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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. वल क्षेत्र की ओर नहीं, आचरण को जीवन में धारण करके देखो तुम्हें श्रमण-साधना की सही-सही पहचान होगी, क्योंकि ऊपर से नीचे देखने पर माथा घूमने लगता है चक्कर आता है और नीचे से ऊपर की ओर देखने पर उपरिल वस्तु का अनुमान गलत निकलता है जैसे बहुत बड़ा विमान भी छोटा-सा दिखता है इसीलिए इन- "शब्दों पर विश्वास लाओ, हाँ, हाँ !! विश्वास को अनुभूति मिलेगी अवश्य मिलेगी मगर मार्ग में नहीं मंजिल पर!"(प्र. ४८८) कहे गये शब्दों पर विश्वास रखो, निश्चित तुम्हारे विश्वास को अनुभूति मिलेगी लेकिन रास्ते पर नहीं मंजिल में, लक्ष्य मिलने पर ही इतना कहकर सन्त महामौन में डूब जाता है और माहौल को अपलक निहारती सी-मूकमाटी!
  2. कुछ समय व्यतीत हुआ कि गुरुदेव का प्रसन्न-मुख प्रसाद बाँटने लगा, अभय का हाथ उठा, जिसमें यह भाव भरा था कि शाश्वत सुख का लाभ हो। इस पर आतंकवाद ने कहा- हे स्वामिन् ! समस्त संसार ही दुःखों से भरा है, यहाँ सुख है पर पञ्चेन्द्रिय के विषयों से उत्पन्न होने वाला, वह भी नश्वर। यह तो अनुभूत हुआ, किन्तु शाश्वत - अक्षय सुख पर विश्वास नहीं हो पा रहा है, यदि आप शाश्वत सुख पाने के बाद हमें वह सुख दिखा सको, उस विषय में अपना अनुभव बता सको तो संभव है हमें भी विश्वास हो जाय और हम भी आप जैसी साधना अपने जीवन में अपना सके, ग्रहण कर सके। अन्यथा मन की बात मन में ही रह जाएगी, अतः हमारी भावना पूर्ण हो, ऐसा वचन दो तो बड़ी कृपा होगी। दल की बात सुन मन्द, मृदु मुस्कान ले सन्त ने कहा-ऐसा होना सम्भव नहीं है कारण सुनो-मेरे गुरुदेव ने मुझसे कहा है कि- "कभी किसी को भी वचन नहीं देना, क्योंकि तुमने गुरु को वचन दिया है: हाँ! हाँ ! यदि कोई भव्य भोला भाला भूला-भटका अपने हित की भावना ले विनीत-भाव से भरा- कुछ दिशा-बोध चाहता हो तो..... हित-मित- मिष्ट वचनों में प्रवचन देना उसे, किन्तु कभी किसी को भूलकर स्वप्न में भी वचन नहीं देना।" (पृ. 486 ) कैसी भी परिस्थिति हो, किसी को भी कभी वचन नहीं देना, हाँ यदि कोई भूला भटका भव्य जीव आत्महित की भावना ले, कुछ दिशा-बोध चाहे तो उसे हित-मित-प्रिय वाणी से प्रवचन अवश्य दे देना किन्तु स्वप्न में भी वचन नहीं देना। और दूसरा रण यह है कि तन, मन और वचन रूप बन्धन का पूर्ण रूप से नष्ट हो जाना ही अविनश्वर सुख को पाना है, जिसे पाने के बाद संसार में आना कैसे संभव है तुम्हीं बताओ। दूध घी बन सकता है, किन्तु क्या घी पुनः दूध बन सकता है, यदि नहीं तो प्रभु पुनः संसारी कैसे बन सकते हैं? और इतने पर भी तुम्हें श्रमण-साधना, शाश्वत सुख के विषय में विश्वास नहीं हो रहा हो तो फिर अब अन्तिम कुछ कहता हूँ कि "क्षेत्र की नहीं, आचरण की दृष्टि से मैं जहाँ पर हूँ वहाँ आकर देखो तुम्हें होगी मेरी सही-सही पहचान।"(पृ. 487)
  3. कुम्भ को देख प्रसन्न हुई धरती कहती है-माँ सत्ता को तुम्हारी उन्नति, मान को हरने वाली प्रवृत्ति देख अत्यन्त प्रसन्नता है ‘‘पूत का लक्षण पालने में कहा था ना'', उस समय, जिस समय तुमने मेरी आज्ञा पाली, कुम्भकार का सम्पर्क किया सो सृजनशील-विकासशील जीवन का प्रथम अध्याय हुआ। जिसका सम्पर्क किया, उसके चरणों में अहं का त्याग कर जो समर्पण किया तो निर्माणशील जीवन का द्वितीय अध्याय हुआ। समर्पण के बाद बड़ी-बड़ी परीक्षाएँ और खरी-खरी समीक्षाओं को स्वीकारते हुए उत्साह-साहस के साथ जो अग्नि परीक्षा दी उपसर्ग सहन किया सो विकासशील जीवन का तृतीय सर्ग हुआ। परीक्षा के बाद पराश्रित अनुस्वार यानि बिन्दु समान जीवन को जो तुमने ऊर्ध्वगामी, ऊर्ध्वमुखी, स्वाश्रित बनाया सो विकासशील जीवन का अन्तिम सर्ग (अध्याय) हुआ। और स्वभाव से ही सूज धातु की भाँति अनेक उपसर्ग को सहनकर तुमने जो लौकिक जीवन का अन्त किया सो मानो समस्त कक्षाओं, गुणस्थानों से अतीत मोक्षधाम, सिद्धत्व की उपलब्धि हुई। धरती की भावना सुन कुम्भ सहित सभी ने कृतज्ञता की दृष्टि से कुम्भकार की ओर देखा सो नम्रता की मुद्रा में कुम्भकार ने हा-यह सब ऋषि, मुनियों, सन्तों की कृपा का फल है, मैं तो एक नादान छोटा-सा सेवक मात्र हूँ और कुछ नहीं। और सामने ही कुछ दूरी पर पेड़ के नीचे, पाषाण पर विराजित वीतरागी साधु की ओर सबका ध्यान आकृष्ट कराता है कि वह तुरन्त कुम्भ, परिवार जन, आतंकवाद दल सभी ने गुरु निकट पहुँच, आदर सहित तीन प्रदक्षिणा दे गुरु चरणों में नमन किया। पादाभिषेक कर पादोदक (गंधोदक)सिर पर लगाया और चातक पक्षी के समान गुरुकृपा (वचनों) की प्रतीक्षा करने लगे सब। 1. परहित सम्पादिके - दूसरे के हित के कार्य करने वाली। 2. उपादान शक्ति - भीतरी योग्यता। 3.निमित्त - कारण। 4. एकान्त धारणा - किसी एक पक्ष का हठाग्रह मन में रखना।
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