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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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  1. पत्र क्रमांक-२०५ १९-०५-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर स्वमहासत्ता की साधक अवान्तर सत्ता में स्थित दादागुरु परमपूज्य ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में त्रिकाल वंदन करता हुआ... हे गुरुवर! जिस तरह से हीरा को जिस पहलू से तरासो वहीं से चमक उठता है। इसी प्रकार से व्यावर चातुर्मास में आपके लाडले शिष्य प्रिय आचार्य को श्रावकगण जिस पहलू से देखते उसी पहलू से वे एक आदर्श के रूप में गुणवान् दिखते । ब्यावर नगर के जिन लोगों से भी मैंने अपने गुरु के बारे में पूछा तो हर कोई उनके अनेक पहलुओं के संस्मरण सुनाते । उनमें से कुछ आपको बता रहा हूँ। किशनगढ़ के प्रकाशचंद जी गंगवाल ने अगस्त २०१५ में बताया - आचार्यश्री की व्यावहारिक ज्ञान की पकड़ ‘‘ब्यावर चातुर्मास में मेरी ससुराल शान्तिलाल जी रांवका परिवार के यहाँ चौका लग रहा था। उस समय मैं वहीं पर था आचार्यश्री जी का पड़गाहन हो गया मैंने भी आहार दिया। आहार के पश्चात् आचार्यश्री मुझे देखकर हँसने लगे और बोले- 'देखो आप अजमेर में कह रहे थे। पहले पर का ध्यान रखना चाहिए, बाद में स्वयं का। आज आप देख लीजिए मैंने निर्ग्रन्थ दीक्षा ग्रहण कर ली है पहले मैं अपना तो कल्याण कर ही रहा हूँ और मेरे निमित्त से दूसरों का कल्याण भी स्वतः ही हो रहा है। इस जैनदर्शन की विशेषता को पहचान लेना चाहिए।' यह सुनकर मुझे अपनी भूल का अनुभव हुआ और हमने स्वीकार किया। तब मुझे आचार्य श्री के व्यावहारिक ज्ञान की पकड़ का अनुभव हुआ।'' ब्यावर के कमल रांवका फील्ड ऑफीसर एल.आई.सी. ने २०१५ भीलवाड़ा में ५-७ संस्मरण सुनाये, वही मैं आपको बता रहा हूँ| - १. बच्चे को मीठी समझाईस से दिया संबल ‘‘ आचार्यश्री जी अजमेर से विहार कर ब्यावर की ओर आ रहे थे, तब मेरे पिताजी, माँ और हम बच्चे लोग सराधना गाँव में चौका लगाने गए थे। आहार के पश्चात् मैंने भजन सुनाया। वह भजन प्रभुदयाल जी अजमेर वालों का था। मैंने उस भजन में उनका नाम न बोलकर अपना नाम बोल दिया। तो मेरे पिताजी ने मुझे टोका-लेखक का नाम क्यों हटाया? यह सुन मैं सकपका गया रुआंसा सा हो गया । तब आचार्यश्री जी ने मेरी भावदशा पढ़कर बड़े प्यार से मीठे अंदाज में मेरी मासूम भावनाओं को सम्बल दिया और बोले-'भजन बनाया दूसरों ने है लेकिन गा तो कमल रहा है ना! वह भजन के माध्यम से अपनी भावनाएँ व्यक्त कर रहा है।' यह सुन सभी हँसने लगे, मुझे भी बहुत अच्छा लगा। दो मिनिट बाद जब सब शान्त हो गए, तब आचार्यश्री बोले-‘आगे से ऐसी गलती कभी मत करना। इससे पाप लगता है।' २. विश्वास अनुभूति में बदला ब्यावर नगर में प्रवेश होने से एक दिन पूर्व ब्यावर नगर के विकास अधिकारी श्री भार्गव साहब उनके दर्शनार्थ पधारे दर्शन के बाद थोड़े बैठे और फिर उन्होंने नगर की पीड़ा व्यक्त की-‘स्वामी जी! व्यावर में पानी की बहुत किल्लत है पीने का पानी नहीं है।' आचार्यश्री ने उनकी यह बात आँख बंद किए हुए सुन ली और सुनकर उनका हृदय जैसे पसीज सा गया। आँखें खोलकर उनको धीरे से देखकर आशीर्वाद दिया। भार्गव साहब आशीर्वाद लेकर बाहर आये और बोले- 'अब पूरा विश्वास है ब्यावर की प्यास बुझ जायेगी।' जिस दिन आचार्यश्री का ब्यावर में प्रवेश हुआ, उस दिन बहुत तेज बारिश हुई और फिर पूरे चातुर्मास में रिकार्डतोड़ बारिश होती रही। आचार्यश्री शहर से आहार करके जब लौटते कई स्थानों पर हैण्डपंप में से फब्बारे निकलते देखे। तब एक दिन भार्गव साहब आचार्यश्री के दर्शन करने आये तो आचार्यश्री बोले-‘लोग कहते हैं कि ब्यावर में पानी नहीं है और इधर तो फब्बारे चल रहे हैं।' तब भार्गव साहब बोले ये सब आपकी ही महिमा है। तो तत्काल आचार्यश्री बोले- ये मेरी नहीं, ये प्रभु की गुरु की महिमा है।' ३. मेरे जीवन की हैट्रिक : गुरु आशीष का फल एक दिन मैं नसियाँ की सीढियों पर अपने मित्रों के साथ बैठा था और ऊपर बरामदे में आचार्यश्री विराजमान थे। हम लोग आपस में चर्चा कर रहे थे। तब मैंने अपने मित्रों से कहा कि हम लोग आचार्यश्री को आहार क्यों नहीं दे सकते? तो एक मित्र बोला-अपन छोटे हैं ना इसलिए। तब हम लोगों की वार्ता आचार्यश्री के कानों में पड़ गयी। तो उन्होंने किसी से कहकर हम लोगों को बुलवाया। हम लोग जैसे ही आचार्यश्री के पास गए तो आचार्यश्री बोले- ‘तुम बच्चे भी आहार दे सकते हो, तुम लोगों की उम्र कितनी है' हमने कहा ११ वर्ष, दोनों मित्रों ने कहा ११ वर्ष । फिर हमने पूछा इसके लिए क्या करना होगा? तो आचार्यश्री बोले - 'प्रतिदिन जिनेन्द्र भगवान के दर्शन, पानी छानकर पीना, सप्त व्यसन का त्याग, रात्रि भोजन का त्याग।' तो मैंने कहा - आचार्यश्री जी मुझे मंजूर है, मैं नियम लेता हूँ, जीवनभर इनका पालन करूंगा। तो आचार्यश्री बोले-‘फिर तो दे सकते हो।' मैं खुशी से पागल हो गया और घर पर जाकर माँपिता को बताया। दूसरे दिन पिताजी ने खुशी-खुशी मुझे धोती पहनायी और चौके में मुझे बैठा दिया। उस दिन आचार्यश्री का पड़गाहन मेरे यहाँ हुआ। मेरा महान् पुण्य का उदय आया। मुझे आहार देने का प्रथम बार ११ वर्ष की उम्र में सौभाग्य प्राप्त हुआ। उस आनंद का मैं बखान नहीं कर सकता। दूसरे दिन मैं पड़गाहन के लिए खड़ा हुआ और जैसे ही आचार्यश्री ने मुझे देखा और मुस्कुराकर मेरे सामने आकर खड़े हो गए। उस सौभाग्य की कहाँ तक सराहना करूं। तीसरे दिन भी मैं पड़गाहन के लिए खड़ा हुआ यह सोचकर कि आज क्षुल्लक जी महाराज आयेंगे । उनको आहार दूंगा, किन्तु जीवन की अप्रत्याशित वह घटना मानों चिन्तामणि रत्न मिल गया हो और आचार्य महाराज दूसरे दिन भी मेरे पड़गाहन में सामने आकर खड़े हो गए। मैंने बड़े भक्ति-भाव से हर्षोल्लसित होकर आहार दान दिया। यह स्मृतिनिधि आज तक संजोकर रखे हुए हूँ। ४. योगाचार्य : आचार्यश्री ब्यावर चातुर्मास में हमने सेठ साहब की नसियाँ में ऊपर कोने वाले कक्ष में आचार्यश्री जी को योगासन करते देखा। आचार्यश्री जी सुबह-सुबह शौचक्रिया से लौटकर आते थे तो प्रतिदिन योगासन करते थे। तो हम १-२ मित्र लोग दरवाजे के टूटे हुए काँच में से देखा करते थे। वे तरह-तरह के आसन लगाया करते थे। जिनमें सर्वांगासन, शीर्षासन, मयूरासन, कुक्कुटासन, हलासन आदि । एक दिन मैंने आचार्यश्री जी से पूछा-आप ऐसा क्यों करते हैं? तो आचार्यश्री बोले-‘शरीर के स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए, तभी तो साधना कर पायेंगे ना।' ५. उपसर्ग विजयी आचार्यश्री ब्यावर चातुर्मास में एक दिन आचार्यश्री जी और संघस्थ दोनों क्षुल्लक मणिभद्रसागर जी एवं स्वरूपानंदसागर जी नगर से बाहर ४ कि.मी. दूर माता की डूंगरी पहाड़ी पर शौच के लिए जाने लगे तो मेरे काका जयकुमार जी रांवका साथ में हो लिए, मैं भी उनके पीछे-पीछे जाने लगा। तो काकाजी ने मनाकर दिया। तो आचार्यश्री जी बोले-‘उसे आने दो।' आचार्यश्री जी डूंगरी के ऊपर पहुँच गए और एक पेड़ के नीचे ध्यानमग्न हो गये। फिर थोड़ी देर बाद ध्यान से उठे और केशलोंच करने लगे। अचानक एक शरारती बच्चे ने पेड़ पर लगे मधुमक्खी के छत्ते पर पत्थर मार दिया। पत्थर लगते ही मधुमक्खियाँ क्रोधित हो उठीं और पूरे में फैल गयीं। हम काका के साथ भागकर वहाँ बने एक कमरे में जाकर छिप गए। किन्तु दोनों क्षुल्लक जी वहीं बैठे रहे उन्हें मधुमक्खियों ने काट खाया। हम लोग वहाँ से देखकर काँपते रहे, कहीं आचार्यश्री को मधुमक्खियाँ न काट खायें। तब हम लोगों ने आचार्यश्री का चमत्कार देखा । १-२ घण्टों तक यह उपसर्ग चलता रहा किन्तु आचार्यश्री जी को एक भी मधुमक्खी ने नहीं छुआ। केशलोंच के बाद आचार्यश्री जी नसियाँ जी आ गए। इसी से सम्बन्धित ब्यावर के कैलाशचंद्र जी अजमेरा ने भी बताया|- ‘‘ब्यावर चातुर्मास में आचार्यश्री जी कई बार सामायिक/ध्यान के लिए शहर से ४ कि.मी. दूर माता डूंगरी नाम की पहाड़ी पर बिना बताये चले जाते थे। तब समाज के बन्धुओं ने निवेदन किया। आप जब भी जाये कृपया जाने से पहले हम लोगों को बता दिया करें । जिससे हम लोग कोई व्यवस्था कर सकें क्योंकि उस पहाड़ी पर जंगली जानवरों का खतरा बना रहता है। तब आचार्य श्री बोले-‘जिसके अंगाड़ीपिछाड़ी संसार होता है उसे डर लगता है। जब एक दिन मधुमक्खियों का उपसर्ग हुआ और मुधमक्खियों ने आचार्यश्री को छुआ तक नहीं किन्तु कुछ लोगों को मक्खियों ने खूब काटा। आचार्यश्री जब ध्यान से उठे तो उन्हें बताया। तो आचार्यश्री फिर डूंगरी पर नहीं गए।'' उपसर्ग और परीषहों के बीच साधना करने वाले आत्मसाधक को जो भी देखता वह उन्हें सहजरूप में दिखते । इस सम्बन्ध में नसीराबाद के सीताराम जड़िया ने ज्ञानोदय २०१८ में बताया - परीषह विजयी आचार्यश्री ‘‘ब्यावर चातुर्मास में दोस्तों के साथ आचार्य श्री विद्यासागर जी के दर्शन करने गए थे। रात्रि में सेवा करने के लिए हम लोग वहीं रुक गए किन्तु सेवा तो उन्होंने करायी ही नहीं। सेठ जी की नसियाँ में ही हम लोग गेट के पास बने कमरे में रुक गए। रात भर नींद नहीं आ सकी, कारण कि भयंकर मच्छर थे। रात्रि १२ बजे उठकर चौक में बैठे रहे और यही विचार करते रहे कि आचार्यश्री कैसे सोते होंगे। सुबह हम लोग आचार्यश्री जी के साथ शौच के लिए जंगल गए। तब रास्ते में आचार्यश्री ने पूछा-रात में तो अच्छी नींद आयी होगी? और हँसने लगे। तो हम लोगों ने कहा-नींद आती कैसे? आपको याद करते रहे, आप यहाँ कैसे रह पा रहे होंगे?'' ६. शाकाहार के मसीहा : संत विद्यासागर आचार्यश्री जी का व्यक्तित्व वीतरागी एवं आकर्षक था। किसी भी व्यक्ति से राग-द्वेष की बात नहीं करते थे। धर्म चर्चा-तत्त्व चर्चा पर ही उनका फोकस रहता था। इस कारण हर जाति-समाज के लोग खिचे चले आते थे। कई बार ब्यावर के मुहम्मद अली स्कूल के प्रो. शमसुद्दीन साहब आते और अनेक विषयों पर चर्चा करते थे। उन्होंने आचार्यश्री से प्रभावित होकर एक कविता बनाकर सुनायी जिसका शीर्षक था शाकाहार के मसीहा : संत विद्यासागर।'' | इस तरह आपके प्रिय शिष्याचार्य मेरे गुरुवर के समागम पाकर बालक, युवा, प्रौढ़ सभी धन्यता का अनुभव करने लगते। ऐसे पावन व्यक्तित्व के चरणों में निज जीवन को धन्य करने हेतु त्रिकाल वन्दन करता हूँ... आपका शिष्यानुशिष्य
  2. पत्र क्रमांक-२०४ १८-०५-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर रत्नत्रयधारी गुरुओं के चरणों में श्रद्धावनत दादागुरु परमपूज्य ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में नमोऽस्तु करता हूँ... हे गुरुवर! आप मंच पर जब केशलोंच किया करते थे तब बड़ी प्रभावना हुआ करती थी उस केशलोंच को देखने के लिए जैन-अजैन जनता एकत्रित होती थी किन्तु आपके जाने के बाद मेरे गुरु ने केशलोंच की क्रिया मंच पर न कर एकान्त में करना प्रारम्भ कर दी थी इसका कारण एक बार आचार्यश्री जी ने बताया था-इस क्रिया में प्रोपोगण्डा प्रवेश कर गया था और अजैन लोग विरोध भी करने लगे थे तब विचार किया कि यह मुनि की आवश्यक क्रिया है और मूलगुण है अतः यह दिखाने की जरुरत नहीं है यह तो स्वाश्रित एकांत में की जाना चाहिए। कोई देखे तो कोई दोष नहीं किन्तु प्रदर्शन भाव ठीक नहीं। गुरुदेव के द्वारा उपरोक्त आगमयुक्त बात को सुनकर हम सभी लोग संतुष्ट हुए। इस तरह ब्यावर चातुर्मास में आपके प्रिय आचार्य मेरे गुरुदेव ने अन्र्तमुखी साधना प्रारम्भ कर दी और ३ अगस्त ७३ को दीक्षोपरान्त बीसवाँ केशलोंच किया। यह केशलोंच एकान्त में कक्ष के अन्दर किया किन्तु लोगों को भनक लग जाने से लोग केशलोंच देखने एकत्रित हो गए। उन्हें यह बात नहीं जमी और साधना में बाधा महसूस हुई तो १५ नवम्बर ७३ को दीक्षोपरान्त इक्कीसवाँ केशलोंच डूंगरी पर जाकर किया, जो बस्ती से लगभग ४ कि.मी. की दूरी पर है। गुरुदेव की आगमोक्त चर्या को देख पं. श्री हीरालाल जी सिद्धान्त शास्त्री (साढूमल वाले) ब्यावर ने विनयांजलि स्वरूप लेख लिखा जो ब्यावर चातुर्मास की स्मारिका में प्रकाशित हुआ - आचार्य श्री विद्यासागर जी ‘‘इधर पचास वर्षों में दि. जैन समाज के सभी आचार्यों और मुनिराजों के दर्शन करने और उनके प्रवचन सुनने का सुअवसर और सौभाग्य प्राप्त हुआ है, परन्तु इतनी अल्प आयु में आचार्य पद को प्राप्त करने वाले और वह भी अपने ही दीक्षा और विद्या गुरु के द्वारा इस गुरुपद को सुशोभित करने वाले आप समग्र दि. समाज में अद्वितीय ही है। दक्षिण-वासी और कन्नड़-भाषी होने पर भी आपने इधर उत्तर भारत में आकर जिस शीघ्रता से हिन्दी, संस्कृत और प्राकृत भाषा पर अधिकार प्राप्त किया, गुरुमुख से संस्कृत व्याकरण, साहित्य, धर्मशास्त्र और न्याय-ग्रन्थों का अध्ययन कर उन्हें हृदयंगम किया तथा अत्यल्पायु में दीक्षा लेकर जिस दृढ साधना से उसका पालन प्रारम्भ किया, उसे देखकर आपके गुरुवर स्व. आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज ही आश्चर्य चकित और आनन्द से गद्गद हो गये थे। आपके इन लोकोत्तर गुणों को देखकर तथा आचार्य पद के योग्य सभी विशिष्टताओं का अनुभव कर आपने समाधिमरण अंगीकार करने के पूर्व ही उन्होंने सर्वसंघ के समक्ष अपना गुरुतर भार उतार कर आपको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया और आपके नायकत्व में एक सामान्य साधु के समान अपने दोषों की आलोचना कर मारणान्तिकी सल्लेखना को धारण किया, इससे ही आपकी महत्ता स्वयं सिद्ध है। मैं आपके ब्रह्मचारी काल से ही आपसे परिचित हूँ। आप में भद्रता, विनयशीलता और उदासीनता तो जन्म-जात ही थी। इधर साधु बनने और आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने पर तो आपके नैसर्गिक गुण मशीन पर रखे गए मणियों के समान अति दैदीप्यमान हो रहे हैं। गुरुदेव की असीम अनुकम्पा से उनके ही समान आप में कवित्व शक्ति प्रकट हुई है, जो उत्तरोत्तर विकासोन्मुखी हो रही है, यह बात इसी स्मारिका में प्रकाशित आपकी निजानुभवशतक आदि रचनाओं से पाठकों को विदित होगी। अपने गुरु के समान ही आप शास्त्र पठन-पाठन में निरन्तर संलग्न रहते हैं, उनके ही समान बाल ब्रह्मचारी हैं, फिर भी अल्पवय में दीक्षा लेकर और आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होकर उनसे कई कदम आगे बढ़ रहे हैं। | भवाभिनन्दिता और जन-प्रशंसा से आप सदा दूर रहना चाहते हैं, यह बात इस चातुर्मास में भलीभांति से सबके अनुभव में आई है। यही कारण है कि बिना कोई पूर्व सूचना के प्रथम केशलोंच आपनेअपने निवास की एकान्त कोठरी में किया, किन्तु समाचार मिलते ही श्रावक और श्राविकाओं की भीड़ इकट्ठी होकर गुरु का गुणानुवाद करने लगी। यह सब आपको रुचिकर नहीं लगा और अभी दूसरा केशलोंच शहर से तीन मील की दूरी पर स्थित माताटेकरी पर जाकर सर्वथा एकान्त में किया। धर्मशास्त्र जब एकान्त में केशलोंच करने का विधान करते हैं, तब साधु जन क्यों जन-प्रदर्शन में केशलोंच करते हैं? यह प्रश्न आपके सामने मानो सदा खड़ा रहता है और उसी के उत्तर-स्वरूप आप एकान्त में केशलोंच की जिनोपदिष्ट आज्ञा का प्रतिपालन करते हुए आगे बढ़ रहे हैं। आने-जाने वाले दर्शनार्थियों की ओर भी आपका ध्यान बहुत कम ही जाता है, कारण कि इसे भी आप अपनी अप्रमत्त दशा से गिरकर प्रमत्त दशा में आने का अनुभव करते हैं। यही कारण है कि आप आने-जाने वाले बाहरी दर्शनार्थी तक से भी उसके नाम-ग्रामादि का परिचय तक नहीं पूछते हैं। यह बात आपकी निरीहिता और वीतरागता की ही द्योतक है। अनेक भोले दर्शनार्थियों को आपकी इस प्रवृत्ति से कभी कुछ उद्वेग या क्षोभ का अनुभव सा होता है, पर वे ये नहीं सोचते हैं कि हम वीतरागता के दर्शन करने और उसे पाने के लिए आये हैं अथवा सरागता के दर्शन करने और उसे लेने के लिए आये हैं? यदि साधुसन्त आने-जाने वालों से उनका परिचय ही पूछते रहें तो उससे वीतरागता का संचय होगा, या सरागता का? इस बात को नहीं सोचते हैं। आपके स्वभाव और गुणों के अनुसार ही आपके संघ में श्री क्षुल्लक मणिभद्रसागर जी और श्री क्षुल्लक स्वरूपानन्द जी विराजमान हैं और अपने आचार्य का पूर्ण रूप से अनुसरण करने में संलग्न है, यह बात अभी दोनों सन्तों के द्वारा एकान्त में किए गए केशलोंचों से सर्वविदित है। मैं ऐसे वीतरागी आचार्य श्री के चरणों में नतमस्तक हूँ।'' इस तरह आपकी कसौटी में जो खरा उतरा हो उसकी महिमा से कौन प्रभावित नहीं होगा और यही कारण है कि विद्वान् हो या सामान्य व्यक्ति उनका प्रथम समागम पाकर उनका हो जाता है। अपनी श्रद्धा-अपनी आस्था उनके चरणों में समर्पित कर देता है। ऐसे वीतरागी सन्त जिनसे राग हो जाता है और तन-मन समर्पित हो जाता है, उनके चरणों का अनुरागी मैं आपश्री को नमस्कार करता हूँ... आपका शिष्यानुशिष्य
  3. पत्र क्रमांक-२०३ १७-०५-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर परम चैतन्य शक्ति के विलास स्वरूप गुणों के ज्ञाता दादागुरुवर परमपूज्य ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में प्रणाम करता हूँ...। हे गुरुवर ! परमार्थ रसिक स्वानुभूति का रसास्वादन करने वाले आपके लाडले शिष्य प्रिय आचार्य मेरे गुरुवर ने निजसम आनन्दानुभूति सर्व सामान्य को प्राप्त हो इस हेतु पर्युषण पर्व में ज्ञान गंगा बहा दी। जो बाद में चातुर्मास स्मारिका में प्रवचनांश प्रकाशित हुए। जिनका सार संक्षेप आपको प्रेषित कर रहा हूँ - उत्तम क्षमा “(०१-०९-७३) मोह नींद से सोये हुए प्राणियों को जगाने के लिए पर्युषण पर्व आते हैं। आत्मा के अनन्त गुणों में क्षमा एक उत्कृष्ट गुण है, यह आत्मा का सहज धर्म है। क्षमा कायरों का काम नहीं वीरों का आभूषण है। क्षमा तभी हो सकती है जब क्रोध न हो, क्रोध क्षमा का नाश करता है। इसके लिए इष्टअनिष्ट बुद्धि का परित्याग करना आवश्यक है। स्वार्थ बुद्धि को हटाने का प्रयत्न करना जरूरी है। क्षमा धर्म से उत्पन्न आनंद अलौकिक होता है। निंदक और प्रशंसक दोनों के प्रति समान भाव हों, तभी सच्ची क्षमा है। क्षमा को प्राप्त किए बिना अनन्तचतुष्टय की उपलब्धि नहीं हो सकती। क्रोध व्यवहार में भी भयावह है। क्रोध की जागृति शरीर के लिए भी हानिकर है क्रोधी व्यक्ति रौद्ररूप धारण कर लेता है। उसका विवेक नष्ट हो जाता है, उसका ज्ञान-अज्ञान में परिवर्तित हो जाता है। क्रोधी कषाय के वशीभूत हो पर के साथ-साथ स्वयं का भी अहित कर लेता है। संतोष की हानि से शरीर का वैभव तक नष्ट हो जाता है। तब आत्मा का स्वभाव कैसे बना रह सकता है। क्रोध की स्थिति में शरीर का रोम-रोम आक्रोश में आ जाता है, चेहरे पर उग्रता आ जाती है, शरीर का खून पानी बन जाता है, दूध विष में परिणत हो जाता है। क्रोध भयंकर अग्नि है, इससे सदैव दूर ही रहना चाहिए। अतः क्षमा को अपनाना चाहिए। उत्तम मार्दव (०२-०९-७३) नरक गति में क्रोध, देव गति में लोभ, तिर्यंच गति में माया चरम सीमा तक पहुँच जाती है और मनुष्य गति में मान-सम्मान की फिकर बड़ जाती है। जो व्यक्ति चढ़ता है वह झुककर ही ऊपर चढ़ सकता है। सीधा होकर नहीं चढ़ सकता। वहाँ पर नतमस्तक विनय झुकाव ही चाहिए। तभी ऊँचा चढ़ सकता है। सीढ़ी पर नीचे देखकर ही चढ़ना पड़ता है। मान जिसके ऊपर आरूढ़ हो जाता है। वहाँ उपकार करने की चेष्टा नहीं रहती, जो अपने को लघु मानता है वही व्यक्ति सेवा-सुश्रुषा व पूजा कर सकता है। मनुष्य जीवन में सर्वप्रथम इस कषाय पर विजय प्राप्त करना है। अभिमान को अपनाने वाला व्यक्ति का पुरुष है, दुर्जन है। प्रशमभाव व सम्वेग भाव जब जागृत हो जाता है तब वह तीन लोक से पूजा नहीं चाहता। शारीरिक व आर्थिक शक्तियों के द्वारा कोई भी तीन लोक का नाथ नहीं बन सकता। जो जितने-जितने अंश में राग, अभिमान आदि को समाप्त करता जाता है, वह उतने-उतने अंश में बड़ा होता जाता है। वास्तविक निधि निरभिमानता अक्रूर भाव है। ये सब कल्पवृक्ष रत्न हैं, चिन्तामणि-कामधेनु से भी बढ़कर हैं। वास्तविक सम्मान परिग्रह के अभाव में मिलता है। मृत्युंजयी बनने का रास्ता यही है। जो यह सोचता है कि मेरी नाक नीची न हो जाये, नाक नहीं कट जाये। उसका जन्म अगले भव में हाथी योनि में होता है। जिसकी नाक लम्बी व सड़क पर लोटती रहती है। जो मान रखता है उसी का अपमान होता है। जो निरभिमानी है उसका कभी अपमान नहीं होता। उत्तम आर्जव (०३-०९-७३) सरलता का नाम आर्जव है यह आत्मा का एक पुनीत धर्म है। विचार, कथनी व करनी जब एक होते हैं तभी सदाचार चलता है सत्-आचार महान् गम्भीरता को लिए हुए है। आर्जव धर्म पर चलने वालों को कोई कठिन कोई चिन्ता नहीं है जब पैसे में वृद्धि होती है तब गुणों का ह्रास होने लगता है। पैसा बिना आरम्भ के नहीं आ सकता और आरम्भ बिना पाप के नहीं हो सकता। आर्जव धर्म तत्काल शान्ति देता है और कुटिलता दुःखों की जननी है। हमें सरलता रखनी चाहिए। उत्तम शौच (०४-०९-७३) जो अच्छे कार्यों में बाधक बन जाता है वह है अन्तराय कर्म । मोह से विनिर्मुक्त होना ही शौच धर्म का पालन करना है। आठ कर्म होते हैं, इनमें मोहनीय कर्म राजा के समान है और बाकी सात कर्म सेनायें हैं। मनुष्य गति में यह जीव स्वतंत्र है परन्तु स्वर्ग में परतंत्र है। मनुष्य ही मोह को नष्ट कर सकता है। उत्तम सत्य | (०५-०९-७३) सत्यधर्म अर्थात् भाव-श्रुतज्ञान, केवलज्ञान को प्राप्त कराने वाला है। जिसमें समीचीनपना-सच्चाई है वही केवलज्ञान को प्राप्त कर सकता है। ज्ञान को निर्मल बनाने के लिए यह जीवन मिला है। सत्यधर्म तब आ सकता है जब राग-द्वेष का अभाव हो । राग-द्वेष की निवृत्ति के लिए ही भव्य जीव चरित्र को अंगीकार करता है। यह आत्मा सत्यं शिवं सुन्दरम् तभी बनेगा जब हमारा ज्ञान समीचीन होगा। सत्य जीवित अवस्था का नाम है और असत्य मृत अवस्था का नाम है। अतः असत्य का कोई मूल्य नहीं है। आत्मोत्थान के लिए सत्य का आश्रय ही सर्वोपरि है। उत्तम संयम (०६-०९-७३) आचरण, चेष्टा, चारित्र समीचीन हो उसी का नाम संयम है। संयम आत्मा का ही एक अनन्य धर्म है। जीव का संजीवन संयम है बुद्धिमान वही है जो संवर को अपनाता है और आस्रव को छोड़ता है। संवर संयमरूप है। काल का उपयोग करने वाला व्यक्ति बुद्धिमान कहलाता है। काल तो अचेतन है वह उल्टा नहीं है हम ही उल्टे हो गए हैं। हमारी परिणति उल्टी हो गयी है, हमारी नींद नहीं खुलती है। हमें काल को दोष न देकर यह सोचना चाहिए कि इस पंचम काल में भी मोक्षमार्ग का अभाव नहीं है। हम संयम के बल पर ही आत्मा का दर्शन कर सकते हैं। हम रोग से निवृत्त तो होना चाहते हैं पर पथ्य व दवा के अनुसार चलना नहीं चाहते। संयम में विषय-कषायों पर कंट्रोल है-ब्रेक है। आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चारों संज्ञाएँ ही असंयम हैं, ये ही चारों गतियों में घुमा रहीं हैं। अब इस मनुष्यभव में तो इसे छोड़ो, इनको करते-करते अनादिकाल हो गया है। इन चारों संज्ञाओं का नाम ही संसार है। इनका जहाँ अभाव है वहीं मुक्ति है। उत्तम तप (०७-०९-७३) दुनियाँ में जितनी भी अच्छी चीजें बनती हैं वह तप करके ही बनीं हैं, जैसे सोना । अगर पत्थर में सोना न हो तो उसे कोई नहीं चाहेगा। उसी प्रकार शरीर में आत्मा विद्यमान है यदि, उसमें आत्मा न हो तो शरीर को कोई नहीं चाहेगा। यह जीव आठ कर्म रूपी कीट से भरा है और राग-द्वेष आदि कालिमा हैं। उसको सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र आदि रूप औषध लगाने से और ध्यानरूपी अग्नि में पटक कर, तपरूपी धौंकनी चलाने से हम शुद्ध चिदानन्दरूप आत्मा का दर्शन कर सकते हैं। वास्तविक तप इच्छा निरोध है और आभ्यन्तर तप के द्वारा ही इच्छा का निरोध होता है। बाह्य तप, साधन हैं । तप के बिना इन्द्रियाँ चंचल रहती हैं। आप मन को तो कंट्रोल करना चाहते हैं पर तन (इन्द्रियों को) को नहीं, यह तीन काल में भी सम्भव नहीं है। उत्तम त्याग (0८-०९-७३) सुख हर एक जीव के लिए अभीष्ट है, किन्तु सुख का रास्ता कौन-सा है और सुख कहाँ है? यह ज्ञात नहीं। हम सुख चाह रहे हैं पर दु:ख की वस्तुओं का संग्रह कर रहे हैं। आज हम सुख का रास्ता बता रहे हैं, उसके लिए मेहनत करने की भी जरूरत नहीं है। सुख का मार्ग निवृत्ति है, प्रवृत्ति नहीं। सुख का मार्ग त्याग में है, छोड़ने में है, लेने में नहीं। हमने जो पर को पकड़ रखा है उसे छोड़ना ही त्यागधर्म है। उपाय उसे कहते हैं जो उपादेय की प्राप्ति करा दे और अपाय उससे कोशों दूर पहुँचा देते हैं। सम्यग्दृष्टि गृहस्थ संसार शरीर और भोग से अनासक्त रहता है, उसमें संवेगभाव जागृत रहता है। वह सदाचार सम्पन्न रहता है। अनन्तानुबन्धि का त्याग हो जाता है। उसमें विवेक जागृत हो जाता है वह ऐसा अनर्थ नहीं करता जिससे उसका अनन्त संसार बढ़ जाये। उत्तम आकिंचन्य (०९-०९-७३) धर्मक्षेत्र में वह सबसे ज्यादा पूज्य है जिसके पास कुछ भी नहीं है। परिग्रही लोग निस्परिग्रही की पूजा करते हैं। वास्तविक सुखी निस्परिग्रही है। हम परिग्रह रूपी आँखों के द्वारा भगवान को नहीं देख सकते। कंचन के पीछे दौड़ते हुए आकिंचन्य धर्म प्राप्त नहीं हो सकता और उसे धारण किए बिना सांसारिक दुःखों से छुटकारा नहीं मिल सकता।। उत्तम ब्रह्मचर्य (१०-०९-७३) प्रायः सभी दार्शनिकों ने सुख का उद्गमस्थान ब्रह्म को ही माना है। जो उचित भी है और अनुभव सिद्ध बात भी है। ब्रह्मानंद का अनुभव परिग्रह मुक्त दिगम्बर मुद्रा धारी मुनि लोग करते हैं। उन संत महर्षियों के सदुपदेशों को पूर्ण रूपेण अनुसरण करने वाले विरले ही होते हैं। जो शेष हैं उनमें महर्षियों के सदुपदेशों को अनुकरण करने की इच्छा रखते हैं तो उनके पदानुसार इस उच्च धर्म को धारण करने हेतु वे मार्ग प्रशस्त करते हैं। वह मार्ग है एकदेश रूप ब्रह्मचर्य को स्वीकार करना अर्थात् विवाह संस्कार द्वारा स्वदार संतोष धारण करना । विवाह सदाचार का प्रतीक है, विवाह के बाद व्यक्ति सम्यक्त्वी हो रहता है। विवाह संस्कार सिर्फ मनुष्य जाति में है। मैथुन क्रिया पर कंट्रोल करने के लिए विवाह संस्कार होता है सो बात नहीं, पर सीमित क्रिया हो इसी कारण विवाह संस्कार होता है। विवाह संस्कार के बाद वह अन्य को माँ, बहिन, बेटी समझे। इससे उच्छृखलता पर कंट्रोल हो जाता है। एक दृष्टि में वह पूर्ण ब्रह्मचारी बनने का पात्र हो जाता है। उसका अनन्त संसार सीमित हो जाता है। ब्रह्मचर्य ही परमोत्कर्ष जीवन है, भोगाभिलाषा मरण है। उस ब्रह्म में तल्लीन जो ब्रह्मचारी हैं मैं उन्हें शतशः प्रणाम करता हूँ। इस तरह पर्युषण पर्व में महती धर्म प्रभावना हुई, ब्यावर के सुशील जी बड़जात्या वर्तमान जैन समाज अध्यक्ष ने भी बताया - रथयात्रा के बीच में हुए प्रवचन “अपने पर्युषण पर्व से पहले श्वेताम्बरों के पर्युषण पर्व चलते हैं। उस दौरान पूरे श्वेताम्बर भाई आचार्यश्री के प्रवचन सुनने आते थे। पूनम के दिन १५-०९-७३ को ब्यावर में रथयात्रा जुलूस मेरे पिताजी ताराचंद जी बड़जात्या की तरफ से निकलवाया गया था। जिसमें आचार्यश्री संघ सहित सम्मिलित हुए थे और अजमेरी गेट के बाजार में तथा महावीर बाजार में रथयात्रा को रोककर आचार्यश्री जी के प्रवचन हुए थे। जिनको जैन-जैनेतरों की हजारों की संख्या ने सुनकर व्यसनों का त्याग किया था।' इस सम्बन्ध में अजमेर के कैलाशचंद जी पाटनी ने ‘जैन गजट' २७ सितम्बर ७३ की कटिंग उपलब्ध करवायी। जिसमें माणकचंद कासलीवाल का समाचार इस प्रकार प्रकाशित है - पर्युषण पर्व ‘ब्यावर-प्रातः स्मरणीय श्री १०८ श्री आचार्य विद्यासागर जी महाराज का चातुर्मास होने से यहाँ अपूर्व धर्म प्रभावना हो रही। श्रावक-श्राविकायें पर्व समाराधन एवं धार्मिक अनुष्ठान में तत्पर रहे। प्रतिदिन दसलक्षण धर्म की पूजा-पाठ के उपरान्त मध्याह्न में आचार्यश्री का प्रत्येक धर्म पर सारगर्भित प्रवचन होता था। भा.शु. १४ एवं असौज वदी १ को विशेष समारोह के साथ कलशाभिषेक हुए तथा भा.शु. १५ को रथयात्रा हुई जिसमें आचार्यश्री का व्याख्यान हुआ। आसौज वदी २ को समस्त जैन समाज एकत्रित होकर आचार्यश्री के चरणों में कृतज्ञता एवं क्षमापना निमित्त उपस्थित हुए। इस अवसर पर श्री धर्मचंद जी मोदी ने बड़े प्रभावक शब्दों में अपनी लघुता प्रगट करते हुए भावपूर्ण कृतज्ञता प्रगट की। पर्युषण पर्व में श्री नसियाँ जी में श्री पं. हीरालाल जी सिद्धान्त शास्त्री एवं श्री पंचायती मन्दिर जी में श्री प्रकाशचंद्र जी जैन तत्त्वार्थ सूत्र एवं दशलक्षण धर्म का विवेचन करते थे। आसौज वदी ४ रविवार १६ सितम्बर ७३ को भारत जैन महामण्डल के तत्त्वावधान में विश्व मैत्री दिवस एवं सामूहिक क्षमापना का समायोजन स्थानीय लक्ष्मी मार्केट में हुआ। इस अवसर पर पूज्य श्री १०८ आचार्य विद्यासागर जी महाराज का हजारों व्यक्तियों की उपस्थिति में विश्व मैत्री विषय पर सारगर्भित भाषण हुआ। आचार्यश्री का प्रवचन प्रतिदिन प्रातः ७:४५ से ८:४५ तक एवं क्षुल्लक स्वरूपानन्दजी का प्रवचन मध्याह्न २:३० से ३:३० बजे तक सेठ साहब की नसियाँ में होता है।'' इस सम्बन्ध में जैन सन्देश' २००९-७३ में भी समाचार प्रकाशित हुआ। इसी तरह दीपचंद जी छाबड़ा ने भी बताया कि भादवा सुदी २ को आचार्य शान्तिसागर जी महाराज का स्मृति दिवस बनाया गया। जिसमें आचार्यश्री जी ने बहुत ही मार्मिक और आकर्षक विनयांजलि प्रस्तुत की एवं आसौज सुदी ४ को पंचायती नसियाँ में पाण्डुकशिला पर वार्षिक कलशाभिषेक हुआ जिसमें सकल समाज उपस्थित हुई । इस सम्बन्ध में इन्दरचंद जी पाटनी ने ‘जैन गजट' १८ अक्टूबर १९७३ की एवं जैन संदेश ११ अक्टूबर १९७३ की एक कटिंग दी। जिसमें अमरचंद जैन का समाचार इस प्रकार प्रकाशित है - पाण्डुक शिला पर कलशाभिषेक आ.श्री १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज के सान्निध्य में पंचायती नसियाँ जी ब्यावर में आसोज सुदी ३ रविवार ३०-०९-७३ को पाण्डुकशिला पर कलशाभिषेक महोत्सव विभिन्न कार्यक्रमों के साथ सम्पन्न हुआ। प्रातः ११ बजे से चौसठ ऋद्धि मण्डल विधान एवं मध्याह्न में विश्व धर्म प्रदर्शनी का आयोजन हुआ जिसका उद्घाटन श्री मानमल जी बाकलीवाल द्वारा किया गया। इस प्रदर्शनी में श्री भंवरलाल जी कुमावत द्वारा चावल व चीये के दाने पर नवकार मंत्र, छहढाला के दोहे तथा मेरी भावना को दो इंच के आकार पर प्रदर्शित किया। सायंकाल ४ बजे श्री सेठ राजमल जी कासलीवाल द्वारा कलशाभिषेक किए गए जिसमें ५०१/बोली द्वारा भेंट किया। रात्रि को १०८ दीपक की आरती हुई तथा रात्रि भोजन त्याग अभिनय विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ पं. बुद्धसेन जी द्वारा प्रस्तुत किया गया।' इस प्रकार धर्म प्रभावना के विभिन्न आयामों के उपस्थित होने पर आचार्यश्री प्रवचनों के माध्यम से रूढ़ीवादी-घुन लगे मानस को तरोताजा कर देते थे और समाज में वैचारिक क्रान्ति के माध्यम से नयी सुबह का सूत्रपात कर देते थे। ऐसे गुरु-शिष्य के चरणों में नतशिर प्रणति निवेदित करता हूँ... आपका शिष्यानुशिष्य
  4. पत्र क्रमांक-२०२ १२-०५-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर अर्हत्-प्रवचन-बहुश्रुत भक्ति में तत्पर दादागुरु परमपूज्य महामुनिराज श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में त्रिकाल नमोऽस्तु करता हूँ... हे गुरुवर! आप जब कभी जिनधर्म प्रभावना का निमित्त मिलता तो आप निजशक्ति प्रमाण प्रभावना करते। इसी प्रकार आपके प्रिय आचार्य मेरे गुरुवर ब्यावर चातुर्मास में अपनी चर्या, क्रिया एवं प्रवचनों के माध्यम से जिनधर्म श्रमण संस्कृति की प्रभावना करते । इस सम्बन्ध में अजमेर के पदमकुमार जी एडव्होकेट ने जैन संदेश ९ अगस्त ७३ की कटिंग दी एवं इन्दरचंद जी पाटनी ने जैन गजट' ७ अगस्त ७३ की एवं जैन मित्र' वीर सं. २०९९ श्रावण सुदी ११ की कटिंग दी जिसमें अमरचंद जी रांवका का समाचार इस प्रकार प्रकाशित है - ब्यावर में महती प्रभावना आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का चातुर्मास आनन्द पूर्वक हो रहा है। इसी सन्दर्भ में २९ जुलाई को पूज्य महाराज श्री का विज्ञान और अध्यात्म ज्ञान पर लक्ष्मी मार्केट में सार्वजनिक भाषण हुआ जिसमें महाराज श्री ने बताया कि सच्चा विज्ञान वही है जिससे आत्मा कलंक रहित होकर निखर उठे और अपने शुद्ध स्वभाव में स्थिर हो जाये। वर्तमान विज्ञान भौतिक विज्ञान है इसकी सफलता आध्यात्मिक विज्ञान के साथ है। इसी अवसर पर दि. जैन संघ मथुरा के सुयोग्य प्रचारक विनयकुमार जी पथिक की उपदेशमयी कथाओं से तथा संगीत द्वारा बड़ी धर्म प्रभावना हुई। दि. ३-८-७३ को आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का प्रातः केशलोंच हुआ। धर्म की महती प्रभावना हुई।'' इस तरह चातुर्मास में कई प्रवचन हुए जो चातुर्मास स्मारिका में प्रकाशित है। जिनका सार संक्षेप आपको भेज रहा हूँ - रक्षाबंधन (१४-०८-७३) रक्षाबंधन अद्भुत पर्व है यह वह बंधन है जिससे मुक्ति नहीं हाँ यह बंधन भी मुक्ति में सहायक है तो कैसे? बंधन किसके लिए? रक्षा के लिए! रक्षा किससे? दुःखों से, संकटों से! मनुष्य ही अपनी बुद्धि और शारीरिक सामर्थ्य से अपनी और दूसरों की रक्षा कर सकता है। रक्षा के लिए ही धर्म का विश्लेषण है। आज के दिन की महत्ता इसलिए तो है कि आज एक महान् आत्मा ने रक्षा का महान् कार्य सम्पन्न कर संसार के सामने रक्षा का वास्तविक स्वरूप रखा। स्वयं की परवाह न करते हुए अन्य की रक्षा करना यह है इस पर्व के मनाने का वास्तविक रहस्य। विष्णुकुमार मुनिराज ने बंधन को अपनाया, पद को छोड़कर मुनियों की रक्षार्थ गए क्यों? वात्सल्य के वशीभूत होकर-धर्म की प्रभावना हेतु । यह है सच्चा रक्षाबंधन । रक्षाबंधन को सच्चे अर्थों में मनाना है तो अपने भीतर करुणा को जागृत करें, अनुकंपा, दया, वात्सल्य का अवलंबन लें। आषाढ़ और सावन के जल भरे काले बादलों की करुणा ही जीवन प्रदायनी होती है। जो गरजते ही हैं वरसते नहीं उन्हें कौन पूछता है, कौन आदर देता है? रक्षाबंधन पर्व का अर्थ है कि हममें जो करुणाभाव है वह तन-मन-धन से अभिव्यक्त हो।‘सत्वेषु मैत्री' इसका नाम है रक्षाबंधन। गांधी जी की महानता का भी यही कारण है, वे परम कारुणिक थे। रक्षाबंधन पर्व एक दिन के लिए नहीं है, हमारे वात्सल्य-करुणा एवं रक्षा के भाव जीवनभर बने रहें, इन शुभ संकल्पों को दोहराने का यह स्मृति दिवस है। स्वतंत्रता दिवस (१५-०८-७३) जगत् का आध्यात्मिक गुरु भारत सत्य और अहिंसा का प्रबल समर्थक और उन्नायक है। सभी के लिए सुग्राह्य है, यही सबके मूल में है, यही सुख प्रदान करने वाला है। स्वतंत्रता स्वभाव है, परतंत्रता विभाव है। स्वतंत्रता मुक्ति है, परतंत्रता बंधन है। स्वतंत्रता सुखदायी है, परतंत्रता दुखदायी है। भारत को स्वतंत्र हुए २६ वर्ष हो गए, परन्तु क्या वास्तविक स्वतंत्रता प्राप्त हो गयी। स्वतंत्र व्यक्ति कभी दुखी नहीं होता। उसके सामने कष्ट नहीं रहते, उसके पास तो उल्लास, प्रेम और शान्ति रहती है। द्वेष तो दुःख का कारण है। आज हम स्वतंत्र नहीं! स्वच्छंद हैं, स्वेच्छाचारी हैं और इसलिए दुखी हैं। स्वतंत्रता का मतलब है अपने आप पर नियंत्रण करना। आज दूसरों को अपने बस में करने की होड़ लगी हुई है। खुद की ओर दृष्टि ही नहीं जाती। सच्ची स्वतंत्रता विकास को जन्म देती है, विनाश को नहीं। सौमनस्यता पैदा करती है वैमनस्यता नहीं। स्वतंत्रता दिवस के इस पुनीत पर्व पर हमें आत्म विश्लेषण कर सच्ची स्वतंत्रता पाने का दृढ़ संकल्प कर जीवन को ज्योतिर्मय बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। नि:शंकित अंग (१६-०८-७३) साधक को अपने साध्य की प्राप्ति हेतु पहले शंका का परित्याग करना होगा। उसे वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित धर्म में अटल श्रद्धान धारण करना होगा। जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित धर्म के अनेकान्त स्वरूप का दृढ़ता से आलंबन करने वाला जीवन तीन काल में भी दु:ख का अनुभव नहीं कर सकता।'ही' को हटाकर 'भी' का प्रयोग करने वाला साधक अनेकान्त के रहस्य को समझने वाला होता है। जो दूसरों के अस्तित्व को मिटाना चाहता है वह नास्तिक है। जो दूसरों के विकास को नष्ट करने का इच्छुक है वह हिंसक है। अपना ही अस्तित्व महत्त्वपूर्ण नहीं है, दूसरों के अस्तित्व को मानने के लिए भी तत्पर रहना आवश्यक है। नि:कांक्षित अंग (१७-०८-७३) नि:कांक्षित अंग के धारण करने से गृहस्थ का जीवन भी अनासक्त हो जाता है। अतः दूसरों के वित्त व वैभव को देखकर ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए, क्योंकि कर्मों के कारण जो कुछ उपलब्ध है उसे भी मिटाना ही है अतः सदैव त्याग की ओर लक्ष्य रखना चाहिए। निर्विचिकित्सा अंग (१८-०८-७३) निर्विचिकित्सा अंग को धारण करने वाले साधक के हृदय में संवेगभाव जागृत होता है। वह आत्मा की ओर लक्ष्य रखता है, आत्मा न गंदा है, न स्वच्छ है और न मूर्त है वह तो अमूर्त है। यह शरीर पुद्गल है, जड़ है, स्वाभाविक रूप से अस्वच्छ है, परन्तु इसमें निवास करने वाला आत्मा निर्मल है, शुद्ध है। सुगंध-दुर्गन्ध तो पर्याय है। यथार्थ में वही मनुष्य है, वही महान् आत्मा है जो अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखता है। अमूढदृष्टि अंग (१९-०८-७३) सच्चे और झूठे तत्त्वों की परख कर मूढताओं और अनायतनों में नहीं फँसना चौथा अमूढदृष्टिअंग है। अज्ञान का नाश कर ज्ञान की वृद्धि करना और तदनुरूप आचरण करना अमूढता है। आज जीवन के हर क्षेत्र में, धर्म में, लौकिक व्यवहार में, शिक्षण में, खाने-पीने और पहनने में रूढ़िवाद व्याप्त है। इस अंग के धारक के जीवन में रूढ़ीवाद का कोई स्थान नहीं होता है। दूसरे के सहारे को छोड़ने की इच्छा जिसमें होती है वह रूढ़ीवाद को नहीं अपनाता। नैतिकशिक्षा के अभाव में लौकिकशिक्षा महत्त्वहीन है। वर्तमान का ज्ञान सीमित और संकीर्ण है। उसमें पूर्णता लाने का लक्ष्य बढ़ाना चाहिए। ज्ञान का उपयोग आज उदरपूर्ति के लिए किया जा रहा है यह मूढता है। इससे उद्धार सम्भव नहीं है। ज्ञान का उपयोग अहित के परिहार और हित के सम्पादन में होना आवश्यक है। सम्यग्दृष्टि जीव सामग्री का उपयोग जीवन चलाने हेतु नहीं अपितु जीवन को सुधारने हेतु करता है। उपगूहन अंग (२०-०८-७३) यह अंग हमें सिखाता है कि दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। दूसरों के अवगुणों को हमें छिपाना चाहिए। उन्हें प्रकटकर उनका ढिंढोरा नहीं पीटना चाहिए, साथ ही अपने गुणों को छिपाना चाहिए, ताकि दंभ और अहंकार हावी न हो जाये, परन्तु आज इससे विपरीत स्थिति देखने में आती है। हम यह भूल गए हैं कि सूरज पर कीचड़ उछालने से या धूल उछालने से उसका कुछ नहीं बनता-बिगड़ता, अपितु हम ही कलुषित होते हैं। दूसरों पर कलंक कालिमा मड़ने से अपने मन की कालिमा ही अभिव्यक्त होती है। हम यदि विकास चाहते हैं, तो हमें गुणग्राही बनना चाहिए। गुणग्राही स्वयं भी सुखी होता है और दूसरों को भी सुखी बनाने में कारण बनता है। धर्मात्मा वही है जो स्वयं भी सुखी बने और दूसरों को भी सुखी बना दे। सच तो यह है कि अपने को लघु मानना महान् बनने की भूमिका है। स्थितिकरण अंग (२१-०८-७३) स्वयं जीते हुए दूसरे को भी जीवित रखना, बिगड़ती हुई स्थिति को बनाना इसी अंग का प्रतीक है। तन-मन-धन से जो स्वयं का जीवन चलाने में समर्थ है उसे यथाशक्ति दूसरों के जीवन की ओर भी ध्यान देना चाहिए। हम अपने लिए न जियें, हमारा जीवन दूसरों के लिए भी उपयोगी बने, यही हमारी भावना होनी चाहिए। गिरे हुए को बाँह पकड़कर ऊँचा उठाने वाला व्यक्ति महान् होता है, यही सच्चा धर्म है। आज समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों एवं रूढ़ियों के कारण नई पीढ़ी धर्म से विमुख हो रही है। हमारा कर्तव्य है कि उन्हें धर्म से विचलित होने से बचावें। हमें पाप का बहिष्कार करना चाहिए, पापी का नहीं। वात्सल्य अंग (२२-०८-७३) करुणा की अभिव्यक्ति वात्सल्य में है। वात्सल्य का धारक उदारहृदयी होता है। और उसकी अहम् की अभिव्यक्ति दूर हो जाती है। साधर्मियों के प्रति प्रेम का, सरलता का व्यवहार करना चाहिए। लोकाचार के रूप में मृतक के प्रति ऐसा दिखावा अवश्य किया जाता है। जबकि आज परस्परिक व्यवहार में सहजता सरलता और वात्सल्यभाव दृष्टिगोचर नहीं होता। यह सच्चा वात्सल्य नहीं यह तो ढोंग है, आडम्बर है। दूसरों के और स्वयं के जीवन को मिटाने वाला काल है, अतः क्यों हम किसी के जीवन में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न कर दूसरों को दुखी करें । दूसरों को दुख देने वाला खुद कभी चैन से नहीं रह सकता। अतः अपने तथा पर के प्रति वात्सल्य भाव रखना चाहिए। तभी हम इन दुःखों से बच सकते हैं। दूसरों के प्रति अभद्र विचार स्वयं को दु:ख में डालने के कारण बनते हैं। सरलता, सहृदयता, करुणा आत्मा का स्वभाव है। सुरक्षा सद्भावों में है, दुर्भावों से जीवन नष्ट हो जाता है। शिक्षा तभी हितकारी होती है जब हम स्वयं भी शिक्षा के अनुसार आचरण करें। आनंद की प्राप्ति वात्सल्य में है। प्रभावना अंग (२३-०८-७३) साधारण अर्थ में प्रभावना का आशय स्वार्थ परायणता का त्याग परहित का ही लक्ष्य है। परहित साधन हेतु दर्शनशुद्धि आवश्यक है। ‘‘अज्ञान-तिमिर व्याप्ति-मपाकृत्य यथायथम् । जिन-शासन-माहात्म्य प्रकाशः स्यात्प्रभावना ॥'' परहित साधन धन अथवा अन्य प्रकार की सहायता देने में ही सीमित नहीं होता। उसका प्रतिपालन तो व्यक्ति जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कर सकता है। हमारी आत्मा की भावना का परहितापेक्षी होना ही प्रभावना है। महात्मा दूसरे के कल्याण के लिए अपने जीवन को भी समर्पित करने में नहीं हिचकिचाते हैं, यह सबके लिए अनुकरणीय है, यह प्रभावना आत्मोद्धारक है। दूसरे की व्यथा को देखकर हमारी सम्पूर्ण आत्मा ही शारीरिक अवयवों के माध्यम से सहानुभूति अभिव्यक्त करती रहती है। इस अंग को धारण करने वाला किसी से ईष्र्या नहीं करता। वह दूसरों के विकास को देखना चाहेगा और उसमें हर्ष प्राप्त करेगा। द्वेष भाव प्रभावना का घातक है। तीर्थंकर अपने जीवन के अन्तिमक्षण तक यही उपदेश देते हैं-‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्' परस्पर में एक-दूसरे की कमियों को दूर कर जीवन को सम्पूर्ण बनाने की दृष्टि रखना यही सच्चा विश्वप्रेम है। शान्ति का उपाय (२४-०८-७३) सब जीव शान्ति पाना चाहते हैं, शान्ति कोई बाहर की वस्तु तो है नहीं जो उधार माँग ली जाये या खरीद ली जाये । शान्ति का निवास हमारी अपनी आत्मा में है और उसकी प्राप्ति तभी सम्भव है जब हम अपना जीवन सम्यक् बनायें। आज उपदेश सब सुनते हैं, परन्तु उसको जीवन में उतारने का प्रयत्न कितने व्यक्ति करते हैं। यह मानवीय दुर्बलता है। मन की गति को रोकने का प्रयत्न करें, तो शान्ति सम्भव है सम्यग्ज्ञान के आ जाने पर मन को रोकने की कला प्राप्त हो जाती है। सच्चा सुख कहाँ (२५-०८-७३) आत्मा की प्रफुल्लता ही सच्चा सुख है, किन्तु आज अज्ञान रूपी मल के कारण आत्मा का ज्ञानरूपी मणि अपनी शक्ति को प्रकट करने में असमर्थ है। अज्ञानरूपी कर्दम को धोने पर ही उज्ज्वलता प्राप्त हो सकती है। सुख का साधन विषय-भोग नहीं अपितु उनका त्याग है। जहाँ ज्ञानरूपी दीपक प्रज्ज्वलित है, मनरूपी हाथी नियंत्रित है और वैराग्य ही सभी वृत्तियों का संचालक है वहाँ सच्चे सुख की उत्पत्ति अवश्यंभावी है। सम्यग्ज्ञान (२६-०८-७३) ज्ञान आत्मा का सहज स्वभाव है यदि सम्यग्ज्ञान नहीं है तो तीन काल में भी सुख का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता। केवल शाब्दिक ज्ञान किसी काम का नहीं। वही ज्ञान सच्चा ज्ञान है जो सुख को देने वाला और दुःख को दूर करने वाला हो। जो व्यक्ति हेय-उपादेय को सम्यक् प्रकारेण जान लेता है, वह ज्ञान सुख का अनुभव कर लेता है। सम्यक्चारित्र (२७-०८-७३) सुख के लिए तीन बातों की आवश्यकता होती है-श्रद्धान, विवेक और पुरुषार्थ अर्थात् चारित्र। आज व्यक्ति इनमें एक ही बात की उपलब्धि द्वारा सुख की कामना करता है यह त्रिकाल असम्भव है। ‘ज्ञान' सुख को व्यक्ति के दृष्टिपथ में अवश्य ला देता है पर उसका अनुभव कराने में असमर्थ रहता है। इस लक्ष्य तक पहुँचाने की सामर्थ्य चारित्र द्वारा आती है। चारित्र वे चरण हैं जो हमें अपने गंतव्य स्थान तक पहुँचाने में सहायता देते हैं। ज्ञान नेत्र है, नेत्र के बिना लक्ष्य का देखना कठिन है, किन्तु पैरों के बिना क्या नेत्र लक्ष्य तक पहुँचाने में समर्थ होंगे? कदापि नहीं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सुख प्राप्ति के उपायों में चारित्र का स्थान प्रमुख है। प्रश्न यह है कि चारित्र किसे समझा जाये। चारित्र इन्द्रिय वासनाओं से दूर है, प्रमाद से परे है और उसमें विलासिता रंच मात्र भी नहीं होती। पूर्ण शक्ति के साथ एकमात्र सुनिश्चित लक्ष्य की ओर जब साधक की गति होती है तब वह चारित्रवान् कहलाता है। विज्ञान को सहज ही निज में जगाना। रे! हाट जाकर उसे न खरीद लाना ॥ तू चाहता उसे यदि अतिशीघ्र पाना। जाना नहीं भटकना न कहीं न जाना ॥ इस तरह आचार्य परमेष्ठी की देशना सर्वत्र फैलने लगी। नये-नये ज्ञान चिंतन अनुभव का स्फुरण होने लगा। भव्यात्मायें आकर्षित होने लगीं। ऐसे सहज स्वाभाविक ज्ञान प्रकाश को प्रणाम करता हूँ... आपका शिष्यानुशिष्य
  5. until
    श्री 1008 श्री मज्जिनेन्द्र जिन्बिम्ब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा गजरथ महोत्सव एवं विश्व शान्ति महायज्ञ दिनांक 11 जनवरी 2019 शुक्रवार से 17 जनवरी 2019 गुरूवार तक आशीर्वाद - परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महामुनिराज सानिध्य - पूज्य मुनिश्री योगसागर जी महाराज ससंघ पूज्य मुनिश्री अभयसागर जी महाराज ससंघ पूज्य मुनिश्री पूज्यसागर जी महाराज ससंघ प्रतिष्ठाचार्य : बाल ब्र. विनय भैया जी स्थान : तहसील ग्राउंड परिसर, दमोह निवेदक : आयोजक नशिया मंदिर परिवार एवं सकल दिगंबर जैन समाज दमोह अधिक जानकारी के लिए क्लिक करें
  6. खुरई के श्री गुरूकुल लाल जैन मंदिर परिसर में हुए प्रवचन : हिन्दी भाषा सर्वाेपरि है, इसमें प्राचीनकाल में जाे शाेध हुए, उन पर ही अब विदेशी शाेध कर रहे हैं छोटा बालक अंतस जैन ने किया गोलक की राशि का दान किया व किया आचार्य श्री का पद प्रक्षालन खुरई (सागर)- आचार्य गुरुदेव की मंगल देशना रविवार 23 दिसंबर गुरुकुल प्रांगण। बड़ी तादात में उपस्थित जनसमूह । खुरई - हम 70 वर्ष बाद भी पूर्ण रूप से स्वतंत्र नहीं हाे पाए, अंग्रेजी आज भी हमें परतंत्रता की बेड़ियाें में जकड़े हुए है, हम तब ही स्वतंत्र होंगे जब हमारे मन से अंग्रेजियत का भूत समाप्त होगा। जब तक हम भारतीय संस्कृति के अनुरूप अपने बच्चों को संस्कार नहीं देंगे। अपनी मातृभाषा हिन्दी को नहीं अपनाएंगे तब तक हमारा हित संवर्धन नहीं हो पाएगा। पाश्चात्य संस्कृति में भौतिक सुख की प्राप्ति तो हो सकती है परन्तु आत्मिक शांति मिलना बहुत दूभर काम है। हिन्दी भाषा सर्वोपरि है, काैन कहता है कि हिन्दी में शाेध नहीं हाे सकता, हिन्दी से देश विकास नहीं कर सकता, अंग्रेजियत की साेच हमारे ऊपर लाद दी गई। जिन देशाें ने अपनी भाषा काे अपनाया वह विकसित हाे चुके हैं, चीन, फ्रांस, इजरायल,रूस, जर्मन जैसे देशाें में अंग्रेजी का काेई स्थान नहीं है। वह अपनी मातृभाषा से विकसित देश बने हैं। यह बात गुरुकुल के लालजैन मंदिर परिसर में आयोजित धर्मसभा में आचार्यश्री विद्यासागर महाराज ने लगातार 89 मिनट प्रवचन देते हुए कही। उन्हाेंने राष्ट्र में व्याप्त गंभीर समस्याओं बेरोजगारी, आतंकवाद, सांप्रदायिक तनाव, चारित्रिक पतन, अराजकता, भुखमरी, आरक्षण जैसे मुद्दों पर मर्मस्पर्शी उद्बोधन दिया। उन्हाेंने कहा कि मेरे लिए किताब का प्रकाशन महत्वपूर्ण नहीं है, किताब से कितना प्रकाश मिलता है यह महत्वपूर्ण हैं। बच्चाें काे वह किताबें पढ़ने मिलें जिनसे उनका जीवन आलाेकित हाे सके। हम देख रहे हैं कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली हमारे बच्चों को अनेक प्रकार की डिग्रियों से तो विभूषित कर देती है, पालकों के लाखों रुपया व्यय करने के बाद भी रोजगारोन्मुखी शिक्षा नहीं दे पाती। मात्र 5-6 हजार रूपए के वेतन के लिए अनेक पोस्ट ग्रेजुएट स्टूडेंट हजारों की संख्या में पंक्तिवद्ध खड़े नजर आते हैं, ऐसी शिक्षा किस काम की। यदि विश्व के विकसित राष्ट्रों पर नजर डाली जाए तो उनमें से चीन, अमेरिका जैसे अधिकांश राष्ट्रों ने सिर्फ इसलिए सफलता पाई कि उन्होंने अपनी मातृभाषा में ही बच्चों को पढ़ाकर योग्य एवं नेक इंसान बनाया। हम अपनी मातृभाषा हिन्दी को अपनाकर ही विकसित राष्ट्र की श्रेणी में अग्रिम स्थान प्राप्त करने की क्षमता रखते हैं। रविवार काे नवीन जैन मंदिर में आचार्यश्री के पूजन से पहले पैर प्रक्षालन एवं शास्त्र भेंट की बाेली लग रही थीं। तभी एक बच्चा अंतस जैन पिता सुनील जैन शुद्ध वस्त्राें में अपनी गुल्लक लेकर मंच के पास पहुंच गया। संचालन कर रहे सुनील भैया जी काे गुल्लक दिखाई। तब उन्हाेंने मंच पर बच्चे काे बुला लिया, उससे पूछा क्या बात है। उसने आचार्यश्री के समक्ष गुल्लक रखकर निवेदन किया कि गुल्लक की राशि दान कर आपके पैर प्रक्षालन करना चाहता हूं। बच्चे की बात सुनकर सभी भाव विभाेर हाे गए। आचार्यश्री ने चरण छूने की अनुमति दी, बच्चे ने आशीर्वाद लिया, फिर पैर प्रक्षालन भी कराए। बच्चे की भावना और संस्काराें के बारे में भैया जी ने कहा, यह हमारी संस्कृति है।
  7. बीना का पुण्य भारी। अभी और मिलेगा सानिध्य। पूज्य आचार्य भगवन की साक्षात अनुकृति, निर्यापक मुनिश्री समयसागर जी महाराज ससंघ बीना में विराजमान हैं। बीना नगरी का सौभाग्य है कि उनको पूज्य मुनिसंघ का सानिध्य मिल रहा है। मुनिसंघ को श्रीफल समर्पित करने हेतु मंडी बामोरा, खुरई एवम अन्य स्थानों से समाज जन पधारे हैं लेकिन पूज्य मुनिसंघ का मंगल विहार बीना से फिलहाल नही हो रहा है। बीना समाज के पुण्य की अनुमोदना।
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