हे गुरुवर धन्य हो तुम, कितना परीषह सहते हो।
सर्दी गर्मी या हो बरसात, तुम अपने में रहते हो।
ये पंक्तियाँ आचार्य गुरुदेव की चर्या को देखकर किसी कवि ने लिखी हैं। सच है यह पंक्तियाँ गुरु की चर्या को पाकर सार्थक हो जाती हैं। गुरुदेव चलाकर के परीषहों को सहन करते हैं। गर्मी में जहाँ ज्यादा गर्मी पड़ती है वहाँ (कुण्डलपुर में) विराजमान होते हैं, और सर्दी, बरसात में जहाँ इनकी अधिकता रहती है अमरकण्टक जैसे क्षेत्रों पर विराजमान हो जाते हैं। हमेशा वे प्रकृति में जिया करते हैं। वस्त्र आदि ओढ़ने की कला तो सभी के पास है लेकिन महानता तो उनमें है जो प्रकृति को ओढ़कर चलते हैं।
एक बार सर्दी के समय विहार चल रहा था। जनवरी माह प्रारंभ हो गया था। आचार्य श्री जी ने बताया कि- बहुत पहले शिखरजी की यात्रा करते हुए हम डाल्टनगंज के पास एक गाँव है वहाँ से गुजर रहे थे, तभी कड़ाके की ठण्ड पड़ रही थी। सुबह-सुबह विहार किया तो मुट्ठी बांधकर के चले और गन्तव्य स्थान पर पहुँचने के बाद मुट्ठी खोलने का प्रयास किया तो एकदम खुली नहीं, ठण्ड के कारण हाथ की अंगुलियाँ अकड़ गयी थी। बहुत प्रयास करने पर मुठी खुली थी। ऐसे ही सर्दी, गर्मी सहन करने से कर्म की निर्जरा होती है एवं साधना में निखार आता चला जाता है।
सभी ने सुना, मन में गुरु के प्रति और आस्था बढ़ती चली गयी और साधना के प्रति सतर्क रहना, परीषहों से न घबराना जैसी अमूल्य प्रेरणा को पाकर लगा गुरुदेव की साधना अदभुत है काश हम भी उनके जैसी साधना को प्राप्त कर सकें।