पत्र क्रमांक-१९२
३०-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
मृत्यु को चुनौती देने वाले मृत्युंजयी दादागुरुवर परमपूज्य क्षपकराज श्री ज्ञानसागर जी महामुनिराज के चरणों की भाव वंदना करता हूँ...।
हे गुरुवर! आपकी वैयावृत्य करने मुनि श्री पार्श्वसागर जी महाराज पधारे थे और एक माह से ऊपर आपकी वैयावृत्य भी की थी। कहते हैं कि सेवा करने से मेवा मिलता है। ये मात्र शब्द ही नहीं हैं। अपितु इसमें सत्यता है मुनि श्री पार्श्वसागर जी महाराज आपकी सेवा करने आये और उन्हें समाधिरूप मेवा मिल गया अर्थात् आप से पहले उनकी समाधि हो गयी। संसारी अज्ञानी प्राणी इसका विपरीत अर्थ ग्रहण कर सकता है किन्तु मौत तो एक नग्न सत्य है जो जीवन के साथ जुड़ी है और फिर साधु तो मृत्यु से डरता नहीं है, वह तो वीरता के साथ उसका सामना करता है। उसका तो लक्ष्य होता है समाधिमरण । यदि मृत्यु उपस्थित हो गई तो वह सहर्ष-होश, उत्साहपूर्वक उसका स्वागत करता है गले लगाता है। समाधिमरण साधु के लिए एकमेवा ही है। इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने बताया-
निर्यापकाचार्य बने पुनः निर्यापकाचार्य
मुनि श्री पार्श्वसागर जी महाराज की उम्र लगभग ६५ वर्ष थी और मुनित्व की साधना में लीन थे गुरु महाराज की वैयावृत्य करने हेतु आप अपने गुरु मुनि श्री पद्मसागर जी महाराज से अनुमति लेकर और निर्यापकाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से आज्ञा लेकर रुक गए थे और कुछ ही दिनों में संघ के समस्त क्रिया-कलापों में ऐसे घुल-मिल गए थे कि मानों संघस्थ साधक हों। वे सरल स्वभावी दक्षिणभारतीय मुनि महाराज थे। १५ मई को आहार के बाद उनका स्वास्थ्य खराब हुआ और पेट में काफी दर्द होने लगा। तब आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज तत्काल उनके पास पहुँच गए। स्थिति को देखकर उन्होंने स्थानीय वैद्य को दिखाया उनसे विचार-विमर्श किया और आवश्यक बाह्य उपचार किया और स्थिति गम्भीर होती गई। तब पार्श्वसागर जी महाराज से निर्यापकाचार्य विद्यासागर जी महाराज बोले-‘चिकित्सक कह रहे हैं, आपके पेट की चिकित्सा हो जायेगी तो आप बच जायेंगे उसके बाद पुनः आपको दीक्षा दे देंगे।' तब पार्श्वसागर जी महाराज बोले-‘मेरी उम्र अब कितनी बची है आयु का कोई भरोसा नहीं है अतः आप मेरी समाधि करा दीजिए।' तब आचार्य महाराज ने उन्हें आत्मसम्बोधन दिया। रात में उनको गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के कक्ष में ही रखा और रातभर आचार्यश्री उनकी सेवा करते रहे। १६ मई को प्रातः उनको दूसरे कक्ष में ले जाया गया। आचार्य महाराज जंगल जाकर लौटकर आये तो उनकी स्थिति को नाजुक देखा, तब उनका आहार-पानी सब कुछ त्याग करा दिया और उनके कान में णमोकार मंत्र, ॐ नमः सिद्धेभ्यः सुनाते रहे, बीच-बीच में आत्मसम्बोधन भी करते जा रहे थे। परिणामों को निर्मल बनाने के लिए आत्मस्वरूप का भान कराते रहे, यह सब सुनते ही सुनते मुनि श्री पार्श्वसागर जी महाराज की समाधि हो गयी। जो वैकुण्ठी गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के लिए तैयार की गयी थी वह वैकुण्ठी मुनि श्री पार्श्वसागर जी महाराज के पार्थिव शरीर की शोभायात्रा में काम आ गयी। आचार्य महाराज के निर्देशन पर समाज ने अन्तिम संस्कार कर दिया।' इस सम्बन्ध में जैन गजट' में २४ मई १९७३ को समाचार प्रकाशित हुआ-
मुनि श्री १०८ श्री पार्श्वसागर जी का देहावसान
‘‘दिनांक १६ मई ७३ बुधवार को प्रातः मुनि श्री पार्श्वसागर जी महाराज का ७ बजकर २५ मिनिट पर समाधिमरण हो गया। नसीराबाद में पधारे आपको सिर्फ सवा महीना ही हुआ था, परन्तु अल्पकाल में ही आपने समस्त धर्मप्रेमियों को अपनी ओर आकर्षित किया था। लाडनूं में चातुर्मास सम्पन्न कर किशनगढ़ होते हुए आप नसीराबाद पधारे थे। वे वयोवृद्ध श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज की वैयावृत्ति करना चाहते थे। १५ मई ७३ को मध्याह्न ३ बजे अचानक अस्वस्थ होने के बाद उनकी हालत निरंतर गम्भीर होती गयी। अन्तिम समय उनके श्रीमुख से अरिहंत-सिद्ध, ॐ नमः सिद्धेभ्यः, णमो अरिहंताणं आदि शब्दों का ही उच्चारण होता रहा। अन्तिम क्षणों में आत्मिक तेज से आपका मुखमण्डल प्रदीप्त था। । हजारों धर्म श्रद्धालुओं की उपस्थिति में बैण्ड बाजे के साथ अन्तिम यात्रा निकली। पार्थिव शरीर को शास्त्रीय विधियों और मंत्रोच्चारण के साथ ढाई बजे अग्नि को समर्पित कर दिया। रात्रि को एक सभा क्षुल्लक १०५ श्री स्वरूपानंदसागर जी की अध्यक्षता में हुई। जिसमें पं. चम्पालाल जी, हरिशंकर जी वकील, श्री भंवरलाल जी ऐरन व श्री माणकचंद जी जैन ने इस संसार की असारता का बोध कराते हुए त्याग व तपस्या का जीवन अंगीकार करने का आह्वान किया।"
इस तरह शरणागत श्रमण की मृत्यु ने आकस्मिक घण्टी बजायी, तो आपके प्रिय आचार्य मेरे गुरुदेव ने उनके परिणामों को सम्भाला आत्म सम्बोधन किया और मंत्रोच्चार पूर्वक प्राणों का विसर्जन करा दिया। भव्यात्मा अपनी नियत यात्रा पर चली गयी। ऐसे साहसी वीर पण्डितमरण को धारण करने वाले भव्यात्मा के चरणों की वंदना करता हुआ...
आपका शिष्यानुशिष्य