गर्मी का समय था, अतिशय क्षेत्र बहोरीबंद जी में ग्रीष्म प्रवास चल रहा था। वहाँ पर पर्याप्त कमरे न होने से एक ही कमरे में दो-दो, तीन-तीन मुनियों के आहार हो जाया करते थे। एक बड़ा हाल है, उसमें श्रावकगण पाँच-पाँच महाराजों को पड़गाहन करके आहार कराते थे। दैवयोग से, पुण्योदय से हमारे और आचार्य भगवंत के आहार एक ही श्रावक के यहाँ हो गये। आहारोपरांत गुरुदेव जाकर सामने कक्ष में बैठ गये बाहर रखे हुये दोनों कमण्डलु में से गुरुदेव के साथ श्रावकगण मेरा कमण्डलु ले गये। और मेरे पास गुरुदेव का कमण्डलु आ गया।
ईर्यापथ भक्ति का समय हो गया, भक्ति व प्रत्याख्यान के पश्चात् आचार्य श्री कहते हैं - क्यों कुंथु ये तुम्हारा कमण्डलु है मैं उपयोग में ले लूँ। मैंने फौरन कहा - जी, आचार्य श्री। आचार्य श्री जी बोले कि- बहुत देर से मेरे पास रखा था पर बिना पूँछे कैसे ले लेता। मैंने हाथ जोड़कर कहा- गुरुदेव सब आपका ही है। ये मण्डल और कमण्डलु। गुरुदेव सहसा ही बोले कि - नहीं, ना मेरा ये मण्डल, ना कमण्डलु (हम सभी साधकों की ओर इशारा करते हुए कहा)।
आचार्य भगवंत हमेशा अपने प्रति कितने सचेत रहते हैं। पर पदार्थ से नि: स्पृह रहते हुये हम साधकों को भी उपकरणों के प्रति ममत्व भाव छोड़ने का उपदेश देते हैं। ऐसे निस्पृही गुरुदेव का सान्निध्य मिलना हम सभी का सौभाग्य ही है।
सौ-सौ कुम्हड़े लटकते, बेल भली बारीक।
भार नहीं अनुभूत हो, भले संघ गुरु ठीक।।
(अतिशय क्षेत्र बहोरीबंद जी)