व्यक्ति की नहीं बल्कि व्यक्तित्व की, गुणों की उपासना जैनदर्शन का आधारशिला रही है। ऐसे आरम्भी-परिग्रही का नहीं, बल्कि त्यागी का, पदयात्री का प्रभाव समाज पर अद्वितीय ही पड़ता है। भले ही वे फिर चाहे द्वितीय प्रतिमा के धारी ही क्यों न हो ? विपरीत आचरण से मार्ग दूषित-प्रदूषित हो जाता है। व्रतों में संलग्न ही व्रती संज्ञा को पाता है। और समाज भी अव्रती को नहीं व्रती को चाहती है तथा उसकी चरण रज माथे पर शिरोधार्य करती है। अकेला एक ११ प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक भले मात्र एक कोपीन के धारी ऐलक ही क्यों न हों ? वह अपने आवश्यकों का निर्दोष पालन करते हुए अपने ही हाथों से अपने ही बालों को लोंच लेता है, तो वह केशलोंच महोत्सव बन जाता है। फिर उस महोत्सव को देखने श्रावकश्राविका, जैन-अजैन भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है और जिनेन्द्र भगवान् के मार्ग की प्रभावना हो जाती है, लोग बोल पड़ते हैं- “जैनं जयतु शासनं' अर्थात् जिनशासन हमेशा सदा जयवन्त रहे।
ऐसी ही बात वयोवृद्ध आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कहा करते थे कि यदि दो प्रतिमाधारी व्रती पैदल चलता है तो उसका सभी लोगों पर प्रभाव पड़ता है और यदि साधु भी विपरीत आचरण करता है तो समाज उन्हें नहीं चाहती। और यदि एक ऐलक भी केंशलोंच करता है तो भीड़ आ जाती है और जिनशासन की प्रभावना हो जाती है। ऐसे सूक्ष्म दृष्टि के धारक आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज हमेशा व्रतियों का बहुमान करते थे। ये उनके जीवन-दर्शन से हमें स्पष्ट देखने मिल जाता है।
मूलाचार प्रदीप वाचना पर,
२५.०७.१९९९, शुक्रवार,नेमावर