Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    895

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. संसार का स्वरूप ही ऐसा है कि बाहर से बड़ा ही मनमोहक लगता है लेकिन भीतरी स्वरूप कुछ अलग ही हुआ करता है। प्राणी का मन भी सामने रखी हुई वस्तु में संतुष्ट नहीं होता बल्कि दूर रखी हुई वस्तु की चाहत में व्याकुल बना रहता है। मन कभी संतुष्ट नहीं होता और कभी एक वस्तु पर स्थिर भी नहीं रहता। मन कभी भूतकाल की स्मृति की ओर चला जाता है तो कभी भविष्य की कोरी कल्पनाओं में उड़ान भरने लगता है। लेकिन वर्तमान का आनंद नहीं ले पाता। वर्तमान में जीना ही समझो मन का स्थिर होना है | एक दिन आचार्य गुरुदेव ने बताया कि- आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज कहा करते थे कि - मन, जो सामने भोजन सामग्री है उसके अलावा और ही कुछ चाहता है। वह स्थिरता के साथ किसी वस्तु का सेवन नहीं करता। जो सोचता है वह नहीं मिलता, जो मिलता है उसे ग्रहण न कर दूसरे की ओर चला जाता है। इसीलिए आचार्य कहते हैं सारी योजनाएँ (प्लानिंग) छोड़ दो, मात्र वर्तमान का अनुभव करो। आचार्य श्री ने आगे कहा - आचार्य श्री ज्ञानसागर जी की कुछ बातें ऐसी हैं कि- अपने आप कर्तव्य की ओर मोड़ देती हैं। सच है जिनके शिष्य इतने महान हों उन गुरु का तो कहना ही क्या ? इनके मुखारबिन्द से तो हमेशा अमृत के झरने झरते रहते हैं। जो चाहे इनकी पीयूष वाणी में अवगाहन कर अपना कल्मष धो सकता है और चिरकाल तक मन की शुद्धता के साथ जीवन सार्थक कर सकता है। गुरुदेव हमेशा हमें वर्तमान में जीने की प्रेरणा देते हैं जो उनकी आज्ञा को मानकर वर्तमान का उपयोग करेगा वह अवश्य ही आगे चलकर वर्धमान बनेगा।
  2. आज अर्थ के युग में व्यक्ति धर्म को भूलता चला जा रहा है मात्र उसे अर्थ ही अर्थ (पैसा) दिखाई दे रहा है। आज विद्यालयों में भी अर्थकरी विद्या हो गयी। ऐसी संस्कार शून्य विद्या व्यक्ति को एम.ए. की डिग्री तो दे देगी, लेकिन एम.ए एन. (मेन=आदमी) नहीं बना पावेगी। आज मानवता लुप्त होती चली जा रही है। व्यक्ति धन की इच्छा रखता है चाहे उसे कुछ भी अनैतिक कार्य करना पड़े, करने तैयार रहता है। वह धन की चाह में अपने मानवीय धर्म को भी भूलता चला जा रहा है। धन को ही जीवन का लक्ष्य मानकर चलने वाला व्यक्ति कभी भी अपने मानव जीवन को सार्थक नहीं कर सकता। धन कमाते हए भी व्यक्ति को धर्म नहीं भूलना चाहिए। क्योंकि धर्म से ही धन आदि लौकिक वस्तुओं की उपलब्धि होती है। एक दिन आचार्य गुरुदेव ने बताया कि- आज चाहे वह राजनेता हो या सामान्य व्यक्ति वह धर्म की ओर से दृष्टि हटाकर धन कमाने की होड़ में लगा है। लेकिन, इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि धर्म को छोड़कर धनोपार्जन करते रहना मनुष्य के लिए अभिशाप सिद्ध होगा। पास ही बैठे एक सज्जन ने कहा - भारत भी अमेरिका जैसे धनाढ्य देशों की श्रेणी में आना चाहता है। आचार्यश्री सहसा ही बोले कि- ध्यान रखो, विदेशों में धन है लेकिन धर्म के अभाव में क्या हो रहा है वहाँ, आप स्वयंअनुमान लगा सकते हो। धर्म सुख रूपी फल का वृक्ष है। वृक्ष को जड़ से काटकर फल खाने वाले को कृष्ण लेश्या होती है यानि जघन्य परिणामी माना जाता है। अंत में कहा कि-धन के अर्जन के लिए लाखों प्राणियों को मारकर मांस निर्यात करना पेड़ को काटकर फल खाना है। आज के दिग्भ्रमित मानव के लिए यह उपदेश महान उपकारी होगा कि वह धन को अर्जित करते हुए भी धर्म को न भूले। क्योंकि, धर्म के बिना संसार की वस्तुओं की भी उपलब्धि नहीं होती और न ही अंतरंग में सुख शांति। गुरुदेव की निरीह पशुओं के प्रति निरंतर अनुकंपा बरसती रहती है। हमेशा यह उपदेश देते हैं कि-मांस निर्यात जैसे घिनौने कृत्य को बंद किया जाना चाहिए एवं भारत की अहिंसक संस्कृति को पुनर्जीवित किया जावे ताकि देश सुख-शांति का अनुभव कर सके। क्योंकि आज मानव के पास भौतिक साधन आदि सभी कुछ उपलब्ध हैं लेकिन धर्म के अभाव में सुख और शांति जैसी अदभुत सम्पत्ति से वंचित होता चला जा रहा है।
  3. हे गुरुवर धन्य हो तुम, कितना परीषह सहते हो। सर्दी गर्मी या हो बरसात, तुम अपने में रहते हो। ये पंक्तियाँ आचार्य गुरुदेव की चर्या को देखकर किसी कवि ने लिखी हैं। सच है यह पंक्तियाँ गुरु की चर्या को पाकर सार्थक हो जाती हैं। गुरुदेव चलाकर के परीषहों को सहन करते हैं। गर्मी में जहाँ ज्यादा गर्मी पड़ती है वहाँ (कुण्डलपुर में) विराजमान होते हैं, और सर्दी, बरसात में जहाँ इनकी अधिकता रहती है अमरकण्टक जैसे क्षेत्रों पर विराजमान हो जाते हैं। हमेशा वे प्रकृति में जिया करते हैं। वस्त्र आदि ओढ़ने की कला तो सभी के पास है लेकिन महानता तो उनमें है जो प्रकृति को ओढ़कर चलते हैं। एक बार सर्दी के समय विहार चल रहा था। जनवरी माह प्रारंभ हो गया था। आचार्य श्री जी ने बताया कि- बहुत पहले शिखरजी की यात्रा करते हुए हम डाल्टनगंज के पास एक गाँव है वहाँ से गुजर रहे थे, तभी कड़ाके की ठण्ड पड़ रही थी। सुबह-सुबह विहार किया तो मुट्ठी बांधकर के चले और गन्तव्य स्थान पर पहुँचने के बाद मुट्ठी खोलने का प्रयास किया तो एकदम खुली नहीं, ठण्ड के कारण हाथ की अंगुलियाँ अकड़ गयी थी। बहुत प्रयास करने पर मुठी खुली थी। ऐसे ही सर्दी, गर्मी सहन करने से कर्म की निर्जरा होती है एवं साधना में निखार आता चला जाता है। सभी ने सुना, मन में गुरु के प्रति और आस्था बढ़ती चली गयी और साधना के प्रति सतर्क रहना, परीषहों से न घबराना जैसी अमूल्य प्रेरणा को पाकर लगा गुरुदेव की साधना अदभुत है काश हम भी उनके जैसी साधना को प्राप्त कर सकें।
  4. गर्मी का समय था, अतिशय क्षेत्र बहोरीबंद जी में ग्रीष्म प्रवास चल रहा था। वहाँ पर पर्याप्त कमरे न होने से एक ही कमरे में दो-दो, तीन-तीन मुनियों के आहार हो जाया करते थे। एक बड़ा हाल है, उसमें श्रावकगण पाँच-पाँच महाराजों को पड़गाहन करके आहार कराते थे। दैवयोग से, पुण्योदय से हमारे और आचार्य भगवंत के आहार एक ही श्रावक के यहाँ हो गये। आहारोपरांत गुरुदेव जाकर सामने कक्ष में बैठ गये बाहर रखे हुये दोनों कमण्डलु में से गुरुदेव के साथ श्रावकगण मेरा कमण्डलु ले गये। और मेरे पास गुरुदेव का कमण्डलु आ गया। ईर्यापथ भक्ति का समय हो गया, भक्ति व प्रत्याख्यान के पश्चात् आचार्य श्री कहते हैं - क्यों कुंथु ये तुम्हारा कमण्डलु है मैं उपयोग में ले लूँ। मैंने फौरन कहा - जी, आचार्य श्री। आचार्य श्री जी बोले कि- बहुत देर से मेरे पास रखा था पर बिना पूँछे कैसे ले लेता। मैंने हाथ जोड़कर कहा- गुरुदेव सब आपका ही है। ये मण्डल और कमण्डलु। गुरुदेव सहसा ही बोले कि - नहीं, ना मेरा ये मण्डल, ना कमण्डलु (हम सभी साधकों की ओर इशारा करते हुए कहा)। आचार्य भगवंत हमेशा अपने प्रति कितने सचेत रहते हैं। पर पदार्थ से नि: स्पृह रहते हुये हम साधकों को भी उपकरणों के प्रति ममत्व भाव छोड़ने का उपदेश देते हैं। ऐसे निस्पृही गुरुदेव का सान्निध्य मिलना हम सभी का सौभाग्य ही है। सौ-सौ कुम्हड़े लटकते, बेल भली बारीक। भार नहीं अनुभूत हो, भले संघ गुरु ठीक।। (अतिशय क्षेत्र बहोरीबंद जी)
  5. वैशाख शुक्ल सप्तमी का दिन था। उस तिथि में हम 23 महाराजों की दीक्षा हुई थी। सुबह-सुबह हम सभी साधक आचार्य श्री के पास पहुँचे और नमोऽस्तु किया और चरणों के समीप बैठ गये। यह देख आचार्य महाराज बोले - आज आप लोग प्रात: ही एक साथ कैसे आ गये। हम लोगों ने कहा - आज हम लोगों का दीक्षा दिवस है तब आचार्य महाराज ने वात्सल्य मयी मुद्रा के साथ सभी की ओर देखा एवं आशीर्वाद दिया और फौरन हँसकर बोले - अब आप लोग बच्चे नहीं रहे बड़े हो गये हो, दीक्षा हुये चार साल हो गये। हमने फौरन कहा - हम तो आपके सामने हमेशा बच्चे ही रहेंगे। आचार्य श्री हँसने लगे, उनकी हँसी भी हमारे मन को प्रफुल्लित कर गयी ऐसा लगा मानो वे इस बालक से वह सब कुछ कह रहे हों जो एक पिता अपने बच्चे से कह रहे होते हैं। फिर हम सभी साधकों ने आचार्य महाराज से निवेदन किया-आज के दिन हम सभी को कुछ सूत्र दे दीजिए। यह सुनकर आचार्य महाराज मुस्कुरा कर बोले- "ससूत्र बालक खुश रहे, नभ में उड़े पतंग"। मैंने कहा- नभ में नहीं उड़े आपके चरणों में रहे पतंग। सभी लोग हँसने लगे। आचार्य महाराज ने बहुत बड़ा सूत्र दे दिया कि जो जिनवाणी व गुरु के अनुसार चलता है, वह कहीं भी रहे खुश रहता है एवं निरन्तर मोक्षमार्ग पर बढ़ता रहता है। ऐसे सूत्र जीवन रूपी गाड़ी को बढ़ाने के लिए पेट्रोल का कार्य करते हैं और हमेशा लक्ष्य पर डटे रहने को प्रेरित करते हैं। आचार्यश्री ने लिखा भी है ईश दूर पर मैं खड़ा, श्रद्धा लिये अभंग। ससूत्र बालक खुश रहे, नभ में उड़े पतंग॥
×
×
  • Create New...