Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

Vidyasagar.Guru

Administrators
  • Posts

    17,719
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    589

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by Vidyasagar.Guru

  1. रत्नत्रय के साथ बाह्य और अंतरंग दोनों प्रकार के तपों का आलम्बन लेकर साधना करने वाला ही मुक्ति सम्पादन कर सकता है। यही एक मुक्ति का मार्ग है। मुक्तिसंपादक आचार्य अर्थात् जिन्होंने इस कलियुग में भी मुक्ति मार्ग को परिपक्वावस्था प्रदान की है, ऐसे बाह्य तपोधर आचार्य श्री विद्यासागरजी ने ३६ मूलगुणों में पठित कर्म निर्जरा के साधनभूत बाह्य ६ तपों से अपने जीवन को कैसे तपाया ? इसको दिग्दर्शित कराने वाले प्रेरणादायी कुछ प्रसंग प्रस्तुत पाठ में उद्धृत किए जा रहे हैं। पंच पदों में गर्भित आचार्य पद' साधु की ही एक उपाधि है। इसीलिए चार मंगल पदों में, चार उत्तम पदों में और चार शरण पदों में आचार्य पद' को पृथक् ग्रहण न करके साधु पद के अंतर्गत ही रखा गया है। जब साधु को आचार्य के जो 'मूलभूत गुण' हैं, ऐसे ३६ मूलगुण रूपी आभूषण से सुसज्जित कर दिया जाता है, तब वह साधु, आचार्य कहे जाते हैं । 'अर्हत् भगवान' द्वारा कथित 'आचार्य परमेष्ठी' के छत्तीस मूलगुण श्रमण परंपरा संप्रवाहक आचार्य श्री विद्यासागरजी में किस तरह आत्मसात् हो गए, इससे जुड़े कुछ प्रसंग क्रमशः आगे के छह पाठों में द्रष्टव्य हैं। श्रमण धर्म वाही : आचार्य परमेष्ठी अर्हत्वाणी आचर्यतेऽस्मादाचार्यः ....। जिनसे आचरण ग्रहण किया जाता है उन्हें आचार्य कहते हैं। आयारं पंचविहं...................एसो आयारवं णाम।' जो मुनि पाँच प्रकार के आचार निरतिचार स्वयं पालता है, और इन पाँच आचारों में दूसरों को भी प्रवृत्त करता है, तथा आचार का शिष्यों को भी उपदेश देता है उसे आचार्य कहते हैं। जो शिष्यों को अनुग्रह करने वाला हो,... विश्ववंदित हो,... जिन आज्ञा का प्रतिपालक हो,...पाप, मिथ्यात्व और दुष्कर्मों को दूर करने वाला २३वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथजी हो, संसार से पार उतारने वाला हो, बाहरी और भीतरी परिग्रह से विमुक्त हो, जैन धर्म की प्रभावना करने वाला हो, गण का स्वामी हो, सर्व गण का आधार हो और अनेक उत्तम गुणरूपी रत्नों का सागर हो, ...वह आचार्य परमेष्ठी कहलाता है। आचार्य पद की योग्यता ज्ञानविज्ञानसम्पन्नो.......................शिष्योगुरोरनुज्ञया॥ जो शिष्य ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न है, महा बुद्धिमान है, तपस्वी है, चिरकाल का दीक्षित है, श्रेष्ठ वक्ता है, सिद्धांत महासागर का पारगामी है, इन्द्रियों को वश में करने वाला है, अत्यन्त निर्लोभ है, धीर-वीर है, अपने और दूसरों के मन को अच्छी तरह जानता है, जो गम्भीर है, तत्त्वों का वेत्ता है, चतुर है, जिसका मन कोमल है, जो धर्म की प्रभावना करने में चतुर है और जिसका मन निश्चल है इस प्रकार जो अनेक गुणों का समुद्र है, ऐसा शिष्य गुरु की आज्ञानुसार आचार्य पदवी के योग्य होता है। इन सभी योग्यताओं से आचार्य श्री विद्यासागरजी आकंठ पूरित थे। यही कारण रहा कि उनके गुरु ने उन्हें अल्प वयस्क एवं अल्प समय के दीक्षित होने पर भी अपना आचार्य पद प्रदान किया। किन्हें चुनें अपना आचार्य गंभीरो................................................संपत्ता॥३८॥ गंभीर- जिनको क्षोभ उत्पन्न नहीं होता है अथवा जिनके गुणों का पार नहीं लगता है। दुर्द्धर्ष- प्रवादी जिनका पराभव नहीं कर सकते हैं। प्रवादी जिनके सम्मुख आ नहीं सकते/जिनसे वाद करने में असमर्थ होते हैं।शूर- कार्य करने में समर्थ।धर्मप्रभावनाशील- धर्म की प्रभावना करना जिनका स्वभाव है। अर्थात् दान, तप, जिनपूजा, विद्या इनके अतिशय से प्रभावना करने वाले। क्षितिशशिसागरसदृश- क्षमागुण होने से पृथ्वी के समान, सौम्यता से चंद्र समान और निर्मलता से समुद्रतुल्य ऐसे गुणों से संपन्न आचार्य को वह शिष्य प्राप्त करता है।' अर्थात् इन गुणों से विशिष्ट साधु को आचार्य के रूप में शिष्य को चुनना चाहिए। आगमोक्त इन सभी गुणों ने वास पाया है जिनमें ऐसे कथानायक आचार्य श्री विद्यासागरजी के चारित्र की गंध पा अल्प वयस्की युवक-युवतियाँ भ्रमर की भाँति उनके चरणों में स्वयं को अर्पित कर उन्हें अपने आचार्य के रूप में चुन करके धन्य हो रहे हैं। आचार्य पद त्याग क्यों...? कालं संभावित्ता........... वोत्ति बोधित्ता ॥ २७५-२७७॥ अपनी आयु की स्थिति विचार कर समस्त संघ को और बालाचार्य को बुलाकर शुभदिन,शुभकरण और शुभलग्न में तथा शुभ देश में गच्छ का अनुपालन करने के लिए गुणों से अपने समान भिक्षु का विचार करके पश्चात् वह धीर आचार्य थोड़ी-सी बातचीत पूर्वक राजस्थान में धर्मोपदेशरत मुनिश्री विद्यासागरजी उस पर गण का त्याग करता हैं । ज्ञान दर्शन चारित्रात्मक धर्मतीर्थ की व्युच्छित्ति न हो, इसलिए उसे सब गुणों से युक्त जानकर यह तुम्हारा आचार्य है- ऐसा शिष्यों को समझाकर आप इस गण का पालन करें, ऐसा इस नवीन आचार्य को अनुज्ञा करते हैं। नए आचार्य को पूर्व आचार्य का उपदेश संखित्ता. .................चेवगच्छंच॥२८४-२८५॥ उत्पत्ति स्थानों में छोटी-सी भी उत्तम नदी जैसे विस्तार के साथ बढ़ती हुई समुद्र तक जाती है उसी प्रकार तुम शील और गुणों से बढ़ो। तुम बिलाव के शब्द के समान आचरण मत करना। बिलाव का शब्द पहले जोर का होता है, फिर क्रम से मन्द हो जाता है, उसी तरह रत्नत्रय की भावना को पहले बड़े उत्साह से करके, पीछे धीरे-धीरे मंद मत करना। और इस तरह अपना और संघ दोनों का विनाश न करना। प्रारंभ में ही कठोर तपकी भावना में लगकर स्वयं और गण को भी उसी में लगाकर दुश्चर होने से विनाश को प्राप्त होंगे। अपने गुरु के उपदेश का अक्षरशः पालन करने वाले आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने आगम के एक-एक शब्द को पीकर उसे जिया है। वह भी आज अपने शिष्यों से यही कहते हैं कि तप उतना ही करो जितने से हमारे व्रत निर्दोष पलते रहें। आहार सही नहीं होने पर उपवास के अतिरेक से दिमाग में फ़ितूरी आने पर गड़बड़ होता है। जैसे, क्रिकेट वाला बैट्समेन देखता है, यदि रन लेकर के आ सकते हैं तो ही दौड़ता है। नहीं तो, वहीं खड़ा रहता है। ऐसे ही शक्ति के अनुसार उपवास आदि करना चाहिए। और ऐसा भी नहीं कि तप करो ही मत, तप करना भी अनिवार्य है। पर अपनी शक्ति को देखकर, अधिक खींच तान भी न करें और छिपाएँ भी नहीं। साधना करो, पर साधनसुरक्षित रखो __ सन् १९८०, मोराजी, सागर, म.प्र. में स्वाध्याय के दौरान आचार्यश्रीजी ने उत्कृष्ट चर्या के विषय में कथन किया। उससे प्रेरित होकर मुनि श्री समयसागरजी एवं क्षुल्लक श्री परमसागरजी (वर्तमान में मुनि श्री सुधासागरजी) महाराज ने सोचा कि हमें भी उत्कृष्ट चर्या का पालन एवं तपादि करना चाहिए। इसके लिए दोनों महाराज धूप में सूर्य की तरफ मुख करके साधना करने लगे। कहीं गुरुजी इसके लिए मना न कर दें, अतः उनसे पूछा भी नहीं। जब आचार्यश्रीजी सामायिक में बैठ जाते उसके बाद वे दोनों साधक सामायिक करने धूप में छत पर जाते थे। एक दिन आचार्यश्रीजी के कमरे का दरवाजा लटका था, उन्होंने सोचा गुरुवर सामायिक करने लगे। वह दोनों भी छत पर जाकर धूप में खड़े होकर आवर्त करने लगे, इतने में आचार्यश्रीजी आ गए। एक दिन हुआ यूँ कि आचार्यश्रीजी तो सामायिक में बैठे नहीं थे, कुछ श्रावकों के साथ उनकी चर्चा चल रही थी। चर्चा के बाद वह लघुशंका हेतु छत पर आए, धूप में खड़े दोनों महाराजों को देखकर बोले- 'क्या हो रहा है?' महाराज ने कहा- 'कुछ नहीं।' आचार्यश्रीजी बोले- 'कुछ तो हो रहा है, यहाँ आवर्त क्यों हो रहे हैं?' नीचे जगह नहीं है क्या?' महाराजजी बोले- 'आचार्यश्रीजी! हम लोग धूप में बैठने की साधना कर रहे हैं।' आचार्यश्रीजी ने पूछा- 'कब से?' उत्तर मिला- 'आठ दिन से।' आचार्यश्रीजी बोले- 'यहाँ आओ, सुनो!' अपने कमरे में ले जाकर समझाते हुए बोले- क्या साधना करने की मेरी भावना नहीं होती? हीन संहनन है, गर्मी चढ़ जाएगी तो सब समझ में आ जाएगा।' सो महाराजों ने धूप में सामायिक करना बंद कर दी। धन्य है, आचार्य भगवन् को! वह अपने शिष्यों को तप हेतु जहाँ प्रेरित करते हैं वहीं आगम में कथित 'शक्तिशः' विशेषण की ओर भी दृष्टि रहे इसका ध्यान भी कराते हुए कहते हैं- ऐसा तप भी न करो कि आगे मूलगुण भी न सँभाल पाओ। अहंतवत्पूज्य जिणबिम्बंणाणमयं....................कम्मक्खयकारणे सुद्धा ॥१६॥ जो ज्ञानमय हैं, संयम से शुद्ध हैं, अत्यंत वीतराग हैं तथा कर्मक्षय में कारणभूत शुद्ध दीक्षा और शिक्षा देते हैं ऐसे आचार्य परमेष्ठी जिनबिंब हैं। सत्प्रत्यस्ति......................साक्षाज्जिनः पूजितः॥६८॥ यद्यपि इस समय इस कलिकाल (पंचमकाल) में तीन लोक के पूजनीय केवली भगवान विराजमान नहीं है तो भी इस भरतक्षेत्र में समस्त जगत् को प्रकाशित करने वाली उन केवली भगवान की वाणी मौजूद है तथा उस वाणी के आधार श्रेष्ठ रत्नत्रय के धारी मुनि हैं । इसलिए उन मुनियों की पूजन तो सरस्वती की पूजन है तथा सरस्वती की पूजन साक्षात् केवली भगवान की पूजन है, ऐसा भव्य जीवों को समझना चाहिए। आचार्य परमेष्ठी पद पर प्रतिष्ठित आचार्य भगवन् श्री विद्यासागरजी की पूजा-अर्चना करने तो जैसे आज पूरा ब्रह्माण्ड ही लालायित हो। कितनी भी भीषण गर्मी क्यों न हो, चाहे आसमान पूरी तरह साफ हो और सूर्य अपनी तीव्र प्रखर रश्मियों को क्यों न फै लाए हो, पर ज्यों ही आचार्य भगवन् विहार हेतु अपने चरण पृथ्वी पर रखते हैं कि सारा भू मण्डल उनकी अर्चना हेतु आंदोलित हो उठता, सूर्य भी अपनी तपनशील - किरणों को समेट लेता, धरती माँ के आह्वाहन परआकाश में बदली छा जाती और कहाँ से-कैसे! कभी-कभी अचानक ही उनके आगे-आगे वर्षा प्रारंभ हो जाती। उस समय पेड़-पौधे ऐसे जान पड़ते हैं मानो उनके आगमन पर नम्रीभूत हो नमन कर रहें हों। जिनकी उपस्थिति का सान्निध्य पा प्रकृति तक झूम उठती हो तब मानवों के भावों का कथन करना कहाँ तक शक्य होगा? वह वन में हों या भवन में, नित्यप्रति ही प्रातः लगभग ०९ बजे श्रावकगण विशालकाय थालों में अष्टद्रव्य सुसज्जित करके बड़े ही भक्ति-भाव से आचार्य गुरुदेव को पूजा-अर्चना करते हैं । आगमोक्त पदोचित पात्रता के धनी होने के फलस्वरूप ही यह सब संभव है, अन्यथा कहाँ...? और श्रावकगण भी ऐसे आचार्य भगवन् की पूजन कर अहँत की पूजन के समान पुण्य का आस्रव कर अपना मोक्षपथ प्रशस्त करते रहते हैं। आचार्य के मूलभूत गुण: ३६ मूलगुण आचार्य भगवन् के मूलगुण ३६ कहे गए हैं। जिनका कथन जिनागम के अनेक ग्रंथों में अनेक प्रकार से प्राप्त होता है। वर्तमान में श्रीमद् आचार्यप्रवर वसुबिंदु अपरनाम जयसेन विरचित 'प्रतिष्ठापाठ' भाषा टीका सहित ग्रन्थ में याज्ञमंडलोद्धारः के षष्ठवलयस्थापित आचार्य गुण पूजा में पृष्ठ १८२ पर एवं पंडित सदासुखदासजी कृत 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' में उल्लेखित ३६ मूलगुण प्रचलन में होने से उन्हीं का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है बारह तप - छहबाह्य - अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश तप। छह आभ्यंतर - प्रायश्चित्त, विनय,वैयावृत्ति, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान । छह आवश्यक - सामायिक, वंदना, प्रत्याख्यान, स्तव, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग। पाँच आचार - दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार। दस धर्म -उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिञ्चन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म तीन गुप्ति - मन गुप्ति, वचन गुप्ति और काय गुप्ति। प्रस्तुत पाठ में, छह बाह्य तपों के परिपालन से जिनका जीवन कर्मभार से हल्का हो रहा है, ऐसे आचार्य श्री विद्यासागरजी के चरित्र के साथ-साथ छह बाह्य तपों से भी पाठक परिचित होंगे। कर्म अरि विध्वंसक : बारह तप अर्हत्वाणी कर्मक्षयार्थं तप्यत इति तपः। कर्मक्षय के लिए जो तपा जाता है, वह तप है।वह दो प्रकार है- बाह्य और आभ्यंतर। विद्यावाणी तप एक निधि है, जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र को अंगीकार करने के उपरांत प्राप्त करना अनिवार्य है। व्यवहार में बारह प्रकार के तप होते हैं, निश्चय में एक समता मात्र तप है। जिस प्रकार तपन के बिना वपन किया हुआ बीज नए पन की ओर नहीं जाता, उसी प्रकार तपाराधना के बिना श्रमण के जीवन के नए आयाम नहीं खुलते। तप के माध्यम से अप्रशस्त प्रकृतियों की निर्जरा होती है और प्रशस्त प्रकृतियाँ बढ़ती ही चली जाती हैं। समीचीन तप करने वालों को अंत में निश्चित ही समाधि का लाभ होता है। आत्मा के प्रदेशों के साथ जो एक क्षेत्रावगाह को लेकर बँधे हुए कर्म हैं, वे किसी भी प्रकार से बाहर आना नहीं चाहते।मत आओ।लेकिन तपके द्वारा उन्हें अपने आप बाहर आना पड़ता है। बारह तप-बारह पेपर- अपने यहाँ बारह प्रकार के तप कहे हैं, पर प्रचलन अनशन' (उपवास) तप का सबसे ज़्यादा है। क्या समझे? हम एकदम अनशन को ही पहला तप मानते हैं जबकि तपों में ६ अंतरंग और ६ बाह्य हैं, इसलिए युक्तिपूर्वक अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को लेते हुए बाह्य एवं आभ्यंतर दोनों तपों को छूना (करना) चाहिए। हाँ, एक ही तप की ओर नहीं देखना चाहिए। मान लो बारह पेपर हैं। उसमें एक ही पेपर में सब शक्ति लगा दो तो शेष जो ग्यारह पेपर हैं, उनका क्या होगा? एक में तो डिक्टेंशन और एक में सप्लीमेंट्री भी नहीं, सीधे फेल। क्या होगा? इसलिए बैलेंस बनाकर चलना चाहिए। जिस प्रकार पोटली में रखे कपड़ों में हजार सलें पड़ जाती हैं तो उसे प्रेस करके अच्छा कर लेते हैं। इसी प्रकार तप के द्वारा चारित्र को निर्मल बनाया जाता है। सभी प्रकार के तपों से परिचित होना चाहिए। अभ्यंतर तप के हेतु : बाह्य तप अर्हत्वाणी बाह्यद्रव्यापेक्षत्वात्परप्रत्यक्षत्वाच्च बाह्यत्वम्। बाह्य तप बाह्य द्रव्य के अवलम्बन से होता है और दूसरों के देखने में आता है। इसलिए इसे बाह्य तप कहते हैं। अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्यं तपः। अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश यह छह प्रकार के बाह्य तप है। विद्यावाणी बाह्य तप वह तप है, जिससे अभ्यन्तर तप को बल मिले। बाहरी तप के बिना भीतरी तप का उद्भव संभव नहीं है। ये छहों प्रकार के तप बाहरी भोजन आदि की अपेक्षा को ले करके चलते हैं। ये जैनेतरों में भी पाए जाते हैं अथवा गृहस्थों के द्वारा भी किए जाते हैं। इन छहों तपों के द्वारा कर्मों को और इन्द्रियों को ताप पहुँचाया जाता है, माने इन्द्रियाँ अपने आप ही कन्ट्रोल हो जाती हैं। बर्तन तपे, तब दूध तपे-जिस प्रकार स्वस्थता के लिए श्रम द्वारा पसीना आना आवश्यक है, उसी प्रकार कर्म निर्जरा के लिए तपमय परिश्रम आवश्यक है, क्योंकि बाह्य तप अन्तर के मल को निकालता है। जैसे दूध का तपाना हो, तो सीधे अग्नि पर तपाया नहीं जा सकता है। बर्तन में ही तपाना होगा। उसी प्रकार बाहरी तप के माध्यम से शरीररूपी बर्तन तपता है। बाहर से तपे बिना भीतरी तप नहीं आ सकता। आत्म चिकित्सक : अनशन तप अर्हत्वाणी यत्किंचिद् दृष्टफलं . ....मनशनमित्युच्यते। मंत्रसाधनादि दृष्टफल की अपेक्षा के बिना किया गया उपवास अनशन कहलाता है। तद् द्विविधम्. .......... ...देहोपरमात्। अनशन दो प्रकार का है- एक बार भोजन या एक दिन बाद भोजन आदि अवधृत अर्थात् नियतकालिक अनशन है और शरीरत्याग पर्यन्त अनशन अनवधृत अर्थात् अनियतकालिक अनशन है। विद्यावाणी आहार न करना अनशन तप है। एक उपवास में चार भुक्तियों का त्याग होता है, जिसे चतुर्थ भक्त कहा जाता है। एक दिन में दो भुक्तियानी दो बार भोजन करने का सामान्य से नियम है। यदि एक उपवास किया, तो दो भुक्ति का त्याग हो गया और धारणा (उपवास से पूर्व का दिन) एवं पारणा अनशन तप की साधना में पारंगत आचार्यश्रीजी (उपवास के बाद वाला दिन) के दिन एक बार ही भोजन लेने पर दो भुक्ति का त्याग इन दो दिनों में हो गया। इस कारण एक उपवास को आगम में चार भुक्तियों त्याग होने से चतुर्थ भक्त भी कहा जाता है। उपवास भी जिनेन्द्र भगवान के द्वारा बताया हुआ एक मार्ग है, तप है एवं आत्म संशोधन के लिए महत्त्वपूर्ण है। अनशन बहु गुणकारी- ग्रंथराज धवलाजी में आया है- 'उपवास शरीर के रोगों को दूर करने के लिए कारण हैं।' वैज्ञानिकों ने भी कहा है कि उपवास के दिन शरीर में एक विशेष ग्रंथि खुलती है, जिससे ताजगी मिलती है और रोग निष्कासित होते हैं। इससे ही आचार्यों ने 'घोरतपानां घोरगुणानां' कहा है। किसी श्रावक ने आचार्यश्रीजी से पूछा- उपवास का अर्थ आत्मा में वास करना होता है, तो क्या हम श्रावक कर सकते हैं? आचार्यश्रीजी बोले- 'इंद्रियाँ विषयों की ओर न जावें एवं मन ख्याति-पूजा-लाभ की ओर न जावे, यही उपवास है। इससे कर्म निर्जरा होती है। इसे आप कर सकते हैं। विद्याप्रसंग शक्तिश: तप आचार्यश्रीजी वर्षायोग में प्रायः दो-तीन आहार के बाद उपवास करते रहते हैं। अनेक बार बेला (लगातार दो उपवास), तेला (लगातार तीन उपवास) भी कर चुके हैं। एक बार श्री सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरि, मध्यप्रदेश सन् १९९० वर्षायोग में एक दिन आचार्यश्रीजी ने उपवास कर लिया। दूसरे दिन श्रावकों ने जल लाकर शुद्धि का निवेदन किया, पर वह मौन रहे और न ही शुद्धि को उठे। तीसरे दिन श्रावकों ने पुनः निवेदन किया- हे भगवन्! चर्या का समय हो गया, आप शुद्धि कीजिए। परंतु आचार्य भगवन् पूर्ववत् मौन ही बने रहे। चौथे, पाँचवें.....नवमें दिन तक यही क्रम चला। आचार्यश्रीजी की क्रिया सुव्यवस्थित समयोचित होते हुए भी अनियत होती है। अतः उसे अनुमान के तराजू पर तौलना श्रावकों का सहज स्वभाव-सा बन गया है। और हुआ भी यही अब तो आचार्यश्रीजी दस उपवास पूर्ण करेंगे' ऐसा अनुमान लगाकर दसवें दिन श्रावकों ने आचार्यश्रीजी से शुद्धि का निवेदन नहीं किया।संघस्थ साधु शुद्धि करके जब आचार्य भगवन् के पास नमोऽस्तु करने पहुंचे, तब आचार्यश्रीजी इस बात से पूर्णतः अनजान थे कि महाराज लोग शुद्धि करके आए हैं, अतः उन्होंने सामान्य से ही पूछ लिया- 'शुद्धि का समय नहीं हुआ क्या?' यह सुनकर किन्हीं महाराज ने तुरंत भरा हुआ कमण्डलु आचार्यश्रीजी के हाथों में दे दिया। वह बड़ी सहजता से शुद्धि करके चर्या को निकल गए।और वर्तमान युग के शिखर पुरुष संत सरताज के नव उपवास की पारणा का महासौभाग्य कार्तिक कृष्ण अमावस्या-दीपावली के शुभ दिवस, वीर निर्वाण संवत् २५१७, विक्रम संवत् २०४७, गुरुवार, १८ अक्टूवर १९९० को दादिया (अजमेर) राजस्थान निवासी श्रावकश्रेष्ठी श्री हरकचन्दजी झांझरी एवं श्रीमती नोरतदेवी को प्राप्त हुआ। राजा श्रेयांस की भाँति भक्ति से भरे हुए इस परिवार को लगा ‘इन परम तपस्वी के करपात्र में किन-किन उत्तम व्यंजनों को रख दें, परंतु निरीहवृत्ति के धारी आचार्य भगवन् ने मूंग दाल, लौकी, आँवला और रोटी से ही पारणा की। पारणा के बाद किसी ने आचार्यश्रीजी से कहा- 'हम लोग तो सोच रहे थे कि आप दस उपवास पूर्ण करेंगे...। आचार्यश्रीजी बोले 'हमें गिनती नहीं करना है, जब तक मूलगुणों का पालन अच्छे से हुआ, शिथिलता नहीं आ रही, तब तक तप साधना बढ़ाई। क्योंकि मूलगुण खेत हैं और तप उनकी बाड़ी। हमें रिकार्ड नहीं बनाना था।' क्योंकि आचार्यवर देहाश्रित साधना की अपेक्षा आत्माश्रित साधना को अधिक महत्त्व देते हैं। उनका कहना है कि अभ्यंतर तप में बाह्य तप हेतु हैं। उत्साह और जागृति के साथ अपने आवश्यकों को करना, प्रायः खड़े होकर प्रतिक्रमण एवं उत्कृष्ट सामायिक करते हुए संघ के प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन करने जैसी सभी क्रियाएँ इन दिनों में भी आचार्य भगवन् की चर्या में सहज समाहित थीं। उपवास के दूसरे और तीसरे रोज़ संघस्थ महाराजों ने कहा 'आचार्यश्रीजी! रेगुलर पढ़ने वाले विद्यार्थी को भी कभी-कभी छुट्टी मिलती है। हम लोग भी आपके पास छुट्टी का आवेदन पत्र लेकर आए हैं। लेकिन आचार्य भगवन् ग्रंथराज तत्त्वार्थवार्तिक' एवं पंचास्तिकाय' जैसे गहन विषयों की कक्षा लगाते रहे। जब छुट्टी का आवेदन स्वीकार होता नहीं दिखा, तब छठवें दिन शिष्यगण स्वयं ही कक्षा में उपस्थित नहीं हुए। इसी वर्षायोग के अवसर पर नव उपवास के पूर्व तपोमूर्ति आचार्यप्रवर ने लगातार तीन उपवास भी किए थे। रक्षाबंधन रूप वात्सल्य पर्व के मांगलिक अवसर में आचार्यश्रीजी की तेला की पारणा का गौरव ब्राह्मी विद्या आश्रम, जबलपुर, म.प्र. की वैराग्यवर्धिनी साधिकाओं को प्राप्त हुआ था। निर्दोष चर्या के साथ उत्कृष्टता से अनशन तप करने वाले आचार्य भगवन् धन्य हैं। मन परीक्षक : अवमौदर्य तप अर्हत्वाणी । अद्धाहारणियमो ...............भणिदं होदि ॥ आधे आहार का नियम करना अवमौदर्य तप है। जो जिसका प्राकृतिक आहार है उससे न्यून आहार विषयक अभिग्रह (प्रतिज्ञा) करना अवमौदर्य तप है। विद्यावाणी उदर यानी पेट, पेट से कम खाने का नाम अवमौदर्य/ऊनोदर है। अपना जो पेट है उसके चार भाग करते हैं। एक भाग से कम तीन भाग भरना, यह तो प्रतिदिन का आहार माना जाता है। उसमें से एक ग्रास कम कर दो तो यह जघन्य अवमौदर्य माना जाता है और मात्र एक ग्रासया एक चावल का दाना ले करके आ गए तो यह उत्कृष्ट अवमौदर्य माना जाता है। तथा आधा पेट आहार करना मध्यम अवमौदर्य है। अवमौदर्य का अर्थ खाली पेट होना चाहिए, नहीं तो दोष लगेगा।अच्छे ढंग से दूध व पानी ले लेने से अवमौदर्य नहीं हो जाता। ऊनोदर पहले से संकल्प लेकर किया जाता है। ग्रास का भी एवं चीज़ों का भी प्रमाण किया जाता है। पहले से प्रमाण नहीं बनाओगे तो भोजन कैसे होगा? क्योंकि वहाँ जाने के बाद विचारों में अंतर आ सकता है। पानी यदि रोज़ अच्छी मात्रा में लेते हैं तो उस दिन पानी का भी प्रमाण कर लें, क्योंकि उससे भी तृषा बुझ जाती है। आधा पेट रहोगे, तब तो महसूस होगा। जितने भी तप होते हैं, वह विधिवत् होते हैं केवल खानापूर्ति नहीं। उत्कृष्ट अवमौदर्य करने ३-४ किलोमीटर दूर जाते हैं और एक ग्रास लेकर आ गए। केवल मन की परीक्षा की, कि अंदर मन में क्या होता है। ३-४ किलोमीटर दूर गए और रास्ते में कोई अन्य मत वाले मिलेंगे, वे कुछ भी कह सकते हैं। अपशब्द भी बोलेंगे, तो आक्रोश नहीं आए। वो आक्रोश परिषहजय करते हैं। चाह से तप निष्फल- इस तप के द्वारा तो मेरी महिमा बढ़ेगी, ख्याति होगी, कीर्ति फैलेगी, लोग प्रशंसा करेंगे, पूजा करेंगे, आरती उतारेंगे, बाजा बजवाएँगे। इस निमित्त से यदि करता है तो उसका अवमौदर्य तप भी निष्फल है। जैसे लोग कहते हैं कि रात्रिभोजन (अन्न) त्याग कर दो तो मावा मिल जाता है, ऐसा सोचने वालों का वह तप वृथा माना जाता है। विद्याप्रसंग अतृप्त आहार अवमौदर्य आचार्यश्रीजी कहते हैं- 'तृप्ति पूर्वक भोजन न करने का नाम भी अवमौदर्य है। प्रायः साधुओं का तो मध्यम अवमौदर्य हो ही जाता है। प्रसंग अमरकंटक, (शहडोल) मध्यप्रदेश का है। चातुर्मास के बाद आचार्यश्रीजी का विहार पेंड्रा रोड (बिलासपुर) की ओर हुआ। गाँव में खुशी की लहर दौड़ गई। यहाँ पर एक ऐसा परिवार था, जिसके घर में छत की जगह खप्पर थी, जिसमें से पानी टपकता था। भोजन बनाने बर्तन नहीं थे, गृह स्वामी साईकिल से गाँव-गाँव जाकर चूड़ी-बिंदी बेचकर बमुश्किल अपने परिवार का खर्च चलाता था। आचार्य भगवन् के आगमन का समाचार सुनकर गृह स्वामिनी (पत्नी) ने चौका लगाने की भावना व्यक्त की।पति बोला-न बर्तन, न राशन और न ही खड़े होने के लिए सूखा कोई स्थान है। ऐसे में कैसे करेंगे? रहने दो। पर पत्नी का मन नहीं माना। आस-पड़ोस का सहयोग लेकर शुद्ध आहार तैयार कर लिया और पति-पत्नी दोनों पड़गाहन करने खड़े हो गए। पति मन में विचार करता है कि मंदिर से इतनी दूर घर है हमारा। विहार करके आए हैं, साधु । कोई मुनिराज शायद ही यहाँ पहुँच पाएँ। भावों का क्रम जारी रहा। आचार्यश्रीजी चर्या के लिए मंदिरजी से निकले। मार्ग के श्रावक आह्वानन कर रहे हैं, पर वह ईर्यापथ शुद्धि से बढ़ते ही जा रहे और जाकर उन्हीं श्रावक के पास ऐसे खड़े हो गए, मानो चंदना के पास महावीर आ गए हों। दम्पत्ति के आँसुओं की धार बह निकली जो मानो यह कर रही हो कि कौन कहता है आचार्य भगवन् अमीरों के यहाँ ही जाते हैं। अरे! जिसके यहाँ आचार्य भगवन् के पावन चरण पड़ते हैं, वे अमीर बन जाते हैं। और अश्रुपूरित नयनों से ही पाद प्रक्षालन एवं पूजन संपन्न की गई। अँजुली के नीचे पात्र के स्थान पर कढ़ाई रखी।आहार शुरू हुआ नहीं कि बारिश शुरू हो गई। जहाँ गुरुवर खड़े थे, उस स्थान को छोड़कर कई स्थानों पर पानी टपकने लगा। पर गुरुवर के आहार मंद-मंद मुस्कान के साथ सानंद संपन्न हो गए।आचार्यश्रीजी वापस आकर मंदिर के बाहर बने मंच पर विराजमान होकर बोले- 'आज सभी दाताओं ने बहुत शांति से आहार कराए।आज तो ऊपर से बारिश हुई और चौके वालों की आँखों से भी...।" प्राकृतिक प्रतिकूलता आने पर पूर्णाहार की कल्पना संभव नहीं है, फिर भी मन में कोई क्षोभ उत्पन्न न होने देना एवं दाता को भी वचनों से संतुष्ट कर देना, अद्भुत ही व्यक्तित्व है गुरुवर का। तपस्वी सम्राट आचार्य भगवन् धन्य है! और धन्य है! उनका तप।। आशा निरोधक : वृत्तिपरिसंख्यान तप अर्हत्वाणी तिस्से वुत्तीए.......... ... .... भणिदंहोदि॥ भोजन, भाजन, घर, बार (मुहल्ला) और दाता, इनकी वृत्ति संज्ञा है। उस वृत्ति का परिसंख्यान अर्थात् ग्रहण करना वृत्तिपरिसंख्यान है। इस वृत्तिपरिसंख्यान में प्रतिबद्ध जो अवग्रह अर्थात् परिमाण नियंत्रण होता है,वह वृत्तिपरिसंख्यान नाम का तप है। विद्यावाणी वृत्तिपरिसंख्यान किसको बोलते हैं? आँकड़ी लेकर निकलना यही वृत्तिपरिसंख्यान है। विधि ऐसी नहीं लेना चाहिए जो हँसी का कारण बने । विधि लेकर विद्युत् के समान साधु निकले, उतने में उसे विधि दिख जाए, विधि ऐसे लेना चाहिए। वृत्ति परिसंख्यान का अर्थ आहार के लिए उठते समय कोई नियम लेना। उसके मिलने पर ही आहार करूँगा। लेकिन जो नियम आज लिया है, वो ही कल रहे, यह नियम नहीं है। कुछ लोग कहते हैं जब तक वो नियम न मिलेगा तब तक आहार नहीं करेंगे। ऐसा नहीं है। हाँ, हमें अपनी परीक्षा करना है, तो वह नियम २-३ दिन तक रख सकते हैं । वृत्ति परिसंख्यान तप गुरु की आज्ञा से लेना चाहिए। अपने कर्म कैसे उदय में चल रहे हैं? इसका संधान करने के लिए वृत्ति परिसंख्यान तप किया जाता है।तीर्थंकर को भी विधि नहीं मिली। लाभ-अलाभ में अडिग- विधि लेने वाले को स्थिर वृत्ति वाला होना चाहिए। अलाभ में भी लाभवत् समझकर हँसता हुआ आना चाहिए। दाता के मन में तो अलाभ होने पर क्षोभ होता है, लेकिन पात्र के लिए क्षोभ नहीं करना चाहिए। सच्चा साधक भी वही है, जो विभिन्न संकल्प विकल्पों के बावजूद भी अपनी मुक्ति मंजिल की ओर अग्रसर रहता है। यही एक मात्र इसकी परीक्षा है, परख है। जैसे सच्चा पथिक तो वही है, जो पथ में काँटे आने पर भी नहीं रुकता। सच्चा नाविक भी वही है, जो प्रतिकूल धारा के बीच से नाव को निकालकर गन्तव्य तक ले जाता है। इसी प्रकार सच्चा साधक लाभ-अलाभ में विकल्प नहीं करता। विद्याप्रसंग वृत्तिपरिसंख्यान, निर्जरा का अचूक अवसर १० जून, २०१५, दयोदय, तिलवाराघाट, जबलपुर,मध्यप्रदेश का प्रसंग है। उस दिन आचार्यश्रीजी का केशलोंच का उपवास था। शाम की सामायिक के बाद ब्रह्मचारी भाइयों को वैयावृत्ति का अवसर प्राप्त हुआ। आचार्यश्रीजी प्रायःकर रात्रि में दस-ग्यारह बजे तक लेट जाते और दो-ढाई बजे तक उठ जाते।अभी वर्तमान में तो वह करीब एक-डेढ़ बजे ही उठ जाते हैं। चौबीस घंटे में उनका इतना ही विश्राम होता है, १९७४, सर सेठ भागचंदजी सोनी की नसिया में मानस्तंभ के दर्शन पर इस दिन उन्हें गर्मी की भीषणता और कर वृत्तिपरिसंख्यान ग्रहण करते हुए आचार्यश्रीजी केशलोंच के उपवास के कारण कुछ अधिक ही बेचैनी महसूस हो रही थी। वह रात्रि ११ बजे तक बैठे रहे, फिर लेट गए, पर नींद का नाम ही नहीं था। रात्रि १ बजे वह उठे और पद्मासन लगाकर ध्यानस्थ हो गए।शारीरिक बेचैनी इतनी थी कि नींद नहीं आ रही थी और ध्यान की साधना इतनी कि पल भर में ही अचल हो, ध्यानमग्न हो गए। प्रातःकालीन भक्ति के पूर्व करीब ५.३० बजे तक वह ध्यानमग्न रहे। उस दिन का आचार्यश्रीजी का पड़गाहन एक ऐसे टीनशेड वाले चौके में हुआ जहाँ पर सूर्यदेवता अपनी तपन खलकर लटा रहे थे। वह तो अपनी साधना के अनकल आहार ग्रहण करके आए और आवश्यकों में तत्पर हो गए।जिन ब्रह्मचारी भाइयों ने उनकी रात्रिकालीन बेचैनी देखी थी, उन्होंने दोपहर की सामायिक के बाद आकर गुरुजी से कहा- 'आचार्यश्रीजी! हम लोग तो आज प्रार्थना कर रहे थे कि आपका पड़गाहन पास वाले पक्के बने कमरे में हो जाए, तो ठीक रहेगा। वहाँ आपको ठंडक मिलती, पर आपका पड़गाहन तो उस टीनशेड में हुआ जहाँ पर सूर्यदेवता उतरकर स्वयं आपकी प्रतीक्षा कर रहे थे। आचार्यश्रीजी बोले 'हाँ, कर्मों की निर्जरा कैसे होगी।' फिर थोड़े से मुस्कुराते हुए बोले- 'हाँ, मन ने तो पहले यही चाहा था। फिर वृत्तिपरिसंख्यान के समय मन में आया, वन में जाकर तप नहीं कर पा रहा हूँ, तो....।' इतना कहकर वह मौन हो गए। धन्य हैं जिनशासन के ऐसे सपूतों को, जिन्होंने अपनी पाँचों इंद्रियों एवं मन को पूर्णतः अपने वश में कर रखा है। धन्य-धन्य...! हो उठा श्रावक ऐसे भी अनेकानेक प्रसंग हैं, जब आचार्यश्रीजी के वृत्तिपरिसंख्यान तप के परिपालन का लाभ चौका नहीं लगाने वाले उन श्रावकों को अनायास ही मिल गया, जो शुद्ध भोजन-पान करते थे। सन् १९८५, अहारजी, टीकमगढ़, मध्यप्रदेश में ऐसा ही हुआ था। गुरुवर की क्षेत्र की दो परिक्रमा लग गईं, पर विधि नहीं मिली। टीकमगढ़ की श्राविका श्रीमती तारा टडैया, श्रीमान् मोहनलाल जी जैन टडैया टीकमगढ़ वालों की धर्मपत्नी, जिन्होंने स्वभोजन हेतु मात्र दाल-रोटी और दलिया बनाया था, जल और दूध तो चौके में था ही। गुरुजी घूमते हुए जब उस ओर पहुँचे तब उन्होंने हाथ जोड़कर पड़गाहन कर लिया। बाहर से लोगों ने आने की कोशिश की पर आचार्यश्रीजी ने न तो कोई सामान आने दिया और न ही किसी व्यक्ति को आने दिया। धन्य हैं वे श्रावक, जिन्हें अनायास ही उत्तम पात्र की प्राप्ति होने पर भले ही आज पंचाश्चर्य की वृष्टि न होती हो, पर उनके लिए यह क्षण हृदय में वैसा ही हर्षदायक होता है। अहो!अलाभ में भी लाभानुभूति आचार्यश्रीजी का वृत्तिपरिसंख्यान कभी प्रकट में दिखाई नहीं पड़ता। पर उनका अलाभ होता देखा जाता है और कभी-कभी तो ऐसे-ऐसे स्थानों पर पड़गाहन देखा जाता है जिनकी कल्पना प्रायः नहीं की गई हो। इसके बाद तत्संबंधी चर्चा भी नहीं करते कि कुछ प्रकट हो सके।विदिशा पंचकल्याणक के समय १९ अप्रैल, २००८, महावीर जयंती का दिवस, हरिपुरा स्थित शीतलधाम से विधि लेकर आचार्य भगवन् निकले और पूरे नगर की परिक्रमा जैसी हो गई। ढाई-तीन किलोमीटर तक जाना और उतना ही आना रहा, पर विधि नहीं मिली और अलाभ (उपवास) हो गया। लेकिन आचार्य भगवन् की मुखमुद्रा पूर्व से भी अधिक प्रसन्नता से भरी दिख रही थी, क्योंकि उन्हें आहार के अलाभ में निर्जरा का लाभ जो हो रहा था ।अहो! कैसे निःशब्द साधक हैं आप, निर्जरा का एक भी अवसर जाने नहीं देते। धन्य है जिनशासन को, जहाँ स्वयं के द्वारा स्वयं की ही परीक्षा ली जाती है।आहार करने तो जा रहे हैं, उसमें भी स्वयं का स्वयं पर कितना नियंत्रण है यह परखने हेतु ऐसी विधि लेकर जाना जो मिले भी और नहीं भी। नहीं मिलने पर समता भाव से लौट आना। कितना अद्भुत है यह सब। स्वयं के द्वारा स्वयं को ही दर्पण दिखाया जा रहा है कि देखो, अगर पुण्य होता तो विधि मिल जाती।तप करो, कर्मों को खपाओ, तब जाकर शुद्ध आत्मतत्त्व की प्राप्ति हो सकेगी। इंद्रिय दमनकारक : रसपरित्याग तप अर्हत्वाणी खीरदधिसप्पितेल्ल.............. पणकुसणलोणमादीण॥२१७॥ दूध, दही, घी, तेल, गुड़ का और घृत, पूर, पुवे, पत्रशाक, सूप और लवण आदि सबका अथवा एक-एक का त्याग रसपरित्याग हैं अर्थात् सल्लेखना काल में दूध आदि सबका या उनमें से यथायोग्य दो तीन-चार का त्याग रस परित्याग है। विद्यावाणी इससे भी (वृत्तिपरिसंख्यान से भी) ऊपर चौथे नंबर पर रसपरित्याग बताया। इसके द्वारा ही हम पुद्गल को पहचानते हैं । इस रसनेंद्रिय के द्वारा ही पाँचों इन्द्रियाँ और मन पुष्ट होता है। वह बहुत महान् इन्द्रिय है, जब यह कंट्रोल में आती है, तब पाँचों इन्द्रियाँ कंट्रोल में हो जाती हैं। रस त्याग का फल ही ऋद्धियाँ प्राप्त होना हैं । नीरस भी सरस बनने लगता है, चाहो तो करो। पुण्य के फल को जितना आप त्यागोगे उतना अधिक पुण्य ही पुण्य प्राप्त होता है। वस्तुतः संसारी प्राणी जिह्वा इंद्रिय का इतना लोलुपी रहता है कि इसको कुछ भी दे दो, पर तृप्ति नहीं समझता।थोड़ी कमी होती है तो गुर्राने लग जाता है। त्याग में देखा-देखी नहीं- देखो! इंद्रियविजय करना और अपने शरीर का संचालन कराना, इसके लिए अन्न-पान इत्यादिक आवश्यक है।ये छोड़ दिया तो अब उसके माध्यम से मान लो गैस बनने लग जाए और पित्त भड़कने लग जाए, या वात का प्रकोप हो जाए, कफ का प्रकोप हो जाए। इसलिए शरीर को देख करके रस परित्याग किया जाता है। ऐसे देखा-देखी नहीं करना। जिस प्रकार विद्यार्थी अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार क्षमता के अनुसार सब्जेक्ट (विषय) का चुनाव करते हैं। उसी प्रकार रस परित्याग भी अपने ढंग से शरीर की प्रकृति देख करके करना चाहिए। भूख लगी है स्वाद लेना छोड़ दें भर लें पेट। विद्याप्रसंग त्याग... ग्रहण कैसे सन् १९८९, कुण्डलपुर वर्षायोग में आचार्यश्रीजी का स्वास्थ्य एकदम बिगड़ गया। उपचार हेतु वैद्यजी ने औषधि को चासनी के साथ देने की अनिवार्यता बताई। मीठा त्यागी गुरुवर को चासनी संग औषधि कैसे चलाई जाए? यह एक बड़ा संकट था। कैसे भी गुरुजी ठीक हो जाएँ यह चाह श्रावकों में बनी हुई थी।संयोग से आचार्यश्रीजी के पड़गाहन का सौभाग्य ब्रह्मचारिणी सविता दीदी, पिपरई आदि बहनों को प्राप्त हुआ। आचार्यश्रीजी का स्वास्थ्य ठीक न होने से कुछ ब्रह्मचारी भाई भी आहार देने हेतु चौके में आ गए।औषधि आरंभ में ही चलनी थी सो उपस्थित सभी दीदी एवं भैयाजी लोगों ने निर्णय किया कि औषधि में चासनी के साथ ज़्यादा-सा जल मिलाकर चलाने पर उन्हें मीठे का स्वाद नहीं आ पाएगा। इसी रूप में ब्रह्मचारिणी सविता दीदी ने वह औषधि गुरुजी को चला दी। उसे लेते ही वे अंतराय करके बैठ गए। सब घबरा गए। उपस्थित दीदी एवं भैयाजी न तो आहार के बाद और आगे भी दो-तीन दिन तक गुरुजी के पास जाने का साहस न कर सके, दूर से ही दर्शन करते रहे। दो-तीन दिन के पश्चात् ब्रह्मचारिणी सविता दीदी ने आचार्यश्रीजी से कहा- 'आचार्यश्रीजी! मुझे प्रायश्चित्त दे दीजिए, गलती हो गई। परंतु मेरा लक्ष्य तो मेरे गुरुजी को नीरोग करने का था।' तब आचार्यश्रीजी ने ऐसे आशीर्वाद दिया, मानो कह रहे हों कि कुछ नहीं, पर मैं भी त्यक्त वस्तु को ग्रहण कैसे करता? धन्य है! त्याग के प्रति गुरुवर की दृढ़ता को। आत्मसामाज्य विस्तारक : विविक्तशय्यासन तप अर्हत्वाणी नारीदेवीपशुक्लीव......तद्विविक्तशयनासनम् ॥१८१९-१८२०॥ मुनिराज अपने ध्यान और अध्ययन की सिद्धि के लिए स्त्री, देवी, पशु, नपुंसक आदि तथा गृहस्थ जहाँ निवास न करते हों, ऐसे सूने प्रदेशों में व श्मशान में व निर्जन वन में अथवा गुफा आदि में शयन करते हैं वा बैठते हैं उसको विविक्तशय्यासन नाम का तप कहते हैं। विद्यावाणी धर्मध्यानी वही, जो एकान्त चाहता है। एकान्त में रहने सेसंतुष्ट होने की आदत जिसे आ गई उसकी चिंता नहीं, उसे हम सब कुछ दे सकते हैं। भीड़ नहीं है, कोई बोलने वाला नहीं है इसलिए मन नहीं लग रहा, जो ऐसा कहते हैं, उसे हम कभी सन्तुष्ट नहीं कर सकते। उसकी दिशा ही अलग है, वो पूर्व तो हम पश्चिम।वह कभी धर्मध्यान नहीं कर सकता। एकांत से जिसने विविक्तशय्यासन लगाया है, वह समाधि के समय निर्भीक होकर समाधि कर भी सकता है और करा सकता है। क्योंकि एकांत में बैठने से भय को जीता जा सकता है और निद्रा को भी। एकत्व/एकांत में अपना सारा आत्म साम्राज्य सामने आता है। जीवन आनंदमय तभी बनता है। ज्ञान-ध्यान व अध्ययन के विकास के लिए एकान्त शय्यासन होना चाहिए। बाधा का मूल तो लौकिक संपर्क व संबंध है। संपर्क से बचो, इसी में जिनलिंग का हित है। जनसंपर्क नहीं, जिन-संपर्क करो। संपर्क के द्वार बंद रखें-परिचित के माध्यम से ही माथा दर्द होता है, अपरिचित से नहीं।। इसलिए परिचित होने से बचो। किसी को भी अपना परिचय मत दो। केवल भगवान् आत्मा का ही लक्ष्य हो, बाकी में सब निःसार समझ में आए तो ध्यान हो सकता है। जैसे युद्ध में जीतने के लिए सारे रास्ते बंद कर देते हैं, क्योंकि शत्रु को मालूम ही ना चले। अपना पता संपर्क सब हटा लेते हैं। वैसे ही मोह के आक्रमण को जीतने के लिए पर-संपर्क हटाना होता है। परिचित भी अपरिचित लगे स्वस्थ ज्ञान को। विद्याप्रसंग एकांत प्रिय बादशाह ग्राम टाकरखेड़ा (मोरे) अमरावती, महाराष्ट्र में १ जुलाई, १९३२ को जन्में एक बहुत बड़े हिन्दू संत ‘गुलाब बाबा' थे। उन्होंने सुन रखा था कि जैन समाज में श्रमण शिरोमणि जगत् पूज्य श्री विद्यासागरजी एक ऐसे संत हैं, जिन्हें बुंदेलखंड का बच्चा-बच्चा ‘आचार्यश्रीजी' के नाम से जानता है। वे आचार्यश्रीजी के - दर्शनार्थ डॉ. अमरनाथ जैन, सागर के साथ कुंडलपुर, दमोह, मध्यप्रदेश पहुँचे। पूछने पर उन्हें पता चला कि आचार्यश्रीजी बड़े | बाबा के पास मिलेंगे। बड़े बाबा के पास पता प्रकार करने पर वे वहाँ जा पहुंचे जहाँ गुरुवर आचार्य श्रीजी के दर्शन करते हुए हिंदू संत श्री गुलाब बाबा विराजमान थे। श्रमण शिरोमणि को देखकर वह आश्चर्यचकित हो उठे। उन्होंने देखा- आचार्यश्रीजी लाल रंग से पुती एक चौंड़ी-सी पट्टी पर अकेले बैठे हैं, और आँख बंद करके एक श्लोक को बार-बार धीरे-धीरे पढ़ रहे हैं, 'सर्वं निराकृत्य विकल्पजालं।' यह देखकर वह संत आचार्यश्रीजी के चरणों में नम्रीभूत हो गए और उनकी आँखों से आँसू बह निकले। उन्होंने आचार्यश्रीजी को साष्टांग नमस्कार किया और बोले- 'भगवान होते हैं, ऐसा मैंने सुन रखा था, पर यहाँ तो मुझे साक्षात् भगवान के दर्शन हो रहे हैं। मैं तो सोच रहा था इतने बड़े संत हैं,तो ठाठ बाट के साथ होंगे, सोने का सिंहासन, छत्र, चेले, भीड़-भाड़ आदि होगी! पर यहाँ तो कुछ नहीं है। (खुश होकर बोले) जैन जगत् में वीतरागता व निस्पृहता से सच्चा बादशाह होता है, चेले-चपाटे,वैभव से नहीं। एकांत,सर्व कल्याणी नवंबर १९७५, लश्कर, ग्वालियर, म.प्र. का प्रसंग है। कलकत्ता, पश्चिम बंगाल से प्रकाशित 'समाचारपत्रक' नामक पत्रिका में प्रकाशित ‘आत्मतत्त्व प्रदर्शक' लेख में मिश्रीलालजी पाटनी, ग्वालियर लिखते हैं- यहाँ लश्कर नगर में एक पहड़िया है, उस पर जैन मंदिर है। वह शहर से एक मील के फ़ासले पर है। (आचार्यश्रीजी) वहाँ से प्रातः ८ बजे प्रवचन के समय पहड़िया से उतरते थे। प्रवचन करके एवं आहार लेकर पुनः पहड़िया पर ही चले जाते थे। वहाँ पर दिन भर एवं रात्रि में एकांत में रहकर धर्मध्यान करते रहते थे। समाज के कुछ भाइयों ने निवेदन किया कि दोपहर में महिलाओं को उपदेश श्रवण हेतु यहाँ आने में कठिनाई होती है, शहर के मंदिर में ही प्रवचन हो तो जनता अधिक धर्म लाभ ले सकती है। तब महाराजश्री उत्तर देते हैं। मैंने अपने स्वयं का कल्याण करने को दीक्षा प्राप्त की है। आप यहाँ पर भी आकर मेरे अध्यात्म में बाधा डालते हैं। प्रत्येक व्यक्ति की स्वयं की आत्मा ही स्वयं का कल्याण कर सकती है। मैं पर हूँ, किसी का कल्याण नहीं कर सकता हूँ। मैं प्रातः उपदेश देता हूँ। उसको दिन में मनन करें, शास्त्र स्वाध्याय करें, उसी से आपका कल्याण हो सकता है। आप किसी भी व्यक्ति से पारिवारिक या विपदा विषयक वार्ताएँ नहीं करते हैं। यह गुण हमने आपमें देखा है, जो अन्य त्यागियों में इस कदर प्रवृत्ति कम देखने में आती है। इस तरह आचार्य भगवन् न केवल अभी, अपितु आरंभ से ही एकांतप्रेमी रहे हैं। यही कारण है कि उनका प्रवास प्रायः तीर्थ क्षेत्रों में रहा है। क्योंकि एकांत में अध्ययन-अध्यापन एवं धर्मध्यान में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती है। आत्मानंददायक : कायक्लेश तप अर्हत्वाणी ठाणसयणासणेहि................. ..हवदि एसो ॥ खड़ा रहना, एक पार्श्व से मृत की तरह सोना, वीरासनादि से बैठना इत्यादि अनेक तरह के कारणों से शास्त्र के अनुसार आतापन आदि योगों को कर शरीर को क्लेश देना वह कायक्लेश तप है। शरीर को जानबूझकर कठिन तपस्या की अग्नि में झोंकना कायक्लेश कहलाता है। यह सर्वथा निरर्थक नहीं है। सम्यग्दर्शन सहित किया गया यह तप अंतरंग बल की वृद्धि, कर्मों की अनंत निर्जरा व मोक्ष का साक्षात् कारण है। विद्यावाणी काय के प्रति ममत्व के त्याग का नाम कायक्लेश है।" काय क्लेश के बिना अंतरंग तप वृद्धि को प्राप्त नहीं हो सकते। काय क्लेश कर्मक्षय व मुक्ति के लिए होना चाहिए। कायक्लेश तप ओवर ड्यूटी की तरह है। ओवर ड्यूटी करने में आनंद आता है, क्योंकि वहाँ अधिक लाभ की आशा है। इसी प्रकार समयसारी (आत्मा का स्वाद लेने वाले) को भी इस तप में आनंद का अनुभव होता है, क्योंकि समय से पूर्व ही अनेक कर्म आत्मा को छोड़कर भाग जाते है| कष्ट भी इष्टकारी- भाग्योदय, सागर, म.प्र., १९९८, कार्तिकेयानुप्रेक्षा' ग्रंथ के स्वाध्याय के दौरान आचार्यश्रीजी कायक्लेश तप की व्याख्या कर रहे थे। तभी किसी ने कहा- 'कायक्लेश तप में दुःख तो होता ही है।' आचार्य भगवन् ने कहा- 'दुःख नहीं है। दुःख कोभुलाकर और स्वयं चलाकर जो अच्छे ढंग से किया जाता है, उसी का नाम कायक्लेश तप है। हाँ, सुनो! घड़ा जो बनता है, वो बिना कायक्लेश के बन नहीं सकता। उस (माटी) को चोट देते हैं, (अग्नि में तपाते हैं), यह क्या है? कायक्लेश ही तो है। उसके बिना गोलाई आ ही नहीं सकती (घट बन ही नहीं सकता)।काय को, इंद्रियों को और मन को भी कष्ट देना ठीक है। इसके द्वारा क्रोध की, मान की उदीरणा हो जाती है। जिन उपसर्गों को सहन करना बहुत कठिन होता है, उन उपसर्गों को कायोत्सर्ग से जीतने वाले साधक के 'कायक्लेश तप' होते हैं।” इन्द्रियों में जाती हुई दृष्टि को रोकने का नाम तप है, जो भवों का अंत करने वाले हैं। हाथी को वश में करने हेतु उसे बेला, तेला, चौला व पाँच उपवास तक करा दिए जाते हैं। विद्याप्रसंग ललक आत्मरमण की पहले जब संघ छोटा था, तब आचार्यश्रीजी अष्टमी, चतुर्दशी को उपवास करके वीरान जंगलों में जाकर २४ घंटे एक ही आसन से स्थिर रहा करते थे। राजस्थान के अजमेर जिले के केकड़ी गाँव की बात है। आचार्य महाराज के साथ एक क्षुल्लकजी भी थे। संध्या के समय मंदिरजी में श्रावक गुरुभक्ति करने आए, देखा- महाराजजी नहीं हैं। आचार्यश्रीजी कभी विहार बताकर नहीं करते, सो सब चिंतित हो गए। लोगों ने सोचा कहीं विहार तो नहीं कर गए, पूरे इलाके में खबर फैल गई। सब पूछ रहे थे-महाराज कठे (कहाँ) गया? इतने में दो ग्रामीण व्यक्ति वहाँ से आए, उन्होंने बताया- 'हमने नागा बाबा को श्मशान में देखा है।' लोग वहाँ गए तो देखा आचार्यश्रीजी प्रतिमायोग से स्थिर विराजमान हैं। ध्यान में लीन हैं। इसी प्रकार मई माह के आसपास आचार्यश्रीजी का बघेरा (केकड़ी) अजमेर, राजस्थान में ७ दिन तक प्रवास रहा। उस दौरान शाम ६.३० बजे श्मशान में जाते थे और रात्रि में वहीं ठहरकर आत्म साधना करते थे। प्रातः जिन मंदिरजी में लौट आते थे। धन्य है, आचार्यश्रीजी को! उनकी तप साधना अनूठी है। अंतरंग व बहिरंग दोनों प्रकार के तप उत्कृष्टता के साथ तपना उनकी साधना का अंग है। उपसंहार जो मोक्षमार्ग पर आरूढ़ होना चाहते हैं, उन्हें उत्साह के साथ और रुचि पूर्वक तप आदि को अपनाना चाहिए। तप के माध्यम से मात्र निर्जरा नहीं होती, संवर भी होता है। तप दोषों की निवृत्ति के लिए परम रसायन है। मिट्टी भी तप कर ही पूज्य बनती है। जब वह अग्नि की तपन को पार कर लेती है तब पक्के पात्र, घड़े आदि का रूप धारण कर लेती है और आदर प्राप्त करती है। कहा भी है, पहले कष्ट फिर मिष्ट। पदार्थ की महत्ता वेदना सहकर ही होती है। गृहस्थी में आतप है, कष्ट है, छटपटाहट है। जैसे पूड़ी कड़ाही में छटपटाती है, वही दशा गृहस्थ की होती है। तप द्वारा उस कष्ट का निवारण संभव है। गृहस्थ (घर) में मेरी बाँह मोच गई थी, मैंने 'स्लोंस बाम' लगाई, (बाम आदि लगाने से आरंभ में तेज झनझनाहट होती है फिर) उससे सारा दर्द धीरे-धीरे जाता रहा। इसी तरह संसार की वेदना को मिटाने के लिए तप रूपी बाम का उपयोग करना होगा। कार्य सिद्धि के लिए तप अपनाना ही होगा।' लोहे की छड़ आदि जब टेढ़ी हो जाए तो केवल तपा कर ही उसे सीधा बनाया जा सकता है, अन्यथा सभी साधन व्यर्थ हो जाते हैं। उसी प्रकार विषय और कषाय के टेढ़ेपन की निवृत्ति के लिए आत्मा को तपाना ही एक मात्र अव्यर्थ (सार्थक) साधन है। बाह्य तप, अंतरंग तप में वृद्धि करते हैं। तपस्या एवं ज्ञान का फल मोक्ष प्राप्त होना चाहिए। जैसे कोई व्यक्ति वृक्ष लगाता है तो उसमें पहले फूल लगते हैं और फिर बाद में फल लगते हैं। यदि वह व्यक्ति फूल को तोड़कर नष्ट कर दे तो उसे मीठे फलों से वंचित रहना पड़ेगा। उसी प्रकार जो व्यक्ति तप तथा शास्त्राभ्यास का फल ऋद्धि, बड़प्पन एवं मान-सम्मान चाहता है, वह फूलों को नष्ट करके स्वर्ग और मोक्ष के सरस फलों से वंचित रह जाता है। डा.पृ.१२ हमें तप की सुरक्षा बीज की तरह करनी चाहिए। अगर आप लोग तप तपते समय मद के द्वारा उसका बीजत्व समाप्त कर दोगे तो अगले जीवन में कुछ नहीं मिलेगा। आगे नहीं बढ़ पा रहे हो तो कोई बात नहीं, पर मद न करें। अगला जीवन इसी पर डिपेण्ड(आश्रित) है। तपस्या से आत्मा को तपाना होता है, शरीर को तपाना नहीं। हाँ, शरीर को तपाने से अंदर वैराग्य है या नहीं, यह ज्ञात हो जाता है।
  2. _दिगम्बर जैन समाज के सबसे बड़े संत आचार्य श्री १०८ विद्या सागर जी महाराज के दर्शन करने को आज मप्र सरकार के उच्च शिक्षा मंत्री जीतू पटवारी आए थे।_ मंत्री पटवारी के साथ शहर कांग्रेस अध्यक्ष विनय बाकलीवाल और प्रवक्ता जय हार्डिया साथ में थे। आचार्य श्री के शिष्य मुनि श्री १०८ सम्भव सागर जी महाराज और ब्रह्मचारी सुनिल भैया जी द्वारा मंत्री पटवारी को आचार्य श्री द्वारा लिखित मूकमाटी पुस्तक की जानकारी दी गयी और कहा गया कि इस पुस्तक को यदि सभी विश्व विद्यालय में पाठ्यक्रम में शामिल किया गया तो उससे छात्रों का भविष्य बहुत बेहतर होगा। इसके साथ इस पुस्तक को सभी कालेज की लायब्रेरी में भी अध्यन के रखा जाए। मंत्री पटवारी ने आचार्य श्री के समक्ष कहा की मै इस मामले में शीघ्र ही अधिकारियों से चर्चा कर के इस पुस्तक को पाठ्यक्रम में शामिल करवाऊँगा। मंत्री पटवारी ने तत्काल से फ़ोन पर अधिकारियों को आदेशित भी किया की मूकमाटी पुस्तक को प्रदेश के सभी कालेज की लायब्रेरी में रखा जाए।_
  3. भारत वर्ष की संस्कृति त्याग, तप, साधना एवं चारित्र प्रधान संस्कृति मानी जाती है। इस आधार पर दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति को भारतीय संस्कृति का प्राण कहा जा सकता है। दिगंबर जैन श्रमण बिना बोले,आचरण मात्र से ही धर्म का उपदेश देते हैं एवं श्रमण परंपरा के पावन प्रेरक होते हैं। उनका जीवन एक जीवंत शास्त्र है।एक ऐसा शास्त्र, जिसमें चारित्र लिपि का उपयोग हुआ है।ऐसे चारित्र के धनी श्रमण परंपरा कहाँ से, कब से प्रारंभ हुई...इससे संबंधित कुछ आगमिक एवं आचार्यश्रीजी की वाणी से निःसृत विषय को इस पाठ में प्रस्तुत किया जा रहा है। दिगम्बर जैन श्रमण की सनातनता जैन आगमिक साक्ष्य जैन धर्म अनादिनिधन धर्म है, अर्थात् इसका न कभी आरंभ हुआ है और न कभी अंत होगा। जब से । सृष्टि है तब से यह धर्म है और जब तक सृष्टि रहेगी तब तक धर्म बना रहेगा। बीच में धर्मतीर्थ के अभाव रूप विरहकाल अवश्य पड़ा। जैनों के आराध्य तीर्थंकर' इस धर्म के प्रवर्तक हैं संस्थापक नहीं। पढमराया पढमजिणे पढमकेवली। पढम तित्थयरे पढम धम्मवर चक्कवट्ठी ॥ भारतभूमि पर वर्तमान अवसर्पिणी में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव अंतिम कुलकर नाभिराय के पुत्र थे। वे मानवीय संस्कृति के आद्य सूत्रधार, प्रथम समाज व्यवस्थापक, प्रथम राजा,प्रथम मुनि,प्रथम भिक्षाचर, प्रथम जिन,प्रथम केवली,प्रथम धर्म प्रवर्तक एवं प्रथम धर्म चक्रवर्ती हुए। श्रमण (दिगम्बर) हुए बिना मोक्ष संभव नहीं। श्रमण धर्म को अपनाकर अनादिकाल से अब तक अनंत जीवों ने मोक्ष प्राप्त किया है और आगे भी अनंत जीव मोक्ष प्राप्त करेंगे। तीर्थंकर ऋषभदेव को आदि लेकर अंतिम तीर्थंकर महावीरस्वामीजी पर्यंत जिन चौबीस तीर्थंकरों का उल्लेख जैन अथवा इतर साहित्य में भी मिलता है, वह वर्तमानकालिक चौबीस तीर्थंकर हैं। ऐसे चौबीस-चौबीस तीर्थंकर भूतकाल में कई हो चुके हैं और भविष्य में भी होते रहेंगे। जैनागम के अनुसार जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड तथा अर्ध पुष्कर द्वीप विषयक अढाई द्वीप तथा लवण समुद्र एवं कालोदधि रूप दो समुद्र संबंधी १६० विदेह क्षेत्रों को छोड़कर ५-५ भरत एवं ऐरावत क्षेत्रों में सामान्यतया तीर्थंकरों का प्रादुर्भाव कालचक्र के अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के चतुर्थ काल में होता है। प्रत्येक चतुर्थ काल में चौबीस-चौबीस तीर्थंकर जन्म लेकर जिन शासन का संचालन एवं संवर्धन करते रहेंगे। विदेह क्षेत्रों में चतुर्थ काल सदैव बने रहने से तीर्थंकरों का सदा हीनाधिक रूप में सद्भाव रहता है। इस तरह इन जैन आगमिक साक्ष्यों से स्पष्ट है कि श्रमण धर्म को अपनाकर जबअनादिकाल से जीव मोक्ष जा रहे हैं एवं आगे भी जाते रहेंगे।और श्रमण बने बिना मुक्ति संभव नहीं है, तो सिद्ध ही हुआ कि 'श्रमण धर्म' अपरनाम जैनधर्म' अनादि निधन है। इस प्रकार जैन धर्म की अनादिनिधनता जैन आगम के अनुसार तो सिद्ध हुई। पर अपनी सिद्धि में अपने ही साक्ष्य ज़्यादा प्रभावकारी नहीं माने जाते, प्रभाव तो तब माना जाता है, जब अपने विषय में कोई अन्य कहे। जैन धर्म की सनातनता को कहने वाले पुरातात्त्विक,वैदिक,अवैदिक आदि अनेक साक्ष्य उपलब्ध हैं, जिन्हें नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है। पुरातात्त्विक साक्ष्य जैन धर्म की सनातनता को सिद्ध करने वाले, अब तक के सबसे प्राचीन माने जाने वाले पुरातात्त्विक साक्ष्य सिंधु घाटी के हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के खनन से प्राप्त हुए हैं। विद्वानों के अनुसार यह संस्कृति लगभग पाँच हजार वर्ष पुरानी है, जिसका संबंध जैन संस्कृति से है। इसे प्रामाणित करते हुए विद्वान् कहते हैं :- प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. एम. एल. शर्मा, 'भारत में संस्कृति और धर्म', पृष्ठ ६२ पर लिखते हैं 'मोहनजोदड़ो से प्राप्त मुहर पर जो चिह्न अंकित है वह भगवान ऋषभदेव का है। यह चिह्न इस बात का द्योतक है कि आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व योग साधना भारत में प्रचलित थी और उसके प्रवर्तक जैन धर्म के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव थे। सिंधु निवासी अन्य देवताओं के साथ ऋषभदेव की पूजा करते थे।' प्रसिद्ध विद्वान् वाचस्पति गोरैला, भारतीय दर्शन', पृष्ठ ९३ पर लिखते हैं-'श्रमण संस्कृति का प्रवर्तक जैन धर्म प्रागैतिहासिक धर्म है । मोहनजोदड़ो से उपलब्ध ध्यानस्थ योगियों की मूर्तियों की प्राप्ति से जैन धर्म की प्राचीनता निर्विवाद सिद्ध होती है। वैदिक युग में व्रात्यों और श्रमण ज्ञानियों की परंपरा का प्रतिनिधित्व भी जैन धर्म ने ही किया है। धर्म, दर्शन, संस्कृति और कला की दृष्टि से भारतीय इतिहास में जैनों का विशेष योग रहा है।' प्रसिद्ध विद्वान् श्री पी. आर. देशमुख, ‘इंडस सिविलाइजेशन ऋग्वेद एण्ड हिंदू कल्चर', पृष्ठ ३४४ में लिखते हैं- 'जैनों के पहले तीर्थंकर सिंधु सभ्यता से ही थे। सिंधु जनों के देव नग्न होते थे। जैन लोगों ने उस सभ्यता/संस्कृति को बनाए रखा और नग्न तीर्थंकरों की पूजा की। सिंधुजनों की भाषा प्राकृत थी। प्राकृत जन सामान्य की भाषा है। जैनों और हिंदुओं में भारी भाषिक भेद है। जैनों के समस्त प्राचीन धार्मिक ग्रंथ प्राकृत में हैं। विशेषतया अर्धमागधी में, जबकि हिंदुओं के समस्त ग्रंथ संस्कृत में हैं। प्राकृत भाषा के प्रयोग से भी यह सिद्ध होता है कि जैन प्राग्वैदिक हैं और सिंधु घाटी से उनका संबंध था।' इतिहासकारों के अनुसार वैदिक आर्यों के भारत आगमन अथवा सप्त सिंधु से आगे बढ़ने से पूर्व भारत में द्रविड़, नाग आदि मानव जातियाँ थीं। उस काल की संस्कृति को द्रविड़ संस्कृति कहा गया है। डॉ. हेरास, प्रो. एस. श्रीकंठ शास्त्री जैसे अनेक शीर्षस्थ विद्वानों और पुरातत्त्ववेत्ताओं ने उस संस्कृति को द्रविड़ तथा अनार्य संस्कृति का अभिन्न अंग माना है। प्रो. एस. श्रीकंठ शास्त्री ने सिंधु सभ्यता का जैन धर्म के साथ सादृश्य बताते हुए लिखा है- 'अपने दिगम्बर धर्म, योग मार्ग, वृषभ आदि विभिन्न लांछनों की पूजा आदि बातों के कारण प्राचीन सिंधु सभ्यता जैन धर्म के साथ अद्भुत सादृश्य रखती है, अतः वह मूलतः अनार्य अथवा कम से कम अवैदिक तो है ही।' > इस तरह पुरातात्त्विक साक्ष्यों से जैन धर्म प्राग्वैदिक एवं प्रागैतिहासिक प्रमाणित होता है। वैदिक व अवैदिक साक्ष्य साहित्यिक साक्ष्यों में वेद सर्वाधिक प्राचीन माने जाते हैं। विद्वानों ने इन्हें लगभग १५०० वर्ष प्राचीन माना है। ऋग्वेद, अथर्ववेद, यजुर्वेद आदि में श्रमणों का उल्लेख दिग्वासा, वातरसना, निग्रंथ, निरंबर आदि-आदि नामों से उल्लेख किया गया है। 'निघण्टु' की भूषण टीका' में श्रमण शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है-'श्रमणा दिगम्बराः श्रमणाः वातरसनाः।''ऋग्वेद' में प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभनाथजी का उल्लेख तो सौ-डेढ़ सौ बार किया गया है। 'ऋग्वेद' में गवेषणात्मक अध्ययन के आधार पर डॉ. सागरमल जैन ने 'ऋग्वेद में अर्हत और ऋषभवाची ऋचाएँ' नामक लेख' श्रमण' (अप्रैल-जून,१९९४) में लिखा है 'ऋग्वेद में न केवल सामान्य रूप से श्रमण परंपरा और विशेष रूप से जैन परंपरा से संबंधित अर्हत, अहँत, व्रात्य, वातरसना मुनि, श्रमण आदि शब्दों का उल्लेख मिलता है, अपितु उसमें अहँत् परंपरा के उपास्य वृषभ का भी उल्लेख शताधिक बार मिलता है। मुझे ऋग्वेद में वृषभवाची ११२ ऋचाएँ प्राप्त हुई हैं। संभवतः कुछ और ऋचाएँ भी मिल सकती हैं। यद्यपि यह कहना कठिन है कि इन समस्त ऋचाओं में प्रयुक्त वृषभ शब्द ऋषभदेव का ही वाची है, फिर भी कुछ ऋचाएँ तो अवश्य ऋषभदेव से संबंधित ही मानी जा सकती हैं। डॉ. राधाकृष्णन, प्रो. जिम्मर, प्रो. विरूपाक्ष, वॉडियर आदि कुछ जैनेतर विद्वान् भी इस मत के प्रतिपादक हैं कि ऋग्वेद में जैनों के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव से संबंधित निर्देश उपलब्ध होते हैं। उदाहरण स्वरूप ऋग्वेद ३९/१७– 'तनमर्त्यस्य देवत्व मजानमग्रे' अर्थात् ऋषभ स्वयं आदिपुरुष थे। जिन्होंने सबसे पहले मर्त्य दशा में देवत्व प्राप्त की थी। यजुर्वेद २५/१९- सूर्य,इंद्र, वृहस्पति की तरह से भगवान अरिष्टनेमि भी हम लोगों का कल्याण करें। अथर्ववेद १९/४२/४ अहो मुचं वृषभं यज्ञियानां विराजतं प्रक्षयमध्वराणाम्। अपांन पातमश्चितं हवेधिय इंद्रियेण तमिन्द्रियं दत्भोजः॥ संपूर्ण पापों से मुक्त तथा अहिंसकव्रतियों में प्रथम राजा आदित्य स्वरूप श्री वृषभ या ऋषभ हैं। जिस प्रकार वेदों में ऋषभदेव का उल्लेख मिलता है, उसी प्रकार श्रीमद्भागवत्, मार्कण्डेयपुराण, शिवपुराण, कूर्मपुराण, वायुपुराण, अग्निपुराण, ब्रह्माण्डपुराण, प्रभासपुराण, नारदपुराण, वाराहपुराण, विष्णुपुराण एवं स्कंदपुराण आदि में ऋषभदेव की स्तुति के साथ ही साथ उनके माता-पिता, पुत्र आदि के नाम तथा जीवन की घटनाओं का भी सविस्तार वर्णन है। इन सभी साक्ष्यों की दृष्टि से दिगम्बर जैन श्रमण परंपरा की सनातनता स्वतः सिद्ध हो जाती है। 'हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या' वाली कहावत यहाँ चरितार्थ होती है। भरत चक्रवर्ती और भारत अंतिम कुलकर (मनु) नाभिराय के पुत्र तीर्थंकर ऋषभदेव हुए उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। इस संबंध में भागवत् पुराण ५/४/९ पर लिखा हुआ है कि महायोगी भरत ऋषभदेवके शत पुत्रों में ज्येष्ठ थे और उन्हीं से ये देश भारतवर्ष कहलाया। इस बात का समर्थन करते हुए अन्य शास्त्रों में भी भरत के नाम से भारतवर्ष नामकरण का उल्लेख शारदीयाख्य नाममाला १४७, वायुपुराण १०४/१६ १७, शिवपुराण ३७/५७, लिंगपुराण ४७/१९-२३, स्कन्दपुराण कौमार्यखण्ड ३७/५७, ब्रह्माण्डपुराण २/१४ , मार्कण्डेयपुराण ५०/३९-४२, नारदपुराण ४८/५-६, अग्निपुराण १०/१०-११ एवं मत्स्यपुराण ११४/५-६ आदि में मिलता है। इस प्रकार उपर्युक्त उल्लेखों से जहाँ भरत के नाम से इस क्षेत्र का नाम भारतवर्ष सिद्ध होता है, वहाँ भरत के पिता होने के कारण सनातनीय श्रमण परंपरा के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की ऐतिहासिकता और प्राचीनता भी सिद्ध हो जाती है। | जैन धर्म और विदेशी विद्वान् 'वॉइस ऑफ अहिंसा', वॉल्यूम १, भाग द्वितीय, पृष्ठ २० पर डॉ. प्रो. आर्किक, जे. बाह्म यूनिवर्सिटी ऑफ न्यू मेक्सिको लिखते हैं- 'मैं जैनमत को अत्यंत प्रशंसा के भाव से देखता हूँ जिसके कि विशिष्ट सिद्धांतों को आज पश्चिम में पुनः खोजा जा रहा है।' वॉइस ऑफ अहिंसा', वॉल्यूम ३, पृष्ठ ८१ पर प्रो. डॉ. हेरर लोथार, वेन्डल, जर्मनी लिखते हैं- 'वह दिन शीर्घ ही आएगा जब सभी जैन तीर्थंकर मानवता के मशालवाहक के रूप में पहचाने जाएंगे।' 'जैनधर्म पर लोकमान्य तिलक और प्रसिद्ध विद्वानों का अभिमत', पृष्ठ २७ पर रेवरेंज जे. टीवेंसन महोदय कहते हैं- 'भारतवर्ष का अधःपतन जैन धर्म के अहिंसा सिद्धांत के कारण ही नहीं हुआ था, बल्कि जब तक भारतवर्ष में जैनधर्म की प्रधानता रही थी, तब तक का उसका इतिहास स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है।' तीर्थंकर महावीर की शिष्य परंपरा दिगम्बर जैन श्रमण परम्परा के उज्ज्वलरत्न जैन सिद्धांत भास्कर, भाग १, किरण ४, सन् १९१३, षट्खण्डागम, पुस्तक १, प्रस्तावना, पृष्ठ १८-२५ पर नंदिसंघ की प्राकृत पट्टावली' के अनुसार वीर निर्वाण के पश्चात् तीर्थकर महावीर के शिष्यों की कालगणना इस प्रकार आती है :- इनके बाद-आचार्य गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबलि, नागहस्ति, यतिवृषभ, जिनचंद्र, कुन्दकुन्द, वट्टकेर, उमास्वामी, समंतभद्र, कुमारस्वामी, पूज्यपाद, योगेन्दु, पात्रकेसरी, रविषेण, वीरसेन, माणिक्यनंदी, जटासिंहनंदी, गुणभद्र, विद्यानन्दि, मानतुंग, अकलंक, जिनसेन, अमृतचंद्र, जयसेन आदि अनेक ज्ञानी-ध्यानी व तपस्वी संत हुए। इन्हीं की परंपरा में २०वीं सदी में दक्षिण भारत के दिवंगत आचार्य १०८ श्री शान्तिसागरजी उसी कड़ी में एक विख्यात, अनुपम तपस्वी, आत्मज्ञानी, पवित्राचारी, परम साहसी, वीतरागी, दिगम्बर जैन साधु हुए। यह इस युग की जैन जनता का सौभाग्य था। आचार्यश्री ने मुंबई के प्रख्यात सेठ पूनमचंद घासीलाल जौहरी की प्रार्थना पर पैदल तीर्थयात्रा संघ के साथ ससंघ श्री गिरिराज सम्मेदशिखर की यात्रा हेतु मार्गशीर्ष वदि प्रतिपदा, सन् १९२७ से प्रारंभ की। तत्पश्चात् सारे भारत का पैदल भ्रमणकर श्रावकों का तो परोपकार किया ही, साथ ही दिगम्बर जैन मुनियों के सार्वत्रिक विहार का मार्ग अपनी इस परम साहसिक धर्म यात्रा से प्रशस्त किया। अब कोई भी दिगम्बर जैन साधु भारत के किसी भी प्रदेश में राजकीय तथा लौकिक जनों की बाधा से रहित परिभ्रमण कर सकता है। १000 वर्ष से लगे हुए दिगम्बर मुनि के विहार के राजकीय प्रतिबंध को केवल अपनी आत्मशक्ति के सहारे तोड़ देने का बहुत बड़ा साहसिक कदम उन्होंने उठाया था। यह कार्य सरल न था।अनेक घोरोपसर्ग उन्हें सहन करने पड़े थे। इस तरह चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज भगवान महावीर की परंपरा के उन श्रेष्ठ संतों में थे, जिनको पाकर दिगम्बर परंपरा जीवंत रही है। वे स्वयं व्यक्ति ही नहीं, अपितु जीवंत संस्था के रूप में थे। उन्होंने अविरुद्ध मुनिमार्ग को सुदृढ़ ही नहीं बनाया, अपितु अदम्य उत्साह एवं पुरुषार्थ द्वारा भगवान महावीर की उसी दिगम्बर परंपरा के आदर्श को स्थापित किया, जो भगवान कुंदकुंद एवं तार्किक आचार्य समंतभद्र स्वामी जैसे आचार्यों द्वारा अनुगामित थी। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज के बाद आचार्य श्री वीरसागरजी, आचार्य श्री शिवसागरजी एवं आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज के अद्वितीय सुयोग्य शिष्य वर्तमान में आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज उसी आदर्श आचार्य परंपरा के सर्वोच्च संप्रवाहक हैं। श्रमणधर्म औरआगम की पर्याय आचार्यश्रीजी कौन होता है श्रमण आचार्य श्री कुंदकुंद स्वामीजी प्रवचनसार' में कौन होता है श्रमण, इसको बताते हुए कहते हैं समसत्तुबंधुवग्गो............................समो समणो ॥ २४१॥ जिसे शत्रु और बंधु वर्ग समान है, सुख व दुःख समान है, प्रशंसा और निंदा के प्रति जिसको समता है, जिसे लोष्ठ (ढला) और स्वर्ण समान है तथा जीवन एवं मरण के प्रति जिसको समता है, वह श्रमण है। आचार्यश्रीजी श्रमण शब्द को परिभाषित करते हुए कहते हैं- 'केवलज्ञानप्राप्त्यर्थं यः श्रमं करोति सः श्रमणः।' जो केवलज्ञान प्राप्ति के लिए श्रम करे, वह श्रमण है। राग-द्वेष नहीं करना, अभिलाषा नहीं करना, शांति से किसी भी आसन से बैठ जाना, यह ध्यान है। इसकी कोई लंबी-चौड़ी परिभाषा नहीं है। और उसी को प्राप्त करने के लिए श्रमण श्रम करते हैं। योगी (श्रमण) जो होते हैं वह रत्नत्रय एवं पंचाचार पालन, ध्यान, तत्त्व चिंतन आदि में लीन रहते हैं। यह शरीर, जो साथ में लगा हुआ है, उसके लिए भी बहुत कम बिना रुचि के समय देते हैं। जैसे आपके यहाँ कोई मेहमान आ जाते हैं तो आप स्वयं अच्छे से परोसते हैं, क्योंकि वह बहुत दिन बाद आया है और हम जब उनके यहाँ जाएँगे तो वह भी अच्छे से देखभाल करेगा आदि-आदि भाव रहते हैं। पर घर में जो कर्मचारी होते हैं, उनको स्वयं नहीं परोसते और उनके लिए सामान्य भोजन बनवाते हैं। उसे सोने या चाँदी की थाली में भी नहीं परोसते,ये सब क्या है? इसी प्रकार योगी (श्रमण) आत्मा को अच्छी तरह से परोसते हैं और शरीर के लिए नौकर की तरह देना पड़ता है, इस भाव से देते हैं।" क्या होती है श्रमणता आचार्यश्रीजी कहते हैं- 'श्रमणता कोई विशेष बात नहीं है, केवल यथाजात कर देना। बाहर से यथाजात हम हो जाते हैं, लेकिन भीतर से ? आचार्य श्री कुंदकुंद स्वामीजी का कहना है कि जो बाहरी और भीतरी दोनों ओर से यथाजात होता है उसका नाम है यथाजात होना। जैसा बाहर है, वैसा ही भीतर हो। बाहर तो यथाजात यानी बालक का रूप हो, और भीतर पालक का रूप हो, ये साम्य कहाँ बैठता है? तन को नग्न बनाया, मन को अभी तक नहीं बनाया तो काम नहीं चलेगा। मन में यदि वह नग्नता आ गई तो तन की नग्नता सार्थक हो जाती है और वह पूज्य हो जाती है, स्व-पर कल्याणकारी हो जाती है। कैसा होता है श्रामण्य आचार्यश्रीजी कहते हैं- ‘कैसा भी कर्म का उदय आ जाए, अब अनुकूलता हो या प्रतिकूलता, विश्वास तो यही रहता है कि अब नियम से कूल-किनारा मिलेगा ही। इसी को कहते हैं श्रामण्य। श्रमणता पाने के उपरांत किसी भी प्रकार की कमी की अनुभूति नहीं होना चाहिए। नवंबर, २००९ में आचार्यश्रीजी का ससंघ विहार चल रहा था। मौसम रात्रि में ठंडा एवं दिन में गर्म रहता।०४ नवंबर के दिन जब आचार्यश्रीजी ने राजेन्द्रग्राम, जिला अनूपपुर, मध्यप्रदेश से विहार किया, तब धूप इतनी तेज थी कि ऐसा लग रहा था मानो ग्रीष्मकाल का विहार हो रहा हो। सड़क तेज गर्म थी। एक श्रावक ने आचार्य भगवन् से निवेदन किया- 'आचार्यश्रीजी! सड़क गर्म है, सड़क पर बनी हुई सफेद पट्टी गर्म नहीं होती, इसलिए इस पट्टी के ऊपर चलना ठीक रहेगा।' आचार्यश्रीजी ने कहा- 'सफेद रंग शुक्ल लेश्या का प्रतीक है और गर्मी प्रतिकूलता का प्रतीक है। शुक्ल लेश्यावाला प्रतिकूलताओं में भी ठण्डा (शांत) रहता है। और काले रंग वाली सड़क कृष्ण लेश्या का प्रतीक है। कृष्ण लेश्यावाला थोड़ी-सी प्रतिकूलता में उबलने लगता है। और मुनि महाराज समता के प्रतीक हैं, अतः उन्हें क्या ठण्डा और क्या गर्म।' इस तरह समता में जीनेवाले श्रमणश्रेष्ठ आचार्य भगवन् ने यथार्थ रूप में श्रामण्य को अंगीकार किया है। एवं उन्होंने एक पल में समझा दिया कि कैसा होता है श्रामण्य। श्रमण की शोभा ध्यान आचार्यश्रीजी कहते हैं- 'श्रमण व्यवहार में भी व्यवहार से रहते हैं, ऐसा कहा जाता है। जो भीतर डुबकी लगा लेता है वह सब कुछ पा जाता है। ऐसे आत्मानुष्ठान करने वाले विरले ही होते हैं। जैसे प्लेन (हवाई जहाज) जब जमीन पर चलता है तो अपने तीनों पहियों को बाहर निकाल लेता है। जब उड़ता है तो उन्हें समेट लेता है। ऐसे ही श्रमण जब भी व्यवहार (प्रवृत्ति) रूप में आते हैं तो षट्कारक (आवश्यक) अपनाते हैं। जब ध्यान (निवृत्ति) में आते हैं तो षट्कारकों को अपने भीतर समेट लेते हैं। एक का विधान होता है तो दूसरे का निषेध हो जाता है। विमान जब जमीन पर भागता है तो गति कम होती है तथा उड़ता है तो गति अधिक होती है। इसी तरह प्रवृत्ति में कम कर्म निर्जरा होती है। निवृत्ति के समय ज़्यादा निर्जरा होती है। प्रवृत्ति में षट्कारक भेद रूप और निवृत्ति में अभेद रूप हैं। जैसे उड़ने में ही विमान की शोभा है वैसे ध्यान में ही, निवृत्ति में ही श्रमण की शोभा है। श्रमण का आधार दिगम्बरत्व एक बार संघस्थ कुछ साधुओं का दीक्षा दिवस था। सभी महाराजजी आचार्य भगवन् के पास आशीर्वाद लेने गए। आचार्य भगवन् ने कहा- 'बताओ पंगत में सबसे पहले क्या परोसा जाता है?' सभी साधुओं ने अपने-अपने विचार गुरुदेव के समक्ष रखे। आचार्य महाराज मुस्कुराते हुए सब सुनते रहे। अंत में बोले- 'पंगत में सबसे पहले पत्तल परोसते हैं, जिसमें भोजन सुरक्षित रहता है। उसी प्रकार श्रमण को पहले दिगम्बरत्व दिया जाता है, जिसमें सभी व्रत सुरक्षित रहते हैं। भोजन रखने के लिए पत्तल आधार है, तो दिगम्बरत्व श्रमण का आधार है। इस प्रकार आचार्य भगवन् ने शिष्यों को दिगम्बरत्व का महत्त्व बताया। क्योंकि अकेले दिगम्बरत्व और पिच्छिका-कमण्डलु लेने मात्र से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। जितना यह सत्य है उससे भी बड़ा सत्य यह है कि कभी इसके बिना भी मुक्ति नहीं हो सकती। दिगम्बर का आधार मानव शरीर सन् १९९३, रामटेक, नागपुर, महाराष्ट्र में इष्टोपदेश ग्रंथ के स्वाध्याय के दौरान १९वीं कारिका की व्याख्या करते हुए आचार्यश्रीजी ने कहा- 'मनुष्यों के शरीर एवं देवादि अन्य गतियों के शरीर में क्या अंतर है? काँच और हीरे के समान अंतर है। अन्य गतियों का शरीर काँच के समान और मनुष्यों का शरीर हीरे के समान है। देवों से भी बढ़कर मानव शरीर महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि दिगम्बर रूप मानव शरीर में ही धारण किया जाता है। और रत्नत्रय का आधार दिगंबरत्व है। दिगम्बरत्व की धूल अनुपम है। यह स्वर्ग में नहीं मिलती। मानव शरीर से ही जीव को मोक्ष होना संभव है। रत्नत्रय धारण कर कर्मों की निर्जरा करने में अपने आपको व्यस्त कर देना चाहिए। यही एक मात्र बुद्धिमत्ता है, जीव का उपकार है। संसारी प्राणी अनंत हैं, लेकिन संयमी बहुत कम हैं। रत्नत्रय निधि दुर्लभतम एक बार एक आर्यिकाश्री ने आचार्यश्रीजी से निवेदन किया- 'आचार्य भगवन्! आपके कर कमलों से मुझे एक शास्त्र मिला था। मेरी भूल से वह कहीं छूट गया। फिर एक माला मिली थी, वह भी खो गई। आपने जो मुझे दिया, वह खो गया। इसका मुझे बहुत दुःख होता है। गुरु के द्वारा दी गई चीज़ को मैं सुरक्षित नहीं रख पाई।' तब आचार्यश्रीजी ने वात्सल्य भरे शब्दों में कहा- 'देखो! मैंने तुमको एक चीज़ और दी है, जो बहुत ही दुर्लभ है। उसको सँभाल कर रखना, वह है 'रत्नत्रय' । रत्नत्रय निधि है, इसकी सुरक्षा करो।'दुर्लभ रत्नत्रय आराधन दीक्षा का धरना। श्रमण का कर्तव्य आचार्यश्रीजी कहते हैं- 'जिस श्रमण को शुद्धोपयोग नहीं है, उन्हें कहा है कि शुद्धोपयोगी श्रमण के पास जाकर बैठ जाओ। अपने आप ज्ञात हो जाएगा कि शुद्धोपयोग क्या है? श्रमण का कर्त्तव्य क्या है, यह भी ज्ञात हो जाएगा।शुद्धोपयोग की गवेषणा करना श्रमण का कर्त्तव्य है।शुभोपयोगी श्रमण को शुद्धोपयोग की प्राप्ति का ध्येय होना चाहिए। उन्हें उसी की ओर जाना है बाकी सब काम तो होते रहते हैं। सन् १९९९, स्थान गोम्मटगिरि, इंदौर, म.प्र. में वर्षायोग। 'समयसार' ग्रंथ का स्वाध्याय कराते हुए आचार्यश्रीजी श्रमणों को अपने कर्त्तव्य का बोध कराते हुए कहते हैं- 'आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव ने दो प्रकार के श्रमण स्वीकार किए हैं- शुद्धोपयोगी श्रमण और शुभोपयोगी श्रमण। दोनों प्रकार के श्रमण संसार के तारक हैं। दोनों श्रमण हैं । चैत्य संज्ञा को प्राप्त हैं। हाँ, इतना अवश्य है कि पापों से मुक्त होकर एक ने अपने आपको ध्यान में उतार लिया है और दूसरे वे हैं जो ध्यान की भूमिका में हैं । फल-फूल सहित नारंगी के पेड़ के सदृश शुद्धोपयोगी हैं और फल-फूल रहित नारंगी के पेड़ के समान शुभोपयोगी श्रमण हैं । आज भले ही उसमें फल-फूल नहीं लगे हैं, परन्तु शुद्धोपयोग रूपी फल जब भी लगेगा तो शुभोपयोगी रूपी पेड़ पर ही लगेगा।वह यदि अभिमान कर लेगा कि मैं नारंगी का पेड़ हूँ तो ध्यान रखना, शुद्धोपयोग रूपी फल प्राप्त हो ही, यह निश्चित नहीं है। श्रमण हेतु अपेक्षित ज्ञान किसी ने जिज्ञासा व्यक्त करते हुए एक बार आचार्यश्रीजी से कहा-'आचार्यश्रीजी! क्या संयम लेने के लिए पूर्ण ज्ञान आवश्यक है?' आचार्यश्रीजी ने उनका समाधान करते हुए कहा- 'पूर्ण ज्ञान के बाद संयम धारण करूँगा, ऐसा सोचनेवालो! पूर्ण ज्ञान तो केवलज्ञान होता है। मोक्षमार्ग में पूर्ण ज्ञान की नहीं, बल्कि पर्याप्त ज्ञान की आवश्यकता है। संयम लेने के बाद पूर्ण ज्ञान अपने आप प्राप्त हो जाएगा। यहाँ पर्याप्त ज्ञान से तात्पर्य है- आचारवस्तु, अष्टप्रवचनमातृका (तीन गुप्ति, पाँच समिति) का ज्ञान होना ।मति व श्रुतज्ञान ही मोक्षमार्ग में पर्याप्त है। इसलिए श्रद्धान मजबूत रखो, निर्दोष चारित्र पालो। अक्षर ज्ञान कम भी हो तो भी कल्याण हो जाएगा। जिस प्रकार मृग (हरिण), सर्प आदि बिना सीखे संगीत का आनंद लेते हैं, लेकिन किसी को व्यक्त नहीं कर सकते हैं। उसी प्रकार ऐसे भी साधु हैं, जिन्हें अक्षर ज्ञान न होने पर बोलना (प्रवचन, उपदेश देना) भी नहीं आता, फिर भी रत्नत्रय का लाभ लेते रहते हैं। श्रमण के उपकरण जो साधन धर्म साधना में सहायक होते हैं, वे उपकरण कहलाते हैं। पिच्छिका, कमण्डलु और शास्त्र दिगम्बर जैन मुनि के उपकरण हैं। पिच्छिका- पिच्छिका जीव दया का उपकरण है। दिगम्बर जैन मुनि मयूर पंखों की ही पिच्छिका रखते हैं, क्योंकि मयूर पंखों की प्राप्ति के लिए किसी तरह की हिंसा नहीं करनी पड़ती। मयूर पक्षी अपने शरीर में आए हुए अतिरिक्त पंखों को दीपावली के आस-पास स्वतः छोड़ देता है। साथ ही अन्य पक्षियों के पंखों में अथवा सूत के धागे आदि में वे विशेषताएँ नहीं होतीं, जो मयूर पंख में होती हैं। जैसे- मृदुता मयूर पंख इतने मृदु होते हैं कि यदि आँखों में भी चला जाए तो भी चुभन का एहसास नहीं होता। लघुता- इतने लघु अर्थात् हल्के होते हैं कि सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों को उनसे भार तथा बाधा प्रतीत नहीं होती। सुकुमारता- इतने सुकुमार होते हैं कि उनके अग्र भाग को कैसा भी मोड़ दिया जाए पर वह चटकता या टूटता नहीं है। इनकी सुकुमारता लगभग एक वर्ष तक रहती है। यही कारण है कि साधु प्रतिवर्ष वर्षायोग के बाद पिच्छी परिवर्तन करते हैं। अग्राह्यता- ये पंख धूल एवं पसीना, पानी आदि ग्रहण नहीं करते हैं। कमण्डलु- बाह्य शुद्धि के लिए कमण्डलु एक आवश्यक उपकरण है। इस उपकरण में शुद्ध, प्रासुक (उबला हुआ) जल रखते हैं। दिगम्बर जैन मुनि मात्र नारियल या लकड़ी का कमण्डलु रखते हैं, अन्य धातु आदि का नहीं। शास्त्र- ज्ञान का उपकरण शास्त्र है। अरहंत देव की वाणी इसमें निबद्ध होती है। संयम के प्रति जागरूक बने रहने हेतु साधु धर्म ग्रंथों का स्वाध्याय करते हैं। क्या है मुक्ति सिद्धांतिदेव आचार्य श्री नेमिचंद्रजी 'वृहद्रव्यसंग्रह' ग्रंथ में लिखते हैं सव्वस्स कम्मणो जो खयहेदू अप्पणो हु परिणामो। णेयो स भावमुक्खो दव्वविमुक्खो य कम्मपुहभावा ॥ ३७॥ .सब कर्मों के नाश का कारण जो आत्मा का परिणाम है, उसको भाव मोक्ष जानना चाहिए। कर्मों का आत्मा से सर्वथा पृथक् होना द्रव्य मोक्ष है। __ आचार्यश्रीजी मुक्ति का अर्थ बताते हुए कहते हैं- मुक्ति का अर्थ तो यह ही है कि दोषों से अपनी आत्मा को मुक्त बनाना। 'मुञ्च्' धातु से इस मुक्ति शब्द अथवा मोक्ष शब्द का निर्माण हुआ है। ‘मुञ्च् विमोचने त्यागे वा।' मुञ्च् धातु विमोचन अर्थात् छोड़ने के अर्थ में आया है, छूटने के अर्थ में नहीं। इसमें कोई संदेह नहीं कि मुक्ति का मार्ग छोड़ने के भाव में है। और जो छोड़ देगा, उससे प्राप्त होगी निराकुल दशा। उसको कहते हैं वास्तविक मोक्ष।वास्तविक मोक्ष अर्थात् निराकुलता।आकुलता को छोड़ने का नाम है मुक्ति। भावलिंग बिना मुक्ति नहीं आचार्य भगवन् श्री कुंदकुंद स्वामीजी भाव पाहुड' में कहते हैं जाणहि भावं.......... ....... जिणउवइ8 पयत्तेण ॥६॥ हे मुने! मोक्ष का मार्ग भाव ही से है इसलिए तू भाव ही का परमार्थभूत जान अंगीकार करना, केवल द्रव्य मात्र से क्या साध्य है।कुछ भी नहीं। द्रव्यलिंग बिना भावलिंग नहीं इन्द्रनंदि भट्टारक ने समय भूषण प्रवचन' में कहा है उक्तं चेन्द्रनन्दिना.................नेत्रविषयं यतः ॥२॥ "द्रव्यलिंग (दिगम्बर अवस्था) को भले प्रकार प्राप्त करके यति भावलिंगी होता है। उस द्रव्यलिंग के बिना वह वंद्य नहीं है, भले ही | नाना व्रतों को धारण क्यों न करता हो। द्रव्यलिंग को भावलिंग का कारण जानो। भावलिंग तो केवल अध्यात्म द्वारा ही देखा जा सकता | है, क्योंकि वह नेत्र का विषय नहीं है। 'समयसार' ग्रंथ की वाचना के समय आचार्यश्रीजी ने कहा- 'बाहर से नग्न हुए बिना अंदर वीतराग परिणाम नहीं आ सकता। दिगम्बरत्व धारण किए बिना निश्चय रत्नत्रय, निर्विकल्प समाधि की भावना नहीं हो सकती। द्रव्यलिंग निगेटिव कॉपी है एवं भावलिंग पॉजिटिव कॉपी है। जिस प्रकार निगेटिव के बिना पॉजिटिव कॉपी नहीं बन सकती, उसी प्रकार द्रव्यलिंगी हुए बिना भावलिंगी नहीं बना जा सकता। हाँ, इतनी बात अवश्य याद रखें कि दुनिया आपको मुनि माने और प्रशंसा करे लेकिन आप अपने आपको बड़ा न मानें एवं अपनी प्रशंसा स्वयं न करें, यही मुनित्व है। द्रव्यलिंग को हमेशा ही उपेक्षित करना बुद्धिमत्ता नहीं कहलाती। यदि ऐसा करोगे तो ‘समयसार' का महत्त्व समझ में नहीं आ सकता है। जैसे दीपक के बिना ज्योति नहीं जलती, उसी प्रकार बिना द्रव्यलिंग के भावलिंग नहीं होता। अगर बाहरी लिंग का महत्त्व नहीं, तो महावीर भगवान ने उसका उपदेश क्यों दिया? पहले बाहरी लिंग एवं भीतरी लिंग की भेद रेखा खींच लो, तो फिर अंतर समझ में अवश्य आ जाएगा। वस्त्रधारी को मोक्ष नहीं आचार्य भगवन् श्री कुंदकुंद स्वामी जी सूत्र ‘पाहुड' में कहते हैं ण वि सिज्झइ.. ...........उम्मग्गया सव्वे ॥२३॥ जिन शासन में तीर्थंकर भी जब तक वस्त्र धारण करते हैं तब तक मोक्ष नहीं पाते। इसलिए एक निग्रंथ ही मोक्षमार्ग है, शेष सर्व मार्ग उन्मार्ग हैं,मिथ्या मार्ग हैं। १४ अक्टूबर, २००९, अमरकंटक वर्षायोग में आचार्यश्रीजी इस विषय से संबंधित एक संस्मरण सुनाते हुए बोले- 'आचार्य महाराज (आचार्य श्री ज्ञानसागरजी) एक संस्मरण सुनाया करते थे कि एक व्यक्ति उनका गृहस्थ अवस्था का मित्र था। एक बार उसने आचार्य महाराज से कहा, 'हमारे तो भाव शुद्ध हैं। उनमें विकार नहीं है।' तब आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने कहा, 'जब आपके भाव शुद्ध हैं, तो इन कपड़ों से राग क्यों है?' वह बोले, 'हमें इन कपड़ों से राग नहीं है।' तब आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने किसी श्रावक से धीरे से इशारा करते हुए कहा, 'जब ये उठे तो धोती की काँच खोल देना। राग के बिना धोती की काँच लग ही नहीं सकती। जो कपड़े पहने हुए हैं और कहते हैं कि हमें राग नहीं है। वे स्वयं को धोखा देते हैं और जनता को भी धोखा दे रहे हैं।' संस्मरण सुनाने के बाद आचार्यश्रीजी ने कहा कि कपड़े पहने हुए जो व्यक्ति ध्यान कर रहे हैं, और कह रहे हैं कि मैं निर्विकल्प समाधि में लीन हूँ, वे व्यक्ति अभी निर्विकल्पता से भी निर्विकल्प हैं । जब आचार्यश्रीजी यह बात कह रहे थे, तब उनके अन्दर की वेदना साफ़ झलक रही थी। उनका कहना है कि आगम में जैसा कहा है, वैसा ही कहना आगम की उपासना है। अन्यथा आज तो अवर्णवाद ही हो रहा है। दिगम्बर रूप प्रकृति है, यही सत्य है २८ नवंबर, २००६, दयोदय, तिलवाराघाट, जबलपुर, म.प्र. में प्रसिद्ध योगगुरु बाबा रामदेवजी आचार्यश्रीजी के दर्शनार्थ आए। तब उन्होंने आचार्यश्रीजी से अनेक गूढ़ विषयों पर चर्चा की। चर्चा के दौरान बाबा रामदेवजी ने पूछा- 'आप लोग दिगम्बर रहते हैं। यह मनुष्य के लिए बड़े साहस की बात है।' आचार्यश्रीजी ने कहा- 'साहस नहीं, किंतु प्रकृति है, यही सत्य है। सच को स्वीकार करना बहुत कठिन है आवरण करने वालों को। उपनिषदों में एक 'अवधूत' शब्द आता है, जो बालयोगी के लिए आता है। बालक के समान सहज होते हैं मुनिराज।' यह सुनकर बाबाजी बोले- 'घर छोड़ते समय तो कठिन होता है। जिस समय विरक्ति आती है, उस समय तो साहस करना पड़ता है?' आचार्यश्रीजी ने कहा- 'हाँ, प्रारंभ में अंतर्जगत् में जाने के लिए तो साहस करना पड़ता है। नदी के किनारे कब तक खड़े रहोगे? डुबकी लगाने का साहस करना ही पड़ता है, बाद में तैरता है।' आगे वेद की चर्चा करते हुए आचार्यश्रीजी ने बताया 'अवधूत,'' श्रमण', 'व्रात्य' ये शब्द वेदों में भी मिलते हैं। अथर्ववेद' में व्रात्य खण्ड है, उसकी टीका नहीं लिखी गई। धीरे-धीरे वह वृत्ति जो श्रमण परंपरा से संबंध रखती थी, वह वेद परंपरा से हट गई। जिनमुद्रा, मुक्ति सुख ही है सन् १९९३, रामटेक, नागपुर, महाराष्ट्र में मोक्षपाहुड, गाथा-४७ की व्याख्या करते हुए आचार्यश्रीजी ने कहा- 'जिन भगवान के द्वारा कही गई जिनमुद्रा है, वही सिद्धि सुख है, मुक्ति सुख है। यह कारण में कार्य का उपचार जानना। जिनमुद्रा मोक्ष का कारण है, मोक्षसुख उसका कार्य है। ऐसी जिनमुद्रा जिन भगवान ने जैसी कही है, यदि वैसी ही है तो ऐसी जिनमुद्रा जिस जीव को साक्षात् तो दूर ही रहो, स्वप्न में भी कदाचित् भी नहीं रुचती। उसका स्वप्न आता है तब भी उसके अवज्ञा के भाव होते हैं, तो वह जीव संसाररूप गहन वन में ही भ्रमण करता रहता है। वह मोक्ष के सुख को प्राप्त नहीं कर सकता।अर्थात् जिनमुद्रा की अवज्ञा स्वप्न में भी नहीं होने पावे।' पंचम काल में मोक्ष नहीं तो दीक्षा क्यों? सन् १९९३, रामटेक, नागपुर, महाराष्ट्र में मोक्षपाहुड, गाथा-७७ की व्याख्या के दौरान आचार्यश्रीजी ने कहा- 'पंचम काल में भरत और ऐरावत क्षेत्र से मोक्ष नहीं होता है तो दीक्षा क्यों लेना- कुछ लोग ऐसा कहते हैं। ऐसा कहनेवालो! सुनो, आगम क्या कह रहा है- 'व्रत और तप के द्वारा स्वर्ग का प्राप्त होना अच्छा है, परन्तु अव्रत और अतप के द्वारा नरक के दुःख प्राप्त होना, अच्छा नहीं है। छाया और घाम (धूप) में बैठकर इष्ट स्थान की प्रतीक्षा करनेवालों में बड़ा भेद है।' आज भी रत्नत्रय के आराधक, जिन्होंने रत्नत्रय से शुद्ध अपनी आत्मा को बनाया है, ऐसे मुनि महाराज हैं। वह आत्मा के ध्यान के बल पर आज स्वर्ग चले जाते हैं। स्वर्ग में वे इन्द्र होते हैं, लौकांतिक होते हैं। और वहाँ से सीधा मोक्षमार्ग मिल जाता है। लौटकर आ जाते हैं और मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं। जैसे- कोई यहाँ से दिल्ली जा रहा है एकदम एक्सप्रेस से, लेकिन वह एक्सप्रेस गाड़ी बीच में रुक करके जाती है। वह पटरी नहीं बदलती, उसी पटरी पर चलती है, लेकिन कुछ विश्राम लेती है डायरेक्ट नहीं जाती।आज डायरेक्ट मुक्ति तो नहीं है, बीच में इंद्र रूप या लौकान्तिक रूप स्टेशन पर रुकना पड़ता है। यह रुकना, रुकना नहीं कहलाता, क्योंकि वह उस मोक्ष पथ से च्युत नहीं हुआ। अर्थात् सम्यग्दर्शन छूटता नहीं है, इसलिए रत्नत्रय की जो भावना यहाँ भायी है वह रुकने के उपरांत भी बनी रहती है। भावना रहती है कि कब रत्नत्रय मिले। इस प्रकार इन्द्र या लौकान्तिक आदि देव श्रुत की आराधना करते हुए अपना एक एक समय व्यतीत करते हैं । इस प्रकार, इस अपेक्षा से सोचा जाए, तो आज मुक्ति नहीं है ऐसा कहना, बड़ी भूल है। भाव मुक्ति आज भी संभव ४ सितंबर, १९७५, फिरोजाबाद (उ.प्र.) के वर्षायोग में आचार्य भगवन् ने अपने एक प्रवचन में कहा- 'एक सज्जन ने मुझसे प्रश्न किया कि महाराज! इस पंचमकाल में तो मुक्ति होती नहीं, आपकी क्या राय है?' मैंने कहा- 'कथंचित् सही है यह बात।' वे सजन बोले- 'महाराज! जो बात सही है, उसमें भी आप कथंचित् लगा रहे हैं।' मैंने कहा- 'हाँ भाई! कथंचित् लगा रहे हैं, इसलिए कि आज द्रव्य मुक्ति भले न हो, पर भाव मुक्ति तो तुरंत हो सकती है।आहार, निद्रा, भय, मैथुन, धन आदि पदार्थों को आप पकड़े बैठे हैं अपने परिणामों में, भावों में । बस! उसे छोड़ दो तो तुरंत कल्याण है, यही तो है भाव मुक्ति।' मुक्ति का मार्ग है तो मुक्ति है, और मुक्ति है तो आज भी राग-द्वेष का अभाव है। वह किस अपेक्षा से है, उसे आपको समझना चाहिए।सांसारिक पदार्थों की अपेक्षा किसी से जो राग नहीं है, द्वेष नहीं है, वह मुक्ति है। निराकुलता जितनी-जितनी जीवन में आए, आकुलता जितनी-जितनी घटती जाए, उतना-उतना मोक्ष आज भी है। इसको आचार्यों ने बार-बार नमस्कार किया है। निर्जरा के माध्यम से भी एकदेश मुक्ति मिलती है, पूर्ण भले ही न मिले। एकदेश आकुलता का अभाव होना यह उसी का प्रतीक है कि सर्वदेश का भी अभाव हो सकता है। जितने-जितने भाग में हम राग-द्वेष आदि आकुलता के परिणामों को समाप्त करेंगे, उतने-उतने भाग में निर्जरा बढ़ेगी, उतनी निराकुल दशा का लाभ होगा। इसीलिए बार-बार, एक एक समय में भी आप निर्जरा को बढ़ा सकते हैं, निर्जरा के बढ़ने से मुक्ति भी अपने पास आएगी। ऐसा जीवन आज बन जाए तो कम नहीं है। ये भी सिद्ध परमेष्ठी के समान बन सकते हैं। वे उम्मीदवार अवश्य हैं पर कुछ समय में उनका नंबर आने वाला है। यह सौभाग्य आपको भी प्राप्त हो सकता है। क्योंकि आगम में बताया है कि 'शुद्ध रत्नत्रय की साधना से अष्ट कर्मों की आत्यंतिकी निवृत्ति द्रव्य मोक्ष है और रागादि भावों की निवृत्ति भाव मोक्ष है। पंचम काल के अंत तक रहेगा चतुर्विध संघ 'रयणसार' ग्रंथ में कहा है सम्मविसोही.....मणुयाणं जायदे णियदं ॥३८॥ इस दुःसह दुःखम (पंचम) काल में मनुष्यों के सम्यग्दर्शन सहित तप, व्रत, २८ मूलगुण, चारित्र, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दान आदि सब होते हैं। काले कलौ.......प्रति समंता:॥३३९-३४०॥ आचार्यश्रीजी यशस्तिलक चंपू महाकाव्य, आश्वास-८, कारिका-३३९-३४० की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि इस दुःषमा नामक पंचम काल में जब मानवों का मन चंचल रहता है और शरीर अन्न का भक्षक कीड़ा बना रहता है, यह आश्चर्य है कि आज भी जिनेन्द्र की मुद्रा के धारक साधु महापुरुष पाए जाते हैं। जैसे पाषाण वगैरह से निर्मित जिनबिम्ब पूज्य हैं वैसे ही वर्तमान के मुनि भी, जिनमें पूर्व मुनियों की सदृशता पाई जाती है, पूज्य हैं। आचार्यश्रीजी ने एक बार प्रवचन के दौरान कहा- एक विशेष बात और कहता हूँ-'आज के जो कोई भी त्यागी है, तपस्वी हैं, मोक्षमार्गी हैं और सम्यग्दृष्टि हैं उन्हें कर्मों के अलावा लड़ना पड़ता है वर्तमान पंचम काल से। इसे कलिकाल भी कहा जाता है। कलि का अर्थ संस्कृत में झगड़ा है। काल के साथ भी जूझना पड़ता है। ध्यान रखना जिस प्रकार दीपक रात भर अंधकार से जूझता रहता है, इसी प्रकार पंचम काल के अंतिम समय तक सम्यग्दृष्टि से लेकर भावलिंगी सप्तम गुणस्थानवर्ती मुनि महाराज भी संवर तत्त्व के माध्यम से लड़ते रहेंगे। मुनि श्री वीरागंजजी एवं आर्यिका सर्वश्री, अग्निदत्त व पंगुश्री नामक श्रावक-श्राविका ऐसा यह चतुर्विध संघ पंचम काल के अंत तक रहेगा। पंचम काल में निर्जरा चतुर्थ काल से अधिक धर्म के सागार (गृहस्थ) एवं अनगार (मुनि) दो पहिए हैं। पंचम काल में हीन संहनन के साथ, प्रतिकूलताओं के साथ जो मुनि चर्या का पालन करते हैं उनकी निर्जरा चतुर्थ काल की अनुकूलता में मुनिचर्या का पालन करने वाले मुनिराजों की अपेक्षा कई गुणी अधिक होती है। चौथे काल में तो साक्षात् समवसरण आदि रहता था तो बैटरी चार्जिंग हो जाती थी, आज तो ये हैं नहीं। लेकिन आज तो केवल नाम स्मरण है। जब तक शाम नहीं हुई तब तक चलते चलो और निर्जरा करते चलो। दोषी कौन-काल या भाव? दोषी कौन - काल या भाव या आप स्वयं? इस प्रसंग पर आचार्यश्रीजी ने गुरुणांगुरु कैन्द्रीयजेलसागर रानिर्मित। से जुड़ा हुआ एक संस्मरण को सुनाते हुए कहा- “एक बार एक सज्जन आचार्य महाराज के पास आए और बोले, आज काल के प्रभाव से धर्म नहीं पलता। तब आचार्य महाराज ने उनसे प्रश्न किया- बताओ चतुर्थ काल में और पंचम काल में हलवा बनाने की पद्धति में क्या अंतर है? तब उन्होंने कहा, जैसे उस काल में बनता था वैसे ही इस काल में बनता है। तब आचार्य महाराज बोले, उस पर काल का प्रभाव नहीं पड़ा? अरे! यह सब काल के कारण नहीं है, बल्कि आप लोगों का पुण्य घटने से है, भावों का प्रभाव है।' आचार्यश्रीजी ने आगे कहा-“विदेह क्षेत्र के जीव यहाँ से मुक्त हो जाते हैं। विदेहक्षेत्रादि से अपहरण कर मुनिराजों को भरत क्षेत्र में रख दिया जाए, तो उन्हें यहाँ से मुक्ति मिल जावेगी, ऐसा आगम का कथन है। ‘काल का प्रभाव है' ऐसा कहना औपचारिक है। काल तो वही है, कालाणु तो असंख्यात थे, हैं, रहेंगे। आचार्यश्रीजी ने हँसते हुए कहा- फिर भी समझ में नहीं आ रहा है तो कहना ही पड़ेगा कि पंचम काल का प्रभाव है। एक बात हमेशा ध्यान रखो यह काल का नहीं, घटिया भावों का प्रभाव है कि आप लोगों के मुनिधर्म पालन करने के भाव नहीं बन रहे।आप स्वयं निर्णय कर लो कि काल दोषी है कि आप या आपके भाव?" श्रमण बनो मानव को इस संसार में अपने जीवन संचालन हेतु नाना प्रकार के कार्य-कलापों में उलझे रहना पड़ता है। इससे तंग आकर मानव कभी-कभी अपने जीवन के प्रति उदासीन हो जाते हैं । इस उदासीनता में वे अपघातादि जैसे कार्यों में प्रवृत्त हो जाते हैं, जिससे संसार अनंत हो जाता है। संसारी प्राणियों के कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो, इसके लिए आचार्यश्रीजी उन्हें मुनि धर्म हेतु प्रेरित करने के लिए ‘प्रवचनसार' का उद्धरण देते हुए कहते हैं- 'पडिवजदु सामण्णं जदि इच्छदिदुक्खपरिमोक्खं' -श्रामण्य को अंगीकार करो, दुःख से मुक्ति यदि इष्ट है तो। यदि आप कार्यों से बचना चाहते हैं तो श्रमण बनना एक मात्र श्रेयस्कर मार्ग है। इस मार्ग में कुछ श्रम हो भी जाए तो वह कम होता चला जाता है। रयण मंजूषा, मंगल कामना में एक दोहा लिखा था बहुत पहले यम, दम, शम, सम तुम धरो, क्रमशः कम श्रम होय। नर से नारायण बनो, अनुपम अधिगम होय ॥६॥ यम अर्थात् महाव्रत जिसने लिया है, वही मन और इन्द्रियों का दम अर्थात् दमन कर सकता है। यदि वह इन्द्रिय दमन नहीं करता, तो यम (महाव्रत) कार्यकारी नहीं होता। यम के उपरांत श्रम कम हो जाता है, दम के लिए। दम के उपरांत फिर दम घुटने लग जाता है कषायों का। क्योंकि अब कषायें अपने आप ही कृश होने लग जाती हैं, जिसे शम कहते हैं। शम होते ही समता को धारण करने में कोई परिश्रम नहीं होता। इसे एक उदाहरण से समझें। जैसे जब आप गाड़ी को गैरिज से बाहर निकालते हैं तो अधिक श्रम होने के कारण पसीना-पसीना होना पड़ता है, तकलीफ़ भी अधिक होती है। इसके उपरांत गाड़ी को स्टार्ट करने के लिए किक मारने में अपेक्षाकृत कम श्रम होता है। फिर गाड़ी को गियर में डालने में श्रम और कम हो जाता है। गियर में आते ही गाड़ी जब टॉप में आती है, तब कोई श्रम नहीं होता। समता के फलस्वरूप तीन लोक की संपदा मिल जाती है। आप लोग क्या करना चाहते हो? यदि तीन लोक की संपदा पाना चाहते हो, तो एक बार यम को ग्रहण करो, इन्द्रियों का दमन करो, कषायों का शमन करो और फिर समता में डूब जाओ। गुरुओं के उपकारयादरखो सन् १९७९ में जयपुर, राजस्थान में प्रवास के दौरान आचार्य भगवंतों की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए आचार्यश्रीजी ने प्रवचन करते हुए कहा- 'भगवान महावीर के निर्वाण के उपरांत तीर्थंकरों का जो अभाव हुआ है, उसे इस भरत क्षेत्रगत प्राणियों का अभाग्य ही कहना होगा। भगवान के साक्षात् दर्शन व उनकी दिव्यवाणी के पान करने का जब सौभाग्य प्राप्त होता है तो संसार की असारता के बारे में स्वयं ही ज्ञान एवं विश्वास हो जाता है। भगवान के माध्यम से जो कार्य हो सकता था, वह कार्य उनके उपरांत भी कर सकते हैं। भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् अंतिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु स्वामी हुए हैं, तत्पश्चात् भगवान कुंदकुंद एवं तार्किक आचार्य श्री समंतभद्र स्वामी आदि जैसे आचार्यों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। फिर समय का अंतराल होने के बाद बीसवीं शताब्दी में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज हुए। आचार्य परंपरा अक्षुण्ण बनी रही और उनमें भी अनेक प्रौढ़ आचार्य, जिनका जीवन हमारे लिए प्रेरणादायक है, वे बने रहे। उन्होंने (गुरुओं ने) जिस ओर भगवान जा चुके हैं, पहुँच चुके हैं उस ओर जाने का मार्ग प्रशस्त किया। जो संसार से ऊपर उठने की इच्छा रखते हैं, उन्हें दिग्दर्शन दिया, दिशाबोध दिया है। आज जो जैन दर्शन जीवंत है वह गुरुओं की देन हैं, क्योंकि साक्षात् भगवान का दर्शन आज प्राप्त नहीं है, किंतु उनके मुख से निःसृत जनकल्याणी वाणी आज भी अक्षुण्ण है। वह सब गुरु की देन है। जैन धर्म की धारा को यहाँ तक बहाकर लाने में आचार्य (गुरु) स्वयं उस धारा का तट बन गए थे, जब कहीं जाकर यहाँ तक वह धारा निर्मल रूप से बनी हुई है, इसलिए उन गुरुओं के उपकार को याद रखना उपसंहार वीतरागमय जिन शासन श्रमण संस्कृति प्रधान शासन रहा है। श्रमण संस्कृति सारे भारत की संस्कृतियों में एक आदर्श संस्कृति मानी जाती है। यह संस्कृति अपनी साधना के बल पर, तपस्या के बल पर, अपने शुद्ध परिणामों के बल पर, इस देश की भूमि को पवित्र करने की चेष्टा करती है। अनादि-अनंत काल से प्रवाहमान जैन दर्शन की ये श्रमण संस्कृति आज भी जीवित है और अभी हजारों वर्ष तक इस युग की अपेक्षा से जीवित रहेगी। श्रमण संस्कृति के मूल आधार आचार्य श्री कुंदकुंद स्वामी ने इसकी महिमा गाते हुए कहा कि श्रमणता संसार को क्रीड़ा स्थल बनाकर एक बालक के समान खेलता है। जिस समाज में श्रमणता के संस्कार रहते हैं वह संस्कार अपने आप में गृहस्थों के लिए एक बहुत बड़ा वरदान सिद्ध होता है। साधु संत जहाँ अपनी साधना करते हैं, अपना कल्याण करते हैं वहीं उनके पास आने वाले जो भव्य जीव हैं, उनका भी वह मार्ग प्रशस्त करते हैं। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी (दक्षिण) की परंपरा में संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज वर्तमान में एक ऐसे ही जिनशासन प्रभावक आचार्य हैं। उनके द्वारा स्वकल्याण में रत रहते-रहते अनेक भव्य जीव मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हो रहे हैं। श्रमण वही है, जो समता के द्वारा अपना शृंगार करता है। आगे के पाठों में दिगंबरत्व रूपीआकाश में दैदीप्यमान सूर्य के स्व-पर कल्याणक प्रसंगों से पाठकों को परिचय कराया जा रहा है। 'जैन धर्म के सिद्धांतों पर मुझे दृढ़ विश्वास है कि यदि सब जगह उनका पालन किया जाए तो वह इस पृथ्वी को स्वर्ग बना देंगे।जहाँ-तहाँ शांति और आनंद-ही-आनंद होगा।"
  4. दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज की पुरानी पिच्छिकाधारकों की सूची (ईस्वी सन् १९६८-२०१९ वर्षायोग/स्थान एवं पिच्छिका धारकों का नाम) इस प्रकार है:- १. १९६८- सोनीजी की नसिया, अजमेर, राजस्थान श्री कजौड़ीमलजी अजमेरा-श्रीमती सुलोचना देवीजी, अजमेर, राजस्थान २. १९६९- केसरगंज, अजमेर, राजस्थान श्री निहालचन्दजी बड़जात्या-श्रीमती तारादेवीजी, अजमेर, राजस्थान ३. १९७०- किशनगढ़-रैनवाल (जयपुर) राजस्थान श्री धर्मचन्द्रजी बाकलीबाल, किशनगढ़-रैनवाल (जयपुर), राजस्थान, (सम्प्रति असम प्रवासी) ४. १९७१-किशनगढ़-मदनगंज (अजमेर) राजस्थान श्री दीपचन्दजी चौधरी-श्रीमती सोहिनी देवीजी चौधरी, किशनगढ़-मदनगंज (अजमेर) राजस्थान ५. १९७२- नसीराबाद (अजमेर) राजस्थान श्री सुमेरचन्दजी जैन-श्रीमती कृष्णाकुमारीजी (अग्रवाल) नसीराबाद (अजमेर) राजस्थान ६. १९७३- ब्यावर (अजमेर) राजस्थान श्री धर्मचन्दजी मोदी-श्रीमती आनादेवीजी, ब्यावर (अजमेर) राजस्थान ७. १९७४- सोनीजी की नसिया, अजमेर, राजस्थान पं. श्री जगन्मोहनलालजी शास्त्री-श्रीमती फूलवतीजी जैन, कटनी (जबलपुर), मध्यप्रदेश ८. १९७५- महावीर जिनालय, सेठ श्री छिदामीलाल सेठ जैन मंदिर, फिरोजाबाद, उत्तरप्रदेश श्री छिदामीलालजी जैन-श्रीमती सरस्वती देवीजी जैन फिरोजाबाद, उत्तरप्रदेश ९. १९७६- सिद्धक्षेत्र कुंडलपुरजी (दमोह) मध्यप्रदेश डॉ. श्री शिखरचन्द्रजी जैन-श्रीमती चन्द्रादेवीजी जैन, हटा (दमोह) मध्यप्रदेश (अध्यक्ष-कुण्डलपुर क्षेत्र कमेटी) १०. १९७७- सिद्धक्षेत्र कुंडलपुरजी (दमोह) मध्यप्रदेश सुश्री बा.ब्र.सुमन जैन, पिता-श्री डालचन्द्रजी बड़कुल, पटेरा (दमोह)मध्यप्रदेश ११. १९७८- सिद्धक्षेत्र नैनागिरिजी (छतरपुर) मध्यप्रदेश पं. डॉ. श्री बाबूलालजी जैन 'अनुज'-श्रीमती सोनाबाईजी, बण्डा-बेलई (सागर) मध्यप्रदेश १२. १९७९- अतिशय क्षेत्र थूबोनजी (गुना) मध्यप्रदेश ब्रह्मचारिणी श्री रत्तीबाईजी,संचालिका-ब्राह्मी विद्या आश्रम, सागर, मध्यप्रदेश १३. १९८०-सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरिजी (बैतूल) मध्यप्रदेश श्री श्रीकान्तजी चंवरे-श्रीमती शारदादेवीजी चंवरे, कारंजा लाड़(अकोला) महाराष्ट्र १४. १९८१- सिद्धक्षेत्र नैनागिरिजी (छतरपुर) मध्यप्रदेश श्री कुन्दनलालजी 'नेताजी'-श्रीमती सरस्वती देवीजी, बण्डा-बेलई (सागर) मध्यप्रदेश १५. १९८२- सिद्धक्षेत्र नैनागिरिजी (छतरपुर) मध्यप्रदेश बाल ब्रह्मचारिणी सुश्री कमलाजी जैन, (सम्प्रति आर्यिका श्री गुणमतिजी) शाहगढ़ (सागर) मध्यप्रदेश १६. १९८३- ईसरी (गिरिडीह) बिहार (सम्प्रति झारखण्ड) बाल ब्रह्मचारिणी सुश्री रंजनाजी जैन, सरिया (गिरिडीह) बिहार (सम्प्रति झारखण्ड) १७. १९८४- अतिशय क्षेत्र पिसनहारी की मढ़िया, जबलपुर, मध्यप्रदेश श्री भरतेशकुमारजी जैन, कमानिया गेट, जबलपुर, मध्यप्रदेश १८. १९८५- सिद्धक्षेत्र अहारजी (टीकमगढ़) मध्यप्रदेश श्री अरविन्दकुमारजी जैन पंचरत्न', टीकमगढ़, मध्यप्रदेश १९. १९८६- अतिशय क्षेत्र पपौराजी (टीकमगढ़), मध्यप्रदेश सुश्री रंजनाजी-रश्मिजी-रागिनीजी बुखारिया, टीकमगढ़ मध्यप्रदेश २०. १९८७- अतिशय क्षेत्र थूबोनजी (गुना) मध्यप्रदेश बा. ब्रह्मचारिणी सुश्री गीताजी जैन, पिता-श्री शीलचन्दजी जैन, माता-श्रीमती कस्तूरीबाईजी जैन, अशोकनगर, मध्यप्रदेश २१. १९८८- अतिशय क्षेत्र पिसनहारी की मढ़िया, जबलपुर, मध्यप्रदेश बा. ब्र.सुश्री साधनाजी जैन, पिता-श्री कमलकुमारजी जैन 'दानी', माता-श्रीमती कमलादेवीजी, जबलपुर, मध्यप्रदेश २२. १९८९- सिद्धक्षेत्र कुंडलपुर (दमोह) मध्यप्रदेश बाल ब्रह्मचारिणी सुश्री ऊषाजी जैन (पिण्डरईवाली) पिता-श्री विजयकुमारजी जैन, माता-श्रीमती रामवतीजी जैन, अग्रवाल कॉलोनी, जबलपुर, मध्यप्रदेश २३. १९९०- सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरिजी (बैतूल) मध्यप्रदेश बाल ब्रह्मचारी श्री राजेशजी जैन (टड़ावाले) (सम्प्रति एलक श्री सम्पूर्णसागरजी), पिता-श्री शीतलचन्दजी जैन, माता-श्रीमती कमलाबाईजी जैन, लिंक रोड, सागर, मध्यप्रदेश २४. १९९१- सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरिजी (बैतूल) मध्यप्रदेश श्री बाबूलालजी जेजानी-श्रीमती मीरादेवीजी जेजानी, मोठा मंदिर, इतवारी, नागपुर, महाराष्ट्र २५. १९९२- सिद्धक्षेत्र कुंडलपुरजी (दमोह) मध्यप्रदेश बा.ब्र. श्री डॉ. सत्येन्द्रजी जैन, बहन-सुश्री साधनाजी जैन, माता-श्रीमती कमलादेवीजी जैन, दमोह,मध्यप्रदेश २६. १९९३- श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र,रामटेक (नागपुर) महाराष्ट्र श्री महावीरप्रसादजी जैन (माचिस वाले)-श्रीमती इन्द्राजी जैन, रूप नगर, दिल्ली, गुड़गाँव २७. १९९४- श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र रामटेक (नागपुर) महाराष्ट्र श्री बाबूलालजी जैन (सागरवाले)-श्रीमती गिन्दीबाईजी जैन, परवारपुरा, नागपुर, महाराष्ट्र २८. १९९५- सिद्धक्षेत्र कुंडलपुरजी (दमोह) मध्यप्रदेश श्री प्रकाशचन्द्रजी जैन सराफ-श्रीमती हेमरानीजी सराफ, दमोह, मध्यप्रदेश २९. १९९६- श्री विघ्नहर पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, महुआजी (सूरत) गुजरात श्री ओमप्रकाशजी जैन 'बाबूजी'-श्रीमती पुष्पाजी जैन, पारले प्वाइण्ट, सूरत, गुजरात ३०. १९९७- सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर (देवास) मध्यप्रदेश बाल ब्रह्मचारी श्री राकेशजी जैन (सिद्धायतनवाले), माता-श्रीमती इन्द्राणिबाईजी, सागर, मध्यप्रदेश ३१. १९९८- भाग्योदय तीर्थ, सागर, मध्यप्रदेश प्राकृतिक चिकित्सा केन्द्र, भाग्योदय तीर्थ, सागर, मध्यप्रदेश में कार्यरत १२ बाल ब्रह्मचारिणी बहनें ब्रह्मचारिणी (डी.एस.पी.डॉ.) रेखा दीदी, जबलपुर; ब्र. सपना दीदी, जबलपुर; ब्र. देविका दीदी (सम्प्रति आर्यिका श्री गन्तव्यमतिजी), जबलपुर; ब्र. मीनू दीदी (सम्प्रति आर्यिका श्री निकटमतिजी), जबलपुर; ब्र. श्रद्धा दीदी (सम्प्रति आर्यिका श्री कर्त्तव्यमतिजी), बण्डा-बेलई (सागर); ब्र. संगीता दीदी, बण्डा-बेलई (सागर); ब्र. अल्पना दीदी, सेसईवाली (बण्डा बेलई), सागर; ब्र. रूपाली दीदी, नागपुर; ब्र. मृजुला दीदी, जबलपुर; ब्र. अनीता दीदी, जबलपुर; ब्र. रश्मि दीदी, जबलपुर; ब्र.वन्दना दीदी, बण्डा-बेलई (सागर) एवं डॉ.श्री अमरनाथ जी जैन व बा.ब्र.श्री दरबारीलाल जी जैन 'दाऊ',सागर। ३२. १९९९- अतिशय क्षेत्र गोम्मटगिरि, इन्दौर, मध्यप्रदेश प्रतिभा मण्डल में अध्ययनरत प्रथम समूह की ५१ में से उपस्थित ४० बाल ब्रह्मचारिणी बहनें ब्रह्मचारिणी सुषमा दीदी, सागर; ब्र. नीरज दीदी, खातेगाँव; ब्र. उन्नति दीदी, बम्बई; ब्र. सपना दीदी, खातेगाँव; ब्र.प्रीति दीदी, बम्बई; ब्र. सरोज दीदी, शाहगढ़; ब्र. प्रतिभा दीदी, शाहगढ़; ब्र. कल्पना दीदी, शाहगढ़ ब्र.संगीता दीदी, शाहगढ़; ब्र. सुषमा दीदी, अशोकनगर; ब्र. प्रीति दीदी, अशोकनगर; ब्र.नीलू दीदी, अशोकनगर; ब्र.संगीता दीदी,जबलपुर; ब्र. साधना दीदी, जबलपुर; ब्र. कल्पना दीदी, जबलपुर; ब्र. पंकज दीदी, अशोकनगर; ब्र. अनीता दीदी, नागपुर; ब्र. शिरोमणि दीदी. नागपर: ब्र. मोना दीदी. नागपर: ब्र. हर्षलता दीदी, नागपुर; ब्र. इन्द्रा दीदी, पिपरई; (स्व.) ब्र. शिल्पी दीदी, छतरपुर; ब्र.मनीषा दीदी, मड़ावरा; ब्र.प्रीति दीदी, इन्दौर; ब्र. मिथलेश दीदी, दमोह; ब्र. उर्मिला दीदी, दमोह ; ब्र. रश्मि दीदी, दमोह; ब्र.सपना दीदी, गंजबासौदा; ब्र. वन्दना दीदी, गंजबासौदा; ब्र. अनीता दीदी, कुंडलपुर; ब्र. तेजल दीदी, बम्बई; ब्र. बिन्नी दीदी, बम्बई; ब्र.विनीता दीदी, हैदराबाद; ब्र. मोनिका दीदी, खातेगाँव; ब्र. मनीषा दीदी, खातेगाँव; ब्र. भावना दीदी, बागीदौरा; ब्र. बबीता दीदी, रांझी-जबलपुर; ब्र. अन्तिम दीदी, महेश्वर; ब्र. अर्चना दीदी, शिवनगर-जबलपुर; ब्र.आराधना दीदी, शिवनगर-जबलपुर। ३३. २०००-सर्वोदय तीर्थ, अमरकंटक (शहडोल) मध्यप्रदेश श्री राजेन्द्रकुमारजी जैन-श्रीमती विमला देवीजी जैन (कोयलावाला परिवार) देवरी (सागर), इन्दौर, मध्यप्रदेश ३४. २००१- दयोदय तीर्थ, तिलवाराघाट, जबलपुर, मध्यप्रदेश सुश्री डॉ. देविकाजी जैन (सम्प्रति आर्यिका श्री गन्तव्यमति जी), पिता-श्री सुरेशचन्द्रजी जैन, माता-श्रीमती आशादेवीजी जैन, जबलपुर, मध्यप्रदेश ३५. २००२- सिद्धोदय तीर्थ, नेमावर (देवास) मध्यप्रदेश बाल ब्रह्मचारिणी सुश्री नीरजजी काला (प्रतिभास्थली, ज्ञानोदय विद्यापीठ, जबलपुर), पिता-श्री नरेन्द्रकुमारजी काला, माता-श्रीमती आशाजी काला, खातेगाँव (देवास) मध्यप्रदेश ३६. २००३- सर्वोदय तीर्थ, अमरकंटक (अनूपपुर) मध्यप्रदेश इंजीनियर श्री विनोदकुमारजी जैन-श्रीमती रंजनाजी जैन (कोयलावाला परिवार), क्रान्ति नगर, बिलासपुर, छत्तीसगढ़ ३७. २००४- दयोदय तीर्थ, तिलवाराघाट, जबलपुर, मध्यप्रदेश डॉ. श्री पी.सी.जैन-श्रीमती सुषमाजी जैन, लार्डगंज, जबलपुर, मध्यप्रदेश ३८. २००५- श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र,बीना-बारहा (सागर) मध्यप्रदेश श्री महेन्द्रजी जैन बजाज-श्रीमती ऊषा जैन,अध्यक्ष बीना-बारहा कमेटी, देवरी (सागर) मध्यप्रदेश ३९. २००६- सर्वोदय तीर्थ अमरकंटक (अनूपपुर) मध्यप्रदेश बाल ब्रह्मचारी श्री दीपकजी जैन (सागरवाले) एवं बा. ब्र. श्री अजयजी जैन (सागरवाले, सम्प्रति मुनि श्री निःस्वार्थ सागरजी) अमरकंटक (अनूपपुर) मध्यप्रदेश ४०. २००७- श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र बीना-बारहा (सागर) मध्यप्रदेश डॉ. श्री सुधीरजी जैन, इंजीनियर श्री सतीशजी जैन,द्वय बहनें डॉ. सुश्री चन्द्रकान्ताजी जैन, सुश्री रविकान्ताजी जैन एवं पिता-श्री भागचन्द्रजी जैन, माता-श्रीमती गुलाबबाईजी जैन, गोपालगंज, मकरोनियां, सागर, मध्यप्रदेश ४१. २००८- श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र रामटेक (नागपुर) महाराष्ट्र बाल ब्रह्मचारिणी सुश्री रितुजी जैन (संघस्थ आर्यिका पूर्णमतिजी) पिता-श्री नरेशचन्द्रजी बड़जात्या, माता-श्रीमती आशादेवीजी बड़जात्या, मनावर (धार) मध्यप्रदेश ४२. २००९- सर्वोदय तीर्थ, अमरकंटक,(अनूपपुर), मध्यप्रदेश बाल ब्रह्मचारी श्री राजकुमारजी जैन (छोटे चाचा, धुर्रावाले), मध्यप्रदेश, बा. ब्र. अमित भैयाजी, बाल ब्रह्मचारिणी अर्चना दीदी, चंचल दीदी, गुड़िया दीदी, मुनिया दीदी, अशोकनगर, मध्यप्रदेश ४३. २०१०- श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र,बीना-बारहा (सागर) मध्यप्रदेश श्री वीरेश जी सेठ (संयोजक-श्री बड़े बाबा मंदिर निर्माण कमेटी, कुंडलपुर (दमोह) मध्यप्रदेश), निवास-दमोह/ जबलपुर, मध्यप्रदेश ४४. २०११- चन्द्रगिरि तीर्थ क्षेत्र, डोंगरगढ़ (राजनांदगाँव) छत्तीसगढ़ बाल ब्रह्मचारिणी सुश्री नेहा दीदी, सुश्री शुभिदीदी, पिता श्री वीरेन्द्रकुमारजी जैन, माता-श्रीमती आशाजी जैन, डोंगरगढ़,छत्तीसगढ़ ४५. २०१२- चन्द्रगिरि तीर्थ क्षेत्र,डोंगरगढ़ (राजनांदगाँव) छत्तीसगढ़ श्री किशोरजी जैन-श्रीमती सरलाजी जैन, अध्यक्ष चन्द्रगिरि, डोंगरगढ़, छत्तीसगढ़ ४६. २०१३- श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र,रामटेक (नागपुर) महाराष्ट्र श्री मनोज रमेशजी मिल्टन-श्रीमती मीनूजी जैन मिल्टन, इतवारी, नागपुर, महाराष्ट्र ४७. २०१४- तीर्थंकर शीतलनाथ चतु:-कल्याणकस्थली शीतलधाम, विदिशा, मध्यप्रदेश श्री अशोककुमारजी जैन (सागरवाले)-श्रीमतीज्योतिजी जैन,अध्यक्ष-शीतलधाम, विदिशा, मध्यप्रदेश ४८. २०१५- श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र,बीना-बारहा (सागर) मध्यप्रदेश श्री महेन्द्रजी सोधिया-श्रीमती ममताजी, उपाध्यक्ष बीना-बारहा क्षेत्र कमेटी, महाराजपुर (सागर) मध्यप्रदेश ४९. २०१६- श्री ऋषभनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर, हबीबगंज, भोपाल,मध्यप्रदेश श्री आदित्यजी मनयां-श्रीमती सविताजी, कल्पतरु मल्टी-प्लायर लि., इतवारा, भोपाल, मध्यप्रदेश ५०. २०१७- श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, रामटेक (नागपुर) महाराष्ट्र श्री भरतेश नानकचन्दजी जैन-श्रीमती अनीताजी जैन, मस्कासाथ, नागपुर, महाराष्ट्र ५१. २०१८- श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, खजुराहो (छतरपुर) मध्यप्रदेश श्री प्रदीपकुमारजी जैन-श्रीमती मंजुलताजी जैन, बाबूलाल ज्ञानचन्द जैन, चौक बाजार, छतरपुर, मध्यप्रदेश ५२. २०१९- सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र रेवातट नेमावर, मध्यप्रदेश श्रीअभिषेक जी कामिनी जी जैन गोटेगांव , मध्यप्रदेश ५३. २०२० - विजय नगर इंदौर मध्यप्रदेश श्री राजेंद्र जी वास्तु (५२ वर्ष )श्रीमती अंचल जैन (४४ वर्ष ) नेहरु पार्क, इंदौर 55 शिरपुर जैन 30/10 / 2022 आचार्य श्री विद्या सागर जी महाराज जी की पावन पिंच्छिका प्राप्त करने का महान सौभाग्य श्री हितेश जी रुईवाला जैन करंजा लाड महाराष्ट्र वालो को प्राप्त हुआ
×
×
  • Create New...