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संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव महोत्सव प्रतोयोगिता पुण्यार्जक  सूचि 
     
     
    विजय जैन रोहतक  - 18 जून २०१८    - Rs. 11,000 हथकरघा निर्मित वस्त्र उपहार हेतु  प्राप्त किये  विजयलक्ष्मी जैन  इंदौर  - Rs.  2000. उपहारदेने के हेतु प्राप्त हुए   
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  2. संयम स्वर्ण महोत्सव
    पवित्र मानव जीवन प्रतियोगिता 
    दिनांक 6 जुलाई 2018
    स्वाध्याय करे : Browse Apps > Blogs > पवित्र मानव जीवन
     
    स्वाध्याय का लिंक
     
    आप इस प्रतिओयोगिता में 8 जुलाई तक भाग ले सकेंगे
    प्रतियोगिता प्रारंभ
     
    https://vidyasagar.guru/pratiyogita/pavitra-maanva-jeewan/
     
  3. संयम स्वर्ण महोत्सव
    सामाजिक सुधार के बारे में हम आज बताते हैं।
    जो इसके सच्चे आदी उनकी गुण गाथा गाते हैं।
    व्यक्ति व्यक्ति मिल करके चलने से ही समाज होता है।
    नहीं व्यक्तियों से विभिन्न कोई समाज समझौता है॥ १५॥
     
    सह निवास तो पशुओं का भी हो जाता है आपस में।
    एक दूसरे की सहायता किन्तु नहीं होती उनमें॥
    इसीलिए उसको समाज कहने में सभ्य हिचकते हैं।
    कहना होती समाज नाम, उसका विवेक युत रखते हैं॥१६॥
     
    बूंद बूंद मिलकर ही सागर बन पाता है हे भाई।
    सूत सूत से मिलकर चादर बनती सबको सुखदाई॥
    है समाज के लिए व्यक्ति के सुधार की आवश्यकता।
    टिका हुआ है व्यक्ति रूप पैरों पर समाज का तख्ता॥ १७॥
     
    यदि व्यक्तियों का मानस उन्नतपन को अपनावेगा।  
    समाज अपने आप वहाँ फिर क्यों न उच्च बन पावेगा।
    इसीलिए यदि समाज को हम, ठीक रूप देना चाहें।
    तो व्यक्तित्व आपके से लेनी होगी समुचित राहें ॥१८॥
     
    नहीं दूसरे को सुधारने से सुधार हो पाता है।
    अपने आप सुधरने से फिर सुधर दूसरा जाता है।
    खरबूजे को देख सदा खरबूजा रंग बदलता है।
    अनुकरणीयपने के द्वारा पिता पुत्र में ढलता है ॥१९॥
     
    पानी को जिस रुख का ढलाव मिलता है बह जाता है।
    जन समूह भी जो देखे वैसा करने लग पाता है।।
    यदि हम सोच करें समाज का समाज अच्छे पथ चाले।
    तो हम पहले अपने जीवन में, अच्छी आदत डालें ॥२०॥
     
    मैं हूँ सुखी और की मेरे, को क्या पड़ी यही खोटी।
    बात किन्तु हों सभी सुखी, यह धिषणा होवे तो मोटी॥
    विज्ञ पुरुष निज अन्तरंग में, विश्व प्रेम का रंग भरे।
    सबके जीवन में मेरा जीवन है ऐसा भाव धरे ॥२१॥
     
    अनायास ही जनहित की बातों पर सदा विचार करे।
    भय विक्षोभ लोभ कामादिक दुर्भावों से दूर टरे॥
    आशीर्वाद बडों से लेकर बच्चों की सम्भाल करे।
    नहीं किसी से वैर किन्तु सब जीवों में समभाव धरे ॥२२॥
     
    क्योंकि अकेला धागा क्या गुह्याच्छादन का काम करे।
    तिनका तिनके से मिलकर पथ के काँटों को सहज हरे॥
    यह समाज है सदन तुल्य इसमें आने जाने वाले।
    लोगों के पैरों से उसमें कूड़ा सहज सत्त्व पाले ॥२३॥
     
    जिसको झाड़ पोछकर उसको सुन्दर साफ बना लेना।
    नहीं आज का काम सदा का उसको दूर हटा देना॥
    किन्तु यह हुआ पूर्व काल में संयमी जनों के कर से।
    जिनका मानस ढका हुआ होता था सुन्दर सम्वर से ॥२४॥
     
    इसीलिए वे समझ सोचकर इस पर कदम बढ़ाते थे।
    पाप वासनाओं से इसको, पूरी तरह बचाते थे।
    किन्तु आज वह काम आ गया, हम जैसों के हाथों में।
    फँसे हुए जो खुद हैं भैया, दुरभिमान की घातों में ॥२५॥
     
    तलाक जैसी बातों का भी, प्रचार करने को दौड़े।
    आज हमारी समाज के नेताओं के मन के घोड़े॥
    तो फिर क्या सुधार की आशा, झाडू देने वाला ही।
    शूल बिछावे उस पथ पर क्यों, चल पावे सुख से राही ॥२६॥
     
    साथी हो तो साथ निभावे क्यों फिर पथ के बीच तजे।
    दुःख और सुख में सहाय हो, वीर प्रभु का नाम भजे॥
    यही एक सामाजिकता की, कुंजी मानी जाती है।
    बढ़ा प्रेम आपस में समाज को, जीवित रख पाती है॥२७॥
     
    एक बात है और सुनो, हम चाहे अनुयायी करना।
    तो उनको पहले बतलावे, ऐहिक कष्टों का हरना॥
    प्यासे को यदि कहीं दीख, पावे सहसा जल का झरना।
    पहले पीवेगा पानी फिर, पीछे सीखेगा तरना ॥२८॥
     
    गाड़ी को हो वाङ्ग वगैरह, ताकि न कहीं अटक जावे।
    तथा ध्यान यह तो गढे में गिर करके न टूट पावे॥
    वैसे ही समाज संचालक, पाप पंक में नहीं फँसे।
    आवश्यकता भी पूरी हो, ताकि समय बीते सुख से ॥२९॥
  4. संयम स्वर्ण महोत्सव
    देखो सोमदेव ने अपने नीति सूत्र में अपनाया।
    जहाँ कि होवे सहस्त्रांशु का, समुदय होने को आया॥
    शय्या से उठते ही राजा, पहले गो दर्शन करले।
    तब फिर पीछे प्रजा परीक्षण, में दे चित्त पाप हरले ॥५२॥
     
    अहो पुरातनकाल में रहा, पशु पालन पर गौरव था।
    हर गृहस्थ के घर में होता, पाया जाता गोरव था॥
    किसी हेतु वश अगर गेह में, नहीं एक भी गो होती।
    भाग्यहीन अपने को कहकर, उसकी चित्तवृत्ति रोती ॥५३॥
  5. संयम स्वर्ण महोत्सव
    सुख स्वास्थ्य मूलक होता जिसका इच्छुक है तनधारी।
    चैन नहीं रुग्ण को जरा भी यद्यपि हों चीजें सारी॥
    रोग देह में हुआ गेह यह नीरस ही हो जाता है।
    देखे जिधर उधर ही उसको अन्धकार दिखलाता है ॥५६॥
  6. संयम स्वर्ण महोत्सव
    मनोनियन्त्रण सात्त्विक भोजन यथाविधि व्यायाम करे।
    वह प्रकृति देवी के मुख से सहजतया आरोग्य वरे॥
    इस अनुभूत योग को सम्प्रति मुग्ध बुद्धि क्यों याद करे।
    इधर उधर की औषधियों में तनु धन वृष बर्बाद करे॥५७॥
     
    मन के विकार मदमात्सर्य क्रोध व्यभिचारादिक हैं।
    नहीं विकलता दूर हटेगी, जब तक ये उद्रित्त्क रहें।
    देखों काम ज्वर को वैद्यक में कैसा बतलाया है।
    जिसमें फँसकर कितनों ही ने, जीवन वृथा गमाया है॥५८॥
  7. संयम स्वर्ण महोत्सव
    सात्विकता में द्रव्य देश या काल भाव की विवेच्यता।
    द्रव्य निरामिष निर्मदकारक हो वह ठीक हुआ करता॥
    विहार आदिक में भातों का खाना ही अनुकूल कहा।
    मारवाड़ में नहीं, वहाँ तो मोठ और बाजरा अहा ॥५९॥
  8. संयम स्वर्ण महोत्सव
    व्यायाम के अनन्तर ही भोजन कर लेना ठीक नहीं।
    नहीं भोजनानन्तर ही व्यायाम तथा यों गई कही।
    प्रायः निश्चित वेला पर ही भोजन करना कहा भला।
    वरना पाचन शक्ति पर अहो आ धमके गी बुरी बला॥६४॥
     
    बिलकुल कम खाने से शरीर में दुर्बलता है आती।
    किन्तु खूब खा लेने से भी अलसतादि आधि सताती॥
     
    ब्रह्मचारियों का तो भोजन, हो मध्याह्न समय काही।
    शाम सुबह दो बार गेहि लोगों का होता सुखदाई ॥६५॥
     
    किन्तु सुबह के भोजन से, अन्थउ की मात्रा हो आधी।
    ताकि सहज में पच जावे वह, नहीं देह में हो व्याधि ॥
    नहीं किसी के साथ एक भोजन में भी भोजन करना।
    वरना संक्रामकता के वश में होकर होगा मरना ॥६६॥
     
    सीझा हुआ अन्न वासी होने पर ठीक नहीं होता।
    भीजा, सड़ा, गला खाने से भी आरोग्य रहे रोता॥
    निरन्न पानी पीने से नर जलोदरी हो जाते हैं।
    प्यास मारकर खाने से गुल्मादिक रोग सताते हैं ॥६७॥
     
    हाथ पैर एवं मुंह धोकर एक जगह स्थिरता धरके।
    भोजन करो अन्त में मुँह को शुद्ध करो कुल्ला करके॥
    तब फिर सहज चाल से कुछ दूरी तक कदम चला लेना।
    ऐसे इस अपने साथी शरीर को मदु खुराक देना ॥६८॥
  9. संयम स्वर्ण महोत्सव
    समाज के हैं मुख्य अंग दो श्रमजीवी पूंजीवादी।
    इन दोनों पर बिछी हुई रहती है समाज की गादी॥
    एक सुबह से संध्या तक श्रम करके भी थक जाता है।
    फिर भी पूरी तोर पर नहीं, पेट पालने पाता है ॥६९॥
     
    कुछ दिन ऐसा हो लेने पर बुरी तरह से मरने को।
    तत्पर होता है अथवा लग जाता चोरी करने को॥
    क्योंकि बुरा लगता है उसको भूखा ही जब सोता है।
    भूपर भोजन का अभाव यों अनर्थ कारक होता है ॥७०॥
     
    यह पहले दल का हिसाब, दूजे का हाल बता देना।
    कलम चाहती है पाठक उस पर भी जरा ध्यान देना॥
     
    उसके पैरों में तो यद्यपि लडडू भी रुलते डोले।
    खाकर लेट रहे पलङ्ग पर दास लोग पंखा ढोले ॥७१॥
     
    फिर भी उसको चैन है न इस फैसनेविल जमाने में।
    क्योंकि सभी चीजें कल्पित आती हैं इसके खाने में॥
    जहाँ हाथ से पानी लेकर पीने में भी वहाँ है।
    भारी लगता कन्धे पर जो डेढ़ छटांक दुपट्टा है ॥७२॥
     
    कुर्सी पर बैठे हि चाहिये सजेथाल का आ जाना।
    रोचक भोजन हो उसको फिर ठूंस ठूंस कर खा जाना॥
    चूर्ण गोलियों से विचार चलता है उस पचाने का।
    कौन परिश्रम करे जरा भी तुनके हिला डुलाने का ॥७३॥
     
    हो अस्वस्थ खाट अपनाई तो फिर वैद्यराज आये।
    करने लगे चिकित्सा लेकिन कड़वी दवा कौन खाये॥
    यों अपने जीवन का दुश्मन आप अहो बन जाता है।
    अपने पैरों मार कुल्हाड़ी मन ही मन पछताता है ॥७४॥
     
    एक शिकार हुआ यों देखों खाने को कम मिलने का।
    किन्तु दूसरा बिना परिश्रम ही अतीव खा लेने का॥
    बुरा भूख से कम खाने को मिलना माना जाता है।
    वहीं भूख से कुछ कम खाना ठीक समझ में आता है॥७५॥
     
    चार ग्रास की भूख जहाँ हो तो तुम तीन ग्रास खावो।
    महिने में उपवास चतुष्टय कम से कम करते जावो॥
    इस हिस्से से त्यागी और अपाहिज लोगों को पालो।
    और सभी श्रम करो यथोचित ऐसे सूक्त मार्ग चालो ॥७६॥
     
    तो तुम फलो और फूलो नीरोग रहो दुर्मद टालो।
    ऐसा आशीर्वाद बड़ों का सुनलो हे सुनने वालो॥
     
    स्वोदर पोषण की निमित्त परमुख की तरफ देखना है।
    कुत्ते की ज्यों महा पाप यों जिनवर की सुदेशना है॥ ७७॥
     
    फिर भी एक वर्ग दीख रहा शशी में कलंक जैसा है।
    हष्ट पुष्ट होकर भी जिस का भीख मांगना ऐसा है॥
    उसके दुरभियोग से सारी प्रजा हमारी दु:खी है।
    वह भी अकर्मण्यपन से अपने जीवन में असुखी है॥ ७८॥
     
    हन्त सुबह से झोली ले घर घर जा नित्य खड़ा होना।
    अगर नहीं कोई कुछ दे तो फूट फूट कर के रोना॥
    यों काफी भर लाना, खाना बाकी रहे बेच देना।
    सुलफा गांजा पी, वेश्या बाजी में दिलचस्पी लेना॥७९॥
     
    ऐसे लोगों को देना भी काम पाप का बतलाया।
    मांग मांग पर वित्तार्जन करना ही जिनके मन भाया॥
    क्योंकि इन्हीं बातों से पहुँचा भारत देश रसातल को।
    आज हुआ सो हुआ और अब तो बतलायेंगे कल को॥८०॥
  10. संयम स्वर्ण महोत्सव
    एक रोज वह था कि नहीं भारत में कही भिखारी था।
    निजभुज से स्वावश्यकता पूरण का ही अधिकारी था॥
    बेटा भी बाप की कमाई खाना बुरी मानता था।
    अपने उद्योग से धनार्जन, करना ठीक जानता था ॥८१॥
     
    जिनदत्तादि सरीखे धनिक सुतों का स्मरण सुहाता है।
    जिनकी गुण गाथाओं का वर्णन शास्त्रों में आता है॥
    सब कोई निज धन को देखा परार्थ देने वाला था।
    किन्तु नहीं कोई भी उसका मिलता लेने वाला था॥ ८२॥
     
    क्योंकि मनुज आवश्यकता से अधिक कमाने वाला था।
    कौन किसी भाई के नीचे पड़ कर खाने वाला था।
     
    इसीलिए चोरी जारी का यहाँ जरा भी नाम न था।
    निर्भय होकर सोया करते ताले का तो काम न था ॥८३॥
     
    ईति भीति' से रहित सुखप्रद था इसका कोना कोना।
    कौन उठाने लगा कही भी पड़ा रहो किसका सोना॥
    जनधन से परिपूर्ण यहाँ वालों की मृदुतम रीति रही।
    सदा अहिंसा मय पुनीत भारत लालों की नीति सही ॥८४॥
     
    आज हमारे उसी देश का हाल हुआ उससे उलटा।
    मानो वृद्धावस्था में हो चली अहो नारी कुलटा॥
    दिन पर दिन हो रही दशा सन्तोष भाव में खूनी है।
    अब हरेक की आवश्यकता आमदनी से दूनी है ॥८५॥
     
    इसीलिए बढ़ रही परस्पर लूट मार मदमत्सरता।
    विरले के ही मन में होती इतर प्रति करुणा परता॥
    अतः प्रकृति देवी ने भी अपना है अहो कदम बदला।
    आये दिन आया करती है, यहाँ एक से एक बला ॥८६॥
     
    कही समय पर नीर नहीं तो कही अधिक हो आता है।
    पकी पकाई खेती पर भी तो पाला पड़ जाता है।
    जल का बन्ध भङ्ग हो करके कहीं बहा ले जाता है।
    अथवा आग लग जाने से भस्म हुआ दिखलाता है॥८७॥
     
    हैजा कहीं कहीं मारी या, मलेरिया ज्वर का डर है।
    यों इसमें सब और से अहो, विपल्व होता घर घर है॥
    देश प्रान्तमय प्रान्त नगरमय नगर घरों का समूह हो।
    इसीलिए घर की बावत में इतला देना आज अहो ॥८८॥
  11. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ईंट और मिट्टी चूने आदिक से बना न घर होता।
    वह तो विश्राम स्थल केवल जहाँ कि तनुधारी सोता॥
     
    किन्तु स्त्रीसुत पितादिमय कौटाम्बिक जीवन ही घर है।
    इसमें मूल थम्भ नर नारी वह जिन के आधार रहें ॥८९॥
     
    कल्पवृक्ष की तुल्य घर बना जिस का तना वना नर है।
    नारी जिस की छाया आदिक जिसके ये सुफलादिक है॥
    नारी का हृदयेश्वर नर तो वह भी उसका हृदय रहे।
    वह उसको सर्वस्व और वह उसको जीवन सार कहे॥९०॥
     
    वह उसके हित प्राण तजे तो वह उसका हित चिन्तक हो।
    दोनों का हो एक चित्त स्वप्न में भी विद्रोह न हो।
    प्रशस्यता सम्पादक नर हो मदिर और नारीशम्पा।
    जहाँ विश्व के लिए स्फुरित होती हो दिल में अनुकंपा ॥९१॥
     
    लक्ष्मी किसी भांति भामिनी सदा अतिथि सत्कार करे।
    माधव तुल्य मनुष्य शरण आये के संकट सभी हरे॥
    न दीन होकर रहे मनुज मुक्ता मयता को अपनावे।
    सानुकूलता से सरिता ज्यों जनी सरसता दिखलावे ॥९२॥
  12. संयम स्वर्ण महोत्सव
    *संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता क्रमांक 5* 
    ??????
    https://vidyasagar.guru/quizzes/quiz/4-1
    Take this Quiz - हरे बटन को दबाने से आपकी प्रतियोगिता शुरू हो जाएगी |
     
    आज की प्रश्नोत्तरी में 5 प्रश्न हैं, समय होगा 5 मिनिट 
    *भाग लेने के लिए वेबसाइट पर अपने अकाउंट से लॉग इन करना होगा* 
    https://vidyasagar.guru/login/
    अगर आप ने अकाउंट नहीं बनाया हैं तो पहले आपको अकाउंट बनाना होगा 
    https://vidyasagar.guru/register/
    आज आपको अपने अंक साथ के साथ मिल जायेंगे |
    सर्वाधिक अंक प्राप्त करने वाला विजेता चुना जायेगा - एक से अधिक होने पर लक्की ड्रा द्वारा विजेता चुने जायेंगे |
    नोट - यह एक गुरु प्रभावना का प्रयास हैं - टेक्नोलॉजी फेलियर जैसे इन्टरनेट बंद होना मोबाइल hang होना इत्यादि व्यवधान हो सकता हैं 
    *हमारा प्रयास आपका सहयोग* 
    www.vidyasagar.guru
     
     
  13. संयम स्वर्ण महोत्सव
    टिमटिमाते,
    दीप को भी पीठ दे,
    भागती रात ।
     
    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।
     
    आओ करे हायकू स्वाध्याय
    आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार
    क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  14. संयम स्वर्ण महोत्सव
    जल्द शुरू हो रही हैं - *संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता* विद्यासागर.गुरु वेबसाइट पर 
    30 दिन चलने वाली प्रतियोगीता में प्रत्येक दिन एक नई प्रश्नावली होगी, और हर दिन मिलेंगे उपहार |
    https://vidyasagar.guru/quizzes/category/2-1
     

    *इस के अतिरिक्त* 
    आप अपने समाज के नाम से / प्रतिष्ठान के नाम से  भी इस वेबसाइट पर  एक प्रतियोगिता रख सकते हैं - जिसमे पूरा भारत ही नहीं अपितु विश्व का जैन समाज भाग ले सकेगा  आप खुद चुने प्रश्न और आप स्वयं दे इनाम | जैसे जैन समाज अशोक नगर की तरफ से आयोजित एक प्रतियोगिता, जैन समाज गुना की तरफ से आयोजित संयम स्वर्ण  महोत्सव प्रतियोगिता | आप अगर कोई समूह चलाते हो जैसे श्री न्यूज़, AB न्यूज़, प्रतियोगिता अहिंसा न्यूज़, प्रतियोगिता, जिनवाणी चैनल प्रतियोगिता , पारस चैनल प्रतियोगिता , जिन साशन प्रतियोगिता , नमोस्तु  शासन प्रतियोगिता | मुनि दीक्षा की ५० वर्ष में तो उपहारों की बरसात होनी चाहिए - ऐसा हमारा सोचना हैं | *यह प्रतियोगिता एक प्रयास हैं गुरु प्रभावना करने का - और विद्यासागर.गुरु वेबसाइट को जन जन तक पहुचाने का* - जिसके माध्यम से हम सभी  प्रतिदिन स्वाध्याय कर पाएं, और अपने जीवन को उत्कर्ष पथ पर अग्रसर कर सकें | *आप दे सकते हैं सहयोग*, बन सकते हैं पुण्यार्जक, आप अपने मंदिर में इस वेबसाइट की और प्रतियोगिता की सुचना लगा सकते हैं , सभी को वेबसाइट मोबाइल में खोलके दिखाए और साथ ही उनका अकाउंट बनादे | आपके पास कोई सुझाव हो तो हमे जरूर भेजे - हम चाहते हैं यह प्रयास सफल हो |
     
     
    हमारा प्रयास आपका सहयोग 
    www.Vidyasagar.Guru 
     
    नोट - रूपरेखा अभी फाइनल नहीं हुई हैं -   बदलवा संभव 
  15. संयम स्वर्ण महोत्सव
    व्यर्थवादी की दुर्दशा
     
    जंगल में एक तालाब था, उसका जल ज्येष्ठ माह की प्रखर धूप से सूखकर नाम मात्र रह गया। उनके किनारे पर रहने वाले दो हंसों ने आपस में सलाह की कि अब यहां से किसी भी अन्य जलाशय पर चलना चाहिए, जिसको सुनकर उनके मित्र कछुवे ने कहा कि, “तुम लोग तो आकाश मार्ग से उड़कर चले जाओगे, परन्तु मैं कैसे चल सकता हूँ?" हंसों ने सोचा बात तो ठीक ही है और एक अपने मित्र को इस प्रकार विपत्ति में छोड़कर जाना भी भलमनसाहत नहीं है, अतः अपनी बुद्धिमता से एक उपाय सोच निकाला। 
     
    एक लम्बी सरल लकड़ी लाये ओर कछुवे से कहा कि तुम अपने मुँह से इसे बीच में पकड़ लो, हम दोनों इसके इधर-उधर के अन्त भागों को अपनी चोंचो से पकड़ कर ले उड़ते हैं, यह ठीक होगा।'' इस प्रकार तीनों आसमान में चलने लगे। चलते-चलते धरातल पर मध्य में एक गांव आया। गाँव के लोग नया दृश्य देखकर अचम्भे में पड़े और आपस में कहने लगे कि “देखो यह कैसा विचित्र खेल है।” यों कल-कल मचा देखकर कछुवे से न रहा गया, वह बोल बड़ा कि क्यों चक-चक करते हो, बस फिर क्या था, धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ा और पकड़ा गया।
     
    मतलब यह कि मनुष्यों में अपने भले के लिए शारीरिक संयम के साथ-साथ वाणी का भी संयम होना चाहिए। शारीरिक संयम उतना कठिन नहीं है जितना कि मनुष्य के लिए वाक् संयम एवं मानसिक संयम तो उससे भी कहीं अधिक कठिन है। वाणी का संयम तो मुंह बन्द किया और हो सकता है, किन्तु मन तो फिर भी चलता ही रहेगा।
     
    मनुष्य का मन इतना चंचल है कि वह क्षण भर में कहीं का कहीं दौड़ जाता है। इसके नियंत्रण के लिए तो सतत साधु-संगति और सत्साहित्यावलोकन के सिवाय और कोई भी उपाय नहीं है। यद्यपि साधुओं का समागम हरेक के लिए सुलभ नहीं है फिर भी उनकी लिखी पुस्तकों को पढ़कर अपना जीवन सुधारा जा सकता है।
  16. संयम स्वर्ण महोत्सव
    आहार चर्या शुभ संदेश : फाल्गुन कृष्ण ५
    आज परम पूज्य संत शिरोमणि १०८ आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज का पड़गाहन करके आहार दान देने का सौभाग्य -
    श्री रतनलाल जी जैन, श्री संजय जी जैन, श्री अजय जी जैन, श्री मोनू जी जैन बड़जात्या (लाभांडी पंच कल्याणक में कुबेर इन्द्र के पुण्यार्जक) कुनकुरी निवासी एवं उनके परिवार वालों को प्राप्त हुआ |  
    सूचना प्रदाता
    सिंघई श्री सोनू जी जैन नागपुर
  17. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ध्वनि न करो,
    गति(मती) धीमी हो,निजी,
    और ओंरों की |
     
    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।
     
    आओ करे हायकू स्वाध्याय
    आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार
    क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। सके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  18. संयम स्वर्ण महोत्सव
    भोग के पीछे,
    भोग चल रहा है,
    योगी है मौन।
     
    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।
     
    आओ करे हायकू स्वाध्याय
    आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार
    क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  19. संयम स्वर्ण महोत्सव
    दुस्संगति से बचो,
    सत् संगति में,
    रहो न रहो।
     
    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।
     
    आओ करे हायकू स्वाध्याय
    आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार
    क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  20. संयम स्वर्ण महोत्सव
    हँसो-हँसाओ,
    हँसी किसी की नहीं,
    इतिहास हो।
     
    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।
     
    आओ करे हायकू स्वाध्याय
    आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार
    क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  21. संयम स्वर्ण महोत्सव
    सार्थक बोलो,
    व्यर्थ नहीं साधना,
    सो छोटी नहीं।
     
    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।
     
    आओ करे हायकू स्वाध्याय
    आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार
    क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  22. संयम स्वर्ण महोत्सव
    घर की बात,
    घर तक ही रहे।,
    बे-घर न हो।
     
    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।
     
    आओ करे हायकू स्वाध्याय
    आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार
    क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  23. संयम स्वर्ण महोत्सव
    बहुत मीठे,
    बोल रहे हो अब !,
    मात्रा सुधारो।
     
    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।
     
    आओ करे हायकू स्वाध्याय
    आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार
    क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  24. संयम स्वर्ण महोत्सव

    साधना छोड़,
    काय-रत होना ही,
    कायरता है।
     
    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।
     
    आओ करे हायकू स्वाध्याय
    आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार
    क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
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