वैशाख शुक्ल सप्तमी का दिन था। उस तिथि में हम 23 महाराजों की दीक्षा हुई थी। सुबह-सुबह हम सभी साधक आचार्य श्री के पास पहुँचे और नमोऽस्तु किया और चरणों के समीप बैठ गये। यह देख आचार्य महाराज बोले - आज आप लोग प्रात: ही एक साथ कैसे आ गये। हम लोगों ने कहा - आज हम लोगों का दीक्षा दिवस है तब आचार्य महाराज ने वात्सल्य मयी मुद्रा के साथ सभी की ओर देखा एवं आशीर्वाद दिया और फौरन हँसकर बोले - अब आप लोग बच्चे नहीं रहे बड़े हो गये हो, दीक्षा हुये चार साल हो गये। हमने फौरन कहा - हम तो आपके सामने हमेशा बच्चे ही रहेंगे। आचार्य श्री हँसने लगे, उनकी हँसी भी हमारे मन को प्रफुल्लित कर गयी ऐसा लगा मानो वे इस बालक से वह सब कुछ कह रहे हों जो एक पिता अपने बच्चे से कह रहे होते हैं। फिर हम सभी साधकों ने आचार्य महाराज से निवेदन किया-आज के दिन हम सभी को कुछ सूत्र दे दीजिए। यह सुनकर आचार्य महाराज मुस्कुरा कर बोले- "ससूत्र बालक खुश रहे, नभ में उड़े पतंग"। मैंने कहा- नभ में नहीं उड़े आपके चरणों में रहे पतंग। सभी लोग हँसने लगे।
आचार्य महाराज ने बहुत बड़ा सूत्र दे दिया कि जो जिनवाणी व गुरु के अनुसार चलता है, वह कहीं भी रहे खुश रहता है एवं निरन्तर मोक्षमार्ग पर बढ़ता रहता है। ऐसे सूत्र जीवन रूपी गाड़ी को बढ़ाने के लिए पेट्रोल का कार्य करते हैं और हमेशा लक्ष्य पर डटे रहने को प्रेरित करते हैं। आचार्यश्री ने लिखा भी है
ईश दूर पर मैं खड़ा, श्रद्धा लिये अभंग।
ससूत्र बालक खुश रहे, नभ में उड़े पतंग॥