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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. गुरुवर के समक्ष भारत की जल संसाधन, नदी विकास और गंगा सफाई मंत्री सुश्री उमा भारती महाकवि पंडित भूरामल सामाजिक सहकार न्यास के हथकरघा केंद्रों द्वारा निर्मीत वस्त्रों की सराहना करते हुए। गौरव भैया उन्हें प्रोजेक्ट के बारे में जानकारी देते हुए। स्थान = रामटेक समय = 11:30बजे दोपहर दिनांक = 23/10/17
  2. संसारी जीव मरण कर किस-किस गति में जाते हैं एवं उस गति में जीव मरण कर कहाँ-कहाँ से आते है और पञ्चम गति अर्थात मोक्ष कौन प्राप्त करता है | इसका वर्णन इस अध्याय में है | 1. गति-आगति किसे कहते हैं ? गति का अर्थ जाना अर्थात् उस गति से मरण कर जीव कौन-कौन सी गति में जाते हैं। आगति का अर्थ आना अर्थात् उस गति में जीव कौन-कौन सी गति से मरणकर आते हैं। 2. नरकगति से जीव मरणकर कहाँ-कहाँ जाते हैं एवं नरकगति में जीव मरण कर कहाँ-कहाँ से आते हैं ? नरकगति से नारकी मरण कर मनुष्य एवं तिर्यञ्चगति में जाते हैं तिर्यच्च में भी संज्ञी पञ्चेन्द्रिय, पर्याप्त एवं गर्भज ही बनते हैं। विशेष - सप्तम पृथ्वी से आने वाले जीव तिर्यच्च ही बनते हैं, किन्तु वह अपने जीवन में सम्यकदर्शन प्राप्त नहीं कर सकते हैं। छठवीं पृथ्वी से आने वाले मनुष्य और तिर्यञ्च बनते हैं, ये सम्यकदर्शन और देशसंयम प्राप्त कर सकते हैं किन्तु मनुष्य महाव्रती नहीं बन सकते हैं। पाँचवीं पृथ्वी से आने वाले मनुष्य और तिर्यच्च बनते हैं, तिर्यच्च देशव्रती भी बन सकते हैं, मनुष्य देशव्रती, महाव्रती तो बन सकते हैं, किन्तु मोक्ष नहीं जा सकते हैं। चतुर्थ पृथ्वी से आने वाले मनुष्य और तिर्यञ्च बनते हैं, तिर्यच्च देशव्रती भी बन सकते हैं, मनुष्य महाव्रती बनकर मोक्ष भी जा सकते हैं, किन्तु वह तीर्थंकर नहीं बन सकते हैं। तृतीय, द्वितीय एवं प्रथम पृथ्वी से आने वाले, मनुष्य और तिर्यञ्च बनते हैं। तिर्यच्च देशव्रती भी हो सकते हैं, मनुष्य तीर्थंकर भी बन सकते हैं। (रावा, 3/6/7) नरकगति में आने वाले जीव मनुष्य एवं तिर्यच्च गति से ही आते हैं। किन्तु असंज्ञी। पज्चेन्द्रिय प्रथम पृथ्वी से आगे नहीं जा सकते हैं। सरीसृप, गोह, द्वितीय पृथ्वी से आगे नहीं जा सकते हैं। पक्षी तृतीय पृथ्वी से आगे नहीं जा सकते हैं। भुजंगादि सर्प चतुर्थ पृथ्वी से आगे नहीं जा सकते हैं। सिंह पञ्चम पृथ्वी से आगे नहीं जा सकते हैं। स्त्रियाँ छठवीं पृथ्वी से आगे नहीं जा सकती हैं। मनुष्य एवं तंदुल मत्स्य सप्तम पृथ्वी तक जा सकते हैं। (त्रि.सा., 205) 3. तिर्यञ्चगति से जीव मरणकर कहाँ-कहाँ जाते हैं एवं तिर्यञ्चगति में जीव मरणकर कहाँ-कहाँ से आते हैं ? तिर्यञ्चगति से जीव मरणकर चारों गतियों में जाते हैं, किन्तु देवगति में सोलहवें स्वर्ग से आगे नहीं जा सकते हैं। (गोक, 541) असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय भी मरणकर चारों गतियों में जाते हैं, किन्तु नरकगति में प्रथम पृथ्वी से आगे नहीं जाते हैं एवं देवगति में भवनवासी एवं व्यंतरों में जाते हैं एवं तिलोयपण्णती, त्रिलोकसार ग्रन्थ के अनुसार भवनत्रिक में जाते हैं, कल्पवासी में नहीं। एकेन्द्रिय एवं विकलेन्द्रिय मरणकर मनुष्य एवं तिर्यञ्चगति में जाते हैं, किन्तु अग्निकायिक, वायुकायिक मरणकर मात्र तिर्यच्च ही बनते हैं। तिर्यच्चगति में आने वाले चारों गतियों से आते हैं, किन्तु बारहवें स्वर्ग तक के देव तिर्यच्चगति में आते हैं, उससे ऊपर वाले नहीं। असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय में मनुष्य एवं तिर्यञ्चगति से आते हैं। विकलेन्द्रिय में जीव मनुष्य एवं तिर्यञ्च गति से आते हैं। एकेन्द्रिय में जीव तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देवगति से आते हैं किन्तु दूसरे स्वर्ग तक के देव आते हैं उससे ऊपर वाले नहीं तथा एकेन्द्रिय के अग्निकायिक, वायुकायिक जीव तिर्यच्चगति एवं मनुष्यगति से आते हैं। 4. मनुष्यगति से मरणकर जीव कहाँ-कहाँ जाते हैं एवं मनुष्यगति में जीव कहाँ-कहाँ से आते हैं ? मनुष्यगति से मनुष्य मरणकर चारों गतियों में जाते हैं एवं पञ्चमगति (सिद्धगति) अर्थात् मोक्ष भी जाते हैं। श्रावक सोलहवें स्वर्ग से ऊपर नहीं जा सकते हैं। द्रव्यलिंगी मुनि नवग्रैवेयक तक जा सकते हैं एवं भावलिंगी मुनि प्रथम स्वर्ग से सर्वार्थसिद्धि विमान तक जाते हैं। द्रव्यलिंगी मुनि के गुणस्थान 1 से 5 तक एवं भावलिंगी के गुणस्थान 6 से 12 तक किन्तु बारहवें गुणस्थान में मरण नहीं होता है। मनुष्य गति में जीव चारों गतियों से आते हैं किन्तु सप्तम पृथ्वी से आने वाले जीव मनुष्य नहीं बनते हैं एवं अग्निकायिक, वायुकायिक, जीव भी मरण करके मनुष्य नहीं बनते हैं। 5. देवगति से मरण कर जीव कहाँ-कहाँ जाते हैं एवं देवगति में जीव कहाँ-कहाँ से आते हैं ? देवगति से मरणकर जीव मनुष्यगति एवं तिर्यञ्चगति में जाते हैं। दूसरे स्वर्ग तक के देव एकेन्द्रिय भी बनते हैं, किन्तु पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वनस्पतिकायिक बनते हैं। अग्निकायिक, वायुकायिक नहीं। बारहवें स्वर्ग तक के देव तिर्यञ्च भी बनते हैं, किन्तु इससे ऊपर वाले मनुष्यगति में ही आते हैं। नव ग्रैवेयक तक के देव, स्त्री और नपुंसक भी होते हैं। इसके ऊपर वाले पुरुषवेदी ही होते हैं। (गोक, 542-543) नोट - देव विकलचतुष्क में नहीं आते हैं। देवगति में जीव मनुष्यगति एवं तिर्यच्चगति से आते हैं, तिर्यउच्च सोलहवें स्वर्ग तक आते हैं किन्तु असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय भवनत्रिक तक आते हैं, इससे ऊपर नहीं। मनुष्य सर्वार्थसिद्धि तक आते हैं। 6. भोगभूमि के मनुष्य एवं तिर्यञ्च मरणकर कौन-कौन सी गति में जाते हैं एवं भोगभूमि में मनुष्य एवं तिर्यञ्च कौन-कौन सी गति से मरणकर आते हैं ? भोगभूमि के मनुष्य एवं तिर्यच्च मरण कर देवगति में ही जाते हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यकद्रष्टि भवनत्रिक में ही जाते हैं एवं अविरत सम्यकद्रष्टि प्रथम एवं दूसरे स्वर्ग में जाते हैं। कर्मभूमि के मनुष्य एवं तिर्यञ्च ही भोगभूमि के मनुष्य एवं तिर्यञ्च होते हैं। 7. कर्मभूमि के कौन से तिर्यञ्च भोगभूमि के मनुष्य एवं तिर्यञ्च होते हैं ? कर्मभूमि के संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च ही भोगभूमि के मनुष्य एवं तिर्यञ्च होते हैं। 8. महापुरुष मरणकर कौन-कौन सी गतियों में जाते हैं एवं कौन-कौन सी गतियों के जीव मरणकर महापुरुष होते हैं ? महापुरुष गति आगति तीर्थंकर मोक्षगति नरकगति और देवगति चक्रवतीं नरकगति, देवगति और मोक्षगति देवगति बलभद्र देवगति और मोक्षगति देवगति नारायण (वासुदेव) नरकगति देवगति प्रतिनारायण (प्रतिवासुदेव) नरकगति देवगति कुलकर देवगति मनुष्यगति नारद नरकगति रुद्र नरकगति कामदेव मोक्षगति तीर्थंकर की माता देवगति तीर्थंकर के पिता देवगति और मोक्षगति 9. अन्य मतावलम्बी साधु मरणकर कौन से स्वर्ग तक जाते हैं ? चरक ब्रह्मोत्तर स्वर्ग तक (त्रि.सा., 547) परिव्राजक ब्रह्य स्वर्ग तक (रा.वा., 4/21/10) आजीवक सहस्रार स्वर्ग तक (रा.वा., 4/21/10) तापस भवनत्रिक तक (त्रि.सा., 546) चरक - नग्नाण्ड है जिनका लक्षण, ऐसे चरक कहलाते हैं। परिव्राजक - एक दण्डि, त्रि दण्डि, ऐसे परिव्राजक कहलाते हैं। आजीवक - कॉजी का भोजन करने वाले नग्न आजीवक होते हैं। काँजी अर्थात् खट्टा किया हुआ जल। (त्रि.सा., 547 का विशेषार्थ ) तापस - पञ्चाग्नि तप तपने वाले तपस्वी तापस कहलाते हैं।
  3. आज सहारा, हाय को है हायकू कवि के लिये | हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  4. ऊधम नहीं, उद्यम करो बनो, दमी आदमी | हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  5. वैधानिक तो, तनिक बनो फिर, अधिक धनी | हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  6. बाहर टेड़ा, बिल में सीधा होता, भीतर जाओ | हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  7. कचरा बनूँ, अधकचरा नहीं, खाद तो बनूँ | हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  8. कचरा डालो, अधकचरा नहीं, खाद तो डालो | हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  9. पुरुष भोक्ता, नारी भोक्त्र ना मुक्ति, दोनों से परे | हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  10. सात कर्मो का बन्ध प्रति समय होता रहता है किन्तु आयु कर्म का बन्ध कब होता है, उसकी आबाधा कितनी है, अकाल मरण क्या है आदि का वर्णन इस अध्याय में है। 1. आयु कर्म किसे कहते हैं ? (अ) जिसके द्वारा जीव नारकादि भवों को जाता है, वह आयु कर्म है। (ब) जो भव धारण के लिए ले जाता है, वह आयु कर्म है। (स) जो जीव को गति विशेष में रोके रखता है, वह आयु कर्म है। 2. आयु कर्म का बन्ध कितने अपकर्ष काल में होता है एवं अपकर्ष काल किसे कहते हैं ? आयु कर्म का बन्ध आठ अपकर्ष काल में होता है। आयु बन्ध के योग्य काल को अपकर्ष काल कहते हैं। 3. कर्मभूमि के मनुष्यों एवं तिर्यञ्चों में आयु बन्ध कब होता है ? आयु के त्रिभाग में आठ अपकर्ष पड़ते हैं। जैसे - किसी मनुष्य की आयु 729 वर्ष की है, तो 486 वर्ष तक आयुबन्ध होगा ही नहीं, शेष 243 वर्ष के प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त तक आयुबन्ध होगा। यहाँ न हुआ तो इसी प्रकार आगे-आगे क्रमशः त्रिभाग करेंगे। 243 वर्ष - 162 वर्ष तक नहीं होगा। शेष 81 वर्ष के प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त तक। 81 वर्ष - 54 वर्ष तक नहीं होगा। शेष 27 वर्ष के प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त तक। 27 वर्ष - 18 वर्ष तक नहीं होगा। शेष 9 वर्ष के प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त तक। 9 वर्ष - 6 वर्ष तक नहीं होगा। शेष 3 वर्ष के प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त तक। 3 वर्ष - 2 वर्ष तक नहीं होगा। शेष 1 वर्ष के प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त तक। 1 वर्ष – 8 माह तक नहीं होगा। शेष 4 माह के प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त तक। 120 दिन - 80 दिन तक नहीं होगा । शेष 40 दिन के प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त तक। इन आठ अपकर्ष काल में आयु बन्ध नहीं हुआ तो 'असंक्षेपाद्धाकाल' (आँवली का संख्यातवाँ भाग) प्रमाण आयु शेष रहने पर नियम से आयुबन्ध होगा। जैसे - रेल्वे स्टेशन के टिकट घर में लिखा रहता है, गाड़ी छूटने के पाँच मिनट पहले टिकट घर बन्द हो जाएगा। अर्थात् पहले टिकट लो, फिर गाड़ी में बैठो। उसी प्रकार पहले आयु बन्ध कीजिए बाद में दूसरी गति के लिए गाड़ी छूटेगी अर्थात् मरण होगा। आयु कर्म का बन्ध प्रथम अपकर्षकाल से लेकर आठों अपकर्ष कालों में भी हो सकता है। 4. देव एवं नारकियों में आयु बन्ध कब होता है ? भुज्यमान (वर्तमान) आयु के अंतिम छ: माह के आठ अपकर्ष काल में ही आयु बन्ध होता है। 5. भोगभूमि के मनुष्यों एवं तिर्यञ्चों में आयु बन्ध कब होता है ? इनका भी आयु बन्ध आयु के अंतिम 6 माह के 8 अपकर्ष कालों में होता है एवं किन्हीं के मत से अंतिम नौ माह के आठ अपकर्ष कालों में होता है। 6. अकाल मरण क्या है ? भुज्यमान आयु (जो आयु वर्तमान में भोग रहे हैं) जितनी थी, उससे पहले मरण हो जाना अकाल मरण है। 7. अकाल मरण किन-किन कारणों से होता है ? आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने भावपाहुड, गाथा 25 में अकाल मरण के निम्न कारण कहे हैं विसवेयण रक्तक्खय भय सत्थगहण संकिलेसाण। आहारुस्सासाणं णिरोहणा खिजए आउ॥ अर्थ - विष की वेदना, रक्तक्षय, भय, शस्त्र की चोष्ट, संक्लेश तथा आहार एवं श्वासोच्छास के निरोध से आयु क्षीण हो जाती है, उसे अकाल मरण या कदलीघात मरण कहते हैं। 8. अकाल मरण क्या चारों गतियों में होता है ? नहीं। देव, नारकी एवं भोगभूमि के मनुष्य - तिर्यज्चों का अकाल मरण नहीं होता है। मात्र कर्मभूमि के मनुष्यों एवं तिर्यच्चों का होता है। 9. क्या सभी मनुष्यों एवं तिर्यञ्चों का अकाल मरण होता है ? नहीं। जिस जीव ने आगामी आयु का बन्ध (बद्धायुष्क) कर लिया है, उसका अकाल मरण नहीं होता है एवं चरमोत्तम देह वालों का भी नहीं होता, किन्तु चरम देह वालों का अकाल मरण हो सकता है, जैसे पाण्डव आदि। उत्तम देह वालों का भी अकाल मरण हो सकता है, जैसे-सुभौम चक्रवर्ती, कृष्ण, ब्रह्मदत चक्रवर्ती का हुआ था। जो चरम देह एवं उत्तम देह वाले भी हैं, ऐसे चरमोत्तम देहधारी मात्र तीर्थंकर को छोड़कर सभी का अकालमरण संभव है। (त.वृ, 2/53/110) किन्तु आचार्य अकलंकदेव ने राजवार्तिक ग्रन्थ (2/53/6-9) में चरम शब्द उत्तम का विशेषण लिया है। अत: चरमदेह वालों की अकाल मृत्यु नहीं होती है। 10. अकाल मरण कैसे होता है, उदाहरण द्वारा बताइए ? एक मिट्टी का घड़ा है, उसमें पानी भरा हुआ है। उस घड़े में एक छिद्र है, जिसमें से एक-एक बूंद पानी गिर रहा है, वह घड़ा मान लीजिए 24 घंटे में खाली होता है। उस घड़े को किसी ने पत्थर मार दिया तो पूरा पानी एक साथ बाहर आ गया । उसी प्रकार आयु कर्म के निषेक (एक समय में जितने कर्म परमाणु उदय में आते हैं उनका समूह) हैं, प्रतिसमय खिर (निकल) रहे हैं। इसी प्रकार किसी ने शरीर का घात आदि कर दिया तो एक साथ सारे निषेक खिर जाते हैं। यही अकाल मरण है। 11. भुज्यमान आयु किसे कहते हैं एवं क्या हम भुज्यमान आयु का अपकर्षण-उत्कर्षण कर सकते हैं ? जो आयु वर्तमान में भोग रहे वह भुज्यमान आयु है। भुज्यमान आयु का उत्कर्षण तो नहीं हो सकता है किन्तु अपकर्षण हो सकता है। 12. क्या बध्यमान आयु का अपकर्षण-उत्कर्षण होता है ? बध्यमान आयु का उत्कर्षण एवं अपकर्षण भी होता है। उत्कर्षण तो अपकर्ष काल में ही होता है किन्तु अपकर्षण कभी भी हो सकता है। जैसे-रेत से भरा एक ट्रक जा रहा है, उसमें से थोड़ी-थोड़ी रेत गिर रही है, अर्थात् अपकर्षण हो रहा है, किन्तु उत्कर्षण करना है अर्थात् उस ट्रक में और रेत डालना है, तो ट्रक को खड़ा करना पड़ेगा तब उसमें और रेत डाल सकते हैं। अर्थात् उत्कर्षण अपकर्ष काल में ही होता है एवं अपकर्षण कभी भी हो सकता है। 13. आठ अपकर्ष कालों में बंधी आयु का समीकरण क्या है ? पहले अपकर्ष काल में 100 वर्ष की आयु का बन्ध किया, दूसरे अपकर्ष काल में 120 वर्ष की आयु का बन्ध किया तो मुख्यता 120 वर्ष की रहेगी। इसी प्रकार प्रथम अपकर्ष काल में 100 वर्ष की आयु का बन्ध किया, दूसरे अपकर्ष काल में 80 वर्ष की आयु का बंध किया तो मुख्यता 100 वर्ष की रहेगी। (गो.क.जी., 643) 14. आयु कर्म की आबाधा कितनी है ? आयु कर्म की उत्कृष्ट आबाधा एक पूर्व कोटि का त्रिभाग है एवं जघन्य आबाधा असंक्षेपाद्धा काल प्रमाण (ऑवली का संख्यातवां भाग) होती है। (गोक,917) 15. आबाधा किसे कहते हैं ? कर्मबन्ध होने के बाद जब तक वह उदय में नहीं आता है, तब तक उसे आबाधा काल कहते हैं। जैसे खीर बनकर तैयार हो गयी किन्तु तुरन्त (उसी समय) नहीं खा सकते हैं, जब थोड़ी ठंडी हो जाती है, तब खाते हैं। जो ठंडी होने का समय है, उसे आबाधाकाल कहते हैं। 16. क्या संक्लेश परिणामों से अकालमरण होता है ? हाँ। अधिक तनाव, अत्यधिक परिश्रम एवं पारिवारिक कलह से बढ़ता हुआ संक्लेश भी अकालमरण का कारण बनता है। 17. बध्यायुष्क किसे कहते हैं एवं क्या बध्यायुष्क सम्यकदर्शन प्राप्त कर सकता है ? जिसने आगामी आयु का बन्ध कर लिया, वह बध्यायुष्क कहलाता है। चारों आयु में से किसी भी आयुबन्ध के बाद जीव सम्यकदर्शन प्राप्त कर सकता है। (गोक, 334) 18. क्या बध्यायुष्क संयम प्राप्त कर सकता है ? किसी भी आयु का बन्ध नहीं किया है तो जीव देशसंयम और सकल संयम प्राप्त कर सकता है। देवायु का बन्ध करने के बाद भी जीव देशसंयम और सकल संयम प्राप्त कर सकता है, किन्तु नरकायु, तिर्यच्चायु एवं मनुष्यायु का बन्ध कर लिया है तो जीव देशसंयम या सकल संयम प्राप्त नहीं कर सकता है। (गोक, 334) 19. मरण के बाद जीव को पुन: नवीन शरीर प्रारम्भ करने में कितना समय लगता है ? अधिक-से-अधिक तीन समय। पश्चात् चौथे समय में शरीर की रचना प्रारम्भ कर ही लेता है। मरण के बाद जीव का गमन श्रेणी के अनुसार होता है। लोक के मध्य से लेकर ऊपर नीचे और तिरछे क्रम से स्थित आकाश प्रदेशों की पंक्ति को श्रेणी कहते हैं। जैसे - ग्राफ पेपर या वस्त्र में ताने-बाने होते हैं। 20. जीव मरण के बाद सीधा ही गमन करता है या मुड़ता भी है ? दोनों प्रकार से। जिसमें जीव को मुड़ना पड़ता है, उसे विग्रहगति कहते हैं या विग्रह अर्थात् शरीर के लिए जो गति होती है, उसे विग्रहगति कहते हैं। जिसमें जीव को मुड़ना नहीं पड़ता, उसे ऋजुगति कहते हैं। (स.सि., 2/25/310) 21. विग्रह गतियाँ कितने प्रकार की हैं ? विग्रहगतियाँ चार प्रकार की हैं - इषुगति - धनुष से छूटे हुए वाण के समान मोडे से रहित गति को इषुगति कहते हैं। इसमें एक समय लगता है। पाणिमुक्ता गति - जैसे - हाथ से छोड़े गए द्रव्य की एक मोडे वाली गति को पाणिमुक्ता गति कहते हैं। इसमें दो समय लगते हैं। लांगलिका गति - जैसे - हल में दो मोड़े होते हैं। उसी प्रकार दो मोड़े वाली गति को लांगलिका गति कहते हैं। इसमें तीन समय लगते हैं। गोमूत्रिका गति - जैसे-गाय चलते समय मूत्र (पेशाब) करती है, तब अनेक अर्थात् तीन मोड़े हो जाते हैं, उसी प्रकार तीन मोडे वाली गति को गोमूत्रिका गति कहते हैं। इसमें चार समय लगते हैं। 22. विग्रह और अविग्रह गति के स्वामी कौन हैं ? मुक्त जीव की गति विग्रह रहित ही होती है और संसारी जीवों की गति विग्रह रहित व विग्रह सहित दोनों प्रकार की होती है।
  11. दोनों ना चाहो, एक दूसरे को या, दोनों में एक |(कोई भी एक) हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  12. आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज ससंघ का पिच्छिका परिवर्तन मात्र 25 मिनिट में सम्पन्न हो गया। गुरुजी के मंच पर विराजमान होते ही बिना औपचारिकता के सीधे पिच्छिका का परिवर्तन प्रारम्भ हो गया। जबकि पिच्छिका परिवर्तन के संकेत भी सुबह 10 बजे ही प्राप्त हुए थे। आचार्य श्री जी की पुरानी पिच्छी लेने का अद्धितीय सौभाग्य श्री भरतेश जैन नागपुर वालो के परिवार को प्राप्त हुआ है |
  13. आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज ससंघ का पिच्छिका परिवर्तन मात्र 25 मिनिट में सम्पन्न हो गया। गुरुजी के मंच पर विराजमान होते ही बिना औपचारिकता के सीधे पिच्छिका का परिवर्तन प्रारम्भ हो गया। जबकि पिच्छिका परिवर्तन के संकेत भी सुबह 10 बजे ही प्राप्त हुए थे। कार्यक्रम सम्पन्न होते ही पूज्य गुरुदेव ने रामटेक से विहार कर दिया।
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