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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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  1. शब्द में प्रयोजन नहीं लेकिन अर्थ में प्रयोजन हुआ करता है: अाचार्यश्री नवीन जैन मंदिर के मंगलधाम परिसर में चल रहे हैं प्रवचन | खुरई आप बताओ मैं तो सुनाता ही रहता हूं। एकाध बार सुन भी तो लूं। हमारे भगवान 24 हुए हैं अंतिम महावीर स्वामी का तीर्थंकाल चल रहा है, सुन रहे हो। हओ। ऋषभनाथ भगवान का समोशरण 12 योजन का था जो पुण्य कम होने से धीरे-धीरे आधा-आधा योजन घटता गया और भगवान महावीर स्वामी का एक योजन रह गया। यूं कहना चाहिए वृषभनाथ भगवान बड़े बाबा तो महावीर भगवान हमारे छोटे बाबा हैं। यह बात साेमवार काे नवीन जैन मंदिर के मंगलधाम परिसर में प्रवचन देते हुए अाचार्यश्री विद्यासागर महाराज ने कही। उन्हाेंने कहा कि शब्द में प्रयोजन नहीं लेकिन अर्थ में प्रयोजन हुआ करता है। शब्द जड़ होता है। संकेत के लिए काम आता है शब्द। संकेत गौण कैसा। जो इष्ट होता है उसे प्राप्त करना होता है। प्राप्ति हेतु साधन जुटाए जाते हैं। साधन अपने आप ही नहीं मिल जाते किंतु इतना अवश्य है कि जब प्रयोजन को सामने देखते हैं तो बाकी सभी गायब हो जाते हैं। वृषभनाथ एवं महावीर का रास्ता भी शब्द की अपेक्षा पृथक-पृथक हो गए। रह गया केवल इष्ट को जाने वाला मैं ही-मैं ही करने वाला, मैं ही करने वाला न ही भगवान में लीन होता है, न ही लोक में लीन होता है। भगवान सामने है वह व्यवहार है उसमें हम अपने को खोज नहीं सकते। उसमें देखने से यहां का वैभव दिखने लग जाता है। इतना ही नहीं उसमें देखने से अड़ोस-पड़ोस, ऊपर-नीचे सब गायब हो जाता है। आचार्यश्री ने कहा कि संघर्ष जहां भी होता है वह मेरा-तेरा से होता है इसलिए कभी-कभी यह भी प्रयोग हमने किया। एक व्यक्ति के लिए कह दिया तो गड़बड़ भी हो सकता है। महाराज ने उसी ओर क्यों देखा। हमने सोचा इसका प्रयोग न करके दूसरी तरफ से चलें तो दोनों बच जाएंगे और हम का प्रयोग किया। हमने इसमें दोनों आ जाते हैं हमने बोलने से मैं छूटता भी नहीं। उन्होंने कहा कि हममें मैं सुरक्षित है, सरकार भी चिंता कर रही है गरीब, सवर्णाें की। ये संख्या कितनी पता ही नहीं। ऐसी चिंता करो जिससे सबका उद्धार हो जाए इसलिए मैत्री में सव्वभूतेसु कहा। इस जगत में जितने भी जीव हैं सभी में मैत्रीभाव रहे। यदि सबके प्रति पक्ष-विपक्ष का भाव गौण कर दिया जाए तो राष्ट्रीय पक्ष हो जाए। हम अधिक पढ़े लिखे हैं कम समझदार। इसमें भी हम आ गया, किसी को छोड़ा नहीं। आचार्यश्री ने व्यंग्य करते हुए कहा कि वर्तमान समय में कई लोग तो महावीर स्वामी की आयु को भी लांघ गए हैं। आप ही बताओ लंबी-लंबी आयु अच्छी नहीं। छोटा होता है तो ठीक है बड़े हो तो अकेले रह जाओगे। बहुत कठिन होता है जहां हम होता है वहां अहं आ जाता है। जो हम को समाप्त कर रहा है वह अहं को भी समाप्त कर देगा। उन्हाेंने कहा कि भगवान ऋषभनाथ की काया 500 धनुष की थी, वर्तमान में घटते-घटते वह काफी कम रह गई परंतु केवल ज्ञान सबका समान है। तुलनात्मक शब्द हमें भेद की ओर ले जाते हैं इसलिए हम किसी से भी किसी की तुलना न करें। हम भी ठीक रहें आप भी ठीक रहें यह भावना भाते रहें। बुंदेलखंडी शब्दों की विशेषता है कि मैं ही मैं ही को हटा दो। मैं ही की अपेक्षा हम ही कह दो तो सब आ जाएंगे। प्रवचन के पूर्व आचार्यश्री विद्यासागर महाराज की पूजन संपन्न हुई। पं. रतनलाल बैनाड़ा के नेतृत्व में 200 छात्रों ने आशीर्वाद लिया राजस्थान के सांगानेर से आए विद्वान पं. रतनलाल बैनाड़ा के नेतृत्व में मोक्षमार्गी 200 छात्रों ने आचार्यश्री विद्यासागर महाराज के समस्त संघ को श्रीफल भेंट कर आशीर्वाद लिया। सभी छात्र सांगनेर में अध्ययन करते हैं। आचार्यश्री विद्यासागर महाराज को पडगाहन कर आहारदान देने का सौभाग्य भी सांगानेर से पधारे पं. रतनलाल बैनाड़ा, राजेन्द्र कुमार हिरणछिपा वालों को प्राप्त हुआ। समस्त छात्रों ने आचार्यश्री का पद प्रक्षालन कर गंधोदक अपने माथे पर लगाकर पुण्यार्जन किया।
  2. खुरई दीपक जलाना बहुत आसान होता है, परन्तु ज्ञानदीप को जलाना बहुत मुश्किल होता है। याद रखना बंधुओं दीपक के तले ही अंधेरा होता है। व्यक्ति को हमेशा र|दीप जलाने का प्रयास करना चाहिए, र|दीप के नीचे न तो अंधेरा ही रहता है और न ही यह कभी बुझता है। इसकी ज्योति भी निरंतर अखण्ड रूप से प्रज्जवलित होती रहती है। अधकचरा ज्ञान हमें कभी भी अपनी मंजिल या लक्ष्य की प्राप्ति नहीं करा सकता। अंधों में काना राजा बनना भी ठीक नहीं है। ज्ञानावरणी कर्मों का क्षय करने का निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए। यह बात मंगलधाम परिसर में प्रवचन देते हुए अाचार्यश्री विद्यासागर महाराज ने कही। उन्हाेंने कहा कि क्या हो गया तुझे, अपमान पर अपमान सह रहा है, कर्म तुझे मनमाने दुःख दे रहे हैं तू कुछ भी कर नहीं पा रहा है। अपने स्वभाव में रह नहीं पा रहा है इससे बड़ा अपमान और क्या हो सकता है जो आत्मा स्वचतुष्टय के स्तम्भ पर खड़े निजगृह में न रहे तो उसके गृह में कर्मरूपी डकैत बसेरा कर लेते हैं। गृहमालिक कमजोर पड़ जाए, कमजोर बलजोर हो जाए और आत्मा मारा-मारा फिरे, इन्द्रिय और मन के विषयों की गुलामी करता रहे, पर में ही सुख को खोजता फिरे इससे बड़ा आत्मा का अपमान और क्या हो सकता है। उन्हाेंने कहा कि अपनी इस दुर्दशा पर क्या तुम्हें तरस नहीं आता। विषय भोगी और मान कषायी जीवों से पल भर भी कुछ सम्मान के शब्द सुनने के पीछे कितने दुःखों का भार उठाना पड़ रहा है। सम्यक् विचार क्यों नहीं करते। मान से उत्पन्न हुए सुखाभास रूप सुख को कुछ पल के लिए पाने हेतु कितने सारे पल दुःख में बीते जा रहे हैं। अरे! इन भारी कर्णाभूषणों को पहनने का औचित्य क्या जिससे कान ही कट जाए, कभी कुछ पहन ही न पाए। ऐसे मान का क्या प्रयोजन जो भगवान ही न बनने दे, भगवत्ता पर आवरण डाल दे। प्रभु की वाणी में भी सम्यक्त्व की, व्रती की प्रशंसा होती है यदि तुममें ये गुण नहीं हैं तो लज्जा की बात है। यदि सम्मान ही पाना है तो प्रभु वचनों में सम्मान पाअाे। आचार्यश्री ने कहा कि मानी जीवों से सम्मान पाकर क्या होना है यदि वे तुझे एक बार सम्मान देते हैं तो तुझसे सौ बार सम्मान पाने की तमन्ना भी रखते हैं यह निश्चित है। मान के लिए पर से सम्बन्ध जोड़ने पड़ते है, प्रशंसक एकत्रित करने होते हैं, इसके लिए उनकी भी झूठी प्रशंसा करनी होती है ऐसी झूठी जिंदगी जीने का मतलब ही क्या। यदि मोक्ष सुख को पाने लिए परीशह उपसर्ग सहते तो कर्म निर्जरित हो जाते किन्तु मान के लिए अपमान को सहते रहने से तो और-और कर्म ही बांधते रहे। अपनी बर्बादी करते रहे यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि अपमान के घूंट बार बार पीने से दीनता आती है। आचार्यश्री ने कहा कि जहां सम्मान की तमन्ना में अपने आत्मिक वैभव की बाजी लगा देनी पड़े ऐसे मान को धिक्कार हो जिसमें सच्चा सुख तो एक पल का भी है ही नहीं। मान का सही ज्ञान हो तो सुख की शुरूआत हो, मान से छुटकारा हो, ज्ञानयान पर सवार होकर यात्रा की शुरूआत हो, आनंद की बरसात हो ऐसा कुछ करने का सतत् प्रयास करें। प्रवचन सभा के पूर्व आचार्यश्री की पूजन संपन्न हुई, गुरूवर की अाहारचर्या महेन्द्र गुड़ वालों के यहां हुई। ईशुरवारा अतिशय क्षेत्र के समस्त पदाधिकारियों ने आचार्य संघ को श्रीफल भेंटकर ईशुरवारा अतिशय क्षेत्र में आने को आमंत्रित किया।
  3. बांदरी 13-1-2019 मंत्र की महिमा अपरम्पार है- मुनिश्री बांदरी जिला सागर( मध्यप्रदेश) में सर्वश्रेष्ठ साधक आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के शिष्य मुनि श्री विमल सागर जी मुनि श्री अनंत सागर जी मुनि धर्मसागर जी मुनि श्री अचल सागर जी मुनि श्री भाव सागर जी ससंघ एवं आर्यिका श्री अनंत मति माताजी ससंघ एवं आर्यिका श्री भावना मति माता जी आदि 22 आर्यिकाओं के सानिध्य मे आचार्य श्री की पूजन हुई । आर्यिका श्री सदय मति माताजी ने अपने उद्बोधन में अपने गुरु का गुणगान किया और उन्होंने बताया कि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की चर्या हमेशा उत्कृष्ट रही है। मुनि श्री भावसागर जी ने कहा कि भक्ति में जो भी अर्पण किया जाता है बह श्रेष्ठ होता है। मंदिर के कलश भी अच्छे होना चाहिए । भगवान के अभिषेक और शांति धारा के बाद 64 चमर डुलाना चाहिए । खाली हाथ क्रिया नहीं करना चाहिए पंचकल्याणक में केवल ज्ञान कल्याणक के दिन प्राण प्रतिष्ठा मंत्र के द्वारा प्राण प्रतिष्ठा की जाती है । यह गुप्त रूप से की जाती है क्योंकि सूरि शब्द यह दिगंबर आचार्य ,साधु का है। यही सप्तम गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक की विधि है। सुरि मंत्र गुप्त रूप से दिया जाता है। यह गुरु मंत्र है , जो गुप्त रूप से कहा जाता है बह मंत्र कहलाता है। यहां सुरि मंत्र प्रदान करते समय साधु के भावों की विशुद्धि स्थिरता एवं श्रद्धा भक्ति प्रतिमा को ऊर्जावान और पूज्य बनाती है। प्रतिमा में कितनी भी क्रियाएं की जावे , किंतु सूरि मंत्र के बिना बे सभी क्रियाएं कार्यकारी नहीं हो पाती है। सूरि मंत्र प्रदान करने वाला साधु निर्ग्रंथ होना चाहिए सूरि मंत्र की तरह है ।आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराजकी तप साधना निर्दोष ब्रह्मचर्य की साधना 50 वर्ष से अधिक की है इसी कारण से पूरे देश के लोग चाहते हैं आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के द्वारा सूरि मंत्र प्रतिमाओं में प्रदान किया जाए।
  4. आर्यिका रत्न दुर्लभमति माता जी ससंघ का मंगल विहार इंदौर से भगवान महावीर स्वामी की तपोस्थली उज्जैन की ओर हो गया है |
  5. मुनि श्री 108 अक्षयसागरजी महाराज ससंघ का मंगल विहार आज धरणगांव से पारोला की ओर हुआ ।
  6. परम पूज्य संतशिरोमणी आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के परम प्रभावक शिष्य नियमसागर जी महाराज ससंघ का मंगल विहार औरवाड से बुबनाळ की ओर हुआ।
  7. महापुरुषों की जीवनी को याद कर उनसे प्रेरणा लें: आचार्य श्री श्रावक को अनेक समस्याएं हैं, कोई चिंता नहीं। एक साथ छक्का न सही, एक-एक रन तो वह बना ही सकता है। उसके बाद भी वह आउट हो सकता है। जीवन का भी एवं प्रत्येक नियम का भी ऐसा ही खेल चलता है। इसलिए व्यक्ति को बहुत संभलकर चलना पड़ता है। वाहन कोई भी हो वह बिना पेट्रोल के नहीं चलता। संकल्प पूर्वक अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वों पर जो भी व्यक्ति उपवास, एकाशन आदि करता है तो उसका उसे लाभ जरूर मिलता है, इसके विपरीत यदि विकल्पों सहित कोई नियम व्यक्ति लेता है तो उसका फल उसको उतना नहीं मिल पाता। इसलिए आचार्यों ने द्रव्य, क्षेत्र, कालभाव के अनुसार ही त्याग, दान आदि करने को कहा है, फिर भी दूसरों को देखकर भाव तो होते ही हैं। यह बात मंगलधाम परिसर में प्रवचन देते हुए आचार्यश्री विद्यासागर महाराज ने कही। उन्होंने कहा कि घर का मालिक भले ही कोई भी हो परंतु अधिकांश समय यह देखने में आया है कि चलती गृहमंत्री की ही है। गृहमंत्री के पूछे बिना कोई भी कार्य करने से कलह बढ़ सकती है। विद्या अध्ययन करने वाले प्रत्येक छात्र को परीक्षा तो देनी ही पड़ती है। परीक्षा में पास या फेल होना उसके अथक श्रम के परिणाम स्वरूप ही मिलता है। इसी प्रकार गृहस्थ जीवन में भी कई प्रकार के विकल्प होते हैं। कर्म निर्जरा भी उसी अनुरूप होती है। उन्होंने कहा कि व्यक्ति त्याग, दान आदि तो कर देता है लेकिन उसका फल उसको जैसा उसका कर्मोदय होगा वैसा ही मिलेगा। सच्चे देव, शास्त्र, गुरू पर श्रद्धान रखो। यदि भूख नहीं तो मेवा, मिष्ठान किस काम का। व्यक्ति को हमेशा कर्म की निर्जरा के लिए सतत प्रयास करते रहना चाहिए। जो भी उदय में आए उसे समतापूर्वक निर्वाहन करना चाहिए। महापुरुषों की जीवनी को याद कर उनसे प्रेरणा लें। जब तक बीमारियों को जानेंगे नहीं तब तक उसका निदान संभव नहीं। आचार्यश्री ने कहा कि मेरे पास जो भी आता है उसमें से अधिकांश व्यक्ति रोते हुए ही आते हैं। बहुत ही विरले व्यक्ति होते हैं जो हंसते हुए आते हैं। हर पल वह रोता ही रहता है। बहुत कम व्यक्ति होते हैं जो संतोषी होते हैं। संतोषी बहुत बड़ा गुण है। यहां पर राजा हो या रंक सबकी अपनी-अपनी परेशानियां हैं। उन्होंने कहा कि व्यक्ति पर कितनी भी प्रतिकूल परिस्थितियां क्यों न आ जाएं कर्म निर्जरा के लिए उसको हंसते-हंसते सहन कर लेना चाहिए। प्रतिकूलता में जो अनुकूलता का अनुभव करे उसे ही ’आनंदधाम’ मिलता है। आचार्यश्री की आहारचर्या सुशील, सुनील, श्रीपाल, सुबोध, कालू मोदी परिवार के यहां संपन्न हुई।
  8. अहंकार पतन और समर्पण उन्नति की ओर ले जाता है: आचार्यश्री अहंकार ही दुख का बड़ा कारण है, जीवन की मूलभूत समस्या अहंकार है। मैं भी कुछ हूं यह जो सोच है यही अहंकार है। अहंकार का जोर इतना जबरदस्त रहता है कि वह धर्म को भी अधर्म बना देता है। पुण्य को पाप में बदल देता है। अहंकार को सत्य समझाना अत्यंत कठिन कार्य है। यह बात नवीन जैन मंदिर में प्रवचन देते हुए आचार्यश्री विद्यासागर महाराज ने कही। उन्होंने कहा कि अहंकार अंधा है। अहंकारियों की स्थिति अंधों जैसी होती है। उनके पास आंखें होती हैं लेकिन फिर भी उन्हें दिखाई नहीं देता। रावण की पूरी लंका तबाह हो रही थी लेकिन रावण को लंका व अपने खानदान का तबाह होना कहां दिख रहा था। कंस की आंखें थीं लेकिन वह श्रीकृष्ण की शक्ति व सामर्थ्य को कहां देख सका। दुर्योधन आंखों वाला होकर भी क्या अहंकारी नहीं था। अहंकार विवेक का नाश कर देता है। अहंकार से ही क्रोध भी आ जाता है। अहंकार बड़ा खतरनाक है। अहंकार मीठा जहर है। अहंकार ठग है जो मानव को हर पल ठग रहा है। मानव में जो ’मैं’ और ’मेरापन’ है यही अहंकार की जड़ है। मैं ही परिवार का संरक्षक हूं। मैं ही समाज का कर्णधार हूं। मैं ही प|ी और बच्चों का भरण-पोषण कर रहा हूं। यही अहंकार मानव को दुखी बनाए हुए हैं। ऐसा झूठा अहंकार ही मानव को दुखी बना रहा है। उन्होंने कहा कि आज हमारे दांपत्य जीवन में, पारिवारिक व सामाजिक जीवन में जो संघर्ष, मनमुटाव, मनोमालिन्य दिख रहा है, उसका मूल कारण अहंकार है। यदि प|ी पति के प्रति और पति-पत्नी के प्रति, बाप-बेटा के प्रति और बेटा-बाप के प्रति, शिष्य-गुरू के प्रति और गुरू-शिष्य के प्रति समर्पण व सहयोग का रुख अपनाएं तो जीवन में व्याप्त सारी विसंगतियां समाप्त हो जाएं। अहंकार का समाधान विनम्रता है, मृदुता है। जो सुख विनम्रता व मृदुता में है वह अकड़ने में नहीं है। जो मृदु होगा उसे मौत कभी नहीं मिटाएगी। वह देर-सबेर मरेगा तो वह मरकर भी अमर हो जाएगा। राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, क्राइस्ट ये ऐसे महापुरुष हुए हैं जो हमेशा विनम्रता में जिए हैं और अहंकार की गंध इनके किसी व्यवहार में कभी नहीं आई। मान करें तो विनय नहीं और विनय बिना विद्या भी नहीं आती है। अहंकार पतन की ओर ले जाता है और समर्पण उन्नति की ओर। अहंकार मृत्यु की ओर एवं समर्पण परम सुख की ओर। कुतर्क नर्क है, समर्पण स्वर्ग है। आचार्यश्री के प्रवचन के पूर्व बांदरी में आयोजित पंचकल्याणक महामहोत्सव के प्रमुख पात्रों ने समस्त आचार्य संघ को श्रीफल भेंट कर आशीर्वाद लिया। आचार्यश्री की आहारचर्या सुभाषचंद्र संदीप रोकड़या के यहां संपन्न हुई ।
  9. स्थान एवं पता - वागवर सम्मेदशिखर सुखोदय तीर्थ नशिया जी नौगामा जिला बांसवाड़ा उदयपुर दाहोद मार्ग बसस्टेंड के पास साइज़ - 21 फीट पत्थर - मकराना संगमरमर लोकार्पण तारीख - 11 नवम्बर 2018 लोकार्पण सानिध्य पिच्छीधारी - मुनि श्री 108 समतासागर जी, एलकश्री निश्चयसागर जी, आर्यिका 105 श्री लक्ष्मीभूषणमती माता जी त्यागी व्रती - बा. ब्र. सुयश प्रदीप भैया अशोक नगर, बा. ब्रह्मचारिणी रिम्पी दीदी लोकार्पण सानिध्य राजनेता - पु. उमड़ अध्यक्ष पी. मोहनलाल छगनलाल लोकार्पण कर्ता - कैलाश मोदी, धनपाल मोतीलाल मुख्यकलश स्थापना करता - पिंडारमिया रतनलाला मीठालाल, केशुभाई खोडनिया, कान्तिलाल जी बडोदिया
  10. स्थान एवं पता - सर्किट हाउस के नीचे NH 75 जवहार रोड छतरपुर (म.प्र.) साइज़ - 21 फीट पत्थर - मकराना लागत - 5,51,000 पुण्यार्जक का नाम - सकल दि. जैन समाज छतरपुर (म.प्र.) आर्थिक सहयोग - प्रेमचंद्र जैन कुपी शिलान्यास तारीख - 15 अगस्त 2017 शिलान्यास सानिध्य प्रतिष्टाचार्य - बा. ब्र. अशोक भैया(लिधौरा), बा. ब्र. दीपक भैया(टेहरका) शिलान्यास सानिध्य राजनेता - नगर पालिका अध्यक्ष श्री मति अर्चना सिंह लोकार्पण तारीख - 10 अक्टूबर 2017 लोकार्पण सानिध्य - बा. ब्र. पारस भैया जी भोपाल विशेष संयोजक - श्री अशोक जैन (बब्बू), महामंत्री (सिंघई सुदेश जैन)
  11. स्थान एवं पता - दयोदय धाम गौशाला धनौरा जिला सिवनी (म. प्र.) साईज - 21 फीट पत्थर - सफ़ेद मार्बल लागत - 1,51,000 पुन्यार्जक का नाम - दयोदया पशु सेवा समिति, श्री दि. जैन स्या. गुरुकुल विद्या. समिति, त्रय मूर्ति जिनालय समिति धनौरा एवं समस्त समाज जी. पी. एस. लोकेशन - 22.31 47.582 N 79.50 13.824 E (दि. जैन त्रय मूर्ति जिनालय धनौरा) शिलान्यास तारीख - 28 मार्च 2017 शिलान्यास सानिध्य पिच्छीधारी - श्री 108 विमल सागर जी महाराज एवं आ.श्री. 108 कंचन सागर जी महाराज शिलान्यास सानिध्य प्रतिष्टाचार्य - स्थानीय पुजारी श्री जिनेश कुमार जी जैन लोकार्पण तारीख - 2 से 8 अप्रैल 2018 गजरथ महोत्सव लोकार्पण सानिध्य पिच्छीधारी - आचार्य श्री विमर्श सागर जी महाराज (ससंघ)
  12. मोक्ष कोई दुकान पर तो मिलता नहीं कि जाओ और खरीद लाओ: आचार्यश्री नवीन जैन मंदिर परिसर में आचार्यश्री विद्यासागर महाराज के प्रवचन जहां अग्नि प्रज्ज्वलित होगी वहां धुंआ तो उठेगा ही। मोक्ष चाहिए है तो मोह का त्याग करना ही पड़ेगा। मोह के त्याग करने के लिए मात्र ‘ह’ को हटाकर ‘क्ष’ ही तो लगाना है। आत्मा अजर अमर है, इसका अस्तित्व भी कभी नष्ट नहीं होता, जो सोया हुआ है उसी को तो जगाना पड़ता है। जो मूर्त होता है वहीं तो मूर्तियों को विराजमान कर पाता है। मोक्ष कोई दुकान पर तो मिलता नहीं कि जाओ और खरीद लाओ। जिसके अंदर मुहर्त है मोक्ष जाने का उसका नाम ही तो अन्तर्मुहर्त है। व्यक्ति कितने भी मुर्छित अवस्था में क्यों न हो, न तो उसका मोह ही कम होता है और न ही खाने-पीने की वस्तुओं का त्याग कर पाता है। यह बात नवीन जैन मंदिर में प्रवचन देते हुए आचार्यश्री विद्यासागर महाराज ने कही। उन्हाेंने कहा कि खाल का ख्याल कितना किया इसकी तरह तरह से हिफाजत की फिर भी खाल ने अपना स्वभाव दिखा ही दिया, हर पल पुरानी होती गई और तू मूढ़ बना इसे देख देखकर यही ‘मैं हूँ’ ऐसा भ्रमित हो गया। खाल को अपना मानना बालपन अर्थात् अज्ञानता है। जो पर से मिलता है वह बिछुड़ता ही है, जो अपना है वही शाश्वत रहता है। सोचो आत्मन! खाल को अपना मानते ही कितना संसार बढ़ जाता है। खाल पर लगे बाल से, खाल को ओढ़ाने वाली शाल से, इसे खिलाने वाले माल से न जाने कितनों से संबंध जुड़ जाता है, सारे बवाल ही खाल के प्रति राग से उत्पन्न होते हैं। इसलिए खाल का ख्याल छोड़, क्योंकि तेरी इस तन की खाल को पहले भी अनेक ने ओढ़ी है। आहारवर्गणा रूप पुद्गल परमाणुओं से बनी यह खाल की चादर अनंत जीवों ने ओढ़-ओढ़ कर छोड़ दी है अब तेरे पास आते ही तू इसे अपनी मान बैठा। उन्हाेंने कहा कि क्या तुम दूसरों के उतरे वस्त्र पहनकर स्वयं को सुंदर दिखना चाहते हो। तुम यही कहोगे ना कि पहनना तो दूर, मैं पहनने के भाव भी नहीं करता, तो फिर एक तो विजातीय पर द्रव्य पुद्गल और उसमें भी अनंतों ने इन परमाणुओं को ग्रहण किया तो अब तुम इस देह को धारणकर क्यों इतना इतराते हो, यह क्या समझते हो कि मेरा जैसा कोई नहीं है। हां यदि कदाचित् तीर्थंकर की देह हो तो बात ही अलग है। उनके जैसा रूप धरती पर किसी का नहीं होता। मगर तुम्हारी खाल तो जूठन स्वरूप है कईयों ने धारण की हैं उतारन है फिर भी इसे पाकर इतना गुमान करते हो। आचार्यश्री ने कहा कि खाल को अपने ख्याल से भिन्न करो। खाल में रंग है उस रंग से भी राग-द्वेष आदि की तरंग उठती है जबकि तुम अरंग, निस्तरंग हो। इस पतली सी खाल से गाढ़ा राग न करो वैसे भी खाल के भीतर जो भरा है वह दर्शनीय नहीं है। खाल के भीतर मल, मूत्र, पीव, रक्त आदि दुर्गंधित पदार्थों को ढक रखा है। यह काया तो अपनी माया छिटकाती है जो इसके चक्कर में आया उसे भटकाती है, साथ रहने का भ्रम पैदा करती है पर अंत में खाल यहीं रह जाती है, तब कुछ लोग मिट्टी की देह वाले आते हैं इसे भी मिट्टी में मिलाने के लिए और चेतन हंसा खाली चला जाता है। जब अंततोगत्वा खाली जाना ही है तो खाल से इतना लगाव क्यों। लौकिक में भी जो साथ में रहते हैं उन्हीं से लगाव रखते हैं, परायों का क्या विश्वास। प्रवचन के पूर्व आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज के पैर प्रक्षालन करने का सौभाग्य मलैया परिवार, सेठी परिवार एवं अन्य दानदाताओं को प्राप्त हुआ।
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