पत्र क्रमांक-२०३
१७-०५-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
परम चैतन्य शक्ति के विलास स्वरूप गुणों के ज्ञाता दादागुरुवर परमपूज्य ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में प्रणाम करता हूँ...।
हे गुरुवर ! परमार्थ रसिक स्वानुभूति का रसास्वादन करने वाले आपके लाडले शिष्य प्रिय आचार्य मेरे गुरुवर ने निजसम आनन्दानुभूति सर्व सामान्य को प्राप्त हो इस हेतु पर्युषण पर्व में ज्ञान गंगा बहा दी। जो बाद में चातुर्मास स्मारिका में प्रवचनांश प्रकाशित हुए। जिनका सार संक्षेप आपको प्रेषित कर रहा हूँ -
उत्तम क्षमा
“(०१-०९-७३) मोह नींद से सोये हुए प्राणियों को जगाने के लिए पर्युषण पर्व आते हैं। आत्मा के अनन्त गुणों में क्षमा एक उत्कृष्ट गुण है, यह आत्मा का सहज धर्म है। क्षमा कायरों का काम नहीं वीरों का आभूषण है। क्षमा तभी हो सकती है जब क्रोध न हो, क्रोध क्षमा का नाश करता है। इसके लिए इष्टअनिष्ट बुद्धि का परित्याग करना आवश्यक है। स्वार्थ बुद्धि को हटाने का प्रयत्न करना जरूरी है। क्षमा धर्म से उत्पन्न आनंद अलौकिक होता है। निंदक और प्रशंसक दोनों के प्रति समान भाव हों, तभी सच्ची क्षमा है। क्षमा को प्राप्त किए बिना अनन्तचतुष्टय की उपलब्धि नहीं हो सकती। क्रोध व्यवहार में भी भयावह है। क्रोध की जागृति शरीर के लिए भी हानिकर है क्रोधी व्यक्ति रौद्ररूप धारण कर लेता है। उसका विवेक नष्ट हो जाता है, उसका ज्ञान-अज्ञान में परिवर्तित हो जाता है। क्रोधी कषाय के वशीभूत हो पर के साथ-साथ स्वयं का भी अहित कर लेता है। संतोष की हानि से शरीर का वैभव तक नष्ट हो जाता है। तब आत्मा का स्वभाव कैसे बना रह सकता है। क्रोध की स्थिति में शरीर का रोम-रोम आक्रोश में आ जाता है, चेहरे पर उग्रता आ जाती है, शरीर का खून पानी बन जाता है, दूध विष में परिणत हो जाता है। क्रोध भयंकर अग्नि है, इससे सदैव दूर ही रहना चाहिए। अतः क्षमा को अपनाना चाहिए।
उत्तम मार्दव
(०२-०९-७३) नरक गति में क्रोध, देव गति में लोभ, तिर्यंच गति में माया चरम सीमा तक पहुँच जाती है और मनुष्य गति में मान-सम्मान की फिकर बड़ जाती है। जो व्यक्ति चढ़ता है वह झुककर ही ऊपर चढ़ सकता है। सीधा होकर नहीं चढ़ सकता। वहाँ पर नतमस्तक विनय झुकाव ही चाहिए। तभी ऊँचा चढ़ सकता है। सीढ़ी पर नीचे देखकर ही चढ़ना पड़ता है। मान जिसके ऊपर आरूढ़ हो जाता है। वहाँ उपकार करने की चेष्टा नहीं रहती, जो अपने को लघु मानता है वही व्यक्ति सेवा-सुश्रुषा व पूजा कर सकता है। मनुष्य जीवन में सर्वप्रथम इस कषाय पर विजय प्राप्त करना है। अभिमान को अपनाने वाला व्यक्ति का पुरुष है, दुर्जन है। प्रशमभाव व सम्वेग भाव जब जागृत हो जाता है तब वह तीन लोक से पूजा नहीं चाहता। शारीरिक व आर्थिक शक्तियों के द्वारा कोई भी तीन लोक का नाथ नहीं बन सकता। जो जितने-जितने अंश में राग, अभिमान आदि को समाप्त करता जाता है, वह उतने-उतने अंश में बड़ा होता जाता है। वास्तविक निधि निरभिमानता अक्रूर भाव है। ये सब कल्पवृक्ष रत्न हैं, चिन्तामणि-कामधेनु से भी बढ़कर हैं। वास्तविक सम्मान परिग्रह के अभाव में मिलता है। मृत्युंजयी बनने का रास्ता यही है। जो यह सोचता है कि मेरी नाक नीची न हो जाये, नाक नहीं कट जाये। उसका जन्म अगले भव में हाथी योनि में होता है। जिसकी नाक लम्बी व सड़क पर लोटती रहती है। जो मान रखता है उसी का अपमान होता है। जो निरभिमानी है उसका कभी अपमान नहीं होता।
उत्तम आर्जव
(०३-०९-७३) सरलता का नाम आर्जव है यह आत्मा का एक पुनीत धर्म है। विचार, कथनी व करनी जब एक होते हैं तभी सदाचार चलता है सत्-आचार महान् गम्भीरता को लिए हुए है। आर्जव धर्म पर चलने वालों को कोई कठिन कोई चिन्ता नहीं है जब पैसे में वृद्धि होती है तब गुणों का ह्रास होने लगता है। पैसा बिना आरम्भ के नहीं आ सकता और आरम्भ बिना पाप के नहीं हो सकता। आर्जव धर्म तत्काल शान्ति देता है और कुटिलता दुःखों की जननी है। हमें सरलता रखनी चाहिए।
उत्तम शौच
(०४-०९-७३) जो अच्छे कार्यों में बाधक बन जाता है वह है अन्तराय कर्म । मोह से विनिर्मुक्त होना ही शौच धर्म का पालन करना है। आठ कर्म होते हैं, इनमें मोहनीय कर्म राजा के समान है और बाकी सात कर्म सेनायें हैं। मनुष्य गति में यह जीव स्वतंत्र है परन्तु स्वर्ग में परतंत्र है। मनुष्य ही मोह को नष्ट कर सकता है।
उत्तम सत्य
| (०५-०९-७३) सत्यधर्म अर्थात् भाव-श्रुतज्ञान, केवलज्ञान को प्राप्त कराने वाला है। जिसमें समीचीनपना-सच्चाई है वही केवलज्ञान को प्राप्त कर सकता है। ज्ञान को निर्मल बनाने के लिए यह जीवन मिला है। सत्यधर्म तब आ सकता है जब राग-द्वेष का अभाव हो । राग-द्वेष की निवृत्ति के लिए ही भव्य जीव चरित्र को अंगीकार करता है। यह आत्मा सत्यं शिवं सुन्दरम् तभी बनेगा जब हमारा ज्ञान समीचीन होगा। सत्य जीवित अवस्था का नाम है और असत्य मृत अवस्था का नाम है। अतः असत्य का कोई मूल्य नहीं है। आत्मोत्थान के लिए सत्य का आश्रय ही सर्वोपरि है।
उत्तम संयम
(०६-०९-७३) आचरण, चेष्टा, चारित्र समीचीन हो उसी का नाम संयम है। संयम आत्मा का ही एक अनन्य धर्म है। जीव का संजीवन संयम है बुद्धिमान वही है जो संवर को अपनाता है और आस्रव को छोड़ता है। संवर संयमरूप है। काल का उपयोग करने वाला व्यक्ति बुद्धिमान कहलाता है। काल तो अचेतन है वह उल्टा नहीं है हम ही उल्टे हो गए हैं। हमारी परिणति उल्टी हो गयी है, हमारी नींद नहीं खुलती है। हमें काल को दोष न देकर यह सोचना चाहिए कि इस पंचम काल में भी मोक्षमार्ग का अभाव नहीं है। हम संयम के बल पर ही आत्मा का दर्शन कर सकते हैं। हम रोग से निवृत्त तो होना चाहते हैं पर पथ्य व दवा के अनुसार चलना नहीं चाहते। संयम में विषय-कषायों पर कंट्रोल है-ब्रेक है। आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चारों संज्ञाएँ ही असंयम हैं, ये ही चारों गतियों में घुमा रहीं हैं। अब इस मनुष्यभव में तो इसे छोड़ो, इनको करते-करते अनादिकाल हो गया है। इन चारों संज्ञाओं का नाम ही संसार है। इनका जहाँ अभाव है वहीं मुक्ति है।
उत्तम तप
(०७-०९-७३) दुनियाँ में जितनी भी अच्छी चीजें बनती हैं वह तप करके ही बनीं हैं, जैसे सोना । अगर पत्थर में सोना न हो तो उसे कोई नहीं चाहेगा। उसी प्रकार शरीर में आत्मा विद्यमान है यदि, उसमें आत्मा न हो तो शरीर को कोई नहीं चाहेगा। यह जीव आठ कर्म रूपी कीट से भरा है और राग-द्वेष आदि कालिमा हैं। उसको सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र आदि रूप औषध लगाने से और ध्यानरूपी अग्नि में पटक कर, तपरूपी धौंकनी चलाने से हम शुद्ध चिदानन्दरूप आत्मा का दर्शन कर सकते हैं। वास्तविक तप इच्छा निरोध है और आभ्यन्तर तप के द्वारा ही इच्छा का निरोध होता है। बाह्य तप, साधन हैं । तप के बिना इन्द्रियाँ चंचल रहती हैं। आप मन को तो कंट्रोल करना चाहते हैं पर तन (इन्द्रियों को) को नहीं, यह तीन काल में भी सम्भव नहीं है।
उत्तम त्याग
(0८-०९-७३) सुख हर एक जीव के लिए अभीष्ट है, किन्तु सुख का रास्ता कौन-सा है और सुख कहाँ है? यह ज्ञात नहीं। हम सुख चाह रहे हैं पर दु:ख की वस्तुओं का संग्रह कर रहे हैं। आज हम सुख का रास्ता बता रहे हैं, उसके लिए मेहनत करने की भी जरूरत नहीं है। सुख का मार्ग निवृत्ति है, प्रवृत्ति नहीं। सुख का मार्ग त्याग में है, छोड़ने में है, लेने में नहीं। हमने जो पर को पकड़ रखा है उसे छोड़ना ही त्यागधर्म है। उपाय उसे कहते हैं जो उपादेय की प्राप्ति करा दे और अपाय उससे कोशों दूर पहुँचा देते हैं। सम्यग्दृष्टि गृहस्थ संसार शरीर और भोग से अनासक्त रहता है, उसमें संवेगभाव जागृत रहता है। वह सदाचार सम्पन्न रहता है। अनन्तानुबन्धि का त्याग हो जाता है। उसमें विवेक जागृत हो जाता है वह ऐसा अनर्थ नहीं करता जिससे उसका अनन्त संसार बढ़ जाये।
उत्तम आकिंचन्य
(०९-०९-७३) धर्मक्षेत्र में वह सबसे ज्यादा पूज्य है जिसके पास कुछ भी नहीं है। परिग्रही लोग निस्परिग्रही की पूजा करते हैं। वास्तविक सुखी निस्परिग्रही है। हम परिग्रह रूपी आँखों के द्वारा भगवान को नहीं देख सकते। कंचन के पीछे दौड़ते हुए आकिंचन्य धर्म प्राप्त नहीं हो सकता और उसे धारण किए बिना सांसारिक दुःखों से छुटकारा नहीं मिल सकता।।
उत्तम ब्रह्मचर्य
(१०-०९-७३) प्रायः सभी दार्शनिकों ने सुख का उद्गमस्थान ब्रह्म को ही माना है। जो उचित भी है और अनुभव सिद्ध बात भी है। ब्रह्मानंद का अनुभव परिग्रह मुक्त दिगम्बर मुद्रा धारी मुनि लोग करते हैं। उन संत महर्षियों के सदुपदेशों को पूर्ण रूपेण अनुसरण करने वाले विरले ही होते हैं। जो शेष हैं उनमें महर्षियों के सदुपदेशों को अनुकरण करने की इच्छा रखते हैं तो उनके पदानुसार इस उच्च धर्म को धारण करने हेतु वे मार्ग प्रशस्त करते हैं। वह मार्ग है एकदेश रूप ब्रह्मचर्य को स्वीकार करना अर्थात् विवाह संस्कार द्वारा स्वदार संतोष धारण करना । विवाह सदाचार का प्रतीक है, विवाह के बाद व्यक्ति सम्यक्त्वी हो रहता है। विवाह संस्कार सिर्फ मनुष्य जाति में है। मैथुन क्रिया पर कंट्रोल करने के लिए विवाह संस्कार होता है सो बात नहीं, पर सीमित क्रिया हो इसी कारण विवाह संस्कार होता है। विवाह संस्कार के बाद वह अन्य को माँ, बहिन, बेटी समझे। इससे उच्छृखलता पर कंट्रोल हो जाता है। एक दृष्टि में वह पूर्ण ब्रह्मचारी बनने का पात्र हो जाता है। उसका अनन्त संसार सीमित हो जाता है। ब्रह्मचर्य ही परमोत्कर्ष जीवन है, भोगाभिलाषा मरण है। उस ब्रह्म में तल्लीन जो ब्रह्मचारी हैं मैं उन्हें शतशः प्रणाम करता हूँ।
इस तरह पर्युषण पर्व में महती धर्म प्रभावना हुई, ब्यावर के सुशील जी बड़जात्या वर्तमान जैन समाज अध्यक्ष ने भी बताया -
रथयात्रा के बीच में हुए प्रवचन
“अपने पर्युषण पर्व से पहले श्वेताम्बरों के पर्युषण पर्व चलते हैं। उस दौरान पूरे श्वेताम्बर भाई आचार्यश्री के प्रवचन सुनने आते थे। पूनम के दिन १५-०९-७३ को ब्यावर में रथयात्रा जुलूस मेरे पिताजी ताराचंद जी बड़जात्या की तरफ से निकलवाया गया था। जिसमें आचार्यश्री संघ सहित सम्मिलित हुए थे और अजमेरी गेट के बाजार में तथा महावीर बाजार में रथयात्रा को रोककर आचार्यश्री जी के प्रवचन हुए थे। जिनको जैन-जैनेतरों की हजारों की संख्या ने सुनकर व्यसनों का त्याग किया था।'
इस सम्बन्ध में अजमेर के कैलाशचंद जी पाटनी ने ‘जैन गजट' २७ सितम्बर ७३ की कटिंग उपलब्ध करवायी। जिसमें माणकचंद कासलीवाल का समाचार इस प्रकार प्रकाशित है -
पर्युषण पर्व
‘ब्यावर-प्रातः स्मरणीय श्री १०८ श्री आचार्य विद्यासागर जी महाराज का चातुर्मास होने से यहाँ अपूर्व धर्म प्रभावना हो रही। श्रावक-श्राविकायें पर्व समाराधन एवं धार्मिक अनुष्ठान में तत्पर रहे। प्रतिदिन दसलक्षण धर्म की पूजा-पाठ के उपरान्त मध्याह्न में आचार्यश्री का प्रत्येक धर्म पर सारगर्भित प्रवचन होता था। भा.शु. १४ एवं असौज वदी १ को विशेष समारोह के साथ कलशाभिषेक हुए तथा भा.शु. १५ को रथयात्रा हुई जिसमें आचार्यश्री का व्याख्यान हुआ। आसौज वदी २ को समस्त जैन समाज एकत्रित होकर आचार्यश्री के चरणों में कृतज्ञता एवं क्षमापना निमित्त उपस्थित हुए। इस अवसर पर श्री धर्मचंद जी मोदी ने बड़े प्रभावक शब्दों में अपनी लघुता प्रगट करते हुए भावपूर्ण कृतज्ञता प्रगट की। पर्युषण पर्व में श्री नसियाँ जी में श्री पं. हीरालाल जी सिद्धान्त शास्त्री एवं श्री पंचायती मन्दिर जी में श्री प्रकाशचंद्र जी जैन तत्त्वार्थ सूत्र एवं दशलक्षण धर्म का विवेचन करते थे। आसौज वदी ४ रविवार १६ सितम्बर ७३ को भारत जैन महामण्डल के तत्त्वावधान में विश्व मैत्री दिवस एवं सामूहिक क्षमापना का समायोजन स्थानीय लक्ष्मी मार्केट में हुआ। इस अवसर पर पूज्य श्री १०८ आचार्य विद्यासागर जी महाराज का हजारों व्यक्तियों की उपस्थिति में विश्व मैत्री विषय पर सारगर्भित भाषण हुआ।
आचार्यश्री का प्रवचन प्रतिदिन प्रातः ७:४५ से ८:४५ तक एवं क्षुल्लक स्वरूपानन्दजी का प्रवचन मध्याह्न २:३० से ३:३० बजे तक सेठ साहब की नसियाँ में होता है।'' इस सम्बन्ध में जैन सन्देश' २००९-७३ में भी समाचार प्रकाशित हुआ। इसी तरह दीपचंद जी छाबड़ा ने भी बताया कि भादवा सुदी २ को आचार्य शान्तिसागर जी महाराज का स्मृति दिवस बनाया गया। जिसमें आचार्यश्री जी ने बहुत ही मार्मिक और आकर्षक विनयांजलि प्रस्तुत की एवं आसौज सुदी ४ को पंचायती नसियाँ में पाण्डुकशिला पर वार्षिक कलशाभिषेक हुआ जिसमें सकल समाज उपस्थित हुई । इस सम्बन्ध में इन्दरचंद जी पाटनी ने ‘जैन गजट' १८ अक्टूबर १९७३ की एवं जैन संदेश ११ अक्टूबर १९७३ की एक कटिंग दी। जिसमें अमरचंद जैन का समाचार इस प्रकार प्रकाशित है -
पाण्डुक शिला पर कलशाभिषेक
आ.श्री १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज के सान्निध्य में पंचायती नसियाँ जी ब्यावर में आसोज सुदी ३ रविवार ३०-०९-७३ को पाण्डुकशिला पर कलशाभिषेक महोत्सव विभिन्न कार्यक्रमों के साथ सम्पन्न हुआ। प्रातः ११ बजे से चौसठ ऋद्धि मण्डल विधान एवं मध्याह्न में विश्व धर्म प्रदर्शनी का आयोजन हुआ जिसका उद्घाटन श्री मानमल जी बाकलीवाल द्वारा किया गया। इस प्रदर्शनी में श्री भंवरलाल जी कुमावत द्वारा चावल व चीये के दाने पर नवकार मंत्र, छहढाला के दोहे तथा मेरी भावना को दो इंच के आकार पर प्रदर्शित किया। सायंकाल ४ बजे श्री सेठ राजमल जी कासलीवाल द्वारा कलशाभिषेक किए गए जिसमें ५०१/बोली द्वारा भेंट किया। रात्रि को १०८ दीपक की आरती हुई तथा रात्रि भोजन त्याग अभिनय विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ पं. बुद्धसेन जी द्वारा प्रस्तुत किया गया।'
इस प्रकार धर्म प्रभावना के विभिन्न आयामों के उपस्थित होने पर आचार्यश्री प्रवचनों के माध्यम से रूढ़ीवादी-घुन लगे मानस को तरोताजा कर देते थे और समाज में वैचारिक क्रान्ति के माध्यम से नयी सुबह का सूत्रपात कर देते थे। ऐसे गुरु-शिष्य के चरणों में नतशिर प्रणति निवेदित करता हूँ...
आपका शिष्यानुशिष्य