शिल्पी के पैरों से लिपटती हुई माटी की भुजाओं से पैदा होता है वीर रस, और वह पूछता है शिल्पी से कि-मुझे क्यों याद किया, वीरों का आदरणीय, सदियों से दुनिया को शक्ति प्रदाता वीर रस उपस्थित है। तुम भी वीर रस का पान करो, तुम्हारी भी विजय की इच्छा पूर्ण हो, युगवीर, महावीर, अक्षतवीर बनो। वीर रस की बात सुनकर, वीरता के साथ ही शिल्पी का वीर्य (पौरुष, साहस) भी बोलता है कि तुम अहंकार के नशे में बोल रहे हो। वीर रस के विषय में हमारा पक्का विश्वास अटूट श्रद्धान बन चुका है की
"वीर रस से तीर का मिलना
कभी सम्भव नहीं है
और
पीर का मिटना
त्रिकाल असम्भव !" (पृ.131)
वीर रस के प्रयोग से संसार का किनारा मिल नहीं सकता और तीन काल में पीड़ा मिट नहीं सकती। अग्नि का संयोग पाकर उबलता हुआ जल अग्नि बुझाने में फिर भी कारण बन सकता है किन्तु वीर रस को पीने से मानव का खून ही उबलने लगता है, माहौल शान्त होने की अपेक्षा और बिगड़ने लगता है। जीवन में उच्छंखलता (स्वेच्छाचारिता) की अधिकता, दूसरों पर अधिकार चलाने का भाव इसी वीर-रस' का दुष्परिणाम है। वैसे मानव का मान बबूल के ढूंठ की भाँति कड़ा और खड़ा रहता है दूसरों को हीन देखता दिखाता हुआ। मान को थोड़ी-सी ठेस पहुँचते ही वीर रस चिल्लाने लगता है, महापुरुषों की सहनशीलता, नम्रता, परोपकार आदि सदगुणों को भूलकर।