संसार का स्वरूप ही ऐसा है कि बाहर से बड़ा ही मनमोहक लगता है लेकिन भीतरी स्वरूप कुछ अलग ही हुआ करता है। प्राणी का मन भी सामने रखी हुई वस्तु में संतुष्ट नहीं होता बल्कि दूर रखी हुई वस्तु की चाहत में व्याकुल बना रहता है। मन कभी संतुष्ट नहीं होता और कभी एक वस्तु पर स्थिर भी नहीं रहता। मन कभी भूतकाल की स्मृति की ओर चला जाता है तो कभी भविष्य की कोरी कल्पनाओं में उड़ान भरने लगता है। लेकिन वर्तमान का आनंद नहीं ले पाता। वर्तमान में जीना ही समझो मन का स्थिर होना है |
एक दिन आचार्य गुरुदेव ने बताया कि- आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज कहा करते थे कि - मन, जो सामने भोजन सामग्री है उसके अलावा और ही कुछ चाहता है। वह स्थिरता के साथ किसी वस्तु का सेवन नहीं करता। जो सोचता है वह नहीं मिलता, जो मिलता है उसे ग्रहण न कर दूसरे की ओर चला जाता है। इसीलिए आचार्य कहते हैं सारी योजनाएँ (प्लानिंग) छोड़ दो, मात्र वर्तमान का अनुभव करो। आचार्य श्री ने आगे कहा - आचार्य श्री ज्ञानसागर जी की कुछ बातें ऐसी हैं कि- अपने आप कर्तव्य की ओर मोड़ देती हैं।
सच है जिनके शिष्य इतने महान हों उन गुरु का तो कहना ही क्या ? इनके मुखारबिन्द से तो हमेशा अमृत के झरने झरते रहते हैं। जो चाहे इनकी पीयूष वाणी में अवगाहन कर अपना कल्मष धो सकता है और चिरकाल तक मन की शुद्धता के साथ जीवन सार्थक कर सकता है। गुरुदेव हमेशा हमें वर्तमान में जीने की प्रेरणा देते हैं जो उनकी आज्ञा को मानकर वर्तमान का उपयोग करेगा वह अवश्य ही आगे चलकर वर्धमान बनेगा।