पत्र क्रमांक-१८८
२५-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
अन्तश्चेतना संवादी दादा गुरुवर के श्रीचरणों में नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु... हे गुरुवर! आपके लाड़ले शिष्य बनते ही मेरे गुरुवर आपकी छाया बनके सदा रहे किन्तु जब आपने अपना निर्यापकाचार्य उन्हें बनाया तब वे सदा आपके साथ रहकर आपकी श्वासों पर सदा पहरा देते थे। आपका थोड़ा-सा भी संकेत पाकर आपकी सेवा में लग जाते थे। इस सम्बन्ध में दिल्ली के सुरेश जी जैन ने भीलवाड़ा में बताया-
खेदभाव और समर्पणभाव का मिश्रितरूप
“फरवरी १९७३ में, मैं परिवार सहित क्षपकराज मुनि श्री ज्ञानसागर जी महाराज के दर्शन करने नसीराबाद गया था। तब मैंने देखा कि गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज बहुत कम आँख उठाकर देखते थे। वे सदा अपनी आत्मा में विचरते रहते थे और आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज उनकी सेवा में हरपल तत्पर रहते थे। गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज थोड़ा भी हिलते तो आचार्य श्री उनके शरीर को सहलाने लगते थे और उनकी पीड़ा को दूर करने के लिए वे सुबह-दोपहर-शाम तेल लगाकर वैयावृत्य करते थे। ये कार्य आचार्यश्री स्वयं करते थे किसी से कराते नहीं थे। एक दिन मैं गुरुदेव के चरणों के पास बैठा था तब क्षपक मुनिराज गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज बोले- ‘आचार्य महाराज मेरे कारण आपकी सामयिक भी भले प्रकार नहीं हो पाती है, उसमें बाधा आ जाती है।' तब आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज बड़े ही समर्पण भाव से बोले- ‘नहीं महाराज! ऐसा न सोचें, मेरी सामयिक तो आपकी चरण सेवा में ही है। आचार्य महाराज का अपने गुरु के प्रति श्रद्धा-विनय-समर्पण सेवा देख मेरी आँखें भर आयीं। आज तक वह दृश्य ज्यों का त्यों याद है।'
इस प्रकार मेरे गुरुदेव भले ही आपके गुरु बन गए हों किन्तु वे अपने आपको शिष्य मानकर पूर्ण समर्पित भाव से अपने गुरुदेव की सेवा-सुश्रुषा में दत्तचित्त थे। उनके समर्पण भाव के लिए मैं कोई नजीर या उदाहरण प्रस्तुत नहीं करना चाहता अपितु जैसा किया है, वैसा ही प्रस्तुत करने के लिए एक और संस्मरण आपको बता रहा हूँ। जो मुझे १५-१०-२०१५ भीलवाड़ा में नसीराबाद के ताराचंद जी सेठी सेवानिवृत्त आयकर अधिकारी ने सुनाया-
गुरु के अनुकूल गुरु
“१३-०२-१९७३ को अजमेर से श्री सेठ सर भागचंद जी सा. सोनी के नेतृत्व में संघ सेवा में अजमेर पधारने के लिए निवेदन करने हेतु भक्तगण नसीराबाद आये थे। तब आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की मंशा नसीराबाद से विहार करने की हो गई थी किन्तु उन्होंने कहा- ‘गुरु महाराज से चर्चा करूंगा' और फिर आचार्य श्री ने सल्लेखनाधारी ज्ञानसागर जी महाराज से कहा- 'अजमेर विहार किया जाये तो अच्छा रहेगा। तब गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने बड़ी विनम्रता के साथ निवेदन किया- ‘महाराज! मेरी अवस्था अब चलने लायक नहीं है और समाधि के लिए यहाँ पर सर्व अनुकूलता है। अतः मेरी समाधि यहीं पर करा दीजिए, आपकी बड़ी कृपा होगी।' तब आचार्य श्री विद्यासागर जी बोले- ‘जैसी आपकी अनुकूलता होगी वैसा ही होगा।' फिर आचार्य श्री ने नसीराबाद में ही सल्लेखनासमाधि करायी।'
इस तरह मेरे गुरुदेव आपके प्रति पूर्णतः समर्पित थे।ऐसे समर्पण भाव को प्रणाम करता हुआ...
आपका शिष्यानुशिष्य