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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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  1. पत्र क्रमांक-१९४ ०४-०५-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर मृत्यु का साक्षात्कार करने वाले साहसी दादागुरु परमपूज्य क्षपकशिरोमणि श्री ज्ञानसागर जी महामुनिराज के चरणों में त्रिकाल त्रिभक्तिपूर्वक नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु... हे गुरुवर! आपके प्रिय निर्यापकाचार्य मेरे गुरुवर एक अच्छे प्रबंधक के रूप में अपने दायित्व का निर्वहन कर रहे थे। एक तरफ आपके अंतरंग भावों का प्रबंधन दूसरी तरफ समाधि के पश्चात् का बाह्य प्रबंधन। आपकी समाधि के बाद सामाजिक क्या स्थिति बनी? इस सम्बन्ध में मुझे नसीराबाद के २-३ लोगों ने आँखों देखा वर्णन बताया, जिसे बताने में मुझे गौरव का अनुभव हो रहा है। श्री ताराचंद जी सेठी सेवानिवृत्त आयकर अधिकारी ने १५-१०-२०१५ भीलवाड़ा में बताया- अंतरंग-बहिरंग प्रबंधक : निर्यापकाचार्य “आचार्यश्री जी सुबह-दोपहर-शाम आवश्यकतानुसार वैयावृत्य करते सुबह और दोपहर में शास्त्र स्वाध्याय सुनाते। शाम को प्रतिक्रमण सुनाते, समयानुसार स्तोत्र, भक्तियाँ सुनाते । प्रतिदिन गुरुजी की आहारचर्या कराते, उसके बाद स्वयं आहार करते और समाधि होने से काफी दिन पूर्व ही बता दिया था कि किस दिशा में-कहाँ पर और कैसे दाह संस्कार किया जायेगा। वैकुण्ठी कैसी होनी चाहिए इसका भी निर्देशन पहले ही दे दिया था। दिनांक ०१-०६-७३ को सुबह १०:५० बजे गुरुवर ने अन्तिम श्वांस ली और समाचार फैल गए। तत्काल नसीराबाद का बाजार बंद हो गया। घण्टे-दो घण्टे के भीतर ही लोगों का आना चालू हो गया। नसियाँ जी के चौक में अन्तिम दर्शन के लिए क्षपकराज को वैकुण्ठी में बाहर विराजमान कर दिया गया था। जैन-अजैन लोगों का अन्तिम दर्शन के लिए तांता लग गया। दोपहर में अन्तिम यात्रा का भव्य जुलूस निकाला गया। जिसमें अजमेर का प्रसिद्ध अजंता बैण्ड को बुलाया गया था। अजमेर, किशनगढ़, ब्यावर, केकड़ी, सरवाड़, पीसांगन, दादिया, मोराझड़ी, दूदू, मौजमाबाद, झाग, चुरु, फुलेरा, किशनगढ़-रैनवाल, मारौठ, कुचामन, दांता, सीकर आदि स्थानों के भक्तलोग उस अन्तिमयात्रा में सम्मिलित हुए, लगभग २०-२५ हजार जैन-अजैन जन समुदाय जयकारे करते हुए चल रही थी। शाम को ४ बजे ऑल इण्डिया रेडियो पर अजमेर के सम्पादक श्री गुप्ता जी ने समाधि के बारे में २० मिनिट तक विस्तृत समाचार दिए और दूसरे दिन मृत्युंजयी ज्ञानसागर जी महाराज की समाधि एवं उनके व्यक्तित्व-कृतित्व के बारे में अखबारों में समाचार प्रकाशित हुए। इसी प्रकार नसीराबाद निवासी अजमेर प्रवासी माणिकचंद जी गदिया एडव्होकेट के सुपुत्र अनिल गदिया ने भीलवाड़ा में बताया- गुरु की अन्तिम यात्रा में सम्मिलित हुआ आचार्य संघ “गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज की समाधि होने के बाद नसीराबाद का सकल नागरिक अन्तिम यात्रा की शोभा में सम्मिलित हुआ था। बीसों गाँव-नगरों से लोग एकत्रित हुए थे। लगभग २०-२२ हजार लोग जब सड़क पर चल रहे थे। तो कहीं निकलने की जगह ही नहीं बची थी। वैकुण्ठी का जुलूस ताराचंद जी सेठी की नसियाँ से भोजराज जी वकील की नसियाँ के बाजू में खाली स्थान तक गया था। उस जुलूस में आचार्य श्री विद्यासागर जी, ऐलक सन्मतिसागर जी, क्षुल्लक स्वरूपानंदसागर जी भी सम्मिलित हुए थे। वहाँ पर आचार्यश्री जी ने शास्त्रोक्त भक्तियाँ पढ़ी और फिर नमोऽस्तु करके चले गए। तत्पश्चात् चंदन की लकड़ियों की चिता पर पार्थिव शरीर को विराजमान किया गया और लगभग सभी लोगों ने १-१, २-२ श्रीफल चढ़ाये जिससे श्रीफल का पहाड़ बन गया। फिर पण्डित चंपालाल जी ने सामाजिक दृष्टि से दाहसंस्कार के क्रिया-कलाप कराये और सभी लोगों ने परिक्रमा दी।'' मुखाग्नि किसने दी प्रश्न खड़ा होता है कि मुखाग्नि किसने दी? इसकी खोजबीन करते हुए वर्षों हो गए किन्तु समाधान मिला २०१६ ब्यावर में पधारे देवघर-झारखण्ड के ताराचंद जी जैन छाबड़ा (अध्यक्ष-झारखण्ड राज्य, दिगम्बर जैन धार्मिक न्यास बोर्ड) जो गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के गृहस्थावस्था के छोटे भाई के बेटे हैं उनसे, उन्होंने बताया- “ज्ञानसागर जी महाराज की समाधि से दो दिन पूर्व मेरे ताऊ गंगावगस जी और उनके बेटे महावीर कुमार जी छाबड़ा सपत्नीक पहुँच गए थे। उन्होंने ही मुखाग्नि दी थी।इसी प्रकार नसीराबाद के सुमेरचंद जी सेठी ने बताया- “उस दिन अजैन समाज ने भी पूरा सहयोग प्रदान किया था। दाह संस्कार के बाद लगभग १५२० हजार लोगों के भोजन की व्यवस्था नसीराबाद जैन समाज ने की थी और सड़क पर ही दोनों तरफ पंक्तिबद्ध लोगों को बैठाकर भोजन कराया था। कुछ दिन बाद में समाज ने वह दाह संस्कार वाली जमीन अपने नाम अलॉट करवाकर वहाँ पर आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज की समाधिस्थली बनायी।'' इस तरह हे गुरुवर! आप कृतकृत्य हो गए। इस मनुष्य जीवन का जो सदुपयोग करना चाहिए, वह आपने किया और निश्चित ही इस संसार को २-३ भव तक सीमित कर दिया होगा। आपके इस | महापुरुषार्थ को कोटि-कोटि नमन करता हूँ और भावना भाता हूँ कि आपका ऐसा भावाशीष हम शिष्यानुशिष्य को प्राप्त हो कि हम भी आपकी तरह पुरुषार्थ कर आपके पीछे-पीछे सिद्धालय में जा विराजमान हों... आपका शिष्यानुशिष्य
  2. पत्र क्रमांक-१९३ ०३-०५-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर महासमाधि में लीन, मृत्युंजयी, महातपस्वी दादागुरु क्षपकराज परमपूज्य ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में महाभाव से समर्पित नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु...। हे गुरुवर! इस जीवन की अन्तिम परीक्षा में आपने जिस साहस और वीरता का परिचय दिया है। वह एक आदर्श बन गया है। अन्तिम श्वांस में भी आप अपने निर्यापकाचार्य की परीक्षा में शत प्रतिशत अंकों से पास होते रहे। इस सम्बन्ध में हमने खोजबीन की तो मुझे जो परिणाम मिला वह आपको बताकर प्रसन्नता महसूस कर रहा हूँ। नसीराबाद के रतनलाल जी पाटनी ने २४-१०-२०१५ भीलवाड़ा में बताया- परीक्षा देने में हर क्षण सावधान “समाधि से कुछ दिन पूर्व आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज कई बार मुझे गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के पास भेजते थे और कहते थे जाकर यह प्रश्न पूछना। तो मैं जाता धीरे से ज्ञानसागर जी महाराज को नमोऽस्तु करता तो महाराज कोई जवाब नहीं देते और न ही आँख खोलकर देखते। तो मैं लौटकर आचार्य महाराज को कहता वे आँख नहीं खोल रहे हैं शायद सो रहे हैं। तो आचार्य महाराज कहते जाकर सीधे प्रश्न पूछना। मैं, फिर गया और मैंने कहा-महाराज आचार्य महाराज ने यह प्रश्न पूछा है, तो ज्ञानसागर जी महाराज आँख खोलकर धीरे से मुस्कुरा देते फिर धीरे से बोलते आचार्य महाराज जानते सब हैं, वे तो मेरी परीक्षा कर रहे हैं, जाओ उनको कह देना कि भगवती आराधना देखें इस-इस नम्बर की गाथा देख लेवें, समाधान मिल जायेगा। आचार्य महाराज ग्रन्थ उठाकर देखते तो उन्हें समाधान मिल जाता। तब आचार्य श्री मुझे कहते-‘गुरुदेव ज्ञानसागर जी मुनिमहाराज कितने अधिक सावधान हैं, कितना अगाध ज्ञान है, कितना अधिक क्षयोपशम है । उनको आज भी पूरा आगम स्मरण में है।'' डॉक्टरों की परीक्षा में मिले चमत्कारिक अंक ‘‘२७ मई को गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज बहुत अधिक कमजोर हो गए थे। तब उनकी स्थिति चिकित्सकों को दिखाने के लिए आचार्य महाराज ने संकेत किया। तो नसीराबाद के डॉ. ने अजमेर के मेडिकल कॉलेज से विशेषज्ञ डॉक्टरों को बुलवाया। तब उन डॉक्टरों ने उनकी जाँच की, जाँच करने पर पाया कि न तो ज्ञानसागर जी की नाड़ी चल रही है, न ही ब्लडप्रेशर पकड़ में आ रहा है। तब डॉक्टरों ने कहा-इनकी आँखें तो झपकाओ तभी पता चलेगा ये जीवित है या नहीं। तब आचार्य विद्यासागर जी ने गुरु महाराज के कान में कहा- आप अपनी चेतनता का परिचय दें एवं डॉक्टरों को आशीर्वाद के रूप में आँखों को झपकाएँ।' तब गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने आँखें खोलीं और बंद कर ली। यह देखकर डॉक्टर बोले-मेडिकल चिकित्सा की भाषा में तो शरीर मृत हो चुका है, किन्तु आध्यात्मिक शक्तियों के कारण श्वांसें चल रहीं हैं और ये जीवित हैं। बड़े आश्चर्यचकित होते हुए वे डॉक्टर गुरु महाराज को प्रणाम करके चले गए। इसी प्रकार पीसांगन के नेमीचंद जी पहाड़िया ने मुझे मार्च १९९५ में नोट कराया था, वह संस्मरण आपको बताने की तीव्र उत्कण्ठा हो रही है- आगमानुकूल समाधि देख कुन्दकुन्दाचार्य पर विश्वास हुआ २८ मई को समाचार मिला कि सल्लेखनाधारी ज्ञानसागर जी महाराज ने आजीवन जल का त्याग कर दिया है। तब मैं २९ मई को उनके दर्शन करने नसीराबाद गया। शाम का वक्त था आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज उनको सिर के पास बैठकर झुककर कुछ सुना रहे थे। क्षुल्लक जी एवं ऐलक जी पैर के तलुओं की वैयावृत्य कर रहे थे। तब बीच-बीच में विद्यासागर जी पूछते थे, आप सचेत तो हैं । तो ज्ञानसागर जी महाराज धीरे से हुंकार करके स्वीकृति देते। फिर भी विद्यासागर जी संतुष्ट नहीं होते तो उनके उपयोग की जागृति की परीक्षा लेने के लिए समयसार, भक्तामर स्तोत्र, समाधितंत्र, इष्टोपदेश आदि सुनाते और चलाकर गलत उच्चारण कर देते यह देखने के लिए कि गुरुजी गलती पकड़ते हैं या नहीं इससे उनकी जागृति का पता चल जायेगा। तब ज्ञानसागर जी महाराज तत्काल हूँ करके टोक देते। इस तरह ज्ञानसागर जी महाराज की मनोदशा उनका ज्ञानोपयोग और उनकी स्थिरता का पता चल जाता था। यह सब हमने देखा और आज तक याद है। आगमानुकूल समाधि देख आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी की बात पर विश्वास हो गया कि पंचमकाल के अन्तिम समय तक भावलिंगी रत्नत्रयधारी मुनि होंगे।" अन्तिम समय की जागृति इसी प्रकार नसीराबाद के शान्तिलाल जी पाटनी ने लिखकर भेजा वह आपको बता रहा हूँ ‘‘गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज की समाधि के अन्तिम दिन १५-२० मिनिट पहले की बात है। आचार्य श्री विद्यासागर जी ने उनके कान में सम्बोधन किया और पूछा-‘सब ठीक है न।' तब क्षपकराज ज्ञानसागर जी महाराज बहुत धीरे से बोले-‘शरीर में वेदना है किन्तु उपयोग में सावधान हूँ।' यह सुनकर विद्यासागर जी प्रसन्न हो गए। फिर मैंने उनके कान में कहा-आप क्या स्मरण कर रहे हैं? तो गुरुदेव बोले-'अरिहंत-सिद्ध स्मरण कर रहा हूँ। तो मैंने कहा-यह पुद्गल की भाषा वर्गणा है इससे क्या होगा? तो गुरुदेव बोले-‘पंच परमेष्ठियों का स्मरण करने वाला पंच परमेष्ठियों में गर्भित हो जायेगा।' यह सुनकर आचार्य श्री विद्यासागर जी और हम बड़े प्रसन्न हुए। इस तरह अन्तिम समय तक वे पूर्णतः जागृत बने रहे। तभी अजमेर से भागचंद जी सोनी सपत्नीक दर्शन करने आये। तो आचार्य विद्यासागर जी ने गुरुदेव के कान में कहा- आपके दर्शन करने के लिए अजमेर से सेठ-सेठानी जी आये हैं। तो ज्ञानसागर जी महाराज कुछ नहीं बोले-तब आचार्य श्री ने कहा- आप आँख खोलकर आशीर्वाद देवें ।' तो गुरुवर ने आँख खोली और बंद कर ली। उनकी जागृति को देख सेठ साहब को भी अजूबा हुआ और खुशी हुई। सेठ साहब दर्शन करके चले गए। १० मिनिट बाद गुरुदेव की स्थिति नाजुक हुई। तब आचार्य विद्यासागर जी ने उन्हें पद्मासन से बैठाया और कान में णमोकार मंत्र सुनाने लगे। णमोकार मंत्र सुनते-सुनते वह अन्तर्यात्री अमरयात्रा पर निकल गया।' इसी प्रकार नसीराबाद के नेमीचंद जी बड़जात्या कार्यालय अधीक्षक सहकारी विभाग अजमेर ने भी २०१५ भीलवाड़ा में अपनी अनुभूतियों से परिचय कराया, वह संस्मरण भी आपको बता रहा हूँ- सच्चे शिष्य के सच्चे शिष्य : गुरुवर ज्ञानसागर जी ‘‘आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के बारे में जितना लिखा जाए वह कम है। वे एक दृढ़संकल्पी साधक थे जो एक बार नियम ले लेते थे वह पूरा करते थे। यह हमने नसीराबाद में देखा है। जब उन्होंने सल्लेखना व्रत ले लिया तब कमजोर शरीर के बावजूद भी बिना सहारा लिए खड़े होकर के आहार लेते थे यदि कोई सहारा देता भी तो वे मना कर देते थे। आहारचर्या के लिए शहर में भ्रमण करते वृत्तिपरिसंख्यान व्रत के नियम के अनुकूल विधि न मिलने पर वे उपवास कर लेते थे। आचार्य विद्यासागर जी जो उनके सच्चे शिष्य थे उनको अपना गुरु बनाकर एक सच्चे शिष्य की तरह गुरु आज्ञा का पालन करते थे। आचार्यश्री जो त्याग कराते, जितना त्याग कराते और आहार में जो लेने के लिए कहते, गुरुदेव ज्ञानसागर जी वैसा ही करते, किन्तु आचार्य श्री विद्यासागर जी भी बड़ी सावधानी के साथ सोच-विचार करके फिर निर्णय लेते थे। वे किसी भी वस्तु का त्याग कराने से पहले क्षपक मुनि श्री ज्ञानसागर जी महाराज को पूछते थे-‘महाराज! यदि आप त्याग करना चाहें तो कुछ त्याग करायें।' तब गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज सिर हिलाकर स्वीकृति देते। तब आचार्य विद्यासागर जी उनकी स्थिति-परिस्थितियों को देखते हुए खाद्य या पेय वस्तुओं का त्याग करा देते थे। २७ मई १९७३ को श्री भंवरलाल सोनी ने अन्तिम बार जल का आहार दिया था। समाधि से २ दिन पहले सर सेठ राय बहादुर भागचंद जी सोनी अजमेर अपने साथ डॉ. सूर्य नारायण जी (जवाहरलाल नेहरु राजकीय चिकित्सालय, अजमेर के सेवा निवृत्त मुख्य चिकित्सक) को साथ लाये। डॉक्टर साहब सल्लेखक ज्ञानसागर जी को देखकर बोले-यह एक आश्चर्य है एवं विज्ञान को चुनौती है कि जिनकी नब्ज छूट चुकी है और रक्तचाप अत्यधिक कम है, तब भी वह जीवित है और वे बिना किसी तड़फड़ाहट के प्रशस्तता का अनुभव कर रहा हो। यह सम्भव कैसे? हँसते हुए बोले-यह तो आध्यात्मिक महापुरुषों की तपस्या का प्रभाव है। गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज बहुत सरल स्वभावी थे। उनके चेहरे पर कभी क्रोध नहीं देखा। वे जब भी किसी को जवाब देते या समाधान करते तब बहुत सहज ढंग से मारवाड़ी भाषा में कहते थे, उनका मुख्य शब्द था ‘भैया'। सल्लेखना के दौरान जब अशक्तता बढ़ गई थी तब वे स्वतः करवट नहीं ले पाते थे। साईटिका के दर्द होने के बावजूद भी वे बिना संक्लेश किए लेटे रहते थे। जब करवट बदलवाते तभी वे करवट बदलते थे। इस तरह आपके अन्तिम क्षणों के साक्षी अनेक लोगों ने मुझे अपने-अपने भाव-अनुभूतियाँस्मृतियाँ बतायीं । जो यहाँ पर देना सम्भव नहीं है। हे गुरुवर! आपने जैन दर्शन की असाधारण तपस्या कर यह सिद्ध कर दिया कि सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण आत्महत्या नहीं है, अपितु जब शरीर पूर्णतः चलने में असमर्थता प्रकट कर चुका हो और चिकित्सकों की दृष्टि में चिकित्सा भी असमर्थ हो गयी हो, तब आगम कहता है कि अपने रत्नत्रय की रक्षा करनी चाहिए और मृत्यु के उपस्थित हो जाने पर उत्साह पूर्वक पूर्ण जागृति में सावधानी के साथ सल्लेखना धारण करना चाहिए। जैनाचार्यों ने हिंसा को नकारा है और जैन साधु अहिंसक होता है अतः वह स्वघात कर आगम के विपरीत चलकर रत्नत्रय को नष्ट कैसे कर सकता है? इस प्रसंग में जैनाचार्यों ने कहा ‘प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा।' प्रमाद के योग से हिंसा मानी गयी है और प्रमाद का मतलब है आलस्य, असावधानी, सांसारिक अपेक्षा, अज्ञानता-अविवेक पूर्ण क्रिया। उपरोक्त आगम के आलोक में सल्लेखना समाधि लेने वाले के एक भी कारण नहीं होते एवं बिना किसी दबाव के, स्वेच्छा से सल्लेखना व्रत को धारण करते हैं और धीरे-धीरे क्रमशः आहार-पानी का त्याग करते हैं जिससे प्राणों को धक्का न लगे। इसलिए सल्लेखना आत्महत्या नहीं है। हे गुरुवर! आपने आगम की विधि अनुसार यह वीर-मरण का वरण कर अपनी आत्मशरण को ग्रहण किया है। ऐसे मृत्युंजयी के चरणों में अपने श्रद्धा-सुमन समर्पित करता हूँ... आपका शिष्यानुशिष्य
  3. पत्र क्रमांक-१९२ ३०-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर मृत्यु को चुनौती देने वाले मृत्युंजयी दादागुरुवर परमपूज्य क्षपकराज श्री ज्ञानसागर जी महामुनिराज के चरणों की भाव वंदना करता हूँ...। हे गुरुवर! आपकी वैयावृत्य करने मुनि श्री पार्श्वसागर जी महाराज पधारे थे और एक माह से ऊपर आपकी वैयावृत्य भी की थी। कहते हैं कि सेवा करने से मेवा मिलता है। ये मात्र शब्द ही नहीं हैं। अपितु इसमें सत्यता है मुनि श्री पार्श्वसागर जी महाराज आपकी सेवा करने आये और उन्हें समाधिरूप मेवा मिल गया अर्थात् आप से पहले उनकी समाधि हो गयी। संसारी अज्ञानी प्राणी इसका विपरीत अर्थ ग्रहण कर सकता है किन्तु मौत तो एक नग्न सत्य है जो जीवन के साथ जुड़ी है और फिर साधु तो मृत्यु से डरता नहीं है, वह तो वीरता के साथ उसका सामना करता है। उसका तो लक्ष्य होता है समाधिमरण । यदि मृत्यु उपस्थित हो गई तो वह सहर्ष-होश, उत्साहपूर्वक उसका स्वागत करता है गले लगाता है। समाधिमरण साधु के लिए एकमेवा ही है। इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने बताया- निर्यापकाचार्य बने पुनः निर्यापकाचार्य मुनि श्री पार्श्वसागर जी महाराज की उम्र लगभग ६५ वर्ष थी और मुनित्व की साधना में लीन थे गुरु महाराज की वैयावृत्य करने हेतु आप अपने गुरु मुनि श्री पद्मसागर जी महाराज से अनुमति लेकर और निर्यापकाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से आज्ञा लेकर रुक गए थे और कुछ ही दिनों में संघ के समस्त क्रिया-कलापों में ऐसे घुल-मिल गए थे कि मानों संघस्थ साधक हों। वे सरल स्वभावी दक्षिणभारतीय मुनि महाराज थे। १५ मई को आहार के बाद उनका स्वास्थ्य खराब हुआ और पेट में काफी दर्द होने लगा। तब आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज तत्काल उनके पास पहुँच गए। स्थिति को देखकर उन्होंने स्थानीय वैद्य को दिखाया उनसे विचार-विमर्श किया और आवश्यक बाह्य उपचार किया और स्थिति गम्भीर होती गई। तब पार्श्वसागर जी महाराज से निर्यापकाचार्य विद्यासागर जी महाराज बोले-‘चिकित्सक कह रहे हैं, आपके पेट की चिकित्सा हो जायेगी तो आप बच जायेंगे उसके बाद पुनः आपको दीक्षा दे देंगे।' तब पार्श्वसागर जी महाराज बोले-‘मेरी उम्र अब कितनी बची है आयु का कोई भरोसा नहीं है अतः आप मेरी समाधि करा दीजिए।' तब आचार्य महाराज ने उन्हें आत्मसम्बोधन दिया। रात में उनको गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के कक्ष में ही रखा और रातभर आचार्यश्री उनकी सेवा करते रहे। १६ मई को प्रातः उनको दूसरे कक्ष में ले जाया गया। आचार्य महाराज जंगल जाकर लौटकर आये तो उनकी स्थिति को नाजुक देखा, तब उनका आहार-पानी सब कुछ त्याग करा दिया और उनके कान में णमोकार मंत्र, ॐ नमः सिद्धेभ्यः सुनाते रहे, बीच-बीच में आत्मसम्बोधन भी करते जा रहे थे। परिणामों को निर्मल बनाने के लिए आत्मस्वरूप का भान कराते रहे, यह सब सुनते ही सुनते मुनि श्री पार्श्वसागर जी महाराज की समाधि हो गयी। जो वैकुण्ठी गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के लिए तैयार की गयी थी वह वैकुण्ठी मुनि श्री पार्श्वसागर जी महाराज के पार्थिव शरीर की शोभायात्रा में काम आ गयी। आचार्य महाराज के निर्देशन पर समाज ने अन्तिम संस्कार कर दिया।' इस सम्बन्ध में जैन गजट' में २४ मई १९७३ को समाचार प्रकाशित हुआ- मुनि श्री १०८ श्री पार्श्वसागर जी का देहावसान ‘‘दिनांक १६ मई ७३ बुधवार को प्रातः मुनि श्री पार्श्वसागर जी महाराज का ७ बजकर २५ मिनिट पर समाधिमरण हो गया। नसीराबाद में पधारे आपको सिर्फ सवा महीना ही हुआ था, परन्तु अल्पकाल में ही आपने समस्त धर्मप्रेमियों को अपनी ओर आकर्षित किया था। लाडनूं में चातुर्मास सम्पन्न कर किशनगढ़ होते हुए आप नसीराबाद पधारे थे। वे वयोवृद्ध श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज की वैयावृत्ति करना चाहते थे। १५ मई ७३ को मध्याह्न ३ बजे अचानक अस्वस्थ होने के बाद उनकी हालत निरंतर गम्भीर होती गयी। अन्तिम समय उनके श्रीमुख से अरिहंत-सिद्ध, ॐ नमः सिद्धेभ्यः, णमो अरिहंताणं आदि शब्दों का ही उच्चारण होता रहा। अन्तिम क्षणों में आत्मिक तेज से आपका मुखमण्डल प्रदीप्त था। । हजारों धर्म श्रद्धालुओं की उपस्थिति में बैण्ड बाजे के साथ अन्तिम यात्रा निकली। पार्थिव शरीर को शास्त्रीय विधियों और मंत्रोच्चारण के साथ ढाई बजे अग्नि को समर्पित कर दिया। रात्रि को एक सभा क्षुल्लक १०५ श्री स्वरूपानंदसागर जी की अध्यक्षता में हुई। जिसमें पं. चम्पालाल जी, हरिशंकर जी वकील, श्री भंवरलाल जी ऐरन व श्री माणकचंद जी जैन ने इस संसार की असारता का बोध कराते हुए त्याग व तपस्या का जीवन अंगीकार करने का आह्वान किया।" इस तरह शरणागत श्रमण की मृत्यु ने आकस्मिक घण्टी बजायी, तो आपके प्रिय आचार्य मेरे गुरुदेव ने उनके परिणामों को सम्भाला आत्म सम्बोधन किया और मंत्रोच्चार पूर्वक प्राणों का विसर्जन करा दिया। भव्यात्मा अपनी नियत यात्रा पर चली गयी। ऐसे साहसी वीर पण्डितमरण को धारण करने वाले भव्यात्मा के चरणों की वंदना करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  4. पत्र क्रमांक-१९१ २८-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर चलते-फिरते तीर्थ दादागुरु परमपूज्य ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु... हे गुरुवर! जब आप शनैः शनैः समाधि-साधना के कई सोपानों पर चढ़ चुके थे और आत्मा के कर्ता-भोक्ता स्वभाव के अनुसार आप अपने ही आत्मपरिणामों के कर्ता-भोक्ता स्वरूप में लीन रहते थे। तब आपने मई माह में खाद्य पदार्थों का भी त्याग कर दिया था। इस सम्बन्ध में जैन गजट' २४ मई १९७३ को समाचार प्रकाशित हुआ- छपते-छपते नसीराबाद-वयोवृद्ध चारित्र विभूषण ज्ञानमूर्ति परमपूज्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज ने २० मई ७३ से समस्त खाद्य पदार्थों का त्याग कर सल्लेखना की ओर लक्ष्य निर्धारित किया है। आप आहार में केवल अत्यल्प पेय पदार्थ लेते हैं। कृशकाय महाराजश्री का स्वास्थ्य काफी गिर गया है। परमपूज्य श्री १०८ विद्यासागर जी तथा संघस्थ त्यागी-व्रती वैयावृत्ति में दत्तचित्त हैं।'' आपके उपरोक्त समाचारों को सुनकर दूर-दूर से भक्तों-जिज्ञासुओं का आना जारी रहा और निर्यापकाचार्य के द्वारा की जा रही सेवा की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते, इस सम्बन्ध में नसीराबाद के रतनलाल पाटनी ने अक्टूबर २०१५ भीलवाड़ा में मुझे दो संस्मरण सुनाये- आचार्यश्री की आदर्श सेवा : मिसाल बन गयी ‘‘गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज की समाधि के समाचार सुन-सुनकर उनके दर्शन के लिए मुनिसंघ, क्षुल्लक आदि त्यागी-व्रती और गृहस्थजन भी खूब आते थे। सभी साधु विद्वान् आचार्य श्री विद्यासागर जी के द्वारा की जा रही सेवा-शुश्रुषा और साधना देखकर बड़ी ही प्रशंसा करते थे। सभी ने एक मुख्य बात पकड़ी वह यह कि चौबीसों घण्टे सेवा में लगे रहने के बावजूद भी विद्यासागर जी को किसी ने सोते हुए नहीं देखा । तो वे सभी यही कहते थे कि आचार्यश्री जी तो रात्रि में भी कितना कम सो पाते हैं फिर भी सेवा के दौरान ऊँघते तक नहीं हैं। उनके उत्साह के कारण उन्हें उबासी भी नहीं आती। ऐसी प्रशंसा सुन-सुनकर हम सब युवाओं को बड़ा अच्छा लगता और हम लोग भी पूरी तरह से समाधि में सहयोग करने के लिए लगे रहते और आपस में यही चर्चा करते-ये है निस्वार्थ सेवा । ऐसी सेवा से ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है। आचार्यश्री की हुईं आँखें लाल ‘‘मई के अन्तिम सप्ताह की बात है आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज को ३-४ दिन से रात में बिल्कुल न सो पाने के कारण और भीषण गर्मी के कारण उन्हें तेज बुखार हो गया था। तब उन्हें समाज के बड़े लोग एवं हम युवा लोग समझाते थे, कि महाराज आप थोड़ा विश्राम करें, किन्तु वे कुछ नहीं कहते और मुस्कुरा देते, किन्तु चौबीस घण्टे गुरु महाराज की सेवा में लगे रहते । मैं भी हरदम साथ में लगा रहता था। तो मुझे रात में सोने के लिए इशारा कर देते थे। स्वयं रात-भर जागते थे। इस कारण उनकी आँखों में खून उतर आया। ऐसी स्थिति को देखते हुए कजोड़ीमल जी अजमेरा मुझसे बोले-बाबूसा, आचार्य महाराज को ऊपर कमरे में ले जाओ, अगर ये बीमार पड़ गया तो ‘आपणो कांई होसी।' ज्ञानसागर जी गुरुमहाराज की समाधि कोण करासी। तब मैं कमण्डल उठा के आचार्य महाराज का हाथ पकड़ के नसियाँ जी में ऊपर ले गया और द्रव्य धोने के कमरे में पाटा लगाकर बैठा दिया और बाहर से दरवाजा बंद कर दिया। तब आचार्य महाराज बोले- ‘रतन, ऐसा नहीं करते' बड़ी ही मुश्किल से उन्होंने घण्टे-दो घण्टे विश्राम किया और पुनः गुरु महाराज के पास आ गए।'' इसी प्रकार नसीराबाद के इन्द्रचंद जी पाटनी ने भी २०१५ भीलवाड़ा में बताया- सजग प्रहरी : आचार्य श्री विद्यासागर “जब गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने नियम सल्लेखना व्रत धारण कर लिया और अपना निर्यापकाचार्य अपने प्रिय आचार्य श्री विद्यासागर जी को बना लिया तब से आचार्य श्री विद्यासागर जी एक सजग प्रहरी की तरह अपने गुरु की सेवा करते थे। आहार में क्या चलाना, क्या नहीं, इसके बारे में वैद्यों से चर्चा करके और गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज की प्रकृति के अनुकूल उनके नियमों का ध्यान रखते हुए परिचारक श्रावकों को बताते थे। संघस्थ क्षुल्लक स्वरूपानंद जी एवं ऐलक सन्मतिसागर जी को कार्य बता दिया था किसको-क्या-कब-करना है एवं कुछ युवाओं को भी निर्देश दिए थे कि दर्शनार्थियों को अन्दर प्रवेश नहीं करने देना है और नसियाँ जी में किसी भी प्रकार का शोरगुल नहीं होना चाहिए। जैसेजैसे समाधि साधना बढ़ती जा रही थी, वैसे-वैसे आचार्य श्री बड़ी सजगता रखते जा रहे थे। यहाँ तक कि उन्होंने शयन करना भी बंद कर दिया था। वे जब भी शौच, लघु शंका या आहार करने के लिए जाते तो किसी न किसी को गुरु के पास छोड़कर जाते और बोलकर जाते कि गुरुदेव पर नजर रखना; यदि करवट का इशारा करें तो करवट दिला देना और जब वे लौटकर आते तो पूछते-कोई इशारा आदि तो नहीं किया? कोई आवाज तो नहीं आयी थी? स्वयं पिच्छी से परिमार्जन करके गुरुदेव को करवट दिलाते । रात में भी गुरु महाराज के पास बैठे रहते और गुरुदेव की थोड़ी सी आवाज आती तत्काल गुरुदेव को सम्भालते और हर एक घण्टे बाद करवट बदलवाते। हर किसी को वैयावृत्य नहीं करने देते थे। जो समझदार होते, उन्हीं को वे अनुमति देते और स्वयं बताते कैसे वैयावृत्य करना है। गुरुदेव के उठने-बैठने, शौच-लघु शंका आदि में आचार्य श्री स्वयं पिच्छिका से परिमार्जन करते। यदि कोई विशेष भक्त आता तो आचार्य महाराज की अनुमति से पास में बैठने को मिलता, किन्तु ज्यादा बोलने नहीं देते थे और किसी को भी तेज आवाज में नहीं बोलने देते थे। आचार्य महाराज समय के इतने पाबंद थे कि एक मिनिट भी आगे-पीछे नहीं होता था। इस प्रकार हमने आचार्यश्री को एक सैनिक की तरह ड्यूटी करते देखा है।'' इस तरह निर्यापकाचार्य की भूमिका में मेरे गुरुवर पूरी तरह खरे उतरे और आप गुरु-शिष्य द्वय की चर्या-क्रिया को देखकर बड़े से बड़े नास्तिक लोग भी श्रद्धावान् बन गए। इस सम्बन्ध में पहले मैं आपको लिख चुका हूँ एक और संस्मरण लिख रहा हूँ जो मुझे बसंतीलाल चंपालाल दोसी बागीदौरा ने अगस्त २०१५ भीलवाड़ा में सुनाया- कसौटी पर खरे उतरे : मेरे गुरु ‘‘मैं सोनगढ़ की मान्यता का पोषक था। मेरी पत्नी मणीबेन के साथ १९७२ नसीराबाद में चातुर्मास कर रहे आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज एवं विद्यासागर जी महाराज के दर्शन करने गयीं थी। वहाँ से जब वे लौटीं तो उनकी बातें सुनकर मेरी भी इच्छा हुई एकबार उनको देखें। तब मैं मई १९७३ में नसीराबाद गया साथ में पत्नी भी थी। मन में श्रद्धा थी नहीं, क्योंकि सोनगढ़ के विचारों से प्रभावित था कि पंचमकाल में मुनि नहीं होते। जो हैं वे द्रव्यलिंगी हैं अत: वहाँ जाकर हमने नमोऽस्तु नहीं किया। मात्र उनकी चर्या-क्रिया देखी। फिर एक दिन आचार्य विद्यासागर जी से कुछ शंका-समाधान किया। उनकी चर्चाओं एवं आगम के प्रमाण पाकर मेरी भ्रांतियाँ दूर हो गयीं एवं उनकी चर्या-क्रिया आगमोक्त देखकर श्रद्धा पैदा हो गई और हमने उनके चरणों में अपना समर्पण कर दिया और उनके चरणों का गंधोदक अपने सिर पर लगाकर धन्य-धन्य महसूस किया। एक दिन हमने आचार्यश्री के चरणों में निवेदन किया कि मैं भी गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज की वैयावृत्य करना चाहता हूँ। तो आचार्यश्री बोले-आप दिन में २ बजे आ-जाना और मुझे सूत्र दिया अरिहंत सिद्ध साधु रटना यही लगाऊँ। मैं ध्यान धरूँ तेरा कर्म कटे मेरा ॥ और बीच-बीच में सावधान हो' बोलते रहना। मैं दोपहर में जाता और पास में बैठकर यही दोहराता रहता। तब से मैंने कानजी मत के शास्त्रों को पढ़ना बंद कर दिया और आचार्य श्री विद्यासागर जी को अपना गुरु बनाकर उनकी शरण को ग्रहण कर लिया। इसी प्रकार एक विदेशी फोटोग्राफर भी आपद्वय की तपस्या के बारे में सुनकर खिंचा चला आया। इसके सम्बन्ध में दांता निवासी कलकत्ता प्रवासी श्री कल्याणमल जी झांझरी ने कुछ संस्मरण लिखकर भेजे । उसमें से एक आपको बता रहा हूँ- “मई माह में परिवार वालों के साथ मैं नसीराबाद गुरु महाराज के दर्शन करने पहुँचा। दर्शनकर उनके चरणों के पास बैठ गया। पिताजी का नाम राजमल जी झांझरी जैसे ही बताया, सुनकर गुरु महाराज ने आँख खोली फिर बंद कर ली। कुछ चर्चायें चलीं। हम युवाओं को देखकर आचार्यश्री जी ने चर्चा का विषय बदल दिया। उन्होंने बताया-‘एक फोटोग्राफर स्विट्जरलैण्ड से आया था, उसने ३ दिन रहकर भिन्न-भिन्न चर्याओं की फोटो लीं और एक-एक क्रिया के विषय में वह जिज्ञासा करता था। जैसे कि कायोत्सर्ग के समय पैरों के बीच में ११ अंगुल और ४ अंगुल का गैप क्यों रखते हैं? ऐसे कई तरह के प्रश्न वह पूछता था। उसकी जैनधर्म को समझने की जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही थी। जैन साधुओं की तपस्या देखकर वह अत्यन्त प्रभावित हुआ था, किन्तु भारत के पढ़े-लिखे युवाओं में ऐसी जिज्ञासा नहीं होती। इस प्रकार की धर्म की जिज्ञासा यदि हृदय में हो जाये तो कल्याण ही हो जाये।' इस तरह हम लोग प्रथम दर्शन मुलाकात में आचार्यश्री विद्यासागर जी से बहुत अधिक प्रभावित हुए और मन में ठान लिया कि आचार्य महाराज के दर्शन करने हर वर्ष आया करेंगे।" इस प्रकार हे गुरुवर! जैसे रत्नों की चमक छिपाये नहीं छिपती है, इसी प्रकार आत्मा में रत्नत्रय प्रकट होने के बाद उनकी चमक छिपी नहीं रह सकती। आपद्वय गुरु-शिष्यों के आत्मानुभूति प्रकाश में भव्यात्मारूपी भौंरे खिचे चले आते थे और आपके ज्ञानरूपी दीपक से अपना दीपक जलाते थे। ये बात अलग है कि किसने किस रूप में प्रकाश पाया। उसमें से एक मैं भी हूँ जो आपके चरणों में भावना भाता हूँ। कि मैं भी उस स्वानुभूतिरूप ज्ञान प्रकाश को पाऊँ और एक दिन सम्पूर्ण आत्मतत्त्व का ज्ञाता-दृष्टा बन उसका भोक्ता बनूं... आपका शिष्यानुशिष्य
  5. पत्र क्रमांक-१९० २७-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर स्व-पर हितैषी दादागुरु ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में त्रिकाल वंदन करता हूँ... हे गुरुवर ! जिस तरह आप शुद्धोपयोग और शुभोपयोगमयी झूले में झुलते रहते थे। इसी प्रकार मेरे गुरुवर आपको देख-देख न केवल अंतरंग यात्रा करते अपितु अपने आवश्यकों के बाद जो समय होता तो समाज को प्रदान करते २८ मूलगुणात्मक चर्या के साथ-साथ ३६ मूलगुणात्मक चर्या जो आपने सौंपी, उसका वे सूक्ष्मता के साथ निर्वाह करते थे। यह तो आपने भी देख समझ लिया था। एक तरफ तो वे आपकी सेवा का कर्तव्य कर रहे थे। दूसरी तरफ अपनी चर्या का पालन कर आगम की आज्ञा को धारण कर रहे थे। इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने बताया “नसीराबाद में जनवरी माह में दीक्षोपरान्त अठारहवाँ केशलोंच किया और फिर अप्रैल माह में दीक्षोपरान्त उन्नीसवाँ केशलोंच भी किया। जिनको नसीराबाद की जैन-अजैन समाज ने देखकर अपने भावों को निर्मल बनाया। अत्यधिक धर्म प्रभावना हुयी। समाज के निवेदन पर आचार्य श्री जी ने महावीर जयंती महोत्सव के लिए अपना आशीर्वाद एवं सान्निध्य देकर धर्म प्रभावना में सहयोग प्रदान किया।'' इस सम्बन्ध में इंदरचंद जी पाटनी (अजमेर) ने ‘जैन गजट' १९ अप्रैल ७३ की एक कटिंग दी। जिसमें ताराचंद सेठी मंत्री का समाचार इस प्रकार प्रकाशित हुआ ‘नसीराबाद-१५-०४-७३ रविवार को श्री महावीर जयंती महोत्सव मनाया गया। प्रातः प्रभातफेरी व मध्याह्न में रथयात्रा निकली। मध्याह्न में ही सदर बाजार में सभा हुई, जिसमें श्री पं. चंपालाल जी के द्वारा मंगलाचरण के बाद श्री भंवरलाल जी ऐरन व श्री ओमप्रकाश जी मंगल का भाषण हुआ। पश्चात् श्री क्षुल्लक स्वरूपानंद जी ने भगवान महावीर के जीवन पर प्रकाश डाला। आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज ने जैनधर्म को विश्वधर्म बताते हुए कहा कि जो भी प्राणी इस धर्म को धारण करता है, वह सच्चे सुख को प्राप्त करता है।" इस तरह आपके प्रिय आचार्य हर समय धर्मध्यान में लगे रहे। ऐसे साधकों के चरणों में त्रिकाल वंदन करता हूँ... आपका शिष्यानुशिष्य
  6. पत्र क्रमांक-१८९ २६-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर विलक्षण सहजानंद रसिक दादागुरु क्षपकराज श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में कोटि-कोटि नमन करता हूँ... हे गुरुवर! आप अपनी आत्मसाधना में लीन होने के बावजूद भी अपने दीक्षा गुरु के उपकारों को नहीं भूले और प्रतिवर्ष की भाँति इस वर्ष भी उनकी पुण्यतिथि पर आपने समाज के द्वारा आयोजित महोत्सव में अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। इस सम्बन्ध में कैलाशचंद जी पाटनी अजमेर ने 'जैन गजट' की कटिंग दी, जिसमें ८ मार्च १९७३ को समाचार प्रकाशित हुआ- पुण्यतिथि ‘नसीराबाद-फागुन वदी अमावस (४ मार्च) रविवार को स्वर्गीय आचार्य श्री १०८ शिवसागर जी महाराज की पुण्यतिथि आचार्य श्री १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज के ससंघ सान्निध्य में मनायी गई। सर्वप्रथम पं. श्री चंपालाल जी ने मंगलाचरण पूर्वक स्वर्गीय आचार्यश्री के चरणों में श्रद्धांजलि अर्पित की। अनंतर ब्र. चिरंजीलाल जी के बाद पूज्य क्षुल्लक १०५ श्री स्वरूपानंदसागर जी ने स्व. आचार्य श्री के जीवन पर प्रकाश डालते हुए श्रद्धांजलि अर्पित की। वयोवृद्ध ज्ञानमूर्ति पूज्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज ने कहा कि स्वर्गीय आचार्य श्री ने मुझको अज्ञान व अंधकार से हटाकर ज्ञानरूपी प्रकाश के मार्ग में आरूढ़ किया। अन्त में आचार्य श्री १०८ श्री विद्यासागर जी ने स्व. आचार्यश्री के जीवन पर प्रकाश डाला।' इस तरह आप अन्तरंग साधना के साथ-साथ बहिरंग धर्म प्रभावना के साधनों को भी अन्तिम समय तक अपनाते रहे । सल्लेखना साधना से क्षीणकाय होने के बावजूद भी आप अपने २८ मूलगुणात्मक चर्या का यथासमय पालन करते रहे। आपका अन्तिम केशलोंच नसीराबाद में हुआ। इस सम्बन्धी समाचार ‘जैन गजट' में २९ मार्च ७३ को ताराचंद जी सेठी मंत्री ने प्रकाशित कराये- क्षपकगुरु का केशलोंच समारोह ‘‘नसीराबाद-दिनांक २३-०३-७३ शुक्रवार शुभमिति चैत्र कृष्णा ४ को प्रात:काल वयोवृद्ध बाल ब्रह्मचारी परमपूज्य मुनि श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज का केशलोंच भारी जन समुदाय के मध्य में हुआ। आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी का संघ अभी यहीं पर ही विराजमान रहेगा। दर्शनार्थी दर्शन करके पुण्यलाभ लेवें।' इस तरह आप अपनी चारित्रशुद्धि चर्या में निरत रहते और उपयोगशुद्धि की तो बात ही निराली है। आपके उपयोग में अन्तिम समय तक आगमयुक्त चिंतन-मनन चलता रहा। इस सम्बन्ध में भी कुछ संस्मरण आपको बताना चाहता हूँ। नसीराबाद के शान्तिलाल जी पाटनी ने बताया सबसे बड़ी निधि : अमृतवचन “जब गुरुदेव समाधि साधना में लीन थे तब मार्च से मई तक प्रतिदिन सुबह एक लाईन का समाज के नाम सन्देश देते थे। मैं उस संदेश को बाहर श्यामपट्ट पर लिख देता था। उस संदेश को पढ़ने के लिए सारी समाज आती थी और उससे प्रेरणा पाती थी। मैं प्रतिदिन आचार्य श्री विद्यासागर जी को पहले वह संदेश दिखाता था। तब विद्यासागर जी कहते थे- ‘गुरुदेव कितने ज्ञानी हैं और जो उन्होंने पढ़ा है, उसका अनुभव करके अमृतवचन दे रहे हैं, ये सबसे बड़ी निधि है।” इसी प्रकार दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने भीलवाड़ा में बताया- जिससे शिक्षा मिले वह पठनीय है “एक दिन क्षपक गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज के पास क्षुल्लक स्वरूपानंदसागर बैठे थे तब गुरुदेव ने कहा- 'श्रीपाल-मैनासुन्दरी का वर्णन मूल पुराण शास्त्रों में कही नहीं आया है। आदिपुराण, उत्तरपुराण, हरिवंशपुराण, पद्मपुराण उठाकर देख लो।' तब क्षुल्लकजी ने पूछा-गुरुदेव! तब यह कहानी प्रामाणिक है या नहीं। तो गुरुदेव बोले- ‘शोध का विषय है, कथा से शिक्षा तो मिलती है और सिद्धान्त से बाधा भी नहीं आती, अतः पठनीय है।' कषाय का अभाव अपने समय पर होता है महावीर जयंती के बाद एक दिन क्षुल्लक स्वरूपानंदसागर ने क्षपकराज श्री ज्ञानसागर जी महाराज से पूछा- चक्रवर्ती भरत जी को मुनिदीक्षा लेते ही केवलज्ञान हो गया और कामदेव बाहुबली मुनिराज जी को मुनिदीक्षा के १ वर्ष बाद केवलज्ञान हुआ तथा तीर्थंकर मुनिराज श्री ऋषभदेव जी को केवलज्ञान प्राप्त करने में १०00 वर्ष लग गए ऐसा क्यों? तब आगमज्ञाता चिंतनशील गुरुदेव बोले- 'देखो, उनका १००० वर्ष संयम अवस्था में ही तो बीता, उनके कर्मों की स्थिति वैसी ही थी। हम अपनी कषाय को तो मन्द कर सकते हैं लेकिन कषाय का अभाव तो अपने समय पर ही होता है। इसमें क्या-क्यों आदि प्रश्न नहीं चलते । परिणामों की विचित्रता है।'' दिगम्बर जैनाचार्य श्री १०८ श्री ज्ञानसागर जी महाराज का संदेश महावीर जयंती के पहले कुछ अजैन प्रबुद्ध लोग गुरुदेव के दर्शन करने आये थे और उन्होंने जैन और हिन्दू धर्म की एकता की बात कही। तब गुरु महाराज ने बहुत सुन्दर अकाट्य चिंतन प्रस्तुत किया, जिसको नसीराबाद के एक विद्वान् नोट कर रहे थे, बाद में वह चिंतन प्रकाशित हुआ था। वह लेख मुनि श्री अभयसागर जी महाराज को प्राप्त हुआ, जो अभी उन्होंने हमें प्रेषित किया- ‘‘हिंसनं मारणं विनाशनं हिंसा, ताम् दूषयति निराकरोति स हिन्दुः''- इस निरुक्ति के अनुसार जैन लोग भी हिन्दू हैं क्योंकि जैन लोग हिंसा का दृढ़ता से निषेध करते हैं एवं जैन शब्द का अर्थ है “जयति विश्वसनीयो भवति स जिनः, जिन एव जैनः।'' इस तरह जैन शब्द भी हिन्दू के समकक्ष हो जाता है। क्योंकि प्रत्येक प्राणी जिसको अपना विराधक न जानकर समर्थक जानता है, उसी पर विश्वास करता है। इस तरह ‘हिन्दू, जैन और अहिंसक' ये तीनों शब्द एकार्थक ठहरते हैं और इस प्रकार हिन्दुता प्राणी मात्र के लिए आदरणीय हो जाती है, क्योंकि प्रत्येक प्राणी औरों का न सही किन्तु अपने आप का तो विराधन न चाहकर संरक्षण ही चाहता है, जो कि अन्य के संरक्षण के बिना कभी सम्भव नहीं है। अपना संरक्षण चाहकर भी अन्य का विराधन चाहने में अपने से अतिरिक्त अन्य जो अनेक हैं वह विरोधी होने से स्वयं जीवित कैसे रह सकता है? एवं अपने जीवन के लिए ही दूसरों को जीवित चाहना प्रत्येक प्राणी का कर्तव्य हो जाता है। तथा- अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ इस प्रसिद्ध कहावत के अनुसार सबको पारस्परिक प्रेमपूर्वक एकता को प्रोत्साहन देना परमावश्यक हो जाता है अन्यथा किसी का भी किसी तरह निर्वाह नहीं हो सकता। हाँ, जो ‘वेदों को माने वह हिन्दू' इस प्रकार अर्थ लिया जाता है तो जैन लोग हिन्दू से पृथक् हो रहते हैं क्योंकि वर्तमान में वेदमंत्रों का जो अर्थ किया जा रहा है वह अर्थ जैनों को इष्ट नहीं है। फिर भी व्यावहारिक रहन-सहन और सभ्यता में जैन लोग हिन्दुओं के साथ और अहिंसा को प्रधानता देते हैं। जो अहिंसा पारस्परिक प्रेम के बिना कभी सम्भवनीय नहीं है एवं जैन धर्म सबको परस्पर प्रेमपूर्वक एक दूसरे के दुःख में दुखी और सुख में सुखी होकर रहना सिखलाता है जो कि मनुष्य मात्र के लिए परमावश्यक है। मैं चाहता हूँ कि प्रत्येक मनुष्य अहिंसक भावना के साथ सच्चा हिन्दू बने । इति शुभं भूयात् ।। इस तरह आप जब अकेले होते तो शुद्धोपयोग में विचरण करते और जब बाहर आते और कोई भव्यात्मा जिज्ञासा रखता तो शुभोपयोगमय परिणति करते। आपकी इन्हीं सब विशेषताओं के बारे में आपके भक्तों ने मुझे बताया। भगवान महावीर के दर्शन में श्रमण की यही दो भूमिकाएँ बतायी गईं हैं। ऐसे श्रमणों के चरणारविन्दों का चंचरीक सदा नतमस्तक होता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  7. पत्र क्रमांक-१८८ २५-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर अन्तश्चेतना संवादी दादा गुरुवर के श्रीचरणों में नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु... हे गुरुवर! आपके लाड़ले शिष्य बनते ही मेरे गुरुवर आपकी छाया बनके सदा रहे किन्तु जब आपने अपना निर्यापकाचार्य उन्हें बनाया तब वे सदा आपके साथ रहकर आपकी श्वासों पर सदा पहरा देते थे। आपका थोड़ा-सा भी संकेत पाकर आपकी सेवा में लग जाते थे। इस सम्बन्ध में दिल्ली के सुरेश जी जैन ने भीलवाड़ा में बताया- खेदभाव और समर्पणभाव का मिश्रितरूप “फरवरी १९७३ में, मैं परिवार सहित क्षपकराज मुनि श्री ज्ञानसागर जी महाराज के दर्शन करने नसीराबाद गया था। तब मैंने देखा कि गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज बहुत कम आँख उठाकर देखते थे। वे सदा अपनी आत्मा में विचरते रहते थे और आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज उनकी सेवा में हरपल तत्पर रहते थे। गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज थोड़ा भी हिलते तो आचार्य श्री उनके शरीर को सहलाने लगते थे और उनकी पीड़ा को दूर करने के लिए वे सुबह-दोपहर-शाम तेल लगाकर वैयावृत्य करते थे। ये कार्य आचार्यश्री स्वयं करते थे किसी से कराते नहीं थे। एक दिन मैं गुरुदेव के चरणों के पास बैठा था तब क्षपक मुनिराज गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज बोले- ‘आचार्य महाराज मेरे कारण आपकी सामयिक भी भले प्रकार नहीं हो पाती है, उसमें बाधा आ जाती है।' तब आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज बड़े ही समर्पण भाव से बोले- ‘नहीं महाराज! ऐसा न सोचें, मेरी सामयिक तो आपकी चरण सेवा में ही है। आचार्य महाराज का अपने गुरु के प्रति श्रद्धा-विनय-समर्पण सेवा देख मेरी आँखें भर आयीं। आज तक वह दृश्य ज्यों का त्यों याद है।' इस प्रकार मेरे गुरुदेव भले ही आपके गुरु बन गए हों किन्तु वे अपने आपको शिष्य मानकर पूर्ण समर्पित भाव से अपने गुरुदेव की सेवा-सुश्रुषा में दत्तचित्त थे। उनके समर्पण भाव के लिए मैं कोई नजीर या उदाहरण प्रस्तुत नहीं करना चाहता अपितु जैसा किया है, वैसा ही प्रस्तुत करने के लिए एक और संस्मरण आपको बता रहा हूँ। जो मुझे १५-१०-२०१५ भीलवाड़ा में नसीराबाद के ताराचंद जी सेठी सेवानिवृत्त आयकर अधिकारी ने सुनाया- गुरु के अनुकूल गुरु “१३-०२-१९७३ को अजमेर से श्री सेठ सर भागचंद जी सा. सोनी के नेतृत्व में संघ सेवा में अजमेर पधारने के लिए निवेदन करने हेतु भक्तगण नसीराबाद आये थे। तब आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की मंशा नसीराबाद से विहार करने की हो गई थी किन्तु उन्होंने कहा- ‘गुरु महाराज से चर्चा करूंगा' और फिर आचार्य श्री ने सल्लेखनाधारी ज्ञानसागर जी महाराज से कहा- 'अजमेर विहार किया जाये तो अच्छा रहेगा। तब गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने बड़ी विनम्रता के साथ निवेदन किया- ‘महाराज! मेरी अवस्था अब चलने लायक नहीं है और समाधि के लिए यहाँ पर सर्व अनुकूलता है। अतः मेरी समाधि यहीं पर करा दीजिए, आपकी बड़ी कृपा होगी।' तब आचार्य श्री विद्यासागर जी बोले- ‘जैसी आपकी अनुकूलता होगी वैसा ही होगा।' फिर आचार्य श्री ने नसीराबाद में ही सल्लेखनासमाधि करायी।' इस तरह मेरे गुरुदेव आपके प्रति पूर्णतः समर्पित थे।ऐसे समर्पण भाव को प्रणाम करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  8. आचार्य गुरुदेव के सानिध्य में पूज्य आर्यिका प्रशांतमति माता जी ससंघ का भव्य पिच्छिका परिवर्तन समारोह दिनांक - 14 नवम्बर 2018 स्थान - खरगापुर म. प्र.
  9. परम पूज्य आचार्य श्री संत शिरोमणि विधासागर जी महाराज श्री के परम प्रभावक शिष्य परम पूज्य मुनि श्री 108 प्रशांतसागर जी परम पूज्य मुनि श्री 108 निर्वेगसागर जी परम पूज्य मुनि श्री 108 विशद सागर जी पुज्य क्षुल्लक* 105 श्री देवानंद सागर जी का मंगल विहार ग्राम मैना के लिए चातुर्मास उपरान्त आज दोपहर 2:45 बजे होने जा रहा है। रात्रि विश्राम ग्राम पटारिया में होगा । कृपया अधिक से अधिक संख्या में पधार कर धर्म लाभ लेंवे। निवेदक श्री दिगम्बर जैन पंचायत समिति श्री दिगम्बर जैन मुनि सेवा समिति आष्टा विहार दिशा शुजालपुर संभावित
  10. until
    पंचकल्याणक महोत्सव ललितपुर
  11. until
    *ऐतिहासिक पंचकल्याणक महोत्सव 2018* भाग्योदय तीर्थ सागर (मध्यप्रदेश) 8 से 14 दिसंबर 2018* *आशीर्वाद* *सर्वश्रेष्ठ साधक आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज* *सानिध्य* ज्येष्ठ मुनि श्री योग सागर जी, मुनि श्री पवित्र सागर जी, मुनि श्री अभय सागर जी, मुनि श्री प्रयोग सागर जी, मुनि श्री प्रभात सागर जी, मुनि श्री संभव सागर जी, मुनि श्री पूज्य सागर जी, मुनि श्री विमल सागर जी , मुनि श्री अनंत सागर जी, मुनि श्री धर्म सागर जी , मुनि श्री शैल सागर जी, मुनि श्री अचल सागर जी , मुनि श्री अतुल सागर जी , मुनि श्री भाव सागर जी , मुनि श्री निरीह सागर जी, मुनि श्री निस्सीम सागर जी , मुनि श्री शाश्वत सागर जी एवं आर्यिका श्री ऋजुमति माता जी (11माताजी) आर्यिका श्री गुण मति माताजी (4माताजी) आर्यिका श्री अनंत मति माताजी (22माताजी) आर्यिका श्री उप शांत मति माताजी( 4माताजी) आर्यिका श्री अकम्प मति माताजी (8माताजी)। कुल 17मुनिराज एवं 49 माताजी का सानिध्य प्राप्त होगा
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