अनुराग को भक्ति कहते हैं !
चन्द्रगिरि डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़ में विराजमान दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा की जो तप में अधिक है उनमे और तप में भक्ति और जो अपने से तप में हीन है उनका अपरिभव यह श्रुत के अनुसार आचरण करने वाले साधू की तप विनय है ! मुख की प्रसन्नता से प्रकट होने वाले आंतरिक अनुराग को भक्ति कहते हैं ! जो तप में न्यून है उनका तिरस्कार नहीं करना ! देखने से भगवान् नहीं दीखते आँखे बंद करलो तो दिख जायेंगे रूचि होना चाहिए तभी दीखते हैं भगवान् ! गुरु आदि के प्रवेश करने पर या बाहर जाने पर खड़े होना, वंदना करना, शरीर को नम्र करना, दोनों हांथो को जोड़ना, सिर का नवाना, गुरु के बैठने अथवा खड़े होने पर उनके सामने जाना और जब गुरु जाएँ तो उनसे दूर रहते हुए अपने हाँथ पैर को शांत और शरीर को नम्र करके गमन करना और गुरु के साथ जाने पर उनके पीछे अपने शरीर प्रमाण भूमि भाग का अन्तराल देकर गमन करें !
0 Comments
Recommended Comments
There are no comments to display.
Create an account or sign in to comment
You need to be a member in order to leave a comment
Create an account
Sign up for a new account in our community. It's easy!
Register a new accountSign in
Already have an account? Sign in here.
Sign In Now