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संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. संयम स्वर्ण महोत्सव
    अंधी दौड़ में
    ”आँख वाले हो क्यों तो”
    भाग लो सोचो।
     
    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।
     
    आओ करे हायकू स्वाध्याय
    आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार
    क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  2. संयम स्वर्ण महोत्सव
    अधूरा पूरा,
    सत्य हो सकता है,
    बहुत नहीं।
     
    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।
     
    आओ करे हायकू स्वाध्याय
    आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार
    क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  3. संयम स्वर्ण महोत्सव
    अंधे बहरे
    "मूक क्या बिना शब्द"
    शिक्षा ना पाते।
     
    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।
     
    आओ करे हायकू स्वाध्याय
    आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार
    क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  4. संयम स्वर्ण महोत्सव
    अँधेरे में हो,
    किंकर्त्तव्य मूढ़ सो,
    कर्त्तव्य जीवी।
     
    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।
     
    आओ करे हायकू स्वाध्याय
    आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार
    क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  5. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 30☀☀
               ? अध्यात्म ?
    एक बार आचार्य श्री ने बताया कि आप लोगों (मुनिराजों) की रत्नत्रय की गाड़ी है। इसमें रत्न भरे है, अध्यात्म इस गाड़ी की स्टरीग है। मोक्ष की इच्छा रखने वाले मुमुक्षु को अध्यात्म की ओर दृष्टि रखना चाहिए। अध्यात्म को भी भूलना नही चाहिए । अध्यात्म स्टेरिग की भांति है जैसे गाड़ी में स्टेरिग होती है जहाँ ,जब चाहो उसे स्टेरिग के मध्यम से मोड़ सकते हो, ऑक्सीडेन्ट (दुर्घटना) से बच सकते हो।वैसे ही मोक्ष मार्ग में बढ़ने वाले साधक को अध्यात्म स्टेरिंग की भांति है, जीवन मे किसी भी प्रकार के मोड़/समस्या, आ जावे तो अध्यात्म के माध्यम से बचा जा सकता है उपसर्ग परिषह के समय अध्यात्म ही काम आता है। इसीलिए साधक को हमेशा अध्यात्म की और दृष्टि दृष्टि बनाए रखना चाहिए , लौकिकता से बचना चाहिए।
    ? आत्मान्वेषी पुस्तक से साभार?
    ? मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज
  6. संयम स्वर्ण महोत्सव
    अन जान था,
    तभी मजबूरी में,
    मज़दूर था।
     
    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।
     
    आओ करे हायकू स्वाध्याय
    आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार
    क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  7. संयम स्वर्ण महोत्सव
    अनर्थदण्ड के प्रकार
     
    बात ही बात में यदि ऐसा कहा जाता है कि देखो हमारे भारत वर्ष में गेहूं बीस रुपये मन है और सोना सौ रुपये तोले से बिक रहा है परन्तु हम से पन्द्रह बीस कोस दूर पर ही पाकिस्तान आ जाता है जहां कि गेहूं तीस रुपये मन में बिक रहे हैं तो सोना पचहत्तर रुपये तोला पर मिल जाता है। यदि कोई भी व्यक्ति यहां से वहां तक यातायात की दक्षता प्राप्त कर ले तो उसे कितना लाभ हो। इस बात को सुनते ही कार-व्यापार करने वाले का या किसान को सहसा अनुचित प्रोत्साहन मिल जाता है जिससे कि वह ऐसा करने में प्रवृत्त होकर दोनों देशों में परस्पर विप्लव करने वाला बन सकता है, अत: कथन पापोदश नाम के अनर्थदण्ड में गिना जाता है। सट्टा फटका करने वालों को लक्ष्य करके तेजी, मन्दी बताना भी इसी में सम्मिलित होता है।
     
    । छुरी, कटारी, बरछी, तलवार वगैरह हथियार बना कर हिंसक पारधी सांसी, बावरिया आदिको देना सो हिंसा दान नाम का अनर्थदण्ड है। क्योंकि ऐसा करने से वे लोग सहज में ही प्राणियों को मारने लग जा सकते हैं। कसाई, खटीक, कलार, जुवारी आदि को उधार देना भी इसी में गिना जा सकता है। | बेमतलब के बुरे विचारों को अपने मन में स्थान देना, किसी की हार और किसी की जीत हो जाने आदि के बार में सोचते रहना; मान लो कि आप की जीत हो जाने आदि के बारे में सोचते रहना; मान लो कि आप घूमने को निकले, रास्ते में दो मल्लो की परस्पर कुस्ती होती देख कर खड़े रह गये और मन में कहने लगे कि इसमें से यह लाल लंगोट वाला जीतेगा और पीली लंगोटी वाला हारेगा। अब संयोगवश पीली लंगोटी वाले ने उसे पछाड़ लगा दी तो आपके मन को आघात पहुंचेगा। कहोगे कि अरे यह तो उल्टा होने लग रहा है। इत्यादि रूप से व्यर्थ की मन की चपलनता का नाम अपध्यान अनर्थदण्ड है।
     
    जिन बातों में फंस कर मन खुदगर्जी को अपना सकता हो, ऐसी बातों के पढ़ने-सुनने में दिलचस्पी लेना दु:क्षुति नाम का अनर्थ दण्ड है। जल वगैरह किसी भी चीज को व्यर्थ बरबाद करना प्रमादचर्या नाम का अनर्थदण्ड है। जैसे कि आप जा रहे हैं, चलते-चलते पानी की जरूरत हो गई तो सड़क पर की नल को खोल कर जितना पानी चाहिये ले लिया किन्तु जाते समय नल को खुला छोड़ गये जिससे पानी बिखरता ही रहा। गर्मी का मौसम है, रेलगाड़ी में सफर कर रहे हैं बिजली का पंखा लगा हुआ है, हवा खाने के लिये खोल लिया, स्टेशन आया, आप लापरवाही से उतर पड़े, पंखे को खुला रहने दिया यद्यपि डिब्बे में और कोई भी नहीं बैठा है तो पंखा व्यर्थ ही चलता रहेगा इसका कुछ विचार नहीं किया। आप एक गांव से दूसरे गांव को जारहे हैं। रास्ते के इधर उधर घास खड़ी है किन्तु रास्ता साफ है फिर भी आप घास के ऊपर से उसे कुचलते हुए जा रहे हैं, इसका अर्थ है कि आप लापरवाही से पशुओं की खुराक को बरबाद कर रहे हैं। इत्यादि सब प्रमोदचर्या नाम का अनर्थदण्ड कहलाता है।
  8. संयम स्वर्ण महोत्सव
    अनागत का,
    अर्थ, भविष्य न, पै,
    आगत नहीं।
     
    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।
     
    आओ करे हायकू स्वाध्याय
    आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार
    क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  9. संयम स्वर्ण महोत्सव
    सबसे पहली आवश्यकता अन्न और जल की होती।
    उसके पीछे गृहस्थ लोगों की, टांगों में हो धोती॥
    इन दोनों के बिना जगत का, कभी नहीं हो निस्तारा।
    पेट पालने से ही हो सकता है भजन भाव सारा॥ ३०॥
  10. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 23☀☀
               ? अनुकम्पा ?
           सागर से विहार करके आचार्य महाराज संघ-सहित नैनागिरि आ गए।वर्षाकाल निकट था,पर अभी बारिश आई नहीं थी।पानी के अभाव में गाँव के लोग दुखी थे।एक दिन सुबह-सुबह जैसे ही आचार्य महाराज शौच-क्रिया के लिए मन्दिर से बाहर आए,हमने देखा कि गाँव के सरपंच ने आकर अत्यंत श्रद्धा के साथ उनके चरणों में अपना माथा रख दिया और विनत भाव से बुन्देलखण्डी भाषा में कहा कि "हजूर ! आप खों चार मईना इतई रेने हैं और पानू ई साल अब लों नई बरसों,सो किरपा करो,पानू जरूर चानें है।"
        आचार्य महाराज ने मुस्कराकर उसे आशीष दिया,आगे बढ़ गए।बात आई-गई हो गई, लेकिन उसी दिन शाम होते-होते आकाश में बादल छाने लगे।दूसरे दिन सुबह से बारिश होने लगी।पहली बारिश थी।तीन दिन लगातार पानी बरसता रहा।सब भीग गया।जल मन्दिर वाला तालाब भी खूब भर गया।
        चौथे दिन सरपंच ने फिर आकर आचार्य महाराज के चरणों में माथा टेक दिया और गद् गद् कंठ से बोला कि "हजूर ! इतनो नोई कई ती,भोत हो गओ,खूब किरपा करी।"
        आचार्य महाराज ने सहज भाव से उसे आशीष दिया और अपने आत्म-चिंतन में लीन हो गए।मैं सोचता रहा कि,इसे मात्र संयोग मानूँ या आचार्य महाराज की अनुकम्पा का फल मानूँ।जो भी हुआ,वह मन को प्रभावित करता है।
                                
                      नैनागिरि(1982)
    साभार-आत्मान्वेषी
    ? आत्मान्वेषी-मुनिश्री क्षमासागर जी?
  11. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 46☀☀
       ? अनुकम्पा ? 
     सागर से विहार करके आचार्य महाराज संघ सहित नैनागिरी आ गए।वर्षाकाल निकट था पर अभी बारिश आई नहीं थी। पानी के अभाव में गांव के लोग दुखी थे। एक दिन सुबह सुबह जैसे ही आचार्य महाराज शौच क्रिया के लिए मंदिर से बाहर आए, हमने(क्षमासागर जी) देखा कि गांव के सरपंच ने आकर अत्यंत श्रद्धा के साथ उनके चरणों में अपना माथा रख दिया और विनोद भाव से बुंदेलखंडी भाषा में कहा कि- "हजूर!आपखों चार मईना ईतई रेने हैं और पानू ई साल अब लों नई बरसों, सो किरपा करो,पानू जरूर चानें हैं।"
    आचार्य महाराज ने मुस्कुराकर उसे आशीष दिया,आगे बढ़ गए रात आई-गई हो गई,लेकिन उसी दिन शाम होते-होते आकाश में बादल छाने लगे।दूसरे दिन सुबह से बारिश होने लगी,पहली बारिश थी।3 दिन लगातार पानी बरस रहा।सब भीग गया। जल मंदिर वाला तालाब भी खूब भर गया।
     चौथे दिन सरपंच ने फिर आकर आचार्य महाराज के चरणों में माथा टेक दिया और गदगद कंठ  से बोला कि- "हजूर!इतनो नोई कई ती, भोत हो गओ,खूब किरपा करी।
    आचार्य महाराज ने सहज भाव से उसे आशीष दिया और अपने आत्म चिंतन में लीन हो गए। मैं सोचता रहा कि इसे मात्र संयोग मानूँ या आचार्य महाराज की अनुकंपा का फल मानूँ।जो भी हुआ वह मन को प्रभावित करता है।
    (नैनागिरी 1982)
    ? आत्मान्वेषी पुस्तक से साभार ?
    ✍ मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज
  12. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 24☀☀
               ? अनुग्रह ?
           नैनागिरि में आचार्य महाराज के तीसरे चातुर्मास की स्थापना से पूर्व की बात है।सारा संघ जल-मन्दिर में ठहरा हुआ था।वर्षा अभी शुरू नहीं हुई थी।गर्मी बहुत थी।एक दिन जल मन्दिर के बाहर रात्रि के अन्तिम प्रहर में सामायिक के समय एक जहरीले कीड़े ने मुझे दंश लिया।बहुत वेदना हुई।सामायिक ठीक से नहीं कर सका।आचार्य महाराज समीप ही थे और शान्त भाव से सब देख रहे थे।जैसे-तैसे सुबह हुई।वेदना कम हो गई।हमने आचार्य महाराज के चरणों में निवेदन किया कि वेदना अधिक होने से समता भाव नहीं रह पाया,सामायिक ठीक नहीं हुई।
         उन्होंने अत्यंत गंभीरता पूर्वक कहा कि "साधु को तो परीषह और उपसर्ग आने पर उसे शान्त भाव से सहना चाहिए,तभी तो कर्म-निर्जरा होगी।आवश्यकों में कमी करना भी ठीक नहीं है।समता रखना चाहिए।जाओ,रस परित्याग करना।यही प्रायश्चित है।"सभी को आश्चर्य हुआ कि पीड़ा के बावजूद भी इतने करुणावंत आचार्य महाराज ने प्रायश्चित दे दिया।
          वास्तव में अपने शिष्य को परीषह-जय सिखाना,शिथिलाचार से दूर रहने की शिक्षा देना और आत्मानुशासित बनाना;यही आचार्य की सच्ची करुणा व सच्चा-अनुग्रह है।जो हमें हमेशा उनकी कृपा से प्राप्त होता है।                  
                         
                      नैनागिरि(1982)
    साभार-आत्मान्वेषी
    ? आत्मान्वेषी-मुनिश्री क्षमासागर जी?
     
  13. संयम स्वर्ण महोत्सव
    चन्द्रगिरि डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़ में विराजमान दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा की जो तप में अधिक है उनमे और तप में भक्ति और जो अपने से तप में हीन है उनका अपरिभव यह श्रुत के अनुसार आचरण करने वाले साधू की तप विनय है ! मुख की प्रसन्नता से प्रकट होने वाले आंतरिक अनुराग को भक्ति कहते हैं ! जो तप में न्यून है उनका तिरस्कार नहीं करना ! देखने से भगवान् नहीं दीखते आँखे बंद करलो तो दिख जायेंगे रूचि होना चाहिए तभी  दीखते हैं  भगवान्  ! गुरु आदि के प्रवेश करने पर या बाहर जाने पर खड़े होना, वंदना करना, शरीर को नम्र करना, दोनों हांथो को जोड़ना, सिर का नवाना, गुरु के बैठने अथवा  खड़े  होने पर उनके सामने जाना और जब गुरु जाएँ तो उनसे दूर रहते हुए अपने हाँथ पैर को शांत और शरीर को नम्र करके गमन करना और गुरु के साथ जाने पर उनके पीछे अपने शरीर प्रमाण भूमि भाग का अन्तराल देकर गमन करें !
  14. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 19☀☀
               ? अनुशासन ?
    मैंने सुना है एक दिन रात्रि के समय जब लोग आचार्य महाराज की सेवा में व्यस्त थे,तब किसी की ठोकर लगने से तेल की शीशी गिर गई।शीशी का ढक्कन खुला था, तो तेल भी फैल गया।
     सभी थोड़ा घबराये ,पर आचार्य महाराज मुस्कुराते रहे,सुबह आचार्य वंदना के बाद आचार्य महाराज चर्चा करते-करते बोले की देखो- शिष्य और शीशी दोनों में डांट लगाना कितना जरूरी है जैसे शीशी में डाट(ढक्कन )ना लगा हो तो उसमें रखी कीमती चीज गिर जाती है, ऐसे ही शिष्य को डांट (अनुशासन के लिए कठोरता)न लगाई जाए तो स्वच्छंद होने और मोक्ष मार्ग से विचलित होने या गिर जाने की संभावना बढ़ जाती है।
    शीशी  गिनने की एक जरा सी घटना से इतना बड़ा संदेश दे देना यह आचार्य महाराज की विशेषता है।
     ? आत्मान्वेषी पुस्तक से साभार ?
    ? मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज
     
  15. संयम स्वर्ण महोत्सव
    अनेक यानी,
    बहुत नहीं किन्तु,
    एक नहीं है।
     
    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।
     
    आओ करे हायकू स्वाध्याय
    आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार
    क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  16. संयम स्वर्ण महोत्सव
    किसी सज्जन ने आचार्य भगवन् से कहा - आज पुनः देश भोग से योग के ओर लौट रहा है। आज जगह जगह योग शिबीर आयोजित किये जा रहे है। योगासन के माध्यम से लोगो को रोग मुक्त किया जा रहा है। बड़ी से बड़े बीमारियों से लोगो को योगासन से लाभ मिल रहा । आज योग शिक्षा के क्षेत्र में देश बहुत ध्यान दे रहा है। आज योग का क्षेत्र अंतराष्ट्रीय हो गया है। यह सब आचार्य महाराज चुपचाप सुनते रहे फिर मुस्कुरा कर बोले क "योग का क्षेत्र अंतरराष्ट्रीय नही अन्तर्जगत है"
    योग लगाने का अर्थ है मन-वचन-काय की प्रवृति को बाह्य जगत से हटाकर अन्तर्जगत के ओर ले आना । यह कितनी गंभीर बात गुरुदेव के श्री मुख से हमे उपलब्ध हुई है, आज की सबसे बड़ी योग साधना यही है अंतदृष्टि का प्राप्त होना। इस बहिर्मुखी आत्मा को अंतर्मुखी बनाने का एकमात्र उपाय है  योग के माध्यम से मन-वचन-काय एकाग्र करना और आत्मा को ध्यान का विषय बनाना।
    (अतिशय क्षेत्र बीना बाहरा जी 30-08-2005)
    अनुभूत रास्ता पुस्तक से साभार
  17. संयम स्वर्ण महोत्सव
    अन्धकार में,
    अन्धा न, आँख वाला,
    डर सकता।
     
    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।
     
    आओ करे हायकू स्वाध्याय
    आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार
    क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?  
  18. संयम स्वर्ण महोत्सव
    अन्याय के धन का दुष्परिणाम
     
    एक दर्जी के दो लड़के थे जो कि एक-एक टोपी रोजाना बनाया करते थे, उनमें से एक जो संतोषी था वह तो अपनी टोपी के दो पैसों में से एक पैसा तो खुद खाता था और एक पैसा किसी गरीब को दे देता था। एक रोज दो दिन का भूखा एक आदमी उसके आगे आ खड़ा हुआ उस दर्जी ने जो टोपी तैयार की थी उसके दो पैसे उसके पास आये तो उनमें के एक पैसा उसने उस पास में खड़े गरीब को दे दिया। गरीब ने उस पैसे के चने लेकर खा लिये और पानी पी लिया। अब उसके दिल में विचार आया कि देखों यह दर्जी का लड़का एक टोपी रोज बना लेता है जिससे दो पैसे रोजाना लेकर अपनी जीवन बड़े आनन्द से बिता रहा है। मैं भी ऐसा ही करने लगें तो क्यों भूखा मरूंगा ऐसा सोचकर उसके पास टोपी बनाना सीख गया और फिर अपना गुजर अपने आप करने लगा। उसके दिन अच्छी तरह से कटने लगे।
     
    इधर उसी दर्जी का दूसरा लड़का टोपी तैयार कर रोजाना जो दो पैसे कमाता था उनमें से एक पैसा तो खुद खा जाता और एक पैसा रोज बचाकर रखता था उससे चौसठ दिन में उसके पास एक रुपया जुड़ गया। उसने उसे चिट्ठी खेल में लगा दिया। संयोगवश चिट्ठी उसी के नाम से उठ गयी जिससे उसके एक लाख रुपये ही आमद हुई। अब तो उसने सोचा दिन भर परिश्रम करना और दो पैसे रोजाना कमाना इस दर्जी के मनहूस धन्धे में क्या धरा है। छोड़ो इसे और आराम से जीवन बीतने दो। उसके पड़ोस की जमीन में एक गरीब भाई झोंपड़ी बना कर रह रहा था। इसने सरकार से उसे खरीद कर वहां एक सुन्दर कमरा बनाया और अपने बाप-भाई से अलहदा रहने लगा, शराब पीने लगा, वेश्यायें नचाने लगा, अपने आप घमण्ड में चूर होकर औरों को तुच्छ समझने लगा। एक रोज वह अपने भाई दर्जी के पास खड़ा था तो उसे अपनी टोपी के दो पैसों में से एक पैसा किसी गरीब को देते देख कर इसके विचार आया कि देखो इसने अपने दो पैसों में से ही एक पैसा दे दिया किन्तु मेरे पास इतना पैसा होकर भी मैं किसी को कुछ नहीं दे रहा हूं। मुझे भी कुछ तो दान करना चाहिए। इतने में इसके सम्मुख एक मस्टण्डा आ खड़ा हुआ जिसे इसने अपने पाकेट में से निकाल कर पांच असर्फियां दे दीं। उन्हें लेकर वह फूल गया कि देखो आज मेरी बड़ी तकदीर चेती। चलो आज तो शराब पीयेंगे और सिनेमा में चलेंगे। वहां जाते समय रास्ते में किसी की बहू-बेटी से मजाक करने लगा तो पुलिस ने पकड़ लिया और थाने भेज दिया जिससे कि कैद कर लिया गया। ठीक है जैसी कमाई का पैसा होता है वैसे ही रास्ते में लगा करता है और उससे मनुष्य की बुद्धि भी वैसी ही हो जाया करती है।
  19. संयम स्वर्ण महोत्सव
    अपना ज्ञान,
    शुध्द-ज्ञान न, जैसे,
    वाष्प, पानी न।
     
    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।
     
    आओ करे हायकू स्वाध्याय
    आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार
    क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  20. संयम स्वर्ण महोत्सव
    अपनी नहीं,
    आहुति अहं की दो,
    झाँको आपे में।
     
    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।
     
    आओ करे हायकू स्वाध्याय
    आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार
    क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  21. संयम स्वर्ण महोत्सव
    चंद्रगिरि डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़ में विराजमान दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा कि सभी आत्मा एक सी है, मैं छोटा मैं बड़ा यही नहीं सोचना चाहिये। सज्जन मनुष्यों के बीच में अपने विद्यमान की गुण की प्रषंसा सुनना लज्जित होता है। तब वह स्वयं ही अपने गुणों की प्रषंसा कैसे कर सकता है। जिस समय वस्तु हम चाहते हैं नहीं मिलती है। अपनी प्रषंसा स्वयं न करने वाला स्वयं गुण रहीत होते हुये भी सज्जनों के मध्य में गुणवान की तरह होता है। कस्तूरी की गंध के लिये कुछ करना नहीं होता है। वचन से गुणों का कहना उनका नाष करना है। बहुत सोच समझकर इस दुनिया में कदम रखना चाहिये। एक कहावत है श्एक सबको हराता हैश् परनिंदा आपस में बैर, भय, दुःख, शोक और लघुता को करती है, पाप रूप है दुर्भाग्य को लाती है और सज्जनों को अप्रिय है। जो पर की निंदा करके अपने को गुणी कहलाने की इच्छा करता है वह दूसरे के द्वारा कडुवी औषधी पीने पर अपनी निरोगता चाहता है। सज्जनों के पास रहने से सज्जनता अपने आप आने लगती है। दूध लोकप्रिय बन जाता है सभी पीते हैं और चाहते हैं । साधना में पक्के होते हैं तब जाकर अन्तर दृष्टि होती है। श्क्वालिटी अपने आप में पुरस्कारश् है ऐसा एवार्ड तो संसार में है ही नहीं। चर्या के माध्यम से गुणों का कथन करें चर्या ही गुणों का प्रकाषन है। आज वेटिंग, सेटिंग, मीटिंग, गेटिंग हो रही है।
  22. संयम स्वर्ण महोत्सव
    अपनी भलाई ही है औरों के सुधारने के लिये
     
    उसने सोचा यहां पर मुख्य लड़ाई काम करने की है। इन्हें इनके विचारानुसार काम करने में कष्ट का अनुभव होता है ये सब अपने को आलसी बनाये रखने में ही सुखी हुआ समझती हैं, यदि घर के धन्धों को मैं मेरे हाथ से करने लग जाऊँ तो अच्छा हो, मेरा शरीर भी चुस्त रहे और इन लोगों का आपस का झगड़ा भी मिट जाये, एक तीर्थ और दो काज वाली बात है। अब रोज एक जब कि सब जनी भोजनपान के अनन्तर आकर एक जगह बैठी तो सुशिक्षिता ने कहा कि सासूजी और जीजीबाइयो सुनो, मेरे रहते हुये आप लोग काम करो यह मेरे लिये शोभा की बात नहीं, अपितु मैं इसमें अपनी हानि और मेरा अपमान ही समझती हूं। यहां कोई विशेष काम भी नहीं है और मेरा अभ्यास कुछ ऐसा ही है कि काम करने में ही मुझे आनन्द मालूम होता है।
     
    अत: कल से घर का रसोई पानी का काम मैं ही कर लिया करूं, ऐसी आज्ञा चाहती हूँ। इस पर बडी जेठानी बोली कि कॅवराणी जी! अभी तो आपके खाने-पीने और विनोद कर बिताने के दिन हैं, फिर तो तुम्हें ही सब कुछ करना पड़ेगा ताकि करते-करते थक भी जाओगी। सुशिक्षिता नम्रता के साथ कहने लगी- जीजी कि मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूं मुझे निराश मत करो, मेरे तो यही काम करने के दिन हैं, अभी से करने लगूंगी तो कुछ दिनों में आप लोगों के शुभाशीर्वाद से आगे को काम करने लायक रहूंगी। अन्यथा मैं तो आलसी बनी रहूंगी, तो फिर भविष्य में कुछ भी न कर सकूंगी। यथाशक्ति घर का काम करना मेरा कर्तव्य है।
     
    अत: दया कीजिये और मुझ से काम लीजिये। हां यह अवश्य हो कि मैं भूल जाऊँ तो बताते तथा होशियार अवश्य करते रहने की कृपा करें। अब वह रोज सबेरे उठती नहा धोकर भगवद्भजन करके भोजन बनाने में लगी रहती थी। अनेक तरह का सरस, स्वादिष्ट भोजन थोड़ी सी देर में तैयार कर लेती और सबको भोजन करवा कर बाद मैं आप भोजन किया करती थी। यदि कभी कोई पाहुणा आ गया और असमय में भी भोजन बनाना पड़ा तो बड़े उत्साह के साथ सही भोजन बनाया करती थी।
     
    यह देखकर सास ने एक दिन आश्चर्यपूर्वक पूछा कि बहू तू ऐसा क्यों करती है? सब काम अकेली ही क्यों किया करती है? तब सुशिक्षिता बोली कि सासूजी! आप यह क्या कह रही हैं? काम करने से कोई दुबला थोड़े ही हो जाता है। काम करने से तो प्रत्युत शरीर स्वस्थ रहता है। यह तो मेरे घर का कार्य है, मुझे करना ही चाहिये। कोई भी अपना काम करें इसमें तो बुराई ही क्या है? मनुष्यता तो इसमें है कि अपने घर का काम सावधानता से निबटा कर फिर पड़ौसी के भी काम में हाथ बटाया जावे। यह शरीर तो एक रोज मिट्टी में मिल जावेगा। हो सके जहां तक इसको दूसरों की सेवा में लगा देना ही ठीक है।
     
    सुशिक्षिता की जेठानियां भी यह सब बात सुन रही थी अतः वे सब सोचने लगी कि देखो हम लोग कितनी भूल कर रही है। पड़ोसिन के कार्य में हाथ बटाना तो दूर कितना रहा हम लोग तो अपने घर के कार्यों को भी इसी के ऊपर छोड़कर बेखबर हो रही हैं। जैसा ही घर में होने वाला कार्य इसका है, इससे पहिले हमारा भी तो है फिर हम लोगों को क्यों न करना चाहिये, जी क्यों चुराना चाहिये? बस अब सभी अपना-अपना कार्य स्वयं करने लगीं।
  23. संयम स्वर्ण महोत्सव
    पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने हबीबगंज जैन मंदिर में आयोजित धर्मसभा में कहा कि अपने दृष्टी कोण को बदलने से और सही दिशा में पुरुषार्थ करने से ज्ञान को भी सही दिशा मिलती है।
     
    आचार्य श्री ने कहा कि जब दृष्टि में दोष आता है तो एक साथ दोनों आँखों की जांच नहीं होती, एक एक करके जाँच करके नम्बर निकाला जाता है। दर्पण के माध्यम से अक्षर और नम्बर पढ़ने को कहा जाता है फिर उसके आघार पर दृष्टि दोष का आंकलन किया जाता है।
     
    उन्होंने कहा कि जब हम चलते हैं तो दृष्टि पैरों की तरफ नहीं रहती जमीन की तरफ होती है क्योंकि नियंत्रण तो दृष्टि से ही किया जाता पेर भले ही चलायमान रहते हैं। पैरों का संतुलन थोडा सा बिगड़ भी जाय दृष्टि का ध्यान पैरों को नियंत्रित कर देता है ये ध्यान बाहरी नहीं बल्कि अंतरंग का ध्यान होता है। पैरों की कोई राह नहीं होती बल्कि उन्हैं तो राह पर अपने ज्ञान के माध्यम से लाया जाता है। अपने ध्यान को अपने नियंत्रण में रखना जरूरी होता है। ध्यान से ही अपना ज्ञान भी नियंत्रित होता है। भीतरी अनुभव से ध्यान को नियंत्रित किया जा सकता है। शब्दों के अर्थों को किस अनुपात से प्रयोग करना है ये महत्वपूर्ण होता है। ध्यान से ही संयम को भी नियंत्रित किया जाता है। संयत ध्यान से ही ज्ञान की उत्पत्ति होती है। ध्यान घोड़े की लगाम की तरह होता है घोडा भले ही सरपट दौड़ता रहे यदि लगाम कसी रही तो बो नियंत्रण से बाहर नहीं जा सकता। ध्यान से संयम की साधना होती है। कर्तव्य को ध्यानपूर्वक करने पर ही साधना को संयत किया जा सकता है।
  24. संयम स्वर्ण महोत्सव
    अपमान को,
    सहता आ रहा है,
    मान के लिए।
     
    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।
     
    आओ करे हायकू स्वाध्याय
    आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार
    क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
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