कुछ समय व्यतीत हुआ कि गुरुदेव का प्रसन्न-मुख प्रसाद बाँटने लगा, अभय का हाथ उठा, जिसमें यह भाव भरा था कि शाश्वत सुख का लाभ हो। इस पर आतंकवाद ने कहा- हे स्वामिन् ! समस्त संसार ही दुःखों से भरा है, यहाँ सुख है पर पञ्चेन्द्रिय के विषयों से उत्पन्न होने वाला, वह भी नश्वर। यह तो अनुभूत हुआ, किन्तु शाश्वत - अक्षय सुख पर विश्वास नहीं हो पा रहा है, यदि आप शाश्वत सुख पाने के बाद हमें वह सुख दिखा सको, उस विषय में अपना अनुभव बता सको तो संभव है
हमें भी विश्वास हो जाय और हम भी आप जैसी साधना अपने जीवन में अपना सके, ग्रहण कर सके। अन्यथा मन की बात मन में ही रह जाएगी, अतः हमारी भावना पूर्ण हो, ऐसा वचन दो तो बड़ी कृपा होगी। दल की बात सुन मन्द, मृदु मुस्कान ले सन्त ने कहा-ऐसा होना सम्भव नहीं है कारण सुनो-मेरे गुरुदेव ने मुझसे कहा है कि-
"कभी किसी को भी
वचन नहीं देना,
क्योंकि तुमने
गुरु को वचन दिया है:
हाँ! हाँ !
यदि कोई भव्य
भोला भाला भूला-भटका
अपने हित की भावना ले
विनीत-भाव से भरा-
कुछ दिशा-बोध चाहता हो
तो.....
हित-मित- मिष्ट वचनों में
प्रवचन देना उसे,
किन्तु
कभी किसी को
भूलकर स्वप्न में भी
वचन नहीं देना।" (पृ. 486 )
कैसी भी परिस्थिति हो, किसी को भी कभी वचन नहीं देना, हाँ यदि कोई भूला भटका भव्य जीव आत्महित की भावना ले, कुछ दिशा-बोध चाहे तो उसे हित-मित-प्रिय वाणी से प्रवचन अवश्य दे देना किन्तु स्वप्न में भी वचन नहीं देना। और दूसरा रण यह है कि तन, मन और वचन रूप बन्धन का पूर्ण रूप से नष्ट हो जाना ही अविनश्वर सुख को पाना है, जिसे पाने के बाद संसार में आना कैसे संभव है तुम्हीं बताओ।
दूध घी बन सकता है, किन्तु क्या घी पुनः दूध बन सकता है, यदि नहीं तो प्रभु पुनः संसारी कैसे बन सकते हैं? और इतने पर भी तुम्हें श्रमण-साधना, शाश्वत सुख के विषय में विश्वास नहीं हो रहा हो तो फिर अब अन्तिम कुछ कहता हूँ कि
"क्षेत्र की नहीं,
आचरण की दृष्टि से
मैं जहाँ पर हूँ
वहाँ आकर देखो
तुम्हें होगी मेरी
सही-सही पहचान।"(पृ. 487)