पत्र क्रमांक-२०४
१८-०५-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
रत्नत्रयधारी गुरुओं के चरणों में श्रद्धावनत दादागुरु परमपूज्य ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में नमोऽस्तु करता हूँ...
हे गुरुवर! आप मंच पर जब केशलोंच किया करते थे तब बड़ी प्रभावना हुआ करती थी उस केशलोंच को देखने के लिए जैन-अजैन जनता एकत्रित होती थी किन्तु आपके जाने के बाद मेरे गुरु ने केशलोंच की क्रिया मंच पर न कर एकान्त में करना प्रारम्भ कर दी थी इसका कारण एक बार आचार्यश्री जी ने बताया था-इस क्रिया में प्रोपोगण्डा प्रवेश कर गया था और अजैन लोग विरोध भी करने लगे थे तब विचार किया कि यह मुनि की आवश्यक क्रिया है और मूलगुण है अतः यह दिखाने की जरुरत नहीं है यह तो स्वाश्रित एकांत में की जाना चाहिए। कोई देखे तो कोई दोष नहीं किन्तु प्रदर्शन भाव ठीक नहीं। गुरुदेव के द्वारा उपरोक्त आगमयुक्त बात को सुनकर हम सभी लोग संतुष्ट हुए।
इस तरह ब्यावर चातुर्मास में आपके प्रिय आचार्य मेरे गुरुदेव ने अन्र्तमुखी साधना प्रारम्भ कर दी और ३ अगस्त ७३ को दीक्षोपरान्त बीसवाँ केशलोंच किया। यह केशलोंच एकान्त में कक्ष के अन्दर किया किन्तु लोगों को भनक लग जाने से लोग केशलोंच देखने एकत्रित हो गए। उन्हें यह बात नहीं जमी और साधना में बाधा महसूस हुई तो १५ नवम्बर ७३ को दीक्षोपरान्त इक्कीसवाँ केशलोंच डूंगरी पर जाकर किया, जो बस्ती से लगभग ४ कि.मी. की दूरी पर है। गुरुदेव की आगमोक्त चर्या को देख पं. श्री हीरालाल जी सिद्धान्त शास्त्री (साढूमल वाले) ब्यावर ने विनयांजलि स्वरूप लेख लिखा जो ब्यावर चातुर्मास की स्मारिका में प्रकाशित हुआ -
आचार्य श्री विद्यासागर जी
‘‘इधर पचास वर्षों में दि. जैन समाज के सभी आचार्यों और मुनिराजों के दर्शन करने और उनके प्रवचन सुनने का सुअवसर और सौभाग्य प्राप्त हुआ है, परन्तु इतनी अल्प आयु में आचार्य पद को प्राप्त करने वाले और वह भी अपने ही दीक्षा और विद्या गुरु के द्वारा इस गुरुपद को सुशोभित करने वाले आप समग्र दि. समाज में अद्वितीय ही है। दक्षिण-वासी और कन्नड़-भाषी होने पर भी आपने इधर उत्तर भारत में आकर जिस शीघ्रता से हिन्दी, संस्कृत और प्राकृत भाषा पर अधिकार प्राप्त किया, गुरुमुख से संस्कृत व्याकरण, साहित्य, धर्मशास्त्र और न्याय-ग्रन्थों का अध्ययन कर उन्हें हृदयंगम किया तथा अत्यल्पायु में दीक्षा लेकर जिस दृढ साधना से उसका पालन प्रारम्भ किया, उसे देखकर आपके गुरुवर स्व. आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज ही आश्चर्य चकित और आनन्द से गद्गद हो गये थे। आपके इन लोकोत्तर गुणों को देखकर तथा आचार्य पद के योग्य सभी विशिष्टताओं का अनुभव कर आपने समाधिमरण अंगीकार करने के पूर्व ही उन्होंने सर्वसंघ के समक्ष अपना गुरुतर भार उतार कर आपको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया और आपके नायकत्व में एक सामान्य साधु के समान अपने दोषों की आलोचना कर मारणान्तिकी सल्लेखना को धारण किया, इससे ही आपकी महत्ता स्वयं सिद्ध है।
मैं आपके ब्रह्मचारी काल से ही आपसे परिचित हूँ। आप में भद्रता, विनयशीलता और उदासीनता तो जन्म-जात ही थी। इधर साधु बनने और आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने पर तो आपके नैसर्गिक गुण मशीन पर रखे गए मणियों के समान अति दैदीप्यमान हो रहे हैं। गुरुदेव की असीम अनुकम्पा से उनके ही समान आप में कवित्व शक्ति प्रकट हुई है, जो उत्तरोत्तर विकासोन्मुखी हो रही है, यह बात इसी स्मारिका में प्रकाशित आपकी निजानुभवशतक आदि रचनाओं से पाठकों को विदित होगी। अपने गुरु के समान ही आप शास्त्र पठन-पाठन में निरन्तर संलग्न रहते हैं, उनके ही समान बाल ब्रह्मचारी हैं, फिर भी अल्पवय में दीक्षा लेकर और आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होकर उनसे कई कदम आगे बढ़ रहे हैं। | भवाभिनन्दिता और जन-प्रशंसा से आप सदा दूर रहना चाहते हैं, यह बात इस चातुर्मास में भलीभांति से सबके अनुभव में आई है। यही कारण है कि बिना कोई पूर्व सूचना के प्रथम केशलोंच आपनेअपने निवास की एकान्त कोठरी में किया, किन्तु समाचार मिलते ही श्रावक और श्राविकाओं की भीड़ इकट्ठी होकर गुरु का गुणानुवाद करने लगी। यह सब आपको रुचिकर नहीं लगा और अभी दूसरा केशलोंच शहर से तीन मील की दूरी पर स्थित माताटेकरी पर जाकर सर्वथा एकान्त में किया। धर्मशास्त्र जब एकान्त में केशलोंच करने का विधान करते हैं, तब साधु जन क्यों जन-प्रदर्शन में केशलोंच करते हैं? यह प्रश्न आपके सामने मानो सदा खड़ा रहता है और उसी के उत्तर-स्वरूप आप एकान्त में केशलोंच की जिनोपदिष्ट आज्ञा का प्रतिपालन करते हुए आगे बढ़ रहे हैं।
आने-जाने वाले दर्शनार्थियों की ओर भी आपका ध्यान बहुत कम ही जाता है, कारण कि इसे भी आप अपनी अप्रमत्त दशा से गिरकर प्रमत्त दशा में आने का अनुभव करते हैं। यही कारण है कि आप आने-जाने वाले बाहरी दर्शनार्थी तक से भी उसके नाम-ग्रामादि का परिचय तक नहीं पूछते हैं। यह बात आपकी निरीहिता और वीतरागता की ही द्योतक है। अनेक भोले दर्शनार्थियों को आपकी इस प्रवृत्ति से कभी कुछ उद्वेग या क्षोभ का अनुभव सा होता है, पर वे ये नहीं सोचते हैं कि हम वीतरागता के दर्शन करने और उसे पाने के लिए आये हैं अथवा सरागता के दर्शन करने और उसे लेने के लिए आये हैं? यदि साधुसन्त आने-जाने वालों से उनका परिचय ही पूछते रहें तो उससे वीतरागता का संचय होगा, या सरागता का? इस बात को नहीं सोचते हैं।
आपके स्वभाव और गुणों के अनुसार ही आपके संघ में श्री क्षुल्लक मणिभद्रसागर जी और श्री क्षुल्लक स्वरूपानन्द जी विराजमान हैं और अपने आचार्य का पूर्ण रूप से अनुसरण करने में संलग्न है, यह बात अभी दोनों सन्तों के द्वारा एकान्त में किए गए केशलोंचों से सर्वविदित है। मैं ऐसे वीतरागी आचार्य श्री के चरणों में नतमस्तक हूँ।''
इस तरह आपकी कसौटी में जो खरा उतरा हो उसकी महिमा से कौन प्रभावित नहीं होगा और यही कारण है कि विद्वान् हो या सामान्य व्यक्ति उनका प्रथम समागम पाकर उनका हो जाता है। अपनी श्रद्धा-अपनी आस्था उनके चरणों में समर्पित कर देता है। ऐसे वीतरागी सन्त जिनसे राग हो जाता है और तन-मन समर्पित हो जाता है, उनके चरणों का अनुरागी मैं आपश्री को नमस्कार करता हूँ...
आपका शिष्यानुशिष्य