☀ संस्मरण क्रमांक 38☀☀ ? हल ? आचार्य श्री जी विहार करते हुए नेमावर की ओर से जा रहे थे,आचार्य श्री जी से पूछा-आप तो आचार्य श्री जी नवमी कक्षा तक पढ़े हैं और हम लोगों को m.a. पढ़ने के लिए कहते हैं यदि आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने आपको m.a.करने को कहा होता तो आप हम लोगों को कहां तक पढ़ने को कहते पीएचडी लॉ आदि। आचार्य श्री जी हसंकर बोल उठे-नहीं पहले मल्लिसागर जी (मल्लप्पा जी) कहते थे- ज्यादा क्या पढ़ना, खेती किसानी तो करना ही है। मेन सब्जेक्ट तो कृषि ही है।यह हल चलाओ जो की समस्त समस्याओं का हल है। पहले लोग नौकरी को अच्छा नहीं मानते थे खेती को ही प्रधानता देते थे उत्तम खेती, मध्यम व्यापार, जघन्य नौकरी ऐसा मानते थे, इसलिए दक्षिण में आज भी नौकरी को अच्छा नही मानते है। (रेहटी 1/2/2002, बुधवार) ? संस्मरण पुस्तक से साभार ? ✍ मुनि श्री कुंथुसागर जी महाराज
  16. ☀☀ संस्मरण क्रमांक 37☀☀ ? "बचो शराबी से" ? एक दिन आचार्य श्री मोहनीय कर्म एवं मोही प्राणी के बारे में समजा रहे थे। उन्होंने कहा कि मोह को सबसे बड़ा शत्रु कहा है, क्योंकि यह मोह ही संसारी प्राणी को चारों गतियों में भटकाता रहता है। ऐसे मोह की संगित से बचो औऱ जो मोह से बच कर निर्मोही, साधु त्यागीवार्ति बन गए है, उन्हें मोहियों से भी बचना चाहिए, दूर रहना चाहिए। मोह को महामद यानि शराब की उपमा दी गयी है तो मोह को शराबी की उपमा दी।जा सकती है। आचार्य श्री ने आगे कहा- जैसे सभ्य लोग शराब पीने से तो बचते ही है, लेकिन शराबी की संगित से भी बचते है। शराबी से बात करना भी पसंद नही करते , वैसे ही साधुजनों को मोह तो करना ही नही चाहिए और हमेशा मोहि श्रावकों से भी बचना चाहिए। उनसे ज्यादा बात नही करनी चाहिए । अंत मे उन्होंने कहा कि मोह ओर मोहियों से दूर रहना ही।मोक्ष मार्ग हैं। ? अनुभूत रास्ता ? ? मुनि श्री कुंथुसागर महाराज
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