अर्हन् प्रभो! अमित दर्शन-ज्ञान स्पर्शी, वे ‘ज्ञातृपुत्र' निखिलज्ञ, अनन्तदर्शी।
वैशालि में जनम सन्मति ने लिया था, धर्मोपदेश इस भाँति हमें दिया था ॥७४५॥
श्री वीर ने सुपथ यद्यपि था दिखाया, था कोटिशः सदुपदेश हमें सुनाया। धिक्कार!
किन्तु हमने उसको सुना ना, मानो! सुना पर कभी उसको गुना ना ॥७४६॥
जो साधु आगति-अनागति कारणों को, पीड़ा प्रमोद प्रद आस्रव-संवरों को।
औ जन्म को मरण को निज के गुणों को, त्रैलोक्य में स्थित अशाश्वत शाश्वतों को ॥
औ स्वर्ग को नरक को दुख निर्जरा को, हैं जानते च्यवन को उपपादता को।
श्री मोक्ष पंथ प्रतिपादन कार्य में हैं, वे योग्य, वंदन त्रिकाल करूं उन्हें मैं ॥७४८॥
वाणी सुभाषित सुधा, शुचि वीर की है, थी पूर्व प्राप्त न, अपूर्व अभी मिली है।
क्यों मृत्यु से फिर डरूँ तज सर्वग्रन्थी, मैं हो गया जब प्रभो! शिव-पंथ-पंथी ॥७४९॥