हो ‘मान' का विषय या नय का भले हो, दोनों परस्पर अपेक्ष लिए हुए हो।
‘सापेक्ष है विषय' ओ तब ही कहाता, हो अन्यथा कि इससे निरपेक्ष भाता ॥७१४॥
एकान्त का नियति का करता निषेध, है सिद्ध शाश्वत निपाततया “अवेद''।
‘स्यात् शब्द है वह जिनागम में कहाता, सापेक्ष सिद्ध करता सबको सुहाता ॥७१५॥
भाई प्रमाण-नय-दुर्नय-भेद वाले, हैं सप्त-भंग बनते, क्रमवार न्यारे।
‘स्यात्' की अपेक्ष रखते परमाण प्यारे! शोभे नितान्त नय से नयभंग सारे।
सापेक्ष दुर्नय नहीं, निरपेक्ष होते, एकान्त पक्ष रखते दुख को सँजोते ॥७१६॥
स्यादस्ति, नास्ति उभयाऽवकतव्य चौथा, भाई त्रिधा अवकतव्य तथैव होता।
यों सप्त-भंग लसते परमाण के हैं, ऐसा कहें जिनप आलय ज्ञान के हैं ॥७१७॥
क्षेत्रादिरूप इन स्वीय चतुष्टयों से, अस्ति-स्वरूप सब द्रव्य युगों-युगों से।
क्षेत्रादि-रूप परकीय चतुष्टयों से, नास्ति स्वरूप प्रतिपादित साधुओं से ॥७१८॥
जो स्वीय औ परचतुष्टय से सुहाती, स्यादस्ति नास्तिमय वस्तु वही कहाती।
औ एक साथ कहते द्वय धर्म को हैं, तो वस्तु हो अवकतव्य प्रमाण सो हैं।
यों स्वीय-स्वीय नय-संग पदार्थ जानो, तो सिद्ध हो अवकतव्य त्रिभंग मानो ॥७१९॥
एकैक भंग-मय ही सब-द्रव्य भाते, एकान्त से सतत यों रट जो लगाते।
वे सात भंग तब दुर्नय-भंग होते, स्यात् शब्द से सुनय से जब दूर होते ॥७२०॥
ज्यों वस्तु का पकड़ में इक धर्म आता, तो अन्य धर्म उसका स्वयमेव भाता।
वे क्योंकि वस्तुगत धर्म, अतः लगाओ, ‘स्यात्' सप्त-भंग सब में झगड़ा मिटाओ ॥७२१॥