मैं ज्ञानधारा हूँ-
प्रतिपल प्रवाहमान
ध्रुव धावमान
सतत गतिमान
रहती हूँ प्रत्येक आत्मा में,
बहती हूँ... निःशब्द मैं...।।
विकारों की सघन चट्टानों से
ढक देते अज्ञानी मुझे,
कल-कल करती
कर्मधारा का ही तब
संवेदन करते हैं वे,
विरला कोई ज्ञानी ही
जान पाता है मुझे।
मैंने आँखों से अगम
और बुद्धि से दुर्गम
गूढ़ रहस्यों को जाना है,
अतीत के भूगर्भ को
अनागत के गोद की अतलांत गहराइयों को
और
वर्तमान की धरा को
पहचाना है।
आने वाले समय की पदचाप
सुनने की क्षमता ।
सामान्य मनुष्य में कहाँ?
नियति के खेल से
सब अपरिचित थे,
लेकिन मैं परिचित थी
मेरी ही कोख में तो समायी थी
नियति की परिणति
और उसका नियन्ता…
जो ध्रुव अडिग दृढ़ संकल्पी
चैतन्य चिन्मयी सहज निर्विकल्पी।
जिनके परिचय से स्वयं का
सहज परिचय होने लगता है,
जिनके दर्शन से स्वयं का दर्शन कर
निज को निज में ही खोने लगता है।
जो नाम, काम और जगत के धाम से परे
आप्तकाम, कृतकाम, पूर्णकाम
होने को लालायित है..."
जो अपने ही पूर्वकृत् पुण्य कर्मों से
‘माँ श्रीमंति' की कोख में अवतरित है।
प्रकृति भी आज अत्यधिक पुलकित है;
मानो स्वर्ग से चयकर
किसी पवित्र आत्मा के
आने का दे रही है संकेत…
कि अचानक कुछ हल्का-सा,
झलका-सा, अपूर्व-सा।
सुखद अनुभूत हुआ
कुछ अदभुत हुआ
पर दृश्य कुछ नहीं।
गर्भ के रहस्य में
समा गया चेतनात्मा...!
गर्भस्थ के गर्भ में ज्ञान
और ज्ञान में समाया भगवान...
प्रगट नहीं, किंतु
इसमें बहुत कुछ
अप्रगट सत्य निहित है।
अंतर्मुहूर्त में
आहार, शरीरादि छहों पर्याप्तियाँ पूर्णकर
गर्भ में ही
जगत कल्याण की कामना से
मानो प्राणियों को संकेत दे रहा हो,
भगवान होने की भावना ले।
पर्याप्त सुख-शांति का आश्वासन दे रहा हो।
कौन जानता था कि
ब्रह्मचारी, मुनि, आचार्य बन
मोक्षमार्ग की दूरी तय करेंगे
और
एक दिन अपना गंतव्य पा लेंगे।