आज अर्थ के युग में व्यक्ति धर्म को भूलता चला जा रहा है मात्र उसे अर्थ ही अर्थ (पैसा) दिखाई दे रहा है। आज विद्यालयों में भी अर्थकरी विद्या हो गयी। ऐसी संस्कार शून्य विद्या व्यक्ति को एम.ए. की डिग्री तो दे देगी, लेकिन एम.ए एन. (मेन=आदमी) नहीं बना पावेगी। आज मानवता लुप्त होती चली जा रही है। व्यक्ति धन की इच्छा रखता है चाहे उसे कुछ भी अनैतिक कार्य करना पड़े, करने तैयार रहता है। वह धन की चाह में अपने मानवीय धर्म को भी भूलता चला जा रहा है। धन को ही जीवन का लक्ष्य मानकर चलने वाला व्यक्ति कभी भी अपने मानव जीवन को सार्थक नहीं कर सकता। धन कमाते हए भी व्यक्ति को धर्म नहीं भूलना चाहिए। क्योंकि धर्म से ही धन आदि लौकिक वस्तुओं की उपलब्धि होती है। एक दिन आचार्य गुरुदेव ने बताया कि- आज चाहे वह राजनेता हो या सामान्य व्यक्ति वह धर्म की ओर से दृष्टि हटाकर धन कमाने की होड़ में लगा है। लेकिन, इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि धर्म को छोड़कर धनोपार्जन करते रहना मनुष्य के लिए अभिशाप सिद्ध होगा। पास ही बैठे एक सज्जन ने कहा - भारत भी अमेरिका जैसे धनाढ्य देशों की श्रेणी में आना चाहता है। आचार्यश्री सहसा ही बोले कि- ध्यान रखो, विदेशों में धन है लेकिन धर्म के अभाव में क्या हो रहा है वहाँ, आप स्वयंअनुमान लगा सकते हो। धर्म सुख रूपी फल का वृक्ष है। वृक्ष को जड़ से काटकर फल खाने वाले को कृष्ण लेश्या होती है यानि जघन्य परिणामी माना जाता है। अंत में कहा कि-धन के अर्जन के लिए लाखों प्राणियों को मारकर मांस निर्यात करना पेड़ को काटकर फल खाना है।
आज के दिग्भ्रमित मानव के लिए यह उपदेश महान उपकारी होगा कि वह धन को अर्जित करते हुए भी धर्म को न भूले। क्योंकि, धर्म के बिना संसार की वस्तुओं की भी उपलब्धि नहीं होती और न ही अंतरंग में सुख शांति। गुरुदेव की निरीह पशुओं के प्रति निरंतर अनुकंपा बरसती रहती है। हमेशा यह उपदेश देते हैं कि-मांस निर्यात जैसे घिनौने कृत्य को बंद किया जाना चाहिए एवं भारत की अहिंसक संस्कृति को पुनर्जीवित किया जावे ताकि देश सुख-शांति का अनुभव कर सके। क्योंकि आज मानव के पास भौतिक साधन आदि सभी कुछ उपलब्ध हैं लेकिन धर्म के अभाव में सुख और शांति जैसी अदभुत सम्पत्ति से वंचित होता चला जा रहा है।