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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. आपने स्वयं को जितना सामान्य माना, उतने ही विशेष हो गए। आपमें ज्यों-ज्यों लघुता आती गई, त्यों-त्यों आप प्रभुता को पा गए। मानापमान से दूर हो गए। सर्व जग से सम्मानित हो गए। जीत हार से परे हो गए। भूतल पर विख्यात हो गए। "गुरू भूमण्डल पर हिंमगिरि से, उन्नत अडिग विराजित हैं। उनसे नि:सृत निर्मल शुचितम, सरित अनेक प्रवाहित हैं।। आगम के अनुकूल संस्कृति, इस धरती पर नित्य रहे। संत शिरोमणि विधा गुरुवर, भूतल पर जयवंत रहे।।" आर्यिका पूर्णमती माताजी
  2. मैं भव व्याधि से ग्रसित, जन्म जरादि से व्यथित, आपकी शरण आया हूँ, कुछ अरजी लाया हूँ। मुझे भव व्याधि हरने वाली, परम रत्नत्रय की औषध दीजिए। वर्तमान में आपही नि:स्वार्थ वैद्य हैं हमारे कृपासिंधु कृपा कीजिए... निज सम मुझे निरोग बना लीजिए। "परम वैध गुरू पर श्रद्धा कर, भविजन रोग बताते हैं। गुरु वचनों की औषध पाकर, भव के रोग मिटाते हैं।। भव का रोग सहा न जाता, मेरा भी उपचार करो। रत्नत्रय संजीवन देकर, मुझ पर भी उपकार करो।।" आर्यिका पूर्णमती माताजी
  3. आप अंदर ही अंदर रहते हो, और मैं आपको अपने अंदर रखना चाहता हूँ। आप बाहर आना नहीं चाहते, और मैं आपके बिना, अंदर जा ही नहीं सकता हूँ। “ गुरूवर की पद रज को छूकर, बिगड़े काम सभी बनते। श्री गुरुवर जीवंत तीर्थ के, दर्शन से विधिमल नशते।। निज शुध्दातम दर्शक साधक, विधागुरु को वंदन है। भूतल पर जयवंत रहे नित, भावों से अभिनंदन है॥” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  4. पर से विमुख होने का मैं पूरा पुरुषार्थ करूंगा। पर, स्व के सम्मुख कराने की कृपा आप ही को करनी होगी। बुरे कार्यों से हटने का मैं पूरा पुरुषार्थ करूंगा। पर, सत्कार्यों में लगाने की कृपा आप ही को करनी होगी। मैंने तो अपना सर्वस्व आप ही को समर्पित कर दिया, लेकिन मुझे स्वीकारने की कृपा आप ही को करनी होगी। “गुरु मंत्र दो अक्षर का है, सब मंत्रों का राजा है। विध्न विनाशक संकटहारक, ऋद्धि-सिद्धि का दाता है।। रहकर दूर गुरु से कोई, कहीं नहीं कुछ सुख पाते। गुरु मंत्र के ही प्रसाद से , निज अनुभव कर शिव जाते।।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
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