इधर माटी की मृदुता भी चुप ना रह सकी और चेतन सत्ता का रहस्य खोलती हुई कहती है – चेतन के कारण ही जिन आँखों में काजल के समान करुणता बसी है, सिखा रही है ‘चेतन को जानो - पहचानो'। प्रात:कालीन सूर्य के समान लाल होंठ कह रहे हैं 'सदा समता धारण करो'। गालों की तरुणता कह रही है ‘समुचित बल का प्रयोग करो'। भौंरों के रंग को हरने वाली बालों की कुटिलता सुनाती है, "शरीर का ज्यादा सम्मान मत करो।”
"जिन-चरणों में
सादर आली
चरणाई वह
पुलक आई है
गुनगुना रही है –
पूरा चल कर
विश्राम करो..." (प्र. 129)
पैरों में जो चलने की शक्ति आई है वह गुनगुनाती है ‘पूरा चलकर ही विश्राम / आराम करो' और सुनो इस चेतन सत्ता का कोई ओर-छोर किनारा भी नहीं है, अनादि अनन्त है। जो भी कुछ तुम्हें बता पाई वह रेत के समुद्र से निकाले गए एक कण के समान, सागर की एक बूंद के समान ही है। वह भी वहीं से ली और वहीं छोड़ दी, यूँ कहती – कहती प्रसन्नचित्त माटी की मृदुता मौन हो जाती है।
मृदुता की सीख "पूरा चल कर विश्राम करो" सुनते ही शिल्पी ने चेतन को पुन: और जागृत किया, मन को झकझोर डाला, जिससे शिथिल पड़े तन में भी स्फूर्ति आई, रौदन क्रिया और तेज हो गई। शिल्पी के पैर जांघों तक मिट्टी में डूब गए मिट्टी भी शिल्पी की पिंडरियों में लिपटने लगी, सुगन्ध की प्यासी नागिन, जैसे चन्दन वृक्ष पर लिपटती है।