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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. वे पूज्य श्री जितने अंतरंग में उतरे थे उतने ही बाह्य क्रिया चर्या में गहरे उतरे थे। आभ्यन्तर तप का आधार बाह्य तप है ऐसा आगम वाक्य ग्रंथों में प्रतिपादित है। वे आगम की पटरी पर चलने वाले साधक थे। सोला-शुद्धि की ओर उनकी दृष्टि भी गहरी थी वे कागज को अशुद्ध मानते थे और उसे फाड़ने चीरने में हिंसा भी मानते थे जिसे आगम की भाषा में अजीवकृत असंयम कहा है। | इसलिए वे शुद्धि के समय कागज को छूते नहीं थे क्योंकि काया शुद्धि में दोष लगता था। वैसे तो वे किसी से नहीं डरते थे लेकिन दोषों से अवश्य डरते थे, वे निर्दोष व्रतों के पालन में बहुत चतुर थे। अल्प को पाने के लिए वे बहुत को नहीं खोते थे। आज कागज चौके में घुस गया अब सब प्रारम्भ हो गया। एक बार उन्होंने ऐसा भी कहा था कि वर्तमान में द्रव्य शुद्धि चतुर्थ काल जैसी है किन्तु भावशुद्धि छटे काल से भी आगे बढ़ गई है। ०२.०६.१९९९, बुधवार नेमावर (म.प्र.)
  2. कथाओं के माध्यम से अपनी बात को जनता तक पहुँचाने में सफल रहे साधना के साधक, वाचना के प्रयोगधर्मी पूज्यश्री तपोनिष्ठ आचार्यप्रवर ज्ञानसागर जी महाराज। जो इतने अधिक ज्ञाननिष्ठ थे वे आराधना कथाकोश का आधार बनाकर अपनी बात कहते थे ऐसा ही एक प्रसंग आचार्य गुरुवर विद्यासागरजी के मुख से अनायास निकल पड़ा कि एक बार आचार्य गुरुदेव श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने एक कहानी सुनाई थी कि-एक तपस्वी था पहाड़ों जंगलों पर रहता था, भोजन का समय जब आता था तब वह वृक्ष का तना चाटकर एक बार अपने स्थान पर वापस आ जाता था इससे उसकी आहार संज्ञा की पूर्ति हो जाती थी और इतने में ही उसका काम चल जाता था। एक बार अप्सराओं ने आकर लुभाना चाहा पर नहीं लुभा सकीं।एक दिन अप्सराओं ने छुपकर उसका पीछा किया और उन्होंने देख लिया कि तपस्वी क्या करता है? उन्होंने वृक्ष के तने में अमृत लगा दिया पुनः जब वह संन्यासी तपस्वी आया और उसने तना चाय तो उसे वह पहले से अधिक मीठा लगा, फिर सोचा एक बार और चाट लें फिर क्या था दुबारा चाटते ही उसकी तृष्णा बढ़ गई। दूसरे दिन फिर आया अब की बार उसने वृक्ष का तना तीन बार चाटा फिर पुनः आया तो चार बार चाटा इस प्रकार ५-७ बार संख्या बढ़ती ही गई अब क्या था वह बेचारा तृष्णा की आग में फँसकर अप्सराओं के चक्कर में आ गया आखिर अप्सराओं ने तपस्वी को लुभा ही लिया। तपस्वी साधु, संन्यासी, ऋषि, मुनि, व्रती होकर तृष्णा करे तो उसके तप का प्रभाव भी धीरे-धीरे लुप्त होता जाता है। ऐसी कहानियाँ सुनाकर वे बच्चों व वृद्धों का मन मोह लेते थे। अथक ज्ञानी जिनके ज्ञान की कोई थाह नहीं थी, वे ऐसी सरल-रोचक कहानी सुनाते भी देखे गये। मूलाचार प्रदीप, २२.०६.१९९९, मंगलवार,नेमावर
  3. व्यक्ति की नहीं बल्कि व्यक्तित्व की, गुणों की उपासना जैनदर्शन का आधारशिला रही है। ऐसे आरम्भी-परिग्रही का नहीं, बल्कि त्यागी का, पदयात्री का प्रभाव समाज पर अद्वितीय ही पड़ता है। भले ही वे फिर चाहे द्वितीय प्रतिमा के धारी ही क्यों न हो ? विपरीत आचरण से मार्ग दूषित-प्रदूषित हो जाता है। व्रतों में संलग्न ही व्रती संज्ञा को पाता है। और समाज भी अव्रती को नहीं व्रती को चाहती है तथा उसकी चरण रज माथे पर शिरोधार्य करती है। अकेला एक ११ प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक भले मात्र एक कोपीन के धारी ऐलक ही क्यों न हों ? वह अपने आवश्यकों का निर्दोष पालन करते हुए अपने ही हाथों से अपने ही बालों को लोंच लेता है, तो वह केशलोंच महोत्सव बन जाता है। फिर उस महोत्सव को देखने श्रावकश्राविका, जैन-अजैन भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है और जिनेन्द्र भगवान् के मार्ग की प्रभावना हो जाती है, लोग बोल पड़ते हैं- “जैनं जयतु शासनं' अर्थात् जिनशासन हमेशा सदा जयवन्त रहे। ऐसी ही बात वयोवृद्ध आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कहा करते थे कि यदि दो प्रतिमाधारी व्रती पैदल चलता है तो उसका सभी लोगों पर प्रभाव पड़ता है और यदि साधु भी विपरीत आचरण करता है तो समाज उन्हें नहीं चाहती। और यदि एक ऐलक भी केंशलोंच करता है तो भीड़ आ जाती है और जिनशासन की प्रभावना हो जाती है। ऐसे सूक्ष्म दृष्टि के धारक आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज हमेशा व्रतियों का बहुमान करते थे। ये उनके जीवन-दर्शन से हमें स्पष्ट देखने मिल जाता है। मूलाचार प्रदीप वाचना पर, २५.०७.१९९९, शुक्रवार,नेमावर
  4. कषाय विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार https://vidyasagar.guru/quotes/anya-sankalan/kashaay/
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