मैंने एक मंदिर बनवाया है,
जिसकी हृदय वेदिका पर तुम्हें बिठाया है।
जब भी किसी क्षेत्र पर यह भक्त जाता है,
जाकर अपना शीश झुकाता है।
तब उसके हृदय में गुरु का
और गुरु के हृदय में विराजित
प्रभु का भी दर्शन हो जाता है।
सच गुरुदेव, आप ही मुक्तिधाम हैं।
अतएव श्रद्धा से आपको प्रणाम है।
“महामंत्र के पद में तुम हो, हृदयालय के देव तुम्हीं।
तीर्थ सिद्ध अतिशय क्षेत्रों में, दिखते हो गुरुदेव तुम्हीं।।
चारों धाम बसे गुरुवर में, कहीं नहीं अब जाना है।
महातीर्थ गुरुपद वंदन कर, मोक्ष धाम को पाना है।''
आर्यिका पूर्णमती माताजी
मैंने जब-जब आपका समागम किया,
समीप से दर्शन किया,
प्रवचनों को सुना, अंतर में गुना,
मेरे कर्मों में परिवर्तन आया।
लेकिन...अब तो मुझे,
कर्मधारा को ही बदलना है।
ज्ञानधारा में ही जीना है।
इसके लिए मैं क्या करूं?
“अर्हत् जिन से जनक गुरु के, जिनवाणी सी मैय्या है।
गणधर जैसे भैय्या जिनके, गुरुवर एक खिवैया है।।
महंत जन से परिचय जिनका, उनकी महिमा क्या कहना।
ऐसे गुरु के चरण कमल में, शाश्वत काल मुझे रहना।।”
आर्यिका पूर्णमती माताजी
शिष्य जब अपराध करता है तो,
सजा का पात्र होता है।
निरपराध जीता है तो,
शिव सामाज्य का पात्र होता है।
अपराध करने में अपमान है,
सजा पाने में अपमान नहीं,
वास्तव में सजा सुधरने का साधन है।
बिगड़ने का नहीं,
जब गुरू शिष्य की सजा देते हैं,
तब वास्तव में शिष्य को गुणों से सजा देते हैं।
“गुरुवर इतने मृदु नहीं कि, शिष्य अति उद्दण्ड बने।
कठोर इतने कभी न हो कि, भय से काँपे शिष्य घने॥
निःस्वारथ वात्सल्य बहाकर, दोष हरण जो करते हैं।
परम कृपालु विद्या गुरु के चरणों में हम नमते हैं।''
आर्यिका पूर्णमती माताजी