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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - 205 - ब्यावर चातुर्मास के संस्मरण

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    Vidyasagar.Guru

    पत्र क्रमांक-२०५

    १९-०५-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर

     

    स्वमहासत्ता की साधक अवान्तर सत्ता में स्थित दादागुरु परमपूज्य ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में त्रिकाल वंदन करता हुआ... हे गुरुवर! जिस तरह से हीरा को जिस पहलू से तरासो वहीं से चमक उठता है। इसी प्रकार से व्यावर चातुर्मास में आपके लाडले शिष्य प्रिय आचार्य को श्रावकगण जिस पहलू से देखते उसी पहलू से वे एक आदर्श के रूप में गुणवान् दिखते । ब्यावर नगर के जिन लोगों से भी मैंने अपने गुरु के बारे में पूछा तो हर कोई उनके अनेक पहलुओं के संस्मरण सुनाते । उनमें से कुछ आपको बता रहा हूँ। किशनगढ़ के प्रकाशचंद जी गंगवाल ने अगस्त २०१५ में बताया -

     

    आचार्यश्री की व्यावहारिक ज्ञान की पकड़

    ‘‘ब्यावर चातुर्मास में मेरी ससुराल शान्तिलाल जी रांवका परिवार के यहाँ चौका लग रहा था। उस समय मैं वहीं पर था आचार्यश्री जी का पड़गाहन हो गया मैंने भी आहार दिया। आहार के पश्चात् आचार्यश्री मुझे देखकर हँसने लगे और बोले- 'देखो आप अजमेर में कह रहे थे। पहले पर का ध्यान रखना चाहिए, बाद में स्वयं का। आज आप देख लीजिए मैंने निर्ग्रन्थ दीक्षा ग्रहण कर ली है पहले मैं अपना तो कल्याण कर ही रहा हूँ और मेरे निमित्त से दूसरों का कल्याण भी स्वतः ही हो रहा है। इस जैनदर्शन की विशेषता को पहचान लेना चाहिए।' यह सुनकर मुझे अपनी भूल का अनुभव हुआ और हमने स्वीकार किया। तब मुझे आचार्य श्री के व्यावहारिक ज्ञान की पकड़ का अनुभव हुआ।'' ब्यावर के कमल रांवका फील्ड ऑफीसर एल.आई.सी. ने २०१५ भीलवाड़ा में ५-७ संस्मरण सुनाये, वही मैं आपको बता रहा हूँ| -

     

    १. बच्चे को मीठी समझाईस से दिया संबल

    ‘‘ आचार्यश्री जी अजमेर से विहार कर ब्यावर की ओर आ रहे थे, तब मेरे पिताजी, माँ और हम बच्चे लोग सराधना गाँव में चौका लगाने गए थे। आहार के पश्चात् मैंने भजन सुनाया। वह भजन प्रभुदयाल जी अजमेर वालों का था। मैंने उस भजन में उनका नाम न बोलकर अपना नाम बोल दिया। तो मेरे पिताजी ने मुझे टोका-लेखक का नाम क्यों हटाया? यह सुन मैं सकपका गया रुआंसा सा हो गया । तब आचार्यश्री जी ने मेरी भावदशा पढ़कर बड़े प्यार से मीठे अंदाज में मेरी मासूम भावनाओं को सम्बल दिया और बोले-'भजन बनाया दूसरों ने है लेकिन गा तो कमल रहा है ना! वह भजन के माध्यम से अपनी भावनाएँ व्यक्त कर रहा है।' यह सुन सभी हँसने लगे, मुझे भी बहुत अच्छा लगा। दो मिनिट बाद जब सब शान्त हो गए, तब आचार्यश्री बोले-‘आगे से ऐसी गलती कभी मत करना। इससे पाप लगता है।'

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    २. विश्वास अनुभूति में बदला

    ब्यावर नगर में प्रवेश होने से एक दिन पूर्व ब्यावर नगर के विकास अधिकारी श्री भार्गव साहब उनके दर्शनार्थ पधारे दर्शन के बाद थोड़े बैठे और फिर उन्होंने नगर की पीड़ा व्यक्त की-‘स्वामी जी! व्यावर में पानी की बहुत किल्लत है पीने का पानी नहीं है।' आचार्यश्री ने उनकी यह बात आँख बंद किए हुए सुन ली और सुनकर उनका हृदय जैसे पसीज सा गया। आँखें खोलकर उनको धीरे से देखकर आशीर्वाद दिया। भार्गव साहब आशीर्वाद लेकर बाहर आये और बोले- 'अब पूरा विश्वास है ब्यावर की प्यास बुझ जायेगी।' जिस दिन आचार्यश्री का ब्यावर में प्रवेश हुआ, उस दिन बहुत तेज बारिश हुई और फिर पूरे चातुर्मास में रिकार्डतोड़ बारिश होती रही। आचार्यश्री शहर से आहार करके जब लौटते कई स्थानों पर हैण्डपंप में से फब्बारे निकलते देखे। तब एक दिन भार्गव साहब आचार्यश्री के दर्शन करने आये तो आचार्यश्री बोले-‘लोग कहते हैं कि ब्यावर में पानी नहीं है और इधर तो फब्बारे चल रहे हैं।' तब भार्गव साहब बोले ये सब आपकी ही महिमा है। तो तत्काल आचार्यश्री बोले- ये मेरी नहीं, ये प्रभु की गुरु की महिमा है।'

     

    ३. मेरे जीवन की हैट्रिक : गुरु आशीष का फल

    एक दिन मैं नसियाँ की सीढियों पर अपने मित्रों के साथ बैठा था और ऊपर बरामदे में आचार्यश्री विराजमान थे। हम लोग आपस में चर्चा कर रहे थे। तब मैंने अपने मित्रों से कहा कि हम लोग आचार्यश्री को आहार क्यों नहीं दे सकते? तो एक मित्र बोला-अपन छोटे हैं ना इसलिए। तब हम लोगों की वार्ता आचार्यश्री के कानों में पड़ गयी। तो उन्होंने किसी से कहकर हम लोगों को बुलवाया। हम लोग जैसे ही आचार्यश्री के पास गए तो आचार्यश्री बोले- ‘तुम बच्चे भी आहार दे सकते हो, तुम लोगों की उम्र कितनी है' हमने कहा ११ वर्ष, दोनों मित्रों ने कहा ११ वर्ष । फिर हमने पूछा इसके लिए क्या करना होगा? तो आचार्यश्री बोले - 'प्रतिदिन जिनेन्द्र भगवान के दर्शन, पानी छानकर पीना, सप्त व्यसन का त्याग, रात्रि भोजन का त्याग।' तो मैंने कहा - आचार्यश्री जी मुझे मंजूर है, मैं नियम लेता हूँ, जीवनभर इनका पालन करूंगा। तो आचार्यश्री बोले-‘फिर तो दे सकते हो।' मैं खुशी से पागल हो गया और घर पर जाकर माँपिता को बताया। दूसरे दिन पिताजी ने खुशी-खुशी मुझे धोती पहनायी और चौके में मुझे बैठा दिया। उस दिन आचार्यश्री का पड़गाहन मेरे यहाँ हुआ। मेरा महान् पुण्य का उदय आया। मुझे आहार देने का प्रथम बार ११ वर्ष की उम्र में सौभाग्य प्राप्त हुआ। उस आनंद का मैं बखान नहीं कर सकता। दूसरे दिन मैं पड़गाहन के लिए खड़ा हुआ और जैसे ही आचार्यश्री ने मुझे देखा और मुस्कुराकर मेरे सामने आकर खड़े हो गए। उस सौभाग्य की कहाँ तक सराहना करूं। तीसरे दिन भी मैं पड़गाहन के लिए खड़ा हुआ यह सोचकर कि आज क्षुल्लक जी महाराज आयेंगे । उनको आहार दूंगा, किन्तु जीवन की अप्रत्याशित वह घटना मानों चिन्तामणि रत्न मिल गया हो और आचार्य महाराज दूसरे दिन भी मेरे पड़गाहन में सामने आकर खड़े हो गए। मैंने बड़े भक्ति-भाव से हर्षोल्लसित होकर आहार दान दिया। यह स्मृतिनिधि आज तक संजोकर रखे हुए हूँ।

     

    ४. योगाचार्य : आचार्यश्री

    ब्यावर चातुर्मास में हमने सेठ साहब की नसियाँ में ऊपर कोने वाले कक्ष में आचार्यश्री जी को योगासन करते देखा। आचार्यश्री जी सुबह-सुबह शौचक्रिया से लौटकर आते थे तो प्रतिदिन योगासन करते थे। तो हम १-२ मित्र लोग दरवाजे के टूटे हुए काँच में से देखा करते थे। वे तरह-तरह के आसन लगाया करते थे। जिनमें सर्वांगासन, शीर्षासन, मयूरासन, कुक्कुटासन, हलासन आदि । एक दिन मैंने आचार्यश्री जी से पूछा-आप ऐसा क्यों करते हैं? तो आचार्यश्री बोले-‘शरीर के स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए, तभी तो साधना कर पायेंगे ना।'

     

    ५. उपसर्ग विजयी आचार्यश्री

    ब्यावर चातुर्मास में एक दिन आचार्यश्री जी और संघस्थ दोनों क्षुल्लक मणिभद्रसागर जी एवं स्वरूपानंदसागर जी नगर से बाहर ४ कि.मी. दूर माता की डूंगरी पहाड़ी पर शौच के लिए जाने लगे तो मेरे काका जयकुमार जी रांवका साथ में हो लिए, मैं भी उनके पीछे-पीछे जाने लगा। तो काकाजी ने मनाकर दिया। तो आचार्यश्री जी बोले-‘उसे आने दो।' आचार्यश्री जी डूंगरी के ऊपर पहुँच गए और एक पेड़ के नीचे ध्यानमग्न हो गये। फिर थोड़ी देर बाद ध्यान से उठे और केशलोंच करने लगे। अचानक एक शरारती बच्चे ने पेड़ पर लगे मधुमक्खी के छत्ते पर पत्थर मार दिया। पत्थर लगते ही मधुमक्खियाँ क्रोधित हो उठीं और पूरे में फैल गयीं। हम काका के साथ भागकर वहाँ बने एक कमरे में जाकर छिप गए। किन्तु दोनों क्षुल्लक जी वहीं बैठे रहे उन्हें मधुमक्खियों ने काट खाया। हम लोग वहाँ से देखकर काँपते रहे, कहीं आचार्यश्री को मधुमक्खियाँ न काट खायें। तब हम लोगों ने आचार्यश्री का चमत्कार देखा । १-२ घण्टों तक यह उपसर्ग चलता रहा किन्तु आचार्यश्री जी को एक भी मधुमक्खी ने नहीं छुआ। केशलोंच के बाद आचार्यश्री जी नसियाँ जी आ गए।

     

    इसी से सम्बन्धित ब्यावर के कैलाशचंद्र जी अजमेरा ने भी बताया|-

    ‘‘ब्यावर चातुर्मास में आचार्यश्री जी कई बार सामायिक/ध्यान के लिए शहर से ४ कि.मी. दूर माता डूंगरी नाम की पहाड़ी पर बिना बताये चले जाते थे। तब समाज के बन्धुओं ने निवेदन किया। आप जब भी जाये कृपया जाने से पहले हम लोगों को बता दिया करें । जिससे हम लोग कोई व्यवस्था कर सकें क्योंकि उस पहाड़ी पर जंगली जानवरों का खतरा बना रहता है। तब आचार्य श्री बोले-‘जिसके अंगाड़ीपिछाड़ी संसार होता है उसे डर लगता है। जब एक दिन मधुमक्खियों का उपसर्ग हुआ और मुधमक्खियों ने आचार्यश्री को छुआ तक नहीं किन्तु कुछ लोगों को मक्खियों ने खूब काटा। आचार्यश्री जब ध्यान से उठे तो उन्हें बताया। तो आचार्यश्री फिर डूंगरी पर नहीं गए।''

     

    उपसर्ग और परीषहों के बीच साधना करने वाले आत्मसाधक को जो भी देखता वह उन्हें सहजरूप में दिखते । इस सम्बन्ध में नसीराबाद के सीताराम जड़िया ने ज्ञानोदय २०१८ में बताया -

     

    परीषह विजयी आचार्यश्री

    ‘‘ब्यावर चातुर्मास में दोस्तों के साथ आचार्य श्री विद्यासागर जी के दर्शन करने गए थे। रात्रि में सेवा करने के लिए हम लोग वहीं रुक गए किन्तु सेवा तो उन्होंने करायी ही नहीं। सेठ जी की नसियाँ में ही हम लोग गेट के पास बने कमरे में रुक गए। रात भर नींद नहीं आ सकी, कारण कि भयंकर मच्छर थे। रात्रि १२ बजे उठकर चौक में बैठे रहे और यही विचार करते रहे कि आचार्यश्री कैसे सोते होंगे। सुबह हम लोग आचार्यश्री जी के साथ शौच के लिए जंगल गए। तब रास्ते में आचार्यश्री ने पूछा-रात में तो अच्छी नींद आयी होगी? और हँसने लगे। तो हम लोगों ने कहा-नींद आती कैसे? आपको याद करते रहे, आप यहाँ कैसे रह पा रहे होंगे?''

     

    ६. शाकाहार के मसीहा : संत विद्यासागर

    आचार्यश्री जी का व्यक्तित्व वीतरागी एवं आकर्षक था। किसी भी व्यक्ति से राग-द्वेष की बात नहीं करते थे। धर्म चर्चा-तत्त्व चर्चा पर ही उनका फोकस रहता था। इस कारण हर जाति-समाज के लोग खिचे चले आते थे। कई बार ब्यावर के मुहम्मद अली स्कूल के प्रो. शमसुद्दीन साहब आते और अनेक विषयों पर चर्चा करते थे। उन्होंने आचार्यश्री से प्रभावित होकर एक कविता बनाकर सुनायी जिसका शीर्षक था शाकाहार के मसीहा : संत विद्यासागर।'' | इस तरह आपके प्रिय शिष्याचार्य मेरे गुरुवर के समागम पाकर बालक, युवा, प्रौढ़ सभी धन्यता का अनुभव करने लगते।

    ऐसे पावन व्यक्तित्व के चरणों में निज जीवन को धन्य करने हेतु त्रिकाल वन्दन करता हूँ...

    आपका शिष्यानुशिष्य

     


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