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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • 73. सृजनशील जीवन

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    कुम्भ को देख प्रसन्न हुई धरती कहती है-माँ सत्ता को तुम्हारी उन्नति, मान को हरने वाली प्रवृत्ति देख अत्यन्त प्रसन्नता है ‘‘पूत का लक्षण पालने में कहा था ना'', उस समय, जिस समय तुमने मेरी आज्ञा पाली, कुम्भकार का सम्पर्क किया सो सृजनशील-विकासशील जीवन का प्रथम अध्याय हुआ। जिसका सम्पर्क किया, उसके चरणों में अहं का त्याग कर जो समर्पण किया तो निर्माणशील जीवन का द्वितीय अध्याय हुआ। समर्पण के बाद बड़ी-बड़ी परीक्षाएँ और खरी-खरी समीक्षाओं को स्वीकारते हुए उत्साह-साहस के साथ जो अग्नि परीक्षा दी उपसर्ग सहन किया सो विकासशील जीवन का तृतीय सर्ग हुआ। परीक्षा के बाद  पराश्रित अनुस्वार यानि बिन्दु समान जीवन को जो तुमने ऊर्ध्वगामी, ऊर्ध्वमुखी, स्वाश्रित बनाया सो विकासशील जीवन का अन्तिम सर्ग (अध्याय) हुआ। और स्वभाव से ही सूज धातु की भाँति अनेक उपसर्ग को सहनकर तुमने जो लौकिक  जीवन का अन्त किया सो मानो समस्त कक्षाओं, गुणस्थानों से अतीत मोक्षधाम, सिद्धत्व की उपलब्धि हुई।

     

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    धरती की भावना सुन कुम्भ सहित सभी ने कृतज्ञता की दृष्टि से कुम्भकार की ओर देखा सो नम्रता की मुद्रा में कुम्भकार ने  हा-यह सब ऋषि, मुनियों, सन्तों की कृपा का फल है, मैं तो एक नादान छोटा-सा सेवक मात्र हूँ और कुछ नहीं। और सामने ही कुछ दूरी पर पेड़ के नीचे, पाषाण पर विराजित वीतरागी साधु की ओर सबका ध्यान आकृष्ट कराता है कि वह तुरन्त कुम्भ, परिवार जन, आतंकवाद दल सभी ने गुरु निकट पहुँच, आदर सहित तीन प्रदक्षिणा दे गुरु चरणों में नमन किया। पादाभिषेक कर पादोदक (गंधोदक)सिर पर लगाया और चातक पक्षी के समान गुरुकृपा (वचनों) की प्रतीक्षा करने लगे सब।

     

     

    1. परहित सम्पादिके - दूसरे के हित के कार्य करने वाली।

    2. उपादान शक्ति - भीतरी योग्यता।

    3.निमित्त - कारण।

    4. एकान्त धारणा - किसी एक पक्ष का हठाग्रह मन में रखना।



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