अत्यन्त है ललित ‘हैदरबाद राज’, साक्षात् यहाँ मुदित भारत-शीश ताज ।
‘औरंगवाद’ सुविशाल जिला निराला , देखा जहाँ कलह का न कभी सवाला ।। १ ।।
है ‘ईर’ सुन्दर यहाँ इसके समाना, है ही नहीं सुरपुरी दिवि में सुभाना ।
आते सदा निरखने इसको सुजाना, शोभामयी परम-वैभव का खजाना ।।
जो श्री जिनालय सुमुन्नत ईर में हैं, मानो कहीं नभ रमा मुख चूमते हैं ।
प्रक्षाल पूजन तथा जिन गीत गाते, तो कर्म को सब मुमुक्षु जहाँ खपाते ।। ३ ।।
जो श्रेष्ठ सेठ वृष-निष्ठ सुईर में थे, दानी निरन्तर सुलीन सुधर्म में थे ।
था ‘रामचन्द्र’ जिनका वह श्राव्य नाम, नामानुरूप अभिराम गुणैक धाम ।। ४ ।।
धर्मात्म थे, सदय थे, सुपरोपकारी, षट्कर्म लीन नित थे बुध चित्तहारी ।
संतोष के सदन थे विनयी, कृपालु, सत्कार्य में रत कृतज्ञ, सदा दयालु ।। ५ ।।
श्री रामचन्द्र ललना मनमोहिनी थी, सीता समा, परम-शील-शिरोमणी थी ।
शोभावती मदन को प्रमदारती थी, चंद्रानना, परम-भाग्यवती, सती थी ।।६।।
हीरे समा-नयन रम्य सुदिव्य अच्छे, थे सूर्य-चन्द्र-सम तेज सुशांत अच्छे ।
जन्में दया भरित-नारि सुकूँख से थे, दोनों अहो! परम सुन्दर लाडलें थे ।। ७ ।।
जो जेष्ठ, पुष्ठ अति हृष्ठ ‘गुलाबचन्द्र’ 'हीरादिलाल' लघु भाग्यवती सुनन्द ।
दोनों अहो! सुकूल के यश-कोष ही थे, या प्रेम के परम-पावन-सौध ही थे ।। ८ ।।
तू यौवनोपवन में स्थित दर्शनीय, तेरा विवाह करना अति श्लाघनीय ।
तू हो गया अब बड़ा अवलोकनीय, नक्षत्र बीच शशि ज्यों, अति शोभनीय ।। ६ ।।
आयोजना विविध है, बहु है विशेष सासू मुझे अब रहा बननाऽवशेष ।
ऐसा निजीय लघु बालक को सुनाया. मानों सुभाग्यवति ने मन को दिखाया ।। १० ।।
चाहूँ नहीं विभव अम्ब! तथा विवाह, कैसे फंसू विषय में, मम है न चाह ।
मेरा विवाह इस जीवन में न होगा। जो आपका यतन व्यर्थ अवश्य होगा ।। ११ ।।
ऐसा विचार सूत का सुन भाग्यमाता, रोती कही, उदय में मम क्यों असाता?
ऐसा कुमार कह रे! मत हा! मुझे तू, क्यों दे रहा दुसह दुःख वृथा मुझे तू ।।१२।।
छूटी तभी युगल लोचन नीर-धार, हा हा! हुई व्यथित भाग्यवती अपार ।
रोती घनी बिलखती उर पीट लेती,औ बीच-बीच रुक के चिर श्वांस लेती ।। १३ ।।
संसार के विषय तो विष हैं सुनो माँ, क्या मारना चह रही मुझको कहो माँ!
अत्यन्त दुःख सहता मम जीव आया, भारी मुझे विषय सेवन ने सताया ।। १४ ।।
है नारकी नरक में मुझको बनाया, माता! निगोद तक भी उसने दिखाया
यों हीरलाल जिसने निज-भाव गाया, वैराग्यपूर्ण उपदेश उन्हें सुनाया ।। १५ ।।
संसार को विषम जान अनित्य मान, औ निन्द्य हेय निजघातक दुख जान ।
आगे वहाँ चल दिया वह हीरलाल, थे शांतिसागर जहाँ गुरु जो निहाल ।। १६ ।।
हीरादिलाल वह जा गुरु 'शांति' पास, दीक्षा गही तव किया निज में निवास ।
तो 'वीरसागर' सुसार्थक नाम पाया, वीरत्व को जगत सम्मुख भी दिखाया ।। १७ ।।
नादान, दीन मतिहीन, न धर्महीन, स्वामी! अतः स्तुति लिखूँ तब में नवीन ।
तो आपके स्तवन से निज को लखूँगा, मैं अंत में करम काट सुखी बनूँगा ।। १८ ।।
श्री वीरसागर सुधीर महान वीर, थे नीर राशि सम आप सदा गभीर ।
स्वामी सुदूर करते जग-जीव-पीर, पीते सदा परम-पावन धर्म-नीर ।। १६ ।।
स्त्री आपकी परम सुन्दर जो क्षमा थी। सेवा सदैव तव थी करती रमा-सी ।
स्वामी! सहर्ष उस संग सदा विनोद, मोक्षार्थ मात्र करते, गहते प्रमोद ।। २० ।।
आहार मात्र तप वर्धन हेतु लेते, थे एक बार तन को तन का हि देते ।
मिष्ठान्न को पर कभी मन में न लाते, स्वामी नहीं इसलिये रस-राज खाते ।। २१ ।।
छयालीस दोष तज के अरु मौन धार, जैसा मिले अशन ने यह योग सार ।
शास्त्रानुकूल वह भी दिन में खड़े हो, लेते अतः परम-पूज्य हुए बड़े हो ।। २२ ।।
आधार थे सकल मानव के यहाँ पै, जैसे सुनींव घर की रहती धरी पै ।
निर्दोष था तब पुनीत अखंड शील, था आपका हृदय तो अतिशांत झील ।। २३ ।।
श्रद्धान जैन मत का तुमको सदा था, सद्ज्ञान ‘शान्ति गुरू’ से तुमको मिला था ।
चारित्र तो तब यहाँ किसको छिपा था, तेरे झुके चरण में मम मात्र माथा ।। २४ ।।
त्रैलोक्य को मदन यद्यपि जीत पाया, था आपका वह नहीं पर पास आया ।
क्या सिंह के निकट भी गज यूथ जाता? जाके कभी स्वबल से उसको सताता? ।। २५ ।।
शुद्धात्म में रत सदा, दिन में न साते, थे किन्तु आप दिन रैन कुकर्म खोते ।
थी आपकी परम मार्दव धर्म-शय्या, थे नाव के मम यहाँ तुम ही खिवैया ।। २६ ।।
निर्मेघ-नील-नभ में शशि-बिंब जैसा, शोभायमान तब जीवन नित्य वैसा ।
स्वामी कभी न पर दोष उछालते थे, वे बार-बार पर में गुण डूंढते थे ।। २७ ।।
आराध्य की सतत थे करते सुभक्ति, कैसे मिले उस बिना निज को सुमुक्ति ।
तेरी अतः कठिन दुर्लभ साधना थी, थी स्वर्ग की न तुमको, शिव-कामना थी ।। २८ ।।
स्वाध्याय लीन रहते निज दोष धोते, साधर्मि को लख सदा परितृप्त होते ।
आराधनामय हुताशन से जलाते, कालुष्य राग-तृण को तब आत्म ध्याते ।। २६ ।।
निःस्वार्थतामय सुजीवन आपका था, मिथ्यात्व क्षोभ अरु लोभ विहीन भी था ।
उत्तुंग मेरुगिरी सादृश कंपहीन, थे नित्य ध्यान धरते तप में सुलीन ।। ३० ।।
थे बीस-आठ गुणधारक अप्रमादी, थी आपने सकल ग्रन्थि अहो! हटा दी ।
अत्यन्त शांत, गत-क्लांत, नितांत शस्य, थे आप, हैं सब तुम्हें नमते मनुष्य ।। ३१ ।।
थे भद्र ! भव्य, अघनाशक, प्रेम - धाम, था द्वेष का न तुममें कुछ भी विराम ।
संतोष से हृदय पूरित आपका था, कौटिल्य से विकल नाम न पाप का था ।। ३२ ।।
वात्सल्य था हृदय में, पर था न शल्य, स्वामी अतः अवनि में तुम तोष-कल्य ।
आरम्भ, दभ्भ मय था न चरित्र तेरा, तेरे रहे चरण में यह शीश मेरा ।। ३३ ।।
आदर्श से विमल, उज्ज्वल थे प्रशस्त, दुर्ध्यान से रहित थे, नित आत्म-व्यस्त ।
विद्यानुमंडित रहे जग-दुख-हारी, ‘विद्या’ न दर्शन किया तव खेद भारी!! ।। ३४ ।।
था आप में सकल-संयम ओत-प्रोत, संसार में तरण-तारण आप पोत ।
की आपने न कब भी पर की अवज्ञा, टाली सु- ‘शांति गुरु’ की न कदापि आज्ञा ।। ३५ ।।
देते कभी न रिपु को अभिशाप आप, लाते नहीं हृदय में परिताप पाप ।
स्वामी कभी समय का न कियाऽपलाप, आलस्य त्याग, जपते जिन-इन्द्र जाप ।। ३६ ।।
थे आप शिष्ट, वृष-निष्ठ, वरिष्ठ योगी, संतुष्ट औ गुण-गरिष्ठ, बलिष्ठ यों भी ।
थे अन्तरंग-बहिरंग निसंग नंगे, इत्थं न हो यदि कुकर्म नहीं करेंगे ।। ३७ ।।
सूई समान व्यवहार करो सभी ही, कैंची समान व्यवहार नहीं कभी भी
ऐसा सुभाषण सदा सबको सुनाते, श्री वीर-नाथ-पथ को सबको दिखाते ।। ३८ ।।
थे आपके प्रथम शिष्य ‘शिव’ शर्म योगी, दूजे सुपूज्य ‘जयसागरजी’ निरोगी ।
हैं विद्यमान ‘श्रुतसागर’ सिद्ध मूर्ति, औ ‘पद्म’ ‘सन्मति’ मुनीश्वर ‘धर्म’ स्फूर्ति ।। ३६ ।।
अच्छे बुरे सब सदा न कभी रहे हैं, तो जन्म भी मरण भी अनिवार्य ही है ।
आचार्य-वर्य, गुरुवर्य समाधि ले के, सानन्द देह तज “वीर” गये अकेले ।। ४० ।।
हे तात! घात!! पविपात!! हुआ यहाँ पै, आचार्य-वर्य गुरुवर्य गये कहाँ पै?
जन्मे सुरेन्द्र-पुर में, दिवि में जहाँ पै, हूँ भेजता “स्तुते-सरोज” अतः वहाँ पै ।। ४१ ।।
श्री वीरसागर सुभव्य-सरोज बन्धू, मैं बार-बार तव-पद-पयोज वंदू ।।
हूँ ‘ज्ञान का प्रथम-शिष्य’ अवश्य बाल, ‘विद्या’ सुवीर-पद में धरता स्वभाल ।। ४२ ।।
श्री वीरसागराय नम: