रत्नत्रय के साथ बाह्य और अंतरंग दोनों प्रकार के तपों का आलम्बन लेकर साधना करने वाला ही मुक्ति सम्पादन कर सकता है। यही एक मुक्ति का मार्ग है। मुक्तिसंपादक आचार्य अर्थात् जिन्होंने इस कलियुग में भी मुक्ति मार्ग को परिपक्वावस्था प्रदान की है, ऐसे बाह्य तपोधर आचार्य श्री विद्यासागरजी ने ३६ मूलगुणों में पठित कर्म निर्जरा के साधनभूत बाह्य ६ तपों से अपने जीवन को कैसे तपाया ? इसको दिग्दर्शित कराने वाले प्रेरणादायी कुछ प्रसंग प्रस्तुत पाठ में उद्धृत किए जा रहे हैं।
पंच पदों में गर्भित आचार्य पद' साधु की ही एक उपाधि है। इसीलिए चार मंगल पदों में, चार उत्तम पदों में और चार शरण पदों में आचार्य पद' को पृथक् ग्रहण न करके साधु पद के अंतर्गत ही रखा गया है। जब साधु को आचार्य के जो 'मूलभूत गुण' हैं, ऐसे ३६ मूलगुण रूपी आभूषण से सुसज्जित कर दिया जाता है, तब वह साधु, आचार्य कहे जाते हैं । 'अर्हत् भगवान' द्वारा कथित 'आचार्य परमेष्ठी' के छत्तीस मूलगुण श्रमण परंपरा संप्रवाहक आचार्य श्री विद्यासागरजी में किस तरह आत्मसात् हो गए, इससे जुड़े कुछ प्रसंग क्रमशः आगे के छह पाठों में द्रष्टव्य हैं।
श्रमण धर्म वाही : आचार्य परमेष्ठी
अर्हत्वाणी
आचर्यतेऽस्मादाचार्यः ....।
जिनसे आचरण ग्रहण किया जाता है उन्हें आचार्य कहते हैं।
आयारं पंचविहं...................एसो आयारवं णाम।'
जो मुनि पाँच प्रकार के आचार निरतिचार स्वयं पालता है, और इन पाँच आचारों में दूसरों को भी प्रवृत्त करता है, तथा आचार का शिष्यों को भी उपदेश देता है उसे आचार्य कहते हैं।
जो शिष्यों को अनुग्रह करने वाला हो,... विश्ववंदित हो,... जिन आज्ञा का प्रतिपालक हो,...पाप, मिथ्यात्व और दुष्कर्मों को दूर करने वाला २३वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथजी हो, संसार से पार उतारने वाला हो, बाहरी और भीतरी परिग्रह से विमुक्त हो, जैन धर्म की प्रभावना करने वाला हो, गण का स्वामी हो, सर्व गण का आधार हो और अनेक उत्तम गुणरूपी रत्नों का सागर हो, ...वह आचार्य परमेष्ठी कहलाता है।
आचार्य पद की योग्यता
ज्ञानविज्ञानसम्पन्नो.......................शिष्योगुरोरनुज्ञया॥
जो शिष्य ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न है, महा बुद्धिमान है, तपस्वी है, चिरकाल का दीक्षित है, श्रेष्ठ वक्ता है, सिद्धांत महासागर का पारगामी है, इन्द्रियों को वश में करने वाला है, अत्यन्त निर्लोभ है, धीर-वीर है, अपने और दूसरों के मन को अच्छी तरह जानता है, जो गम्भीर है, तत्त्वों का वेत्ता है, चतुर है, जिसका मन कोमल है, जो धर्म की प्रभावना करने में चतुर है और जिसका मन निश्चल है इस प्रकार जो अनेक गुणों का समुद्र है, ऐसा शिष्य गुरु की आज्ञानुसार आचार्य पदवी के योग्य होता है।
इन सभी योग्यताओं से आचार्य श्री विद्यासागरजी आकंठ पूरित थे। यही कारण रहा कि उनके गुरु ने उन्हें अल्प वयस्क एवं अल्प समय के दीक्षित होने पर भी अपना आचार्य पद प्रदान किया।
किन्हें चुनें अपना आचार्य
गंभीरो................................................संपत्ता॥३८॥
गंभीर- जिनको क्षोभ उत्पन्न नहीं होता है अथवा जिनके गुणों का पार नहीं लगता है। दुर्द्धर्ष- प्रवादी जिनका पराभव नहीं कर सकते हैं। प्रवादी जिनके सम्मुख आ नहीं सकते/जिनसे वाद करने में असमर्थ होते हैं।शूर- कार्य करने में समर्थ।धर्मप्रभावनाशील- धर्म की प्रभावना करना जिनका स्वभाव है। अर्थात् दान, तप, जिनपूजा, विद्या इनके अतिशय से प्रभावना करने वाले। क्षितिशशिसागरसदृश- क्षमागुण होने से पृथ्वी के समान, सौम्यता से चंद्र समान और निर्मलता से समुद्रतुल्य ऐसे गुणों से संपन्न आचार्य को वह शिष्य प्राप्त करता है।' अर्थात् इन गुणों से विशिष्ट साधु को आचार्य के रूप में शिष्य को चुनना चाहिए।
आगमोक्त इन सभी गुणों ने वास पाया है जिनमें ऐसे कथानायक आचार्य श्री विद्यासागरजी के चारित्र की गंध पा अल्प वयस्की युवक-युवतियाँ भ्रमर की भाँति उनके चरणों में स्वयं को अर्पित कर उन्हें अपने आचार्य के रूप में चुन करके धन्य हो रहे हैं।
आचार्य पद त्याग क्यों...?
कालं संभावित्ता........... वोत्ति बोधित्ता ॥ २७५-२७७॥
अपनी आयु की स्थिति विचार कर समस्त संघ को और बालाचार्य को बुलाकर शुभदिन,शुभकरण और शुभलग्न में तथा शुभ देश में गच्छ का अनुपालन करने के लिए गुणों से अपने समान भिक्षु का विचार करके पश्चात् वह धीर आचार्य थोड़ी-सी बातचीत पूर्वक राजस्थान में धर्मोपदेशरत मुनिश्री विद्यासागरजी उस पर गण का त्याग करता हैं । ज्ञान दर्शन चारित्रात्मक धर्मतीर्थ की व्युच्छित्ति न हो, इसलिए उसे सब गुणों से युक्त जानकर यह तुम्हारा आचार्य है- ऐसा शिष्यों को समझाकर आप इस गण का पालन करें, ऐसा इस नवीन आचार्य को अनुज्ञा करते हैं।
नए आचार्य को पूर्व आचार्य का उपदेश
संखित्ता. .................चेवगच्छंच॥२८४-२८५॥
उत्पत्ति स्थानों में छोटी-सी भी उत्तम नदी जैसे विस्तार के साथ बढ़ती हुई समुद्र तक जाती है उसी प्रकार तुम शील और गुणों से बढ़ो। तुम बिलाव के शब्द के समान आचरण मत करना। बिलाव का शब्द पहले जोर का होता है, फिर क्रम से मन्द हो जाता है, उसी तरह रत्नत्रय की भावना को पहले बड़े उत्साह से करके, पीछे धीरे-धीरे मंद मत करना। और इस तरह अपना और संघ दोनों का विनाश न करना। प्रारंभ में ही कठोर तपकी भावना में लगकर स्वयं और गण को भी उसी में लगाकर दुश्चर होने से विनाश को प्राप्त होंगे।
अपने गुरु के उपदेश का अक्षरशः पालन करने वाले आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने आगम के एक-एक शब्द को पीकर उसे जिया है। वह भी आज अपने शिष्यों से यही कहते हैं कि तप उतना ही करो जितने से हमारे व्रत निर्दोष पलते रहें। आहार सही नहीं होने पर उपवास के अतिरेक से दिमाग में फ़ितूरी आने पर गड़बड़ होता है। जैसे, क्रिकेट वाला बैट्समेन देखता है, यदि रन लेकर के आ सकते हैं तो ही दौड़ता है। नहीं तो, वहीं खड़ा रहता है। ऐसे ही शक्ति के अनुसार उपवास आदि करना चाहिए। और ऐसा भी नहीं कि तप करो ही मत, तप करना भी अनिवार्य है। पर अपनी शक्ति को देखकर, अधिक खींच तान भी न करें और छिपाएँ भी नहीं।
साधना करो, पर साधनसुरक्षित रखो
__ सन् १९८०, मोराजी, सागर, म.प्र. में स्वाध्याय के दौरान आचार्यश्रीजी ने उत्कृष्ट चर्या के विषय में कथन किया। उससे प्रेरित होकर मुनि श्री समयसागरजी एवं क्षुल्लक श्री परमसागरजी (वर्तमान में मुनि श्री सुधासागरजी) महाराज ने सोचा कि हमें भी उत्कृष्ट चर्या का पालन एवं तपादि करना चाहिए। इसके लिए दोनों महाराज धूप में सूर्य की तरफ मुख करके साधना करने लगे। कहीं गुरुजी इसके लिए मना न कर दें, अतः उनसे पूछा भी नहीं। जब आचार्यश्रीजी सामायिक में बैठ जाते उसके बाद वे दोनों साधक सामायिक करने धूप में छत पर जाते थे। एक दिन आचार्यश्रीजी के कमरे का दरवाजा लटका था, उन्होंने सोचा गुरुवर सामायिक करने लगे। वह दोनों भी छत पर जाकर धूप में खड़े होकर आवर्त करने लगे, इतने में आचार्यश्रीजी आ गए।
एक दिन हुआ यूँ कि आचार्यश्रीजी तो सामायिक में बैठे नहीं थे, कुछ श्रावकों के साथ उनकी चर्चा चल रही थी। चर्चा के बाद वह लघुशंका हेतु छत पर आए, धूप में खड़े दोनों महाराजों को देखकर बोले- 'क्या हो रहा है?' महाराज ने कहा- 'कुछ नहीं।' आचार्यश्रीजी बोले- 'कुछ तो हो रहा है, यहाँ आवर्त क्यों हो रहे हैं?' नीचे जगह नहीं है क्या?' महाराजजी बोले- 'आचार्यश्रीजी! हम लोग धूप में बैठने की साधना कर रहे हैं।' आचार्यश्रीजी ने पूछा- 'कब से?' उत्तर मिला- 'आठ दिन से।' आचार्यश्रीजी बोले- 'यहाँ आओ, सुनो!' अपने कमरे में ले जाकर समझाते हुए बोले- क्या साधना करने की मेरी भावना नहीं होती? हीन संहनन है, गर्मी चढ़ जाएगी तो सब समझ में आ जाएगा।' सो महाराजों ने धूप में सामायिक करना बंद कर दी।
धन्य है, आचार्य भगवन् को! वह अपने शिष्यों को तप हेतु जहाँ प्रेरित करते हैं वहीं आगम में कथित 'शक्तिशः' विशेषण की ओर भी दृष्टि रहे इसका ध्यान भी कराते हुए कहते हैं- ऐसा तप भी न करो कि आगे मूलगुण भी न सँभाल पाओ।
अहंतवत्पूज्य
जिणबिम्बंणाणमयं....................कम्मक्खयकारणे सुद्धा ॥१६॥
जो ज्ञानमय हैं, संयम से शुद्ध हैं, अत्यंत वीतराग हैं तथा कर्मक्षय में कारणभूत शुद्ध दीक्षा और शिक्षा देते हैं ऐसे आचार्य परमेष्ठी जिनबिंब हैं।
सत्प्रत्यस्ति......................साक्षाज्जिनः पूजितः॥६८॥
यद्यपि इस समय इस कलिकाल (पंचमकाल) में तीन लोक के पूजनीय केवली भगवान विराजमान नहीं है तो भी इस भरतक्षेत्र में समस्त जगत् को प्रकाशित करने वाली उन केवली भगवान की वाणी मौजूद है तथा उस वाणी के आधार श्रेष्ठ रत्नत्रय के धारी मुनि हैं । इसलिए उन मुनियों की पूजन तो सरस्वती की पूजन है तथा सरस्वती की पूजन साक्षात् केवली भगवान की पूजन है, ऐसा भव्य जीवों को समझना चाहिए।
आचार्य परमेष्ठी पद पर प्रतिष्ठित आचार्य भगवन् श्री विद्यासागरजी की पूजा-अर्चना करने तो जैसे आज पूरा ब्रह्माण्ड ही लालायित हो। कितनी भी भीषण गर्मी क्यों न हो, चाहे आसमान पूरी तरह साफ हो और सूर्य अपनी तीव्र प्रखर रश्मियों को क्यों न फै लाए हो, पर ज्यों ही आचार्य भगवन् विहार हेतु अपने चरण पृथ्वी पर रखते हैं कि सारा भू मण्डल उनकी अर्चना हेतु आंदोलित हो उठता, सूर्य भी अपनी तपनशील - किरणों को समेट लेता, धरती माँ के आह्वाहन परआकाश में बदली छा जाती और कहाँ से-कैसे! कभी-कभी अचानक ही उनके आगे-आगे वर्षा प्रारंभ हो जाती। उस समय पेड़-पौधे ऐसे जान पड़ते हैं मानो उनके आगमन पर नम्रीभूत हो नमन कर रहें हों। जिनकी उपस्थिति का सान्निध्य पा प्रकृति तक झूम उठती हो तब मानवों के भावों का कथन करना कहाँ तक शक्य होगा? वह वन में हों या भवन में, नित्यप्रति ही प्रातः लगभग ०९ बजे श्रावकगण विशालकाय थालों में अष्टद्रव्य सुसज्जित करके बड़े ही भक्ति-भाव से आचार्य गुरुदेव को पूजा-अर्चना करते हैं । आगमोक्त पदोचित पात्रता के धनी होने के फलस्वरूप ही यह सब संभव है, अन्यथा कहाँ...? और श्रावकगण भी ऐसे आचार्य भगवन् की पूजन कर अहँत की पूजन के समान पुण्य का आस्रव कर अपना मोक्षपथ प्रशस्त करते रहते हैं।
आचार्य के मूलभूत गुण: ३६ मूलगुण
आचार्य भगवन् के मूलगुण ३६ कहे गए हैं। जिनका कथन जिनागम के अनेक ग्रंथों में अनेक प्रकार से प्राप्त होता है। वर्तमान में श्रीमद् आचार्यप्रवर वसुबिंदु अपरनाम जयसेन विरचित 'प्रतिष्ठापाठ' भाषा टीका सहित ग्रन्थ में याज्ञमंडलोद्धारः के षष्ठवलयस्थापित आचार्य गुण पूजा में पृष्ठ १८२ पर एवं पंडित सदासुखदासजी कृत 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' में उल्लेखित ३६ मूलगुण प्रचलन में होने से उन्हीं का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है
- बारह तप - छहबाह्य - अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश तप। छह आभ्यंतर - प्रायश्चित्त, विनय,वैयावृत्ति, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ।
- छह आवश्यक - सामायिक, वंदना, प्रत्याख्यान, स्तव, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग।
- पाँच आचार - दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार।
- दस धर्म -उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिञ्चन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म तीन गुप्ति - मन गुप्ति, वचन गुप्ति और काय गुप्ति।
प्रस्तुत पाठ में, छह बाह्य तपों के परिपालन से जिनका जीवन कर्मभार से हल्का हो रहा है, ऐसे आचार्य श्री विद्यासागरजी के चरित्र के साथ-साथ छह बाह्य तपों से भी पाठक परिचित होंगे।
कर्म अरि विध्वंसक : बारह तप
अर्हत्वाणी
कर्मक्षयार्थं तप्यत इति तपः।
कर्मक्षय के लिए जो तपा जाता है, वह तप है।वह दो प्रकार है- बाह्य और आभ्यंतर।
विद्यावाणी
- तप एक निधि है, जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र को अंगीकार करने के उपरांत प्राप्त करना अनिवार्य है।
- व्यवहार में बारह प्रकार के तप होते हैं, निश्चय में एक समता मात्र तप है।
- जिस प्रकार तपन के बिना वपन किया हुआ बीज नए पन की ओर नहीं जाता, उसी प्रकार तपाराधना के बिना श्रमण के जीवन के नए आयाम नहीं खुलते।
- तप के माध्यम से अप्रशस्त प्रकृतियों की निर्जरा होती है और प्रशस्त प्रकृतियाँ बढ़ती ही चली जाती हैं। समीचीन तप करने वालों को अंत में निश्चित ही समाधि का लाभ होता है।
- आत्मा के प्रदेशों के साथ जो एक क्षेत्रावगाह को लेकर बँधे हुए कर्म हैं, वे किसी भी प्रकार से बाहर आना नहीं चाहते।मत आओ।लेकिन तपके द्वारा उन्हें अपने आप बाहर आना पड़ता है।
- बारह तप-बारह पेपर- अपने यहाँ बारह प्रकार के तप कहे हैं, पर प्रचलन अनशन' (उपवास) तप का सबसे ज़्यादा है। क्या समझे? हम एकदम अनशन को ही पहला तप मानते हैं जबकि तपों में ६ अंतरंग और ६ बाह्य हैं, इसलिए युक्तिपूर्वक अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को लेते हुए बाह्य एवं आभ्यंतर दोनों तपों को छूना (करना) चाहिए। हाँ, एक ही तप की ओर नहीं देखना चाहिए। मान लो बारह पेपर हैं। उसमें एक ही पेपर में सब शक्ति लगा दो तो शेष जो ग्यारह पेपर हैं, उनका क्या होगा? एक में तो डिक्टेंशन और एक में सप्लीमेंट्री भी नहीं, सीधे फेल। क्या होगा? इसलिए बैलेंस बनाकर चलना चाहिए। जिस प्रकार पोटली में रखे कपड़ों में हजार सलें पड़ जाती हैं तो उसे प्रेस करके अच्छा कर लेते हैं। इसी प्रकार तप के द्वारा चारित्र को निर्मल बनाया जाता है। सभी प्रकार के तपों से परिचित होना चाहिए।
अभ्यंतर तप के हेतु : बाह्य तप
अर्हत्वाणी
बाह्यद्रव्यापेक्षत्वात्परप्रत्यक्षत्वाच्च बाह्यत्वम्।
बाह्य तप बाह्य द्रव्य के अवलम्बन से होता है और दूसरों के देखने में आता है। इसलिए इसे बाह्य तप कहते हैं।
अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्यं तपः।
अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश यह छह प्रकार के बाह्य तप है।
विद्यावाणी
- बाह्य तप वह तप है, जिससे अभ्यन्तर तप को बल मिले।
- बाहरी तप के बिना भीतरी तप का उद्भव संभव नहीं है।
- ये छहों प्रकार के तप बाहरी भोजन आदि की अपेक्षा को ले करके चलते हैं।
- ये जैनेतरों में भी पाए जाते हैं अथवा गृहस्थों के द्वारा भी किए जाते हैं।
- इन छहों तपों के द्वारा कर्मों को और इन्द्रियों को ताप पहुँचाया जाता है, माने इन्द्रियाँ अपने आप ही कन्ट्रोल हो जाती हैं।
बर्तन तपे, तब दूध तपे-जिस प्रकार स्वस्थता के लिए श्रम द्वारा पसीना आना आवश्यक है, उसी प्रकार कर्म निर्जरा के लिए तपमय परिश्रम आवश्यक है, क्योंकि बाह्य तप अन्तर के मल को निकालता है। जैसे दूध का तपाना हो, तो सीधे अग्नि पर तपाया नहीं जा सकता है। बर्तन में ही तपाना होगा। उसी प्रकार बाहरी तप के माध्यम से शरीररूपी बर्तन तपता है। बाहर से तपे बिना भीतरी तप नहीं आ सकता।
आत्म चिकित्सक : अनशन तप
अर्हत्वाणी
यत्किंचिद् दृष्टफलं . ....मनशनमित्युच्यते।
मंत्रसाधनादि दृष्टफल की अपेक्षा के बिना किया गया उपवास अनशन कहलाता है।
तद् द्विविधम्. .......... ...देहोपरमात्।
अनशन दो प्रकार का है- एक बार भोजन या एक दिन बाद भोजन आदि अवधृत अर्थात् नियतकालिक अनशन है और शरीरत्याग पर्यन्त अनशन अनवधृत अर्थात् अनियतकालिक अनशन है।
विद्यावाणी
- आहार न करना अनशन तप है। एक उपवास में चार भुक्तियों का त्याग होता है, जिसे चतुर्थ भक्त कहा जाता है। एक दिन में दो भुक्तियानी दो बार भोजन करने का सामान्य से नियम है। यदि एक उपवास किया, तो दो भुक्ति का त्याग हो गया और धारणा (उपवास से पूर्व का दिन) एवं पारणा अनशन तप की साधना में पारंगत आचार्यश्रीजी (उपवास के बाद वाला दिन) के दिन एक बार ही भोजन लेने पर दो भुक्ति का त्याग इन दो दिनों में हो गया। इस कारण एक उपवास को आगम में चार भुक्तियों त्याग होने से चतुर्थ भक्त भी कहा जाता है।
- उपवास भी जिनेन्द्र भगवान के द्वारा बताया हुआ एक मार्ग है, तप है एवं आत्म संशोधन के लिए महत्त्वपूर्ण है।
- अनशन बहु गुणकारी- ग्रंथराज धवलाजी में आया है- 'उपवास शरीर के रोगों को दूर करने के लिए कारण हैं।' वैज्ञानिकों ने भी कहा है कि उपवास के दिन शरीर में एक विशेष ग्रंथि खुलती है, जिससे ताजगी मिलती है और रोग निष्कासित होते हैं। इससे ही आचार्यों ने 'घोरतपानां घोरगुणानां' कहा है। किसी श्रावक ने आचार्यश्रीजी से पूछा- उपवास का अर्थ आत्मा में वास करना होता है, तो क्या हम श्रावक कर सकते हैं? आचार्यश्रीजी बोले- 'इंद्रियाँ विषयों की ओर न जावें एवं मन ख्याति-पूजा-लाभ की ओर न जावे, यही उपवास है। इससे कर्म निर्जरा होती है। इसे आप कर सकते हैं।
विद्याप्रसंग
शक्तिश: तप
आचार्यश्रीजी वर्षायोग में प्रायः दो-तीन आहार के बाद उपवास करते रहते हैं। अनेक बार बेला (लगातार दो उपवास), तेला (लगातार तीन उपवास) भी कर चुके हैं। एक बार श्री सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरि, मध्यप्रदेश सन् १९९० वर्षायोग में एक दिन आचार्यश्रीजी ने उपवास कर लिया। दूसरे दिन श्रावकों ने जल लाकर शुद्धि का निवेदन किया, पर वह मौन रहे और न ही शुद्धि को उठे। तीसरे दिन श्रावकों ने पुनः निवेदन किया- हे भगवन्! चर्या का समय हो गया, आप शुद्धि कीजिए। परंतु आचार्य भगवन् पूर्ववत् मौन ही बने रहे। चौथे, पाँचवें.....नवमें दिन तक यही क्रम चला। आचार्यश्रीजी की क्रिया सुव्यवस्थित समयोचित होते हुए भी अनियत होती है। अतः उसे अनुमान के तराजू पर तौलना श्रावकों का सहज स्वभाव-सा बन गया है। और हुआ भी यही अब तो आचार्यश्रीजी दस उपवास पूर्ण करेंगे' ऐसा अनुमान लगाकर दसवें दिन श्रावकों ने आचार्यश्रीजी से शुद्धि का निवेदन नहीं किया।संघस्थ साधु शुद्धि करके जब आचार्य भगवन् के पास नमोऽस्तु करने पहुंचे, तब आचार्यश्रीजी इस बात से पूर्णतः अनजान थे कि महाराज लोग शुद्धि करके आए हैं, अतः उन्होंने सामान्य से ही पूछ लिया- 'शुद्धि का समय नहीं हुआ क्या?' यह सुनकर किन्हीं महाराज ने तुरंत भरा हुआ कमण्डलु आचार्यश्रीजी के हाथों में दे दिया। वह बड़ी सहजता से शुद्धि करके चर्या को निकल गए।और वर्तमान युग के शिखर पुरुष संत सरताज के नव उपवास की पारणा का महासौभाग्य कार्तिक कृष्ण अमावस्या-दीपावली के शुभ दिवस, वीर निर्वाण संवत् २५१७, विक्रम संवत् २०४७, गुरुवार, १८ अक्टूवर १९९० को दादिया (अजमेर) राजस्थान निवासी श्रावकश्रेष्ठी श्री हरकचन्दजी झांझरी एवं श्रीमती नोरतदेवी को प्राप्त हुआ। राजा श्रेयांस की भाँति भक्ति से भरे हुए इस परिवार को लगा ‘इन परम तपस्वी के करपात्र में किन-किन उत्तम व्यंजनों को रख दें, परंतु निरीहवृत्ति के धारी आचार्य भगवन् ने मूंग दाल, लौकी, आँवला और रोटी से ही पारणा की। पारणा के बाद किसी ने आचार्यश्रीजी से कहा- 'हम लोग तो सोच रहे थे कि आप दस उपवास पूर्ण करेंगे...। आचार्यश्रीजी बोले 'हमें गिनती नहीं करना है, जब तक मूलगुणों का पालन अच्छे से हुआ, शिथिलता नहीं आ रही, तब तक तप साधना बढ़ाई। क्योंकि मूलगुण खेत हैं और तप उनकी बाड़ी। हमें रिकार्ड नहीं बनाना था।' क्योंकि आचार्यवर देहाश्रित साधना की अपेक्षा आत्माश्रित साधना को अधिक महत्त्व देते हैं। उनका कहना है कि अभ्यंतर तप में बाह्य तप हेतु हैं।
उत्साह और जागृति के साथ अपने आवश्यकों को करना, प्रायः खड़े होकर प्रतिक्रमण एवं उत्कृष्ट सामायिक करते हुए संघ के प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन करने जैसी सभी क्रियाएँ इन दिनों में भी आचार्य भगवन् की चर्या में सहज समाहित थीं। उपवास के दूसरे और तीसरे रोज़ संघस्थ महाराजों ने कहा 'आचार्यश्रीजी! रेगुलर पढ़ने वाले विद्यार्थी को भी कभी-कभी छुट्टी मिलती है। हम लोग भी आपके पास छुट्टी का आवेदन पत्र लेकर आए हैं। लेकिन आचार्य भगवन् ग्रंथराज तत्त्वार्थवार्तिक' एवं पंचास्तिकाय' जैसे गहन विषयों की कक्षा लगाते रहे। जब छुट्टी का आवेदन स्वीकार होता नहीं दिखा, तब छठवें दिन शिष्यगण स्वयं ही कक्षा में उपस्थित नहीं हुए।
इसी वर्षायोग के अवसर पर नव उपवास के पूर्व तपोमूर्ति आचार्यप्रवर ने लगातार तीन उपवास भी किए थे। रक्षाबंधन रूप वात्सल्य पर्व के मांगलिक अवसर में आचार्यश्रीजी की तेला की पारणा का गौरव ब्राह्मी विद्या आश्रम, जबलपुर, म.प्र. की वैराग्यवर्धिनी साधिकाओं को प्राप्त हुआ था। निर्दोष चर्या के साथ उत्कृष्टता से अनशन तप करने वाले आचार्य भगवन् धन्य हैं।
मन परीक्षक : अवमौदर्य तप
अर्हत्वाणी । अद्धाहारणियमो ...............भणिदं होदि ॥
आधे आहार का नियम करना अवमौदर्य तप है। जो जिसका प्राकृतिक आहार है उससे न्यून आहार विषयक अभिग्रह (प्रतिज्ञा) करना अवमौदर्य तप है।
विद्यावाणी
- उदर यानी पेट, पेट से कम खाने का नाम अवमौदर्य/ऊनोदर है। अपना जो पेट है उसके चार भाग करते हैं। एक भाग से कम तीन भाग भरना, यह तो प्रतिदिन का आहार माना जाता है। उसमें से एक ग्रास कम कर दो तो यह जघन्य अवमौदर्य माना जाता है और मात्र एक ग्रासया एक चावल का दाना ले करके आ गए तो यह उत्कृष्ट अवमौदर्य माना जाता है। तथा आधा पेट आहार करना मध्यम अवमौदर्य है।
- अवमौदर्य का अर्थ खाली पेट होना चाहिए, नहीं तो दोष लगेगा।अच्छे ढंग से दूध व पानी ले लेने से अवमौदर्य नहीं हो जाता। ऊनोदर पहले से संकल्प लेकर किया जाता है। ग्रास का भी एवं चीज़ों का भी प्रमाण किया जाता है। पहले से प्रमाण नहीं बनाओगे तो भोजन कैसे होगा? क्योंकि वहाँ जाने के बाद विचारों में अंतर आ सकता है। पानी यदि रोज़ अच्छी मात्रा में लेते हैं तो उस दिन पानी का भी प्रमाण कर लें, क्योंकि उससे भी तृषा बुझ जाती है। आधा पेट रहोगे, तब तो महसूस होगा। जितने भी तप होते हैं, वह विधिवत् होते हैं केवल खानापूर्ति नहीं।
- उत्कृष्ट अवमौदर्य करने ३-४ किलोमीटर दूर जाते हैं और एक ग्रास लेकर आ गए। केवल मन की परीक्षा की, कि अंदर मन में क्या होता है। ३-४ किलोमीटर दूर गए और रास्ते में कोई अन्य मत वाले मिलेंगे, वे कुछ भी कह सकते हैं। अपशब्द भी बोलेंगे, तो आक्रोश नहीं आए। वो आक्रोश परिषहजय करते हैं।
- चाह से तप निष्फल- इस तप के द्वारा तो मेरी महिमा बढ़ेगी, ख्याति होगी, कीर्ति फैलेगी, लोग प्रशंसा करेंगे, पूजा करेंगे, आरती उतारेंगे, बाजा बजवाएँगे। इस निमित्त से यदि करता है तो उसका अवमौदर्य तप भी निष्फल है। जैसे लोग कहते हैं कि रात्रिभोजन (अन्न) त्याग कर दो तो मावा मिल जाता है, ऐसा सोचने वालों का वह तप वृथा माना जाता है।
विद्याप्रसंग
अतृप्त आहार अवमौदर्य
आचार्यश्रीजी कहते हैं- 'तृप्ति पूर्वक भोजन न करने का नाम भी अवमौदर्य है। प्रायः साधुओं का तो मध्यम अवमौदर्य हो ही जाता है। प्रसंग अमरकंटक, (शहडोल) मध्यप्रदेश का है। चातुर्मास के बाद आचार्यश्रीजी का विहार पेंड्रा रोड (बिलासपुर) की ओर हुआ। गाँव में खुशी की लहर दौड़ गई। यहाँ पर एक ऐसा परिवार था, जिसके घर में छत की जगह खप्पर थी, जिसमें से पानी टपकता था। भोजन बनाने बर्तन नहीं थे, गृह स्वामी साईकिल से गाँव-गाँव जाकर चूड़ी-बिंदी बेचकर बमुश्किल अपने परिवार का खर्च चलाता था। आचार्य भगवन् के आगमन का समाचार सुनकर गृह स्वामिनी (पत्नी) ने चौका लगाने की भावना व्यक्त की।पति बोला-न बर्तन, न राशन और न ही खड़े होने के लिए सूखा कोई स्थान है। ऐसे में कैसे करेंगे? रहने दो। पर पत्नी का मन नहीं माना। आस-पड़ोस का सहयोग लेकर शुद्ध आहार तैयार कर लिया और पति-पत्नी दोनों पड़गाहन करने खड़े हो गए। पति मन में विचार करता है कि मंदिर से इतनी दूर घर है हमारा। विहार करके आए हैं, साधु । कोई मुनिराज शायद ही यहाँ पहुँच पाएँ। भावों का क्रम जारी रहा।
आचार्यश्रीजी चर्या के लिए मंदिरजी से निकले। मार्ग के श्रावक आह्वानन कर रहे हैं, पर वह ईर्यापथ शुद्धि से बढ़ते ही जा रहे और जाकर उन्हीं श्रावक के पास ऐसे खड़े हो गए, मानो चंदना के पास महावीर आ गए हों। दम्पत्ति के आँसुओं की धार बह निकली जो मानो यह कर रही हो कि कौन कहता है आचार्य भगवन् अमीरों के यहाँ ही जाते हैं। अरे! जिसके यहाँ आचार्य भगवन् के पावन चरण पड़ते हैं, वे अमीर बन जाते हैं। और अश्रुपूरित नयनों से ही पाद प्रक्षालन एवं पूजन संपन्न की गई। अँजुली के नीचे पात्र के स्थान पर कढ़ाई रखी।आहार शुरू हुआ नहीं कि बारिश शुरू हो गई। जहाँ गुरुवर खड़े थे, उस स्थान को छोड़कर कई स्थानों पर पानी टपकने लगा। पर गुरुवर के आहार मंद-मंद मुस्कान के साथ सानंद संपन्न हो गए।आचार्यश्रीजी वापस आकर मंदिर के बाहर बने मंच पर विराजमान होकर बोले- 'आज सभी दाताओं ने बहुत शांति से आहार कराए।आज तो ऊपर से बारिश हुई और चौके वालों की आँखों से भी...।"
प्राकृतिक प्रतिकूलता आने पर पूर्णाहार की कल्पना संभव नहीं है, फिर भी मन में कोई क्षोभ उत्पन्न न होने देना एवं दाता को भी वचनों से संतुष्ट कर देना, अद्भुत ही व्यक्तित्व है गुरुवर का। तपस्वी सम्राट आचार्य भगवन् धन्य है! और धन्य है! उनका तप।।
आशा निरोधक : वृत्तिपरिसंख्यान तप
अर्हत्वाणी
तिस्से वुत्तीए.......... ... .... भणिदंहोदि॥
भोजन, भाजन, घर, बार (मुहल्ला) और दाता, इनकी वृत्ति संज्ञा है। उस वृत्ति का परिसंख्यान अर्थात् ग्रहण करना वृत्तिपरिसंख्यान है। इस वृत्तिपरिसंख्यान में प्रतिबद्ध जो अवग्रह अर्थात् परिमाण नियंत्रण होता है,वह वृत्तिपरिसंख्यान नाम का तप है।
विद्यावाणी
- वृत्तिपरिसंख्यान किसको बोलते हैं? आँकड़ी लेकर निकलना यही वृत्तिपरिसंख्यान है।
- विधि ऐसी नहीं लेना चाहिए जो हँसी का कारण बने । विधि लेकर विद्युत् के समान साधु निकले, उतने में उसे विधि दिख जाए, विधि ऐसे लेना चाहिए।
- वृत्ति परिसंख्यान का अर्थ आहार के लिए उठते समय कोई नियम लेना। उसके मिलने पर ही आहार करूँगा। लेकिन जो नियम आज लिया है, वो ही कल रहे, यह नियम नहीं है। कुछ लोग कहते हैं जब तक वो नियम न मिलेगा तब तक आहार नहीं करेंगे। ऐसा नहीं है। हाँ, हमें अपनी परीक्षा करना है, तो वह नियम २-३ दिन तक रख सकते हैं । वृत्ति परिसंख्यान तप गुरु की आज्ञा से लेना चाहिए।
- अपने कर्म कैसे उदय में चल रहे हैं? इसका संधान करने के लिए वृत्ति परिसंख्यान तप किया जाता है।तीर्थंकर को भी विधि नहीं मिली।
- लाभ-अलाभ में अडिग- विधि लेने वाले को स्थिर वृत्ति वाला होना चाहिए। अलाभ में भी लाभवत् समझकर हँसता हुआ आना चाहिए। दाता के मन में तो अलाभ होने पर क्षोभ होता है, लेकिन पात्र के लिए क्षोभ नहीं करना चाहिए। सच्चा साधक भी वही है, जो विभिन्न संकल्प विकल्पों के बावजूद भी अपनी मुक्ति मंजिल की ओर अग्रसर रहता है। यही एक मात्र इसकी परीक्षा है, परख है। जैसे सच्चा पथिक तो वही है, जो पथ में काँटे आने पर भी नहीं रुकता। सच्चा नाविक भी वही है, जो प्रतिकूल धारा के बीच से नाव को निकालकर गन्तव्य तक ले जाता है। इसी प्रकार सच्चा साधक लाभ-अलाभ में विकल्प नहीं करता।
विद्याप्रसंग
वृत्तिपरिसंख्यान, निर्जरा का अचूक अवसर
१० जून, २०१५, दयोदय, तिलवाराघाट, जबलपुर,मध्यप्रदेश का प्रसंग है। उस दिन आचार्यश्रीजी का केशलोंच का उपवास था। शाम की सामायिक के बाद ब्रह्मचारी भाइयों को वैयावृत्ति का अवसर प्राप्त हुआ। आचार्यश्रीजी प्रायःकर रात्रि में दस-ग्यारह बजे तक लेट जाते
और दो-ढाई बजे तक उठ जाते।अभी वर्तमान में तो वह करीब एक-डेढ़ बजे ही उठ जाते हैं। चौबीस घंटे में उनका इतना ही विश्राम होता है, १९७४, सर सेठ भागचंदजी सोनी की नसिया में मानस्तंभ के दर्शन पर इस दिन उन्हें गर्मी की भीषणता और कर वृत्तिपरिसंख्यान ग्रहण करते हुए आचार्यश्रीजी केशलोंच के उपवास के कारण कुछ अधिक ही बेचैनी महसूस हो रही थी। वह रात्रि ११ बजे तक बैठे रहे, फिर लेट गए, पर नींद का नाम ही नहीं था। रात्रि १ बजे वह उठे और पद्मासन लगाकर ध्यानस्थ हो गए।शारीरिक बेचैनी इतनी थी कि नींद नहीं आ रही थी और ध्यान की साधना इतनी कि पल भर में ही अचल हो, ध्यानमग्न हो गए। प्रातःकालीन भक्ति के पूर्व करीब ५.३० बजे तक वह ध्यानमग्न रहे। उस दिन का आचार्यश्रीजी का पड़गाहन एक ऐसे टीनशेड वाले चौके में हुआ जहाँ पर सूर्यदेवता अपनी तपन खलकर लटा रहे थे। वह तो अपनी साधना के अनकल आहार ग्रहण करके आए और आवश्यकों में तत्पर हो गए।जिन ब्रह्मचारी भाइयों ने उनकी रात्रिकालीन बेचैनी देखी थी, उन्होंने दोपहर की सामायिक के बाद आकर गुरुजी से कहा- 'आचार्यश्रीजी! हम लोग तो आज प्रार्थना कर रहे थे कि आपका पड़गाहन पास वाले पक्के बने कमरे में हो जाए, तो ठीक रहेगा। वहाँ आपको ठंडक मिलती, पर आपका पड़गाहन तो उस टीनशेड में हुआ जहाँ पर सूर्यदेवता उतरकर स्वयं आपकी प्रतीक्षा कर रहे थे। आचार्यश्रीजी बोले 'हाँ, कर्मों की निर्जरा कैसे होगी।' फिर थोड़े से मुस्कुराते हुए बोले- 'हाँ, मन ने तो पहले यही चाहा था। फिर वृत्तिपरिसंख्यान के समय मन में आया, वन में जाकर तप नहीं कर पा रहा हूँ, तो....।' इतना कहकर वह मौन हो गए।
धन्य हैं जिनशासन के ऐसे सपूतों को, जिन्होंने अपनी पाँचों इंद्रियों एवं मन को पूर्णतः अपने वश में कर रखा है।
धन्य-धन्य...! हो उठा श्रावक
ऐसे भी अनेकानेक प्रसंग हैं, जब आचार्यश्रीजी के वृत्तिपरिसंख्यान तप के परिपालन का लाभ चौका नहीं लगाने वाले उन श्रावकों को अनायास ही मिल गया, जो शुद्ध भोजन-पान करते थे। सन् १९८५, अहारजी, टीकमगढ़, मध्यप्रदेश में ऐसा ही हुआ था। गुरुवर की क्षेत्र की दो परिक्रमा लग गईं, पर विधि नहीं मिली। टीकमगढ़ की श्राविका श्रीमती तारा टडैया, श्रीमान् मोहनलाल जी जैन टडैया टीकमगढ़ वालों की धर्मपत्नी, जिन्होंने स्वभोजन हेतु मात्र दाल-रोटी और दलिया बनाया था, जल और दूध तो चौके में था ही। गुरुजी घूमते हुए जब उस ओर पहुँचे तब उन्होंने हाथ जोड़कर पड़गाहन कर लिया। बाहर से लोगों ने आने की कोशिश की पर आचार्यश्रीजी ने न तो कोई सामान आने दिया और न ही किसी व्यक्ति को आने दिया।
धन्य हैं वे श्रावक, जिन्हें अनायास ही उत्तम पात्र की प्राप्ति होने पर भले ही आज पंचाश्चर्य की वृष्टि न होती हो, पर उनके लिए यह क्षण हृदय में वैसा ही हर्षदायक होता है।
अहो!अलाभ में भी लाभानुभूति
आचार्यश्रीजी का वृत्तिपरिसंख्यान कभी प्रकट में दिखाई नहीं पड़ता। पर उनका अलाभ होता देखा जाता है और कभी-कभी तो ऐसे-ऐसे स्थानों पर पड़गाहन देखा जाता है जिनकी कल्पना प्रायः नहीं की गई हो। इसके बाद तत्संबंधी चर्चा भी नहीं करते कि कुछ प्रकट हो सके।विदिशा पंचकल्याणक के समय १९ अप्रैल, २००८, महावीर जयंती का दिवस, हरिपुरा स्थित शीतलधाम से विधि लेकर आचार्य भगवन् निकले और पूरे नगर की परिक्रमा जैसी हो गई। ढाई-तीन किलोमीटर तक जाना और उतना ही आना रहा, पर विधि नहीं मिली और अलाभ (उपवास) हो गया। लेकिन आचार्य भगवन् की मुखमुद्रा पूर्व से भी अधिक प्रसन्नता से भरी दिख रही थी, क्योंकि उन्हें आहार के अलाभ में निर्जरा का लाभ जो हो रहा था ।अहो! कैसे निःशब्द साधक हैं आप, निर्जरा का एक भी अवसर जाने नहीं देते।
धन्य है जिनशासन को, जहाँ स्वयं के द्वारा स्वयं की ही परीक्षा ली जाती है।आहार करने तो जा रहे हैं, उसमें भी स्वयं का स्वयं पर कितना नियंत्रण है यह परखने हेतु ऐसी विधि लेकर जाना जो मिले भी और नहीं भी। नहीं मिलने पर समता भाव से लौट आना। कितना अद्भुत है यह सब। स्वयं के द्वारा स्वयं को ही दर्पण दिखाया जा रहा है कि देखो, अगर पुण्य होता तो विधि मिल जाती।तप करो, कर्मों को खपाओ, तब जाकर शुद्ध आत्मतत्त्व की प्राप्ति हो सकेगी।
इंद्रिय दमनकारक : रसपरित्याग तप
अर्हत्वाणी
खीरदधिसप्पितेल्ल.............. पणकुसणलोणमादीण॥२१७॥
दूध, दही, घी, तेल, गुड़ का और घृत, पूर, पुवे, पत्रशाक, सूप और लवण आदि सबका अथवा एक-एक का त्याग रसपरित्याग हैं अर्थात् सल्लेखना काल में दूध आदि सबका या उनमें से यथायोग्य दो तीन-चार का त्याग रस परित्याग है।
विद्यावाणी
इससे भी (वृत्तिपरिसंख्यान से भी) ऊपर चौथे नंबर पर रसपरित्याग बताया। इसके द्वारा ही हम पुद्गल को पहचानते हैं । इस रसनेंद्रिय के द्वारा ही पाँचों इन्द्रियाँ और मन पुष्ट होता है। वह बहुत महान् इन्द्रिय है, जब यह कंट्रोल में आती है, तब पाँचों इन्द्रियाँ कंट्रोल में हो जाती हैं।
रस त्याग का फल ही ऋद्धियाँ प्राप्त होना हैं । नीरस भी सरस बनने लगता है, चाहो तो करो। पुण्य के फल को जितना आप त्यागोगे उतना अधिक पुण्य ही पुण्य प्राप्त होता है।
वस्तुतः संसारी प्राणी जिह्वा इंद्रिय का इतना लोलुपी रहता है कि इसको कुछ भी दे दो, पर तृप्ति नहीं समझता।थोड़ी कमी होती है तो गुर्राने लग जाता है।
त्याग में देखा-देखी नहीं- देखो! इंद्रियविजय करना और अपने शरीर का संचालन कराना, इसके लिए अन्न-पान इत्यादिक आवश्यक है।ये छोड़ दिया तो अब उसके माध्यम से मान लो गैस बनने लग जाए और पित्त भड़कने लग जाए, या वात का प्रकोप हो जाए, कफ का प्रकोप हो जाए। इसलिए शरीर को देख करके रस परित्याग किया जाता है। ऐसे देखा-देखी नहीं करना। जिस प्रकार विद्यार्थी अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार क्षमता के अनुसार सब्जेक्ट (विषय) का चुनाव करते हैं। उसी प्रकार रस परित्याग भी अपने ढंग से शरीर की प्रकृति देख करके करना चाहिए।
भूख लगी है
स्वाद लेना छोड़ दें
भर लें पेट।
विद्याप्रसंग
त्याग... ग्रहण कैसे
सन् १९८९, कुण्डलपुर वर्षायोग में आचार्यश्रीजी का स्वास्थ्य एकदम बिगड़ गया। उपचार हेतु वैद्यजी ने औषधि को चासनी के साथ देने की अनिवार्यता बताई। मीठा त्यागी गुरुवर को चासनी संग औषधि कैसे चलाई जाए? यह एक बड़ा संकट था। कैसे भी गुरुजी ठीक हो जाएँ यह चाह श्रावकों में बनी हुई थी।संयोग से आचार्यश्रीजी के पड़गाहन का सौभाग्य ब्रह्मचारिणी सविता दीदी, पिपरई आदि बहनों को प्राप्त हुआ। आचार्यश्रीजी का स्वास्थ्य ठीक न होने से कुछ ब्रह्मचारी भाई भी आहार देने हेतु चौके में आ गए।औषधि आरंभ में ही चलनी थी सो उपस्थित सभी दीदी एवं भैयाजी लोगों ने निर्णय किया कि औषधि में चासनी के साथ ज़्यादा-सा जल मिलाकर चलाने पर उन्हें मीठे का स्वाद नहीं आ पाएगा। इसी रूप में ब्रह्मचारिणी सविता दीदी ने वह औषधि गुरुजी को चला दी। उसे लेते ही वे अंतराय करके बैठ गए। सब घबरा गए। उपस्थित दीदी एवं भैयाजी न तो आहार के बाद और आगे भी दो-तीन दिन तक गुरुजी के पास जाने का साहस न कर सके, दूर से ही दर्शन करते रहे। दो-तीन दिन के पश्चात् ब्रह्मचारिणी सविता दीदी ने आचार्यश्रीजी से कहा- 'आचार्यश्रीजी! मुझे प्रायश्चित्त दे दीजिए, गलती हो गई। परंतु मेरा लक्ष्य तो मेरे गुरुजी को नीरोग करने का था।' तब आचार्यश्रीजी ने ऐसे आशीर्वाद दिया, मानो कह रहे हों कि कुछ नहीं, पर मैं भी त्यक्त वस्तु को ग्रहण कैसे करता?
धन्य है! त्याग के प्रति गुरुवर की दृढ़ता को।
आत्मसामाज्य विस्तारक : विविक्तशय्यासन तप
अर्हत्वाणी
नारीदेवीपशुक्लीव......तद्विविक्तशयनासनम् ॥१८१९-१८२०॥
मुनिराज अपने ध्यान और अध्ययन की सिद्धि के लिए स्त्री, देवी, पशु, नपुंसक आदि तथा गृहस्थ जहाँ निवास न करते हों, ऐसे सूने प्रदेशों में व श्मशान में व निर्जन वन में अथवा गुफा आदि में शयन करते हैं वा बैठते हैं उसको विविक्तशय्यासन नाम का तप कहते हैं।
विद्यावाणी
- धर्मध्यानी वही, जो एकान्त चाहता है। एकान्त में रहने सेसंतुष्ट होने की आदत जिसे आ गई उसकी चिंता नहीं, उसे हम सब कुछ दे सकते हैं। भीड़ नहीं है, कोई बोलने वाला नहीं है इसलिए मन नहीं लग रहा, जो ऐसा कहते हैं, उसे हम कभी सन्तुष्ट नहीं कर सकते। उसकी दिशा ही अलग है, वो पूर्व तो हम पश्चिम।वह कभी धर्मध्यान नहीं कर सकता।
- एकांत से जिसने विविक्तशय्यासन लगाया है, वह समाधि के समय निर्भीक होकर समाधि कर भी सकता है और करा सकता है। क्योंकि एकांत में बैठने से भय को जीता जा सकता है और निद्रा को भी।
- एकत्व/एकांत में अपना सारा आत्म साम्राज्य सामने आता है। जीवन आनंदमय तभी बनता है।
- ज्ञान-ध्यान व अध्ययन के विकास के लिए एकान्त शय्यासन होना चाहिए। बाधा का मूल तो लौकिक संपर्क व संबंध है।
- संपर्क से बचो, इसी में जिनलिंग का हित है। जनसंपर्क नहीं, जिन-संपर्क करो।
- संपर्क के द्वार बंद रखें-परिचित के माध्यम से ही माथा दर्द होता है, अपरिचित से नहीं।। इसलिए परिचित होने से बचो। किसी को भी अपना परिचय मत दो। केवल भगवान् आत्मा का ही लक्ष्य हो, बाकी में सब निःसार समझ में आए तो ध्यान हो सकता है। जैसे युद्ध में जीतने
- के लिए सारे रास्ते बंद कर देते हैं, क्योंकि शत्रु को मालूम ही ना चले। अपना पता संपर्क सब हटा लेते हैं। वैसे ही मोह के आक्रमण को जीतने के लिए पर-संपर्क हटाना होता है।
परिचित भी
अपरिचित लगे
स्वस्थ ज्ञान को।
विद्याप्रसंग
एकांत प्रिय बादशाह
ग्राम टाकरखेड़ा (मोरे) अमरावती, महाराष्ट्र में १ जुलाई, १९३२ को जन्में एक बहुत बड़े हिन्दू
संत ‘गुलाब बाबा' थे। उन्होंने सुन रखा था कि जैन समाज में श्रमण शिरोमणि जगत् पूज्य श्री विद्यासागरजी एक ऐसे संत हैं, जिन्हें बुंदेलखंड का बच्चा-बच्चा ‘आचार्यश्रीजी' के नाम से जानता है। वे आचार्यश्रीजी के - दर्शनार्थ डॉ. अमरनाथ जैन, सागर के साथ कुंडलपुर, दमोह, मध्यप्रदेश पहुँचे। पूछने पर उन्हें पता चला कि आचार्यश्रीजी बड़े | बाबा के पास मिलेंगे। बड़े बाबा के पास पता प्रकार करने पर वे वहाँ जा पहुंचे जहाँ गुरुवर आचार्य श्रीजी के दर्शन करते हुए हिंदू संत श्री गुलाब बाबा विराजमान थे। श्रमण शिरोमणि को देखकर वह आश्चर्यचकित हो उठे। उन्होंने देखा- आचार्यश्रीजी लाल रंग से पुती एक चौंड़ी-सी पट्टी पर अकेले बैठे हैं, और आँख बंद करके एक श्लोक को बार-बार धीरे-धीरे पढ़ रहे हैं, 'सर्वं निराकृत्य विकल्पजालं।' यह देखकर वह संत आचार्यश्रीजी के चरणों में नम्रीभूत हो गए और उनकी आँखों से आँसू बह निकले। उन्होंने आचार्यश्रीजी को साष्टांग नमस्कार किया और बोले- 'भगवान होते हैं, ऐसा मैंने सुन रखा था, पर यहाँ तो मुझे साक्षात् भगवान के दर्शन हो रहे हैं। मैं तो सोच रहा था इतने बड़े संत हैं,तो ठाठ बाट के साथ होंगे, सोने का सिंहासन, छत्र, चेले, भीड़-भाड़ आदि होगी! पर यहाँ तो कुछ नहीं है। (खुश होकर बोले) जैन जगत् में वीतरागता व निस्पृहता से सच्चा बादशाह होता है, चेले-चपाटे,वैभव से नहीं।
एकांत,सर्व कल्याणी
नवंबर १९७५, लश्कर, ग्वालियर, म.प्र. का प्रसंग है। कलकत्ता, पश्चिम बंगाल से प्रकाशित 'समाचारपत्रक' नामक पत्रिका में प्रकाशित ‘आत्मतत्त्व प्रदर्शक' लेख में मिश्रीलालजी पाटनी, ग्वालियर लिखते हैं- यहाँ लश्कर नगर में एक पहड़िया है, उस पर जैन मंदिर है। वह शहर से एक मील के फ़ासले पर है। (आचार्यश्रीजी) वहाँ से प्रातः ८ बजे प्रवचन के समय पहड़िया से उतरते थे। प्रवचन करके एवं आहार लेकर पुनः पहड़िया पर ही चले जाते थे। वहाँ पर दिन भर एवं रात्रि में एकांत में रहकर धर्मध्यान करते रहते थे। समाज के कुछ भाइयों ने निवेदन किया कि दोपहर में महिलाओं को उपदेश श्रवण हेतु यहाँ आने में कठिनाई होती है, शहर के मंदिर में ही प्रवचन हो तो जनता अधिक धर्म लाभ ले सकती है। तब महाराजश्री उत्तर देते हैं। मैंने अपने स्वयं का कल्याण करने को दीक्षा प्राप्त की है। आप यहाँ पर भी आकर मेरे अध्यात्म में बाधा डालते हैं। प्रत्येक व्यक्ति की स्वयं की आत्मा ही स्वयं का कल्याण कर सकती है। मैं पर हूँ, किसी का कल्याण नहीं कर सकता हूँ। मैं प्रातः उपदेश देता हूँ। उसको दिन में मनन करें, शास्त्र स्वाध्याय करें, उसी से आपका कल्याण हो सकता है। आप किसी भी व्यक्ति से पारिवारिक या विपदा विषयक वार्ताएँ नहीं करते हैं। यह गुण हमने आपमें देखा है, जो अन्य त्यागियों में इस कदर प्रवृत्ति कम देखने में आती है। इस तरह आचार्य भगवन् न केवल अभी, अपितु आरंभ से ही एकांतप्रेमी रहे हैं। यही कारण है कि उनका प्रवास प्रायः तीर्थ क्षेत्रों में रहा है। क्योंकि एकांत में अध्ययन-अध्यापन एवं धर्मध्यान में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती है।
आत्मानंददायक : कायक्लेश तप
अर्हत्वाणी
ठाणसयणासणेहि................. ..हवदि एसो ॥
खड़ा रहना, एक पार्श्व से मृत की तरह सोना, वीरासनादि से बैठना इत्यादि अनेक तरह के कारणों से शास्त्र के अनुसार आतापन आदि योगों को कर शरीर को क्लेश देना वह कायक्लेश तप है।
शरीर को जानबूझकर कठिन तपस्या की अग्नि में झोंकना कायक्लेश कहलाता है। यह सर्वथा निरर्थक नहीं है। सम्यग्दर्शन सहित किया गया यह तप अंतरंग बल की वृद्धि, कर्मों की अनंत निर्जरा व मोक्ष का साक्षात् कारण है।
विद्यावाणी
- काय के प्रति ममत्व के त्याग का नाम कायक्लेश है।"
- काय क्लेश के बिना अंतरंग तप वृद्धि को प्राप्त नहीं हो सकते।
- काय क्लेश कर्मक्षय व मुक्ति के लिए होना चाहिए।
- कायक्लेश तप ओवर ड्यूटी की तरह है। ओवर ड्यूटी करने में आनंद आता है, क्योंकि वहाँ अधिक लाभ की आशा है। इसी प्रकार समयसारी (आत्मा का स्वाद लेने वाले) को भी इस तप में आनंद का अनुभव होता है, क्योंकि समय से पूर्व ही अनेक कर्म आत्मा को छोड़कर भाग जाते है|
- कष्ट भी इष्टकारी- भाग्योदय, सागर, म.प्र., १९९८, कार्तिकेयानुप्रेक्षा' ग्रंथ के स्वाध्याय के दौरान आचार्यश्रीजी कायक्लेश तप की व्याख्या कर रहे थे। तभी किसी ने कहा- 'कायक्लेश तप में दुःख तो होता ही है।' आचार्य भगवन् ने कहा- 'दुःख नहीं है। दुःख कोभुलाकर और स्वयं चलाकर जो अच्छे ढंग से किया जाता है, उसी का नाम कायक्लेश तप है। हाँ, सुनो! घड़ा जो बनता है, वो बिना कायक्लेश के बन नहीं सकता। उस (माटी) को चोट देते हैं, (अग्नि में तपाते हैं), यह क्या है? कायक्लेश ही तो है। उसके बिना गोलाई आ ही नहीं सकती (घट बन ही नहीं सकता)।काय को, इंद्रियों को और मन को भी कष्ट देना ठीक है। इसके द्वारा क्रोध की, मान की उदीरणा हो जाती है। जिन उपसर्गों को सहन करना बहुत कठिन होता है, उन उपसर्गों को कायोत्सर्ग से जीतने वाले साधक के 'कायक्लेश तप' होते हैं।” इन्द्रियों में जाती हुई दृष्टि को रोकने का नाम तप है, जो भवों का अंत करने वाले हैं। हाथी को वश में करने हेतु उसे बेला, तेला, चौला व पाँच उपवास तक करा दिए जाते हैं।
विद्याप्रसंग
ललक आत्मरमण की
पहले जब संघ छोटा था, तब आचार्यश्रीजी अष्टमी, चतुर्दशी को उपवास करके वीरान जंगलों में जाकर २४ घंटे एक ही आसन से स्थिर रहा करते थे। राजस्थान के अजमेर जिले के केकड़ी गाँव की बात है। आचार्य महाराज के साथ एक क्षुल्लकजी भी थे। संध्या के समय मंदिरजी में श्रावक गुरुभक्ति करने आए, देखा- महाराजजी नहीं हैं। आचार्यश्रीजी कभी विहार बताकर नहीं करते, सो सब चिंतित हो गए। लोगों ने सोचा कहीं विहार तो नहीं कर गए, पूरे इलाके में खबर फैल गई। सब पूछ रहे थे-महाराज कठे (कहाँ) गया? इतने में दो ग्रामीण व्यक्ति वहाँ से आए, उन्होंने बताया- 'हमने नागा बाबा को श्मशान में देखा है।' लोग वहाँ गए तो देखा आचार्यश्रीजी प्रतिमायोग से स्थिर विराजमान हैं। ध्यान में लीन हैं।
इसी प्रकार मई माह के आसपास आचार्यश्रीजी का बघेरा (केकड़ी) अजमेर, राजस्थान में ७ दिन तक प्रवास रहा। उस दौरान शाम ६.३० बजे श्मशान में जाते थे और रात्रि में वहीं ठहरकर आत्म साधना करते थे। प्रातः जिन मंदिरजी में लौट आते थे।
धन्य है, आचार्यश्रीजी को! उनकी तप साधना अनूठी है। अंतरंग व बहिरंग दोनों प्रकार के तप उत्कृष्टता के साथ तपना उनकी साधना का अंग है।
उपसंहार
जो मोक्षमार्ग पर आरूढ़ होना चाहते हैं, उन्हें उत्साह के साथ और रुचि पूर्वक तप आदि को अपनाना चाहिए। तप के माध्यम से मात्र निर्जरा नहीं होती, संवर भी होता है। तप दोषों की निवृत्ति के लिए परम रसायन है। मिट्टी भी तप कर ही पूज्य बनती है। जब वह अग्नि की तपन को पार कर लेती है तब पक्के पात्र, घड़े आदि का रूप धारण कर लेती है और आदर प्राप्त करती है। कहा भी है, पहले कष्ट फिर मिष्ट। पदार्थ की महत्ता वेदना सहकर ही होती है। गृहस्थी में आतप है, कष्ट है, छटपटाहट है। जैसे पूड़ी कड़ाही में छटपटाती है, वही दशा गृहस्थ की होती है। तप द्वारा उस कष्ट का निवारण संभव है। गृहस्थ (घर) में मेरी बाँह मोच गई थी, मैंने 'स्लोंस बाम' लगाई, (बाम आदि लगाने से आरंभ में तेज झनझनाहट होती है फिर) उससे सारा दर्द धीरे-धीरे जाता रहा। इसी तरह संसार की वेदना को मिटाने के लिए तप रूपी बाम का उपयोग करना
होगा। कार्य सिद्धि के लिए तप अपनाना ही होगा।' लोहे की छड़ आदि जब टेढ़ी हो जाए तो केवल तपा कर ही उसे सीधा बनाया जा सकता है, अन्यथा सभी साधन व्यर्थ हो जाते हैं। उसी प्रकार विषय और कषाय के टेढ़ेपन की निवृत्ति के लिए आत्मा को तपाना ही एक मात्र अव्यर्थ (सार्थक) साधन है। बाह्य तप, अंतरंग तप में वृद्धि करते हैं। तपस्या एवं ज्ञान का फल मोक्ष प्राप्त होना चाहिए। जैसे कोई व्यक्ति वृक्ष लगाता है तो उसमें पहले फूल लगते हैं और फिर बाद में फल लगते हैं। यदि वह व्यक्ति फूल को तोड़कर नष्ट कर दे तो उसे मीठे फलों से वंचित रहना पड़ेगा। उसी प्रकार जो व्यक्ति तप तथा शास्त्राभ्यास का फल ऋद्धि, बड़प्पन एवं मान-सम्मान चाहता है, वह फूलों को नष्ट करके स्वर्ग और मोक्ष के सरस फलों से वंचित रह जाता है। डा.पृ.१२ हमें तप की सुरक्षा बीज की तरह करनी चाहिए। अगर आप लोग तप तपते समय मद के द्वारा उसका बीजत्व समाप्त कर दोगे तो अगले जीवन में कुछ नहीं मिलेगा। आगे नहीं बढ़ पा रहे हो तो कोई बात नहीं, पर मद न करें। अगला जीवन इसी पर डिपेण्ड(आश्रित) है।
तपस्या से आत्मा को तपाना होता है,
शरीर को तपाना नहीं। हाँ, शरीर को तपाने
से अंदर वैराग्य है या नहीं, यह ज्ञात हो जाता है।
Edited by Vidyasagar.Guru