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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • (४२) निक्षेप-सूत्र

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    कोई प्रयोजन रहे तब युक्ति साथ, औचित्यपूर्ण पथ में रखना पदार्थ।

     

    ‘निक्षेप' है समय में वह नाम पाता, नामादि के वश चतुर्विध है कहाता ॥७३७॥

     

    नाना स्वभाव अवधारक द्रव्य प्यारा, जो ध्येय ज्ञेय बनता जिस भाव द्वारा।

    तद्भाव की वजह से इक द्रव्य के ही, ये चार भेद बनते सुन भव्य देही ॥७३८॥

     

    ये 'नाम' ‘स्थापन' व 'द्रव्य' स्व-'भाव' चारों, निक्षेप हैं तुम इन्हें मन में सुधारो।

    है नाम मात्र बस द्रव्यन की सुसंज्ञा, है नाम भी द्विविध ख्यात कहें निजज्ञा ॥७३९॥

     

    आकार औ इतर स्थापन' यों द्विधा है, अर्हन्त बिम्ब कृत्रिमेतर आदि का है।

    आकार के बिन जिनेश्वर स्थापना को, तू दूसरा समझ रे! तज वासना को ॥७४०॥

     

    (७४१-७४२)

     

    जो द्रव्य को गत अनागत भाववाला, स्वीकारता कर सुसांप्रत गौण सारा।

    निक्षेप ‘द्रव्य' वह आगम में कहाता, विश्वास मात्र उसमें बस भव्य लाता ॥

    निक्षेप द्रव्य, द्विविधा वह है कहाता, नोआगमागमतया सहसा सुहाता।

    ना शास्त्रलीन रहता, जिनशास्त्र ज्ञाता, ओ द्रव्य आगम जिनेश तदा कहाता ॥

     

    नो आगमा त्रिविध ‘ज्ञायक देह' भावी औ ‘कर्म रूप जिन यों कहते स्वभावी।

    हे, भव्य तू समझ ज्ञायक भी त्रिधा है, जो भूत सांप्रत भविष्यत या कहा है ॥

    औ त्यक्त च्यावित तथा च्युत यों त्रिधा है, औ ‘भूतज्ञायक' जिनागम में लिखा है॥

     

    शास्त्रज्ञ की जड़मयी उस देह को ही, तद्रूप जो समझना अयि भव्य मोही।

    माना गया कि वह ‘ज्ञायक देह' भेद, ऐसा जिनेश कहते जिनमें न खेद ॥

    नीतिज्ञ के मृतक केवल देह को ले, लो ‘नीति' ही मर चुकी जिस भाँति बोलें ॥

     

    जो द्रव्य की कल दशा बन जाय कोई, तद्रूप आज लखना उस द्रव्य को ही।

    श्री वीर के समय में बस 'भावि' सोही, राजा यथा समझना युवराज को ही ॥

     

    कर्मानुसार अथवा जग मान्यता ले, रे! वस्तु का ग्रहण जो कर ले, करा ले।

    है ‘कर्म भेद' वह निश्चित ही कहाता, ऐसा 'वसन्ततिलका' यह छन्द गाता ॥

    देवायु कर्म जिसने बस बाँध पाया, ज्यों आज ही समझता यह ‘देव राया’।

    या पूर्ण-कुम्भ कलदर्पण आदि भाते, लोकोपचार वश मंगल ये कहाते ॥

     

    (७४३-७४४)

     

    है द्रव्य सांप्रत दशामय यों बताता, निक्षेप 'भाव' वह आगम में कहाता।

    नोआगमाऽऽगमतया वह भी द्विधा है, वाणी जिनेन्द्र कथिता कहती सुधा है॥

     

    आत्मोपयोग जिन आगम में लगाता, अर्हन् उसी समय है जिन शास्त्र-ज्ञाता।

    तो ‘भाव-आगम' नितान्त यही रहा है, ऐसा यहाँ श्रमण सूत्र बता रहा है ॥

     

    अर्हन्त के गुण सभी प्रकटें जभी से, अर्हन्त देव उनको कहना तभी से।

    है केवली जब उन्हीं गुण धार ध्याता, ‘नोआगमा' वह जिनागम में कहाता ॥

     


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