स्वाश्रित जीवन अपने सहारे का जीवन है। जहाँ पर का आसरा सहारा होता है वहाँ दीनता का पालन-पोषण होता है। और यह दीनता स्वाभिमान के रक्षण में घातक तत्त्व है। स्वाश्रित जीवन जीना तो साधु जीवन की कुञ्जी है। जिसने बाह्य अभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर दिया वह याचना के मार्ग का आलम्बन कैसे ले सकता है। ? क्योंकि ये उसकी दिगम्बरत्व सम्पत्ति की हानि का कारक ही तो बनेगा। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज का प्रत्येक कार्य स्वाश्रित था। ठीक इसी प्रकार वे अपने शिष्यों, भक्तों, आस्थावानों के लिए हमेशा कहा करते थे कि व्रती का जीवन स्वाश्रित जीवन हो प्रतिक्रमण केशलोंच तो निश्चित रूप से स्व के ऊपर ही आधारित स्वाश्रित हों तब व्रती शोभा को प्राप्त होता है। इस प्रकार आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के जीवित जीवन के पक्ष में ये बातें समाहित थीं। इसीलिए वे कहा करते थे कि “व्यवहार बहुत कठिन है किन्तु निश्चय धर्म स्वाश्रित होता है।
मूलाचार प्रदीप की वाचना पर
०२.०७.१९९९, नेमावर