पत्र क्रमांक-१९१
२८-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
चलते-फिरते तीर्थ दादागुरु परमपूज्य ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु... हे गुरुवर! जब आप शनैः शनैः समाधि-साधना के कई सोपानों पर चढ़ चुके थे और आत्मा के कर्ता-भोक्ता स्वभाव के अनुसार आप अपने ही आत्मपरिणामों के कर्ता-भोक्ता स्वरूप में लीन रहते थे। तब आपने मई माह में खाद्य पदार्थों का भी त्याग कर दिया था। इस सम्बन्ध में जैन गजट' २४ मई १९७३ को समाचार प्रकाशित हुआ-
छपते-छपते
नसीराबाद-वयोवृद्ध चारित्र विभूषण ज्ञानमूर्ति परमपूज्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज ने २० मई ७३ से समस्त खाद्य पदार्थों का त्याग कर सल्लेखना की ओर लक्ष्य निर्धारित किया है। आप आहार में केवल अत्यल्प पेय पदार्थ लेते हैं। कृशकाय महाराजश्री का स्वास्थ्य काफी गिर गया है। परमपूज्य श्री १०८ विद्यासागर जी तथा संघस्थ त्यागी-व्रती वैयावृत्ति में दत्तचित्त हैं।''
आपके उपरोक्त समाचारों को सुनकर दूर-दूर से भक्तों-जिज्ञासुओं का आना जारी रहा और निर्यापकाचार्य के द्वारा की जा रही सेवा की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते, इस सम्बन्ध में नसीराबाद के रतनलाल पाटनी ने अक्टूबर २०१५ भीलवाड़ा में मुझे दो संस्मरण सुनाये-
आचार्यश्री की आदर्श सेवा : मिसाल बन गयी
‘‘गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज की समाधि के समाचार सुन-सुनकर उनके दर्शन के लिए मुनिसंघ, क्षुल्लक आदि त्यागी-व्रती और गृहस्थजन भी खूब आते थे। सभी साधु विद्वान् आचार्य श्री विद्यासागर जी के द्वारा की जा रही सेवा-शुश्रुषा और साधना देखकर बड़ी ही प्रशंसा करते थे। सभी ने एक मुख्य बात पकड़ी वह यह कि चौबीसों घण्टे सेवा में लगे रहने के बावजूद भी विद्यासागर जी को किसी ने सोते हुए नहीं देखा । तो वे सभी यही कहते थे कि आचार्यश्री जी तो रात्रि में भी कितना कम सो पाते हैं फिर भी सेवा के दौरान ऊँघते तक नहीं हैं। उनके उत्साह के कारण उन्हें उबासी भी नहीं आती। ऐसी प्रशंसा सुन-सुनकर हम सब युवाओं को बड़ा अच्छा लगता और हम लोग भी पूरी तरह से समाधि में सहयोग करने के लिए लगे रहते और आपस में यही चर्चा करते-ये है निस्वार्थ सेवा । ऐसी सेवा से ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है।
आचार्यश्री की हुईं आँखें लाल
‘‘मई के अन्तिम सप्ताह की बात है आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज को ३-४ दिन से रात में बिल्कुल न सो पाने के कारण और भीषण गर्मी के कारण उन्हें तेज बुखार हो गया था। तब उन्हें समाज के बड़े लोग एवं हम युवा लोग समझाते थे, कि महाराज आप थोड़ा विश्राम करें, किन्तु वे कुछ नहीं कहते और मुस्कुरा देते, किन्तु चौबीस घण्टे गुरु महाराज की सेवा में लगे रहते । मैं भी हरदम साथ में लगा रहता था। तो मुझे रात में सोने के लिए इशारा कर देते थे। स्वयं रात-भर जागते थे। इस कारण उनकी आँखों में खून उतर आया। ऐसी स्थिति को देखते हुए कजोड़ीमल जी अजमेरा मुझसे बोले-बाबूसा, आचार्य महाराज को ऊपर कमरे में ले जाओ, अगर ये बीमार पड़ गया तो ‘आपणो कांई होसी।' ज्ञानसागर जी गुरुमहाराज की समाधि कोण करासी। तब मैं कमण्डल उठा के आचार्य महाराज का हाथ पकड़ के नसियाँ जी में ऊपर ले गया और द्रव्य धोने के कमरे में पाटा लगाकर बैठा दिया और बाहर से दरवाजा बंद कर दिया। तब आचार्य महाराज बोले- ‘रतन, ऐसा नहीं करते' बड़ी ही मुश्किल से उन्होंने घण्टे-दो घण्टे विश्राम किया और पुनः गुरु महाराज के पास आ गए।''
इसी प्रकार नसीराबाद के इन्द्रचंद जी पाटनी ने भी २०१५ भीलवाड़ा में बताया-
सजग प्रहरी : आचार्य श्री विद्यासागर
“जब गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने नियम सल्लेखना व्रत धारण कर लिया और अपना निर्यापकाचार्य अपने प्रिय आचार्य श्री विद्यासागर जी को बना लिया तब से आचार्य श्री विद्यासागर जी एक सजग प्रहरी की तरह अपने गुरु की सेवा करते थे। आहार में क्या चलाना, क्या नहीं, इसके बारे में वैद्यों से चर्चा करके और गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज की प्रकृति के अनुकूल उनके नियमों का ध्यान रखते हुए परिचारक श्रावकों को बताते थे। संघस्थ क्षुल्लक स्वरूपानंद जी एवं ऐलक सन्मतिसागर जी को कार्य बता दिया था किसको-क्या-कब-करना है एवं कुछ युवाओं को भी निर्देश दिए थे कि दर्शनार्थियों को अन्दर प्रवेश नहीं करने देना है और नसियाँ जी में किसी भी प्रकार का शोरगुल नहीं होना चाहिए। जैसेजैसे समाधि साधना बढ़ती जा रही थी, वैसे-वैसे आचार्य श्री बड़ी सजगता रखते जा रहे थे। यहाँ तक कि उन्होंने शयन करना भी बंद कर दिया था। वे जब भी शौच, लघु शंका या आहार करने के लिए जाते तो किसी न किसी को गुरु के पास छोड़कर जाते और बोलकर जाते कि गुरुदेव पर नजर रखना; यदि करवट का इशारा करें तो करवट दिला देना और जब वे लौटकर आते तो पूछते-कोई इशारा आदि तो नहीं किया? कोई आवाज तो नहीं आयी थी? स्वयं पिच्छी से परिमार्जन करके गुरुदेव को करवट दिलाते । रात में भी गुरु महाराज के पास बैठे रहते और गुरुदेव की थोड़ी सी आवाज आती तत्काल गुरुदेव को सम्भालते और हर एक घण्टे बाद करवट बदलवाते। हर किसी को वैयावृत्य नहीं करने देते थे। जो समझदार होते, उन्हीं को वे अनुमति देते और स्वयं बताते कैसे वैयावृत्य करना है। गुरुदेव के उठने-बैठने, शौच-लघु शंका आदि में आचार्य श्री स्वयं पिच्छिका से परिमार्जन करते। यदि कोई विशेष भक्त आता तो आचार्य महाराज की अनुमति से पास में बैठने को मिलता, किन्तु ज्यादा बोलने नहीं देते थे और किसी को भी तेज आवाज में नहीं बोलने देते थे। आचार्य महाराज समय के इतने पाबंद थे कि एक मिनिट भी आगे-पीछे नहीं होता था। इस प्रकार हमने आचार्यश्री को एक सैनिक की तरह ड्यूटी करते देखा है।''
इस तरह निर्यापकाचार्य की भूमिका में मेरे गुरुवर पूरी तरह खरे उतरे और आप गुरु-शिष्य द्वय की चर्या-क्रिया को देखकर बड़े से बड़े नास्तिक लोग भी श्रद्धावान् बन गए। इस सम्बन्ध में पहले मैं आपको लिख चुका हूँ एक और संस्मरण लिख रहा हूँ जो मुझे बसंतीलाल चंपालाल दोसी बागीदौरा ने अगस्त २०१५ भीलवाड़ा में सुनाया-
कसौटी पर खरे उतरे : मेरे गुरु
‘‘मैं सोनगढ़ की मान्यता का पोषक था। मेरी पत्नी मणीबेन के साथ १९७२ नसीराबाद में चातुर्मास कर रहे आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज एवं विद्यासागर जी महाराज के दर्शन करने गयीं थी। वहाँ से जब वे लौटीं तो उनकी बातें सुनकर मेरी भी इच्छा हुई एकबार उनको देखें। तब मैं मई १९७३ में नसीराबाद गया साथ में पत्नी भी थी। मन में श्रद्धा थी नहीं, क्योंकि सोनगढ़ के विचारों से प्रभावित था कि पंचमकाल में मुनि नहीं होते। जो हैं वे द्रव्यलिंगी हैं अत: वहाँ जाकर हमने नमोऽस्तु नहीं किया। मात्र उनकी चर्या-क्रिया देखी। फिर एक दिन आचार्य विद्यासागर जी से कुछ शंका-समाधान किया। उनकी चर्चाओं एवं आगम के प्रमाण पाकर मेरी भ्रांतियाँ दूर हो गयीं एवं उनकी चर्या-क्रिया आगमोक्त देखकर श्रद्धा पैदा हो गई और हमने उनके चरणों में अपना समर्पण कर दिया और उनके चरणों का गंधोदक अपने सिर पर लगाकर धन्य-धन्य महसूस किया। एक दिन हमने आचार्यश्री के चरणों में निवेदन किया कि मैं भी गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज की वैयावृत्य करना चाहता हूँ। तो आचार्यश्री बोले-आप दिन में २ बजे आ-जाना और मुझे सूत्र दिया
अरिहंत सिद्ध साधु रटना यही लगाऊँ।
मैं ध्यान धरूँ तेरा कर्म कटे मेरा ॥
और बीच-बीच में सावधान हो' बोलते रहना। मैं दोपहर में जाता और पास में बैठकर यही दोहराता रहता। तब से मैंने कानजी मत के शास्त्रों को पढ़ना बंद कर दिया और आचार्य श्री विद्यासागर जी को अपना गुरु बनाकर उनकी शरण को ग्रहण कर लिया।
इसी प्रकार एक विदेशी फोटोग्राफर भी आपद्वय की तपस्या के बारे में सुनकर खिंचा चला आया। इसके सम्बन्ध में दांता निवासी कलकत्ता प्रवासी श्री कल्याणमल जी झांझरी ने कुछ संस्मरण लिखकर भेजे । उसमें से एक आपको बता रहा हूँ-
“मई माह में परिवार वालों के साथ मैं नसीराबाद गुरु महाराज के दर्शन करने पहुँचा। दर्शनकर उनके चरणों के पास बैठ गया। पिताजी का नाम राजमल जी झांझरी जैसे ही बताया, सुनकर गुरु महाराज ने आँख खोली फिर बंद कर ली। कुछ चर्चायें चलीं। हम युवाओं को देखकर आचार्यश्री जी ने चर्चा का विषय बदल दिया। उन्होंने बताया-‘एक फोटोग्राफर स्विट्जरलैण्ड से आया था, उसने ३ दिन रहकर भिन्न-भिन्न चर्याओं की फोटो लीं और एक-एक क्रिया के विषय में वह जिज्ञासा करता था। जैसे कि कायोत्सर्ग के समय पैरों के बीच में ११ अंगुल और ४ अंगुल का गैप क्यों रखते हैं? ऐसे कई तरह के प्रश्न वह पूछता था। उसकी जैनधर्म को समझने की जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही थी। जैन साधुओं की तपस्या देखकर वह अत्यन्त प्रभावित हुआ था, किन्तु भारत के पढ़े-लिखे युवाओं में ऐसी जिज्ञासा नहीं होती। इस प्रकार की धर्म की जिज्ञासा यदि हृदय में हो जाये तो कल्याण ही हो जाये।' इस तरह हम लोग प्रथम दर्शन मुलाकात में आचार्यश्री विद्यासागर जी से बहुत अधिक प्रभावित हुए और मन में ठान लिया कि आचार्य महाराज के दर्शन करने हर वर्ष आया करेंगे।"
इस प्रकार हे गुरुवर! जैसे रत्नों की चमक छिपाये नहीं छिपती है, इसी प्रकार आत्मा में रत्नत्रय प्रकट होने के बाद उनकी चमक छिपी नहीं रह सकती। आपद्वय गुरु-शिष्यों के आत्मानुभूति प्रकाश में भव्यात्मारूपी भौंरे खिचे चले आते थे और आपके ज्ञानरूपी दीपक से अपना दीपक जलाते थे। ये बात अलग है कि किसने किस रूप में प्रकाश पाया। उसमें से एक मैं भी हूँ जो आपके चरणों में भावना भाता हूँ। कि मैं भी उस स्वानुभूतिरूप ज्ञान प्रकाश को पाऊँ और एक दिन सम्पूर्ण आत्मतत्त्व का ज्ञाता-दृष्टा बन उसका भोक्ता बनूं...
आपका
शिष्यानुशिष्य