सम्यक्त्व-बोध-व्रत पावन-झील न्यारे, मेरे रहें शरण संयम शील सारे।
लँ वीर की शरण भी मम प्राण प्यारे, नौका समान भव-पार मुझे उतारें ॥७५०॥
निर्ग्रन्थ हैं अभय धीर अनन्त-ज्ञानी, आत्मस्थ हैं अमल है कर आयु-हानि।
मूलोत्तरादिगुण-धारक विश्वदर्शी, विद्वान 'वीर' जग में जग-चित्त-हर्षी ॥७५१॥
सर्वज्ञ हैं अनियताचरणावलम्बी, पाया भवाम्बुनिधि का तट स्वावलम्बी।
हैं अग्नि से निशि नशा स्वपरप्रकाशी, हैं ‘वीर' धीर रवितेज अनंतदर्शी ॥७५२॥
ऐरावता वर-गजों हरि ज्यों मृगों में, गंगा नदी गरुड़ श्रेष्ठ विहंगमों में।
निर्वाणवादि मनुजों मुनि साधुओं में, त्यों ‘ज्ञातृपुत्र' वर 'वीर' मुमुक्षुओं में ॥७५३॥
ज्यों श्रेष्ठ सत्य वचनों वच कर्ण-प्रीय, दानों रहा ‘अभय दान' समर्च्यनीय।
है ब्रह्मचर्य तप' उत्तम सत्तपों में, त्यों ‘ज्ञातृपुत्र' श्रमणेश धरातलों में ॥७५४॥
हैं जन्मते कब कहाँ जग जीव सारे, जानो जगद्गुरु! तुम्हीं जगदीश! प्यारे।
धाता पितामह चराचर मोदकारी, हे! लोकबन्धु भगवन्! जय हो तुम्हारी ॥७५५॥
संसार के गुरु रहें जयवन्त नामी! तीर्थेश अन्तिम रहें जयवन्त स्वामी!
विज्ञान स्रोत जयवन्त रहे ममात्मा, ये ‘वीरदेव' जयवन्त रहें महात्मा ॥७५६॥
दोहा
मेटे वाद-विवाद को, निर्विवाद स्याद्वाद।
सब वादों को खुश करे, पुनि-पुनि कर संवाद ॥