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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • (४१) समन्वयसूत्र

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    जो ज्ञान यद्यपि परोक्षतया जनाता, नैकान्तरूप सबको फिर भी बताता।

    है संशयादिक प्रदोष-विहीन साता, तू जान मान ‘श्रुतज्ञान' वही कहाता ॥७२२॥

     

    जो वस्तु के इक अपेक्षित धर्म द्वारा, साधे सुकार्य जग के, नय ओ पुकारा।

    औ भेद भी नय वही श्रुत-ज्ञान का है, माना गया तनुज भी अनुमान का है ॥७२३॥

     

    होते अनन्त-गुण-धर्म-पदार्थ में हैं, पै एक को हि चुनता नय ठीक से है।

    तत्काल क्योंकि रहती उसकी अपेक्षा, हो शेष गौण गुण, ना उनकी उपेक्षा ॥७२४॥

     

    सापेक्ष ही सुनय हो सुख को सँजोते, माने गए कुनय हैं निरपेक्ष होते।

    संपन्न हो सुनय से व्यवहार सारे, नौका समान भव पार हमें उतारे ॥७२५॥

     

    ये वस्तुतः वचन हैं जितने सुहाते, है भव्य! जान नय भी उतने हि पाते।

    मिथ्या अत: नय हटी कुपथ-प्रकाशी, सापेक्ष सत्य नय मोह-निशा विनाशी ॥७२६॥

     

    एकान्तपूर्ण कुनयाश्रित पंथ का वे, स्याद्वाद विज्ञ परिहार करें करावें।

    औ ख्याति-लाभ-वश जैन बना हटी हो, ऐसा पराजित करो पुनि ना त्रुटी हो ॥७२७॥

     

    सच्चे सभी नय निजी विषयों स्थलों में, झूठे परस्पर लड़े निशि-वासरों में।

    ‘ये' ‘सत्यवे' सब असत्य कभी अमानी, ऐसा विभाजित उन्हें करते न ज्ञानी ॥७२८॥

     

    ना वे मिले, यदि मिले तुम हो मिलाते, सच्चे कभी कुनय पै बन हैं न पाते।

    ना वस्तु के गमक हैं उनमें न बोधि, सर्वस्व नष्ट करते रिपु से विरोधी ॥७२९॥

     

    सारे विरुद्ध नय भी बन जाय अच्छे, स्याद्वाद की शरण ले कहलाय सच्चे।

    पाती प्रजा बल प्रजापति छत्र में ज्यों, दोषी अदोष बनते मुनि-संघ में त्यों ॥७३०॥

     

    होते अनन्त-गुण-द्रव्यन में सयाने, द्रव्यांश को अबुध पूरण द्रव्य माने।

    छू अंग-अंग गज के प्रति अंग को ही, ज्यों अंधवेगज कहें, अयि भव्य-मोही ॥७३१॥

     

    सर्वांगपूर्ण गज को दृग से जनाता, तो सत्य ज्ञान गज का उसका कहाता।

    सम्पूर्ण द्रव्य लखता सब ही नयों से, है सत्य ज्ञान उसका स्तुत साधुओं से ॥७३२॥

     

    संसार में अमित-द्रव्य अकथ्य भाते, श्री-वीर-देव कहते मित कथ्य पाते।

    लो कथ्य का कथित भाग अनन्तवाँ हैं, जो शास्त्ररूप वह भी बिखरा हुआ है ॥७३३॥

     

    निन्दा तथापि नित जो पर के पदों की, शंसा अतीव करते अपने मतों की।

    पांडित्य ये जन यशोऽर्थ दिखा रहे हैं, संसार को सघन और बना रहे हैं ॥७३४॥

     

    संसार में विविध कर्म प्रणालियाँ हैं, ये जीव भी विविध औ उपलब्धियाँ हैं।

    भाई अत: मत विवाद करो किसी से, साधर्मि से, अनुज से, पर से अरी से ॥७३५॥

     

    है भव्य-जीव मति-गम्य जिनेन्द्र-वाणी, पीयूष-पूरित पुनीत-प्रशांति-खानी।

    सापेक्ष-पूर्ण-नय-आलय पूर्ण साता, आसूर्य जीवित रहे जयवन्त माता ॥७३६॥


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