बसन्ततिलका'छन्द
‘मैसूर राज्य' अविभाज्य, विराजता औ, शोभामयी - नयन मन्जु सुदीखता जो ।
त्यों शोभता, मुदित भारत - मेदिनी में, ज्यों शोभता, मधुप - फुल्ल सरोजिनी में ।।१।।
है ‘बेलगाँव’ सुविशाल जिला निराला, सौन्दर्य - पूर्ण जिसमें पथ हैं विशाला ।
अभ्रंलिहा परम उन्नत सौधमाला, जो है वहाँ अमित उज्ज्वल औ उजाला ।।२।।
है पास ‘भोज’ इसके नयनाभिराम, राकेन्दु-सा अवनिमें लखता ललाम ।
श्रीभाल में ललित कुंकुम शोभता ज्यों, औ भोज भी अवनि मध्य सुशोभता त्यों ।। ३।।
आके मिली विपुल निर्मल नीर वाली, हैं भोज में सरित दो सुपयोज वाली।
विख्यात है इक सुनो वर ‘दूध गंगा’, दूजी अहो! सरस शान्त सु ‘वेदगंगा’ ।। ४ ।।
श्रीमान् महान् विनयवान् बलवान् सुधीमान्, श्री ‘भीमगौड़' मनुजोत्तम औ दयावान् ।
सत्यात्म थे, कुटिल आचरणज्ञ ना थे, जो भोज में कृषि कला अभिविज्ञ वा थे ।। ५ ।।
नीतिज्ञ थे, सदय थे, सुपरोपकारी, पुण्यात्म थे सकल मानव हर्षकारी ।
जो लीन धर्म अरु अर्थ सुकाम में थे, औ वीरनाथ वृष के वर भक्त यों थे ।। ६ ।।
श्री भीमगौड़ ललना अभि सत्यरूपा, थी काय कान्ति जिसकी रति - सी अनूपा ।
सीता समा, गुणवती, वर नारि रत्ना, जो थी यहाँ नित नितान्त सुनीतिमग्ना ।। ७ ।।
नाना कला निपुण थी मृदुभाषिणी, थीं शोभावती मृगदृगी गतमानिनी थी ।
लोकोत्तरा छविमयी तनवाहिनी थी, सर्वसहा-अवनि-सी समतामयी थी ।। ८ ।।
मन्दोदरी सम सुनारि सुलक्षिणी थी, श्री प्राणनाथ - मद - आलस - हारिणी थी ।
हँसानना शशिकला मनमोहिनी थी, लक्ष्मी समान जग सिंहकटी सती थी ।। ६ ।।
हीरे समा नयन रम्य सुदिव्य अच्छे, थे सूर्य चन्द्र सम तेज, सुशान्त बच्चे ।
जन्में दया भरित नारि सुकूँख से थे, दोनों अहो ! परम सुन्दर लाडले थे ।। १० ।।
था ज्येष्ठ पुष्ट अतिहृष्ट सु-देवगौड़ा, छोटा बड़ा चतुर बालक ‘सातगौड़ा’ ।
दोनों अहो ! सुकुल के यश-कोश ही थे, या प्रेम के परम-पावन-सौध ही थे ।। ११ ।।
होता विवाह पर शैशवकाल में ही, पाती प्रिया अनुज की द्रुत मृत्यु यों ही ।
बीती कई तदुपरान्त अहर्निशायें, जागी तदा नव-विवाह सुयोजनायें ।। १२ ।।
तो देख दृश्य’वह बालक सोचता है, है पंक ही नव विवाह, न रोचता है ।
दुर्भाग्य से सघन-कर्दम में फँसा था, सौभाग्य से बच गया, यह तीव्र साता ।। १३ ।।
माँ ! मात्र एक ललना चिर से बची है, वैसी न नीरज मुखी अब लों मिली है ।
हो चाहती मम विवाह मुझे बता दो, जल्दी मुझे अहह ! अंब ! शिवांगना दो ।। १४ ।।
इत्थं कहा द्रुत तदा वच भी स्व-माँ को, निर्भीक भीम-सुत ने सुमृगाक्षिणी को ।
जो भीमगौड़ पति की अनुगामिनी थी, औ कुन्दिता-मुकुलिता-दुखवाहिनी थी ।। १५ ।।
काँटे मुझे दिख रहे घर में अहो! माँ, चाहूँ नहीं घर निवास, अतः सुनो माँ ।
है जैनधर्म जग सार, पुनीत भी है, माता ! अतः मुनि बनूँ यह ही सही है ।। १६ ।।
तू जायगा यदि अरण्य अरे सबेरे, उत्फुल्ल-लोल-कल-लोचन-कंज मेरे
बेटा ! अरे ! लहलहा कल ना रहेंगे, होंगे न उल्लसित औ न कभी खिलेंगे ।। १७ ।।
रोती, सती, बिलखती, गत-हर्षिणी थी, जो सातगौड़ जननी, गजगामिनी थी।
बोली निजीय सुत को नलिनीमुखी यों, ओ पुत्र ! सन्मुख तथा रख दी व्यथा यों ।। १८ ।।
माता अहो ! भयानक-काननी में, कोई नहीं शरण है इस मेदिनी में ।
सद्धर्म छोड़ सब ही दुखदायिनी है, वाणी जिनेन्द्र कथिता सुखदायिनी है ।। १६ ।।
माधुर्य-पूर्ण समयोचित भारती को, माँ को कही सजल-लोचन-वाहिनी को ।
रोती तथा बिलखती उर पीट लेती, जो बीच बीच रुकती, फिर श्वाँस लेती ।। २० ।।
विद्रोह, मोह, निज-देह-विमोह छोडा, आगे सुमोक्ष-पथ से अति नेह जोड़ा ।
‘देवेन्द्रकीर्ति’ यति, से वर भक्ति साथ, दीक्षा गही, वर लिया, वर मुक्ति पाथ ।। २१ ।।
गम्भीर, पूर्ण, सुविशाल - शरीरधारी, संसार-त्रस्त जन के द्रुत आर्तहारी ।
औ वंश-राष्ट्र-पुर देश सुमाननीय, जो थे सु-'शान्ति' यतिनायक वन्दनीय ।। २१ ।।
विद्वेष की न इसमें कुछ भी निशानी, सत्प्रेम के सदन थे, पर थे न मानी ।
अत्यन्त जो लसित थी, इनमें (अ) नुकम्पा, आशा तथा मुकुलिता अरु कोष चंपा ।। २२ ।।
थे दूर नारि कुल से, अति-भीरू यों थे, औ शील-सुन्दर-रमापति किन्तु जो थे!
की आपने न पर या वृष की उपेक्षा थी आपको नित शिवालय की अपेक्षा ।। २४ ।।
स्वामी, तितिक्षु, न बुभुक्षु, मुमुक्षु जो थे, मोक्षेच्छु रक्षक, न भक्षक, दक्ष औ थे ।
यानी, सुधी, विमल-मानस-आत्मवादी शुद्धात्म के अनुभवी, तुम अप्रमादी ।। २५ ।।
निश्चिंत हो, निडर निश्चल, नित्य भारी, थे ध्यान-मौन धरते तप औ करारी ।
थे शीत ताप सहते, गहते न मान, ते सर्वदा स्वरस का करते सुपान ।। २६ ।।
शालीनतामय सुजीवन आपका था, आलस्य, हास्य विनिवर्जित शस्य औ था ।
थी आपमें सरसता व कृपालुता थी, औ आप में नित नितान्त कृतज्ञता थी ।। २७ ।।
थे आप शिष्ट, वृषनिष्ठ, वरिष्ठयोगी, संतुष्ट थे, गुणगरिष्ठ, बलिष्ठ यों भी ।
थे अन्तरंग, बहिरंग, निसंग नंगे, इत्थं न हो यदि, कुकर्म नहीं करेंगे ।। २८ ।।
था स्वच्छ, अच्छ व अतुच्छ चरित्र तेरा, था जीवनातिभजनीय पवित्र तेरा ।
ना कृष्य देह तब जो तप साधना से, यों चाहते मिलन आप शिवांगना से ।। २६ ।।
प्रायः कदाचरण युक्त अहे धरा थी, सन्मार्ग रूढ़ मुनि मूर्ति 'न पूर्व में थी ।
चरित्र का नव नवीन पुनीत पथ, जो भी यहाँ दिख रहा तव देन संत ।। ३० ।।
ज्ञानी विशारद सुशर्म पिपासु साधु, औ जो विशाल नर नारि समूह चारु ।
सारे विनीत तव पाद-सुनीरजों में, आसीन थे भ्रमर से निशि में, दिवा में ।। ३१ ।।
संसार सागर असार अपार खार, गम्भीर पीर सहता इह बार-बार ।
भारी कदाचरण भार विमोह धार, धिक् धिक् अतः अबुध जीव हुआ न पार ।। ३२ ।।
थे शेडबाल गुरुजी इक बार आये, इत्थं अहो सकल मानव को सुनाये ।
“भारी प्रभाव मुझ पै तब भारती का, देखा पड़ा इसलिये मुनि हूँ अभी का” ।। ३३ ।।
अच्छे बुरे सब सदा न कभी रहे हैं, औ जन्म भी मरण भी अनिवार्य ही है ।
आचार्यवर्य गुरुवर्य समाधि लेके, सानन्द देह तज, ‘शान्ति’ गये अकेले ।। ३४ ।।
छाई अतः दुख निशा ललना-जनों में, औं खिन्नता, मलिनता, भयता नरों में ।
आमोद हास सविलास विनोद सारे, है लुप्त मंगल सुवाद्य अभी सितारे ।। ३५ ।।
सारी विशाल जनता महि में दुखी है, चिन्ता-सरोवर-निमज्जित आज भी है ।
चर्चा अपार चलती दिन रैन ऐसी, आई भयानक परिस्थिति हाय! कैसी? ।। ३६ ।।
फैली व्यथा, मलिनता, जनता-मुखों में हा! हा! मची रुदन भी नर नारियों में ।
क्रीड़ा उमंग तज के वय बाल बाला, बैठी अभी वदन को करके सुकाला ।। ३७ ।।
हे ! तात !! घात !! पविपात !! हुआ यहाँ पै, आचार्यवर्य गुरुवर्य गये कहाँ पै?
जन्में सुरेन्द्रपुर में, दिवि में जहाँ पै, हूँ भेजता ‘स्तुति सरोज’ अतः वहाँ पै ।। ३८ ।।
संतोष-कोष गत रोष “सुशान्ति-सिन्धु”, मैं बार-बार तब पाद सरोज वन्दूं ।
हूँ “ज्ञान का प्रथम शिष्य”, अवश्य बाल, “विद्या” सुशान्ति पद में धरता स्व-भाल ।। ३६ ।।
श्री शान्तिसागराय नम: