Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    896

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. यदि मैं अपात्र हूँ तो, मुझे खुशियाँ मत देना। जब मैं पात्र बन जाऊँ, तब मुझे मेरी गलतियाँ बता देना। मेरी प्रसन्नता के खातिर, बेमन से बोलने की अपेक्षा, मौन से ही आत्मीय करुणा बरसा देना। मेरे समर्पण को स्वीकृति दे देना। “महामनीषी ज्ञानी ध्यानी, विद्या धन के दाता हैं। जो आता है इन चरणों में, झोली भरकर जाता है।। कमी न होती फिर भी धन की, है अपूर्व गुरु का भण्डारा। ऐसे गुरु विधासागर को, वंदन मेरा बारम्बार।।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  2. आपके सहज वीतरागी चित्र को देखकर, बालक भी प्रसन्न हो जाता है। रोते-रोते शांत हो जाता है। और आपके पवित्र चित्त की प्रवृत्ति को देखकर, वृद्ध भी मुदित हो जाता है। उसका भी ज्ञान उदित हो जाता है। आखिर आप ज्ञान दिवाकर हो ना... शीतल शांत सुधाकर हो ना… तभी आबाल वृद्ध कह उठता है कि, जिनकी मूरत इतनी सुंदर वो कितना सुंदर होगा। “लगता है आबाल वृद्ध को, विधा नाम अति प्यारा। ज्ञान अर्थ दर्शाने वाला, पूर्ण ज्योति सा उजियारा।। लघु बालक भी चित्र देखकर, गुरुवर को पहचान रहे। संत शिरोमणि विधासागर, तव पद में मम माथ रहे।।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  3. आपमें सहज समता है, आपमें अलौकिक क्षमता है, लेकिन... दुनिया को दिखलाते नहीं, उपयोग को शांत रखते हो। विकल्पों को किञ्चित् भी स्थान न देकर, तत्काल अतिक्रांत कर देते हो। पञ्च पदों में तृतीय पद को आप धार चुके हो। एक पद और आगे बढ़कर अर्हत् पद को पाने वाले हो। आप पा लो शीघ्र मुक्ति का साम्राज्य, यह भक्त गीत गायेगा सदा... सबसे पावन हैं मेरे गुरुराज ! “मेरे गुरुवर ध्यान दशा में, सिद्धप्रभु से लगते हैं। देते हैं जब धर्मदेशना, अर्हत जिन से लगते हैं।। दीक्षा दे तब आचारण गुरु, पठन काल में पाठक हैं। आत्मसाधना में साधु सम, पञ्च पदों को वंदन है।।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  4. जब मेरे पाप का उदय आया, तब मैं इच्छित सामग्री हासिल न कर पाया। और जब मेरे पुण्य का उदय आया, तब मैं अपनी सहजता-सरलता न संभाल पाया। जब अथाह संपदा का मालिक भी बन गया, तब मैं अपनी संपत्ति का सदुपयोग न कर पाया। जब लम्बी उम्र पाकर वृद्ध अनुभवी हो गया, तब जीवन का मूल्य ही न समझ पाया। इस तरह अनेक भव खोकर… अब मेरे तीव्र पुण्यानुबंधी पुण्य का उदय आया, जो वर्तमान में वर्द्धमान सम, ज्ञानसिंधु की चेतन कृति का समागम पाया। “पापोदय में दुनिया मुझसे, दूर हुई अति मुस्कायी। पुण्योदय में मेरी आतम, सुख में संभल नहीं पायी।। किंतु आपने सुरव औ दुःख में, मुझको जीना सिरवलाया। अनंत उपकारी हितकारी, विधासागर मुनिराया।।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  5. आपको पाकर ऐसा लगा कि, अनंत दोषो के कोष का... अनगिनत गुणों के स्वामी से मिलन हो गया। घने तमस में रहने वाले का... दिव्यप्रकाश के स्रोत से मिलन हो गया। तेज धूप की लपटो में, सूखने वाली बूंद को... विशाल दरिया ही मिल गया। आज मुझ अल्पमति को भी लगा कि... पूर्ण ‘विद्या का सागर' ही मिल गया। “शांतिसागराचार्यवर्य से, वीरसिंधु आचार्य हुए। तदनंतर शिवसागर सूरि, ज्ञानसिंधु आचार्य हुए।। ज्ञान गुरु ने निज प्रज्ञा से, हीरा एक तराश लिया। युगों-युगों तक जो चमकेगा, विधासागर नाम दिया।।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  6. जैसे... एक युवक, नया कार्य प्रारंभ करने में घबराता है, किंतु पीछे से उसके पिताश्री कहते हैं - घबराते क्यों हो ! "मैं हूँ ना" ऐसे ही... मैं हर नया कार्य करने में घबराता हूँ, मुझे भी हे परम पिता! बस इतना कह दीजिए... "मैं हूँ ना" फिर तो मैं निश्चिंत हो, निष्काम बन जाऊँगा...ध्रुवधाम पा जाऊँगा। “ श्री गुरुवर की स्मृति मात्र से, मुक्ति होना संभव है। किंतु गुरु भक्ति छूटे तो, शिवपद सदा असंभव है।। अतः हृदय वीणा पर, गुरु की भक्ति नियमित नित्य करूं। गुरुवर विद्यासागर जी की, भक्ति से आनंद वरूँ।।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  7. मैं आपसे द्रव्य की, दूरियों में रह लूँगा। मैं आपसे क्षेत्र की, दूरियाँ भी सह लूँगा। किंतु आप स्वभाव में रहो, और में विभाव में रहूँ... यह दूरी सहन नहीं कर पाऊँगा। “मूरत नहीं बनाई केवल, अदभुत शिल्पी बना दिया। कविता नहीं बनाई केवल, श्रेष्ठ कवि ही बना दिया।। गुरु ने मात्र न हीरा परखा, जौहरी उन्हें बनाया था। ज्ञान गुरु ने विनीत शिष्य को, अपना गुरु बनाया था।'' आर्यिका पूर्णमति जी
  8. कबसे सोया था अभी-अभी जागा हूँ। अनमना सा बैठा था मैं, अभी-अभी खड़ा हुआ हूँ। बीच चौराहे पर खड़ा था मैं, अभी-अभी चला हूँ। बेधड़क विपरीत पथ पर चल रहा था मैं, अभी-अभी लक्ष्य पर चल रहा हूँ। ध्रुव लक्ष्य पर गतिमान में, अब ज्ञान से आपूरित गुरुवर, आपमें विलीन हो रहा हूँ। आपने ही मति दी, गति दी, प्रगति दी, भक्ति दी, युक्ति दी और शक्ति भी दी। “गुरु दक्षिणा माँग रहे तब, बड़ी समस्या घिर आई। बोल सके ना मुख से कुछ भी, कैसी यह बेला आई।। मौन स्वीकृति दे मुनिवर ने, गुरु का पद स्वीकार किया। गुरु शिष्य और शिष्य गुरु बन, सब जग को उपहार दिया।।'' आर्यिका पूर्णमती माताजी
  9. में पामर हूँ फिर भी हे परम! आपने मुझे सहारा दिया। मैं अधम हूँ फिर भी हे पावन ! आपने मुझे पावन किया। मैं अबोध हूँ फिर भी हे ज्ञानवान ! आपने मुझे बोध दिया। में अनेक दोषों का कोष हूँ फिर भी हे गुणकोष ! आपने मुझे चरणों में स्थान दिया। “ज्ञानसिंधु गुरुवर को पाकर, विद्याधर धनिधन्य हुए। विद्याधर सा विनीत शिष्य पा, ज्ञानसिंधु भी धन्य हुए।। गुरु-शिष्य संबंध अनूठा, लख जिनशासन धन्य हुआ। विद्या गुरु का संगम पाकर, मम जीवन भी धन्य हुआ।।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  10. आप तो सदा अपने में रहते हो और सबको अपना बना लेते हो। हमें अपना बना स्वयं निज में उतर जाते हो, दुनिया से बेखबर हो जाते हो। हमें अकेला छोड़कर क्यों चले जाते हो? “विद्या ज्ञान का एक अर्थ है, इक दूजे को परख लिया। गुरु ने अपने परम शिष्य को, अपने जैसा नाम दिया।। ज्ञानसिंधु में विद्या मिलकर, विद्या में जब ज्ञान मिला। सरल स्वभावी ज्ञानसिंधु से, जग को अनुपम दाग मिला।।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  11. जब घड़ी आयी दीक्षा की, प्रकृति सारी हर्षायी। हर्षित हो नभ से मंद सुगंधित वर्षा की। वह दिन तीन के पीछे शून्य, अर्थात् तीस जून था। त्रय रत्न के सिवा, आपका कोई लक्ष्य न था। पाकर रत्नत्रय का महल, हो गया जीवन के प्रश्नों का हल। सदा स्वात्म समाधि में स्थित, जयवंतों धरा पर... मेरे गुरू विद्यासागर ! “तीस जून उन्नीस सौ अड़सठ, गुरुवर से दीक्षा पाई। ज्यों ही वस्त्र तजे गुरुवर ने, नभ से जलधारा आई।। दीक्षा उत्सव देव मनाये, सारी प्रकृति मुस्कायी। सदा रहो जयवंत धरा पर, विद्यासागर मुनिरायी ।।'' आर्यिका पूर्णमती माताजी
  12. शरद पूनम का चंदा तो वर्ष में एक बार उदित होता है किंतु हे! समता शरद चाँदनी के पूर्ण चंद्रमा... आप हर पल उदित और मुदित रहते हो ! धवल चाँदनी में रखे दूध को पीकर भी अज्ञानी शुभ्र धवल औव सुखी नहीं हो पाते, किंतु आप प्रासुक गर्म जल पीकर भी सदा उल्लसित रहते हो! सच... आप शाश्वत शरद पूनम के चंदा हो, श्रीमति के नंदा हो... भावी जिनंदा हो ! “छियालिस सन् शरद पूनम को, विद्या शशि का उदय हुआ। पिता मल्लप्पा श्रीमंति माँ का, अतिहर्षित हृदय हुआ।। सत् परिभाषित करने वाले, ग्राम सदलगा जन्म लिये। विद्या धन उद्घाटित उद्दघाटित करने, ज्ञानसिंधु की शरण लिये।।'' आर्यिका पूर्णमती माताजी
  13. अनंत प्रार्थनाओं के प्रार्थनीय, परम आराध्य मेरे अजस्त्र सौभाग्य, पूज्यपाद परम गुरुदेव, परम वीतरागी संत आचार्य परमेष्ठी श्री विद्यासागरजी महाराज के मुस्लिामी चरणों में सविनय समर्पित भावांजलि... "मन गुरु दर्शन मिलन से तृप्त कब होता? गुरु प्रतीक्षा में हृदय संतप्त कब होता? रात-दिन वसु याम मैं अवगाहती जिसमें, वह गुरु भक्ति का ही पावन सरोवर है। गुरुवर! मेरा जीवन तुम्हारी ही धरोहर है।।'' आर्यिका पूर्णमती माताजी
  14. माटी स्वयं घट नहीं बनती, कुम्भकार उसे बनाता है। पाषाण की शिला स्वयं प्रतिमा नहीं बनती, शिल्पी उसे तराशना है। कागज स्वयं चित्र नहीं बनता, चित्रकार उसे उकेरता है। वैसे ही... शिष्य स्वयं संयमी नहीं बनता, सद्गुरु ही उसे दीक्षा संस्कार दे संयमी बनाते हैं। यही उपहार दिया, मुझे भी मेरे गुरुवर ने... शिष्यों के प्राणों के प्राण, भक्तगण की भावनाओं के भगवान... गुरुदेव! डूबे रहते हैं अपने ज्ञान सरोवर में! उन्हें समय ही कहाँ है? समय (आत्मा) से दूर रहने का, बाहर झाँकने का! लगता है बाहरी जगत् में रहते हैं, मगर हर पल अंतर्जगत् में रमते हैं। भक्त तड़पते रहते हैं उनके दर्शन को, और वे आत्मदर्शन में ही आनंदित रहते हैं। ऐसी स्थिति में भक्त अनेकों संबोधन से संबोधित कर अपने भगवत् स्वरुप गुरु के नाम लिखता है पाती... लिखते ही लगता है उसे, उन तक मेरी भावना पहुँच गई है, होता भी ऐसा ही है। जैसे...आस्था की प्रगाढ़ता में बाजू की आवश्यकता नहीं रहती। वैसे ही...भावों की समीपता होने पर भाषा की भी आवश्यकता नहीं रहती। असीम श्रद्धा के आगे सीमित शब्दों की अर्थवता कहाँ रहती हैं? फिर भी हृदय की श्रद्धा उमड़-उमड़ आती है। आँखें दर्शन को तरस-तस्स जाती है... इसीलिए इस बाल अल्पमति ने बालाघाट में जगत जननी मम जीवनदायिनी माँ के रूप में गुरुदेव विद्यासिंधु के दर्शन की बाट जोहते-जोहते कलम का सहारा लिया और अपनी दर्श की प्यास को कुछ समय के लिए शांत किया। मेरा शुभ उपयोग गुरु सान्निध्य आपका जित चाहे। क्योंकि आपकी सन्निधि मुझको बतलाती शिव की राहें।। इक पल का भी विरह आपका, सहा नहीं अब जाता है। गुरु तुम्हें बिन देखे मुझसे रहा नहीं अब जाता है।। भावों से की गई प्रार्थना कभी व्यर्थ नहीं जाती, यह अनुभूति हुई और तभी गुरु की आज्ञा मिली और संकेत पा सरिताएँ सागर को पाने आनंदित हो बह चलीं... लेखनी सेतु बन गुरु शिष्य के मिलन में सहायक बन गई। बालाघाट से विहार कर कटनी में गुरु दर्शन कर आँखें तृप्त हो गई। यह जो कुछ लिखा गुरु दर्शन कर स्वात्म को लरखने के लिए लिखा। गुरु दर्शन की भावना से, स्वात्म सिद्धि की कामना से गिज मिलन हो। यही भावना है। तेरी भक्ति में अंतस् के नंत दीप जल उठते हैं। तेरी चर्चा से हे गुरुवर! मौन मुखर हो जाते हैं।। तेरे दर्शन से आतम के प्रदेश सुमनों सम खिलते। आप मिलन से ऐसा लगता निज परमातम से मिलते।। मुक्तिगागी श्रीचरणों में नमोस्तु... नमोस्तु...नमोस्तु! आर्यिका पूर्णमती माताजी
  15. आपके नगर में ☝महावीर जयंती महोत्सव के अवसर पर संभव हो सके तो चल /अचल झाँकियाँआपके नगर में ☝महावीर जयंती महोत्सव के अवसर पर संभव हो सके तो चल /अचल झाँकियाँ
×
×
  • Create New...