(दोहा)
सीधे सीझे शीत हैं, शरीर बिन जीवन्त।
सिद्धों को शुभ नमन हो, सिद्ध बनूँ श्रीमन्त ॥१॥
अमर उमर भर भ्रमर बन, जिन-पद में हो लीन।
उन पद में पद-चाह बिन, बनने नमूँ नवीन ॥२॥
शिव-पथ-नेता जितमना, इन्द्रिय-जेता धीश।
तथा प्रणेता शास्त्र के, जय जय जय जगदीश ॥३॥
सन्त पूज्य अरहन्त हो, यथाजात निर्ग्रन्थ।
अन्त-हीन-गुणवन्त हो, अजेय हो जयवन्त ॥४॥
सार-सार दे शारदे, बनूँ विशारद धीर।
सहार दे, दे तार, दे उतार, दे उस तीर ॥५॥
बनूँ निरापद शारदे! वर दे, ना कर देर।
देर खड़ा कर-जोड़ के, मन से बनूँ सुमेर ॥६॥
ज्ञानोदधि के मथन से, करूँ निजामृत-पान।
पार, भवोदधि जा करूँ, निराकार का मान ॥७॥
ज्ञायक बन गायक नहीं, पाना है विश्राम।
लायक बन नायक नहीं, जाना है शिव-धाम ॥८॥
जीवन समझे मोल है, ना समझे तो खेल।
खेल-खेल में युग गये, वही खिलाड़ी खेल ॥९॥
खेल सको तो खेल लो, एक अनोखा खेल।
आप खिलाड़ी आप ही, बनो खिलौना खेल ॥१०॥
दूर दिख रही लाल-सी, पास पहुँचते आग।
अनुभव होता पास का, ज्ञान दूर का दाग ॥११॥
यथा-काल करता गृही, कन्या का है दान।
सूरि, सूरिपद का करे, त्याग जिनागम जान ॥१२॥
प्रतिदिन दिनकर दिन करे, फिर भी दुर्दिन आय।
दिवस रात, या रात दिन, करनी का फल पाय ॥१३॥
खिड़की से क्यों देखता? दिखे दुखद् संसार।
खिड़की में अब देख ले, दिखे सुखद साकार ॥१४॥
राजा ही जब ना रहा, राजनीति क्यों आज?
लोकतन्त्र में क्या बची, लोकनीति की लाज ॥१५॥
वचन-सिद्धि हो नियम से, वचन-शुद्धि पल जायें।
लद्ध-सिद्धि-परसिद्रिय, अनायास फल जायें ॥१६॥
सूक्ष्म वस्तु यदि न दिखे, उनका नहीं अभाव।
तारा-राजी रात में, दिन में नहीं दिखाया ॥१७॥
दूर दुराशय से रहो, सदा सदाशय पूर।
आश्रय दो धन अभय दो, आश्रय से जो दूर ॥१८॥
भूल नहीं पर भूलना, शिव-पथ में वरदान।
नदी भूल गिरि को करे, सागर का संधान ॥१९॥
प्रभु दिखते तब और ना, और समय संसार।
रवि दिखता तो एक ही, चन्द्र साथ परिवार ॥२०॥
सुर-पुर भी नीरस रहा, रस का नहीं सवाल।
क्षार रसातल और हैं, देती ‘रसा रसाल ॥२१॥
रसाल सुरभित सूंध, छू रस का हो अनुमान।
विषय-संग बिन सन्त में, विरागता को मान ॥२२॥
प्रभु को लख हम जागते, वरना सोते घोर।
सूर्योदय प्रभु आप हैं, चन्द्रोदय हैं और ॥२३॥
कार्य देखकर हो हमें, कारण का अनुमान।
दिशा दिशान्तर में दिखा, सूर्य तभी गतिमान ॥२४॥
अनुभव ना शिव-पंथ में, आतम का अविकार।
लवण मिला जल शुचि दिखे, किन्तु स्वाद तो खार॥२५॥
वतन दिखे ना प्रभु उन्हें, धनान्ध मन-आधीन।
उल्लू को रवि कब दिखा, दिवान्ध दिन में दीन ॥२६॥
विषय-वित्त के वश हुए, ना पाते शिव-सार।
फँसे कीच क्या? चल सके, शिर पर भारी भार ॥२७॥
भांति-भांति की भ्रान्तियां, तरह-तरह की चाल।
नाना नारद-नीतियां, ले जार्ती पाताल ॥२८॥
लोकतन्त्र का भेष है, लोभ-तन्त्र ही शेष।
देश-भक्त क्या देश में, कहीं हुए निश्शेष? ॥२९॥
सत्ता का ना साथ दो, सदा सत्य के साथ।
बिना सत्य सत्ता सुनो, दे न सम्पदा साथ ॥३०॥
अनाथ नर हो धर्म बिन, धर्म-धार हो नाथ।
पुजता उगता सूर्य ही, नहीं डूबता भ्रात! ॥३१॥
मानी में क्षमता कहाँ?, मिला सके गुणमेल।
पानी में क्षमता कहाँ?, मिला सके घृत, तैल ॥३२॥
घूँघट ना हो राग का, मरघट जब लाँ होय।
जमघट, पनघट पर रहे, पर ना दल-दल होय ॥३३॥
ठोकर खा-खा फिर रहा, दर-दर दूर दरार।
स्व-पर दया कर, दान कर, कहते दीन-दयाल ॥३४॥
यकीन किन-किन पर करो, किन-किन के हो दास।
उदास क्यों हो? एक ही, उपास्य के दो पास ॥३५॥
दूर, सहज में डूब हो, दूर रहे सब धूल।
आगत तो अभिभूत हो, और भूत हो भूल ॥३६॥
न, मन नमन परिणमन हो, नहीं श्रमण में खेद।
जब तब अब कब सब नहीं, और काल के भेद ॥३७॥
धन जब आता बीच में, वतन सहज हो गौण।
तन जब आता बीच में, चेतन होता मौन ॥३८॥
फूल राग का घर रहा, काँटा रहा विराग।
तभी फूल का पतन हो, राग त्याग, तू जाग ॥३९॥
दुबला-पतला हूँ नहीं, सबल समल ना मूढ़।
रूढ़ नहीं हूँ प्रौढ़ ना, व्यक्त नहीं हैं गूढ. ॥४०॥
नहीं नपुंसक पुरुष हूँ, अबला नहीं बबाल।
जरा जरा से ग्रसित भी, नहीं युवा हूँ बाल ॥४१॥
काया, माया से तथा, छायाँ से हैं हीन।
राजा राणा हूँ नहीं, जाया के आधीन ॥४२॥
तुलना उपमा की हवा, मुझे न लगती धूप।
स्वरूप मेरा रूप ना, कुरूप हो या रूप ॥४३॥
क्रोध काँपता, बिचकता, मान भूल निज भाव।
लाभ लौटता दूर से, मेरे देख स्वभाव ॥४४॥
जीव जिलाना जालना, दिया जलाना कार्य।
भूल भुलाना भूलना, शिव-पथ में अनिवार्य ॥४५॥
राग बिना आतम दिखे, आतम बिन ना राग।
धूम बिना तो आग हो, धूम नहीं बिन आग ॥४६॥
लौकिकता से हो परे, धरे अलौकिक शील।
कर्म करे ना फल चखे, प्रभु तो ज्यों नभ नील ॥४७॥
स्वर्गों में ना भेजते, पटके ना पाताल।
हम तुम सब को जानते, प्रभु तो जाननहार ॥४८॥
ना दे अपने पुण्य को, पर के ना ले पाप।
पाप-पुण्य से हैं परे, प्रभु अपने में आप ॥४९॥
थक जाना ना हार है, पर लेना है श्वास।
रवि निशि में विश्राम ले, दिन में करे प्रकाश ॥५०॥
चेतन का जब जतन हो, सो तन की हो धूल।
मिले सनातन धाम सो, मिटे तनातन भूल ॥५१॥
मोह दुःख का मूल है, धर्म सुखों का स्रोत।
मूल्य तभी पीयूष का, जब हो विष से मौत ॥५२॥
चिन्तन से चिन्ता मिटे, मिटे मनो मल-मार।
प्रसाद मानस में भरे, उभरें भले विचार ॥५३॥
भले-बुरे दो ध्यान हो, समाधि इक हो, दो न।
लहर झाग तट में रहे, नदी मध्य में मौन ॥५४॥
रही सम्पदा, आपदा, प्रभु से हमें बचाय।
रही आपदा सम्पदा, प्रभु में हमें रचाय ॥५५॥
कटुक मधुर गुरु वचन भी, भविक-चित्त हुलसाय।
तरुण अरुण की किरण भी, सहज कमल विकसाय ॥५६॥
सत्ता का सातत्य सो, सत्य रहा है तथ्य।
सत्ता का आश्रय रहा, शिवपथ में है पथ्य ॥५७॥
ज्ञेय बने उपयोग ही, ध्येय बने उपयोग।
शिव-पथ में उपयोग का, सदा करो उपयोग ॥५८॥
योग, भोग, उपयोग में, प्रधान हो उपयोग।
शिव-पथ में उपयोग का, सुधी करे उपयोग ॥५९॥
रसना रस गुण को कभी, ना चख सकती भ्रात!
मधुरादिक पर्याय को, चख पाती हो ज्ञात ॥६०॥
तथा नासिका सूँघती, सुगन्ध या दुर्गन्ध।
अविनश्वर गुण गन्ध से, होता ना सम्बन्ध ॥६१॥
इसी भाँति सब इन्द्रियाँ, ना जानें गुण-शील ।
इसीलिए उपयोग में, रमते सुधी सलील ॥६२॥
मूर्तिक इन्द्रिय विषय भी, मूर्तिक हैं पर्याय।
तभी सुधी उपयोग का, करते हैं स्वाध्याय ॥६३॥
सर परिसर ज्यों शीत हो, सर परिसर हो शीत।
वरना अध्यातम रहा, स्वप्नों का संगीत ॥६४॥
खोया जो है अहम में, खोया उसने मोल ।
खोया जिसने अहम को, खोजा धन अनमोल ॥६५॥
प्रतिभा की इच्छा नहीं, आभा मिले अपार।
प्रतिभा परदे की प्रथा, आभा सीधी पार ॥६६॥
वेग बढ़े इस बुद्धि में, नहीं बढ़े आवेग।
कष्ट-दायिनी बुद्धि है, जिसमें ना संवेग ॥६७॥
कल्प काल से चल रहे, विकल्प ये संकल्प।
अल्प काल भी मौन लूँ, चलता अन्तर्जल्प ॥६८॥
पर घर में क्यों घुस रही, निज घर तज यह भीड़।
पर नीड़ों में कब घुसा, पंछी तज निज नीड़ ॥६९॥
कहीं कभी भी ना हुआ, नदियों का संघर्ष।
मनुजों में संघर्ष क्यों? दुर्लभ क्यों? है हर्ष ॥७०॥
शास्त्र पठन ना, गुणन से, निज में हम खो जायें।
कटि पर ना, पर अंक में, मां के शिशु सो जायें ॥७१॥
दृश्य नहीं दर्शन भला, ज्ञेय नहीं है ज्ञान।
और नहीं आतम भला, भरा सुधामृत-पान ॥७२॥
समरस अब तो चख जरा, सब रस सम बन जाय।
नयनों पर उपनयन हो, हरा, हरा दिख जाय ॥७३॥
सुधी पहिनता वस्त्र को, दोष छुपाने भ्रात!
किन्तु पहिन यदि मद करे, लज्जा की है बात ॥७४॥
हित-मित-नियमित-मिष्ट ही, बोल वचन मुख खोल।
वरना सब सम्पर्क तज, समता में जा ‘खोल' ॥७५॥
भार उठा दायित्व का, लिखा भाल पर सार।
उदार उर हो फिर भला, क्यों ना? हो उद्धार ॥७६॥
आगम का संगम हुआ, महापुण्य का योग।
आगम हृदयंगम तभी, निश्छल हो उपयोग ॥७७॥
अर्थ नहीं परमार्थ की, ओर बढ़े भूपाल।
पालक जनता के बनें, बनें नहीं भूचाल ॥७८॥
दूषण ना भूषण बनो, बनो देश के भक्त।
उम्र बढे बस देश की, देश रहे अविभक्त ॥७९॥
नहीं गुणों की ग्राहिका, रहीं इन्द्रियाँ और।
तभी जितेन्द्रिय जिन बने, लखते गुण की ओर ॥८०॥
सब सारों में सार है, समयसार उर धार।
सारा सारासार सो, विसार तू संसार ॥८१॥
विवेक हो ये एक से, जीते जीव अनेक।
अनेक दीपक जल रहे, प्रकाश देखो एक ॥८२॥
दिन का हो या रात का, सपना सपना होय।
सपना अपना सा लगे, किन्तु न अपना होय ॥८३॥
जो कुछ अपने आप है, नहीं किसी पर रूढ़।
अनेकान्त से ज्ञात हो, जिसे न जाने मूढ़ ॥८४॥
अपने अपने धर्म को, छोड़े नहीं पदार्थ।
रक्षक-भक्षक जनक सो, कोई नहीं यथार्थ ॥८५॥
खण्डन मण्डन में लगा, निज का ना ले स्वाद।
फूल महकता नीम का, किन्तु कटुक हो स्वाद ॥८६॥
नीर-नीर को छोड़ कर, क्षीर-क्षीर का पान।
हंसा करता, भविक भी, गुण लेता गुणगान ॥८७॥
पक्षपात बिन रवि यथा, देता सदा प्रकाश।
सबके प्रति मुनि एक हो, रिपु हो या हो दास ॥८८॥
घने वनों में वास सो, विविध तपों को धार।
उपसर्गों का सहन भी, समता बिन निस्सार ॥८९॥
चिन्तन मन्थन मनन जो, आगम के अनुसार।
तथा निरन्तर मौन भी, समता बिन निस्सार ॥९०॥
विजितमना हो फिर हुए, महामना जिनराज।
हिम्मतवाला बन अरे ! मतवाला मत आज ॥९१॥
रसना रस की ओर ना, जा जीवन अनमोल ।
गुरु - गुण गरिमा गा अरी! इसे न रस से तोल ॥१२॥
चमक दमक की ओर तू, मत जा नयना मान।
दुर्लभ जिनवर रूप का, निशि-दिन करना पान ॥९३॥
पके पत्र फल डाल पर, टिक ना सकते देर।
मुमुक्षु क्यों ना? निकलता, घर से देर सबेर ॥९४॥
नीरस हो पर कटुक ना, उलटी सौ बच जाय।
सूखा हो, रुखा नहीं, बिगड़ी सो बन जाय ॥९५॥
छुआछूत की बात क्या? सुनो और तो और।
फरस रूप से शून्य हूँ, देखूँ, दिखूं, विभोर ॥९६॥
दास-दास ही न रहे, सदा-सदा का दास।
कनक, कनकपाषाण हो, ताप मिले प्रभु पास ॥९७॥
आत्म-तोष में जी रहा, जिसके यश का नाप।
शरद जलद की धवलिमा, लज्जित होती आप ॥९८॥
रस से रीता हूँ, रहा, ममता की ना गन्ध।
सौरभ पीता हूँ सदा, समता का मकरन्द ॥९९॥
तव-मम तव-मम कब मिटे, तरतमता का नाश।
अन्धकार गहरा रहा, सूर्योदय ना पास ॥१००॥
समय व स्थान परिचय
बीना बारह क्षेत्र में, नदी बही सुख-चैन।
ग्रीष्मकाल का योग है, मन लगता दिन-रैन ॥१०१॥
गगन गन्ध गति गोत्र के, रंग पंचमी संग।
सूर्योदय के उदय से, मम हो प्रभु सम रंग ॥१०२॥