भारत वर्ष की संस्कृति त्याग, तप, साधना एवं चारित्र प्रधान संस्कृति मानी जाती है। इस आधार पर दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति को भारतीय संस्कृति का प्राण कहा जा सकता है। दिगंबर जैन श्रमण बिना बोले,आचरण मात्र से ही धर्म का उपदेश देते हैं एवं श्रमण परंपरा के पावन प्रेरक होते हैं। उनका जीवन एक जीवंत शास्त्र है।एक ऐसा शास्त्र, जिसमें चारित्र लिपि का उपयोग हुआ है।ऐसे चारित्र के धनी श्रमण परंपरा कहाँ से, कब से प्रारंभ हुई...इससे संबंधित कुछ आगमिक एवं आचार्यश्रीजी की वाणी से निःसृत विषय को इस पाठ में प्रस्तुत किया जा रहा है।
दिगम्बर जैन श्रमण की सनातनता
जैन आगमिक साक्ष्य
- जैन धर्म अनादिनिधन धर्म है, अर्थात् इसका न कभी आरंभ हुआ है और न कभी अंत होगा। जब से । सृष्टि है तब से यह धर्म है और जब तक सृष्टि रहेगी तब तक धर्म बना रहेगा। बीच में धर्मतीर्थ के अभाव रूप विरहकाल अवश्य पड़ा।
- जैनों के आराध्य तीर्थंकर' इस धर्म के प्रवर्तक हैं संस्थापक नहीं।
पढमराया पढमजिणे पढमकेवली।
पढम तित्थयरे पढम धम्मवर चक्कवट्ठी ॥
भारतभूमि पर वर्तमान अवसर्पिणी में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव अंतिम कुलकर नाभिराय के पुत्र थे। वे मानवीय संस्कृति के आद्य सूत्रधार,
प्रथम समाज व्यवस्थापक, प्रथम राजा,प्रथम मुनि,प्रथम भिक्षाचर, प्रथम जिन,प्रथम केवली,प्रथम धर्म प्रवर्तक एवं प्रथम धर्म चक्रवर्ती हुए।
- श्रमण (दिगम्बर) हुए बिना मोक्ष संभव नहीं।
- श्रमण धर्म को अपनाकर अनादिकाल से अब तक अनंत जीवों ने मोक्ष प्राप्त किया है और आगे भी अनंत जीव मोक्ष प्राप्त करेंगे।
- तीर्थंकर ऋषभदेव को आदि लेकर अंतिम तीर्थंकर महावीरस्वामीजी पर्यंत जिन चौबीस तीर्थंकरों का उल्लेख जैन अथवा इतर साहित्य में भी मिलता है, वह वर्तमानकालिक चौबीस तीर्थंकर हैं। ऐसे चौबीस-चौबीस तीर्थंकर भूतकाल में कई हो चुके हैं और भविष्य में भी होते रहेंगे। जैनागम के अनुसार जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड तथा अर्ध पुष्कर द्वीप विषयक अढाई द्वीप तथा लवण समुद्र एवं कालोदधि रूप दो समुद्र संबंधी १६० विदेह क्षेत्रों को छोड़कर ५-५ भरत एवं ऐरावत क्षेत्रों में सामान्यतया तीर्थंकरों का प्रादुर्भाव कालचक्र के अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के चतुर्थ काल में होता है। प्रत्येक चतुर्थ काल में चौबीस-चौबीस तीर्थंकर जन्म लेकर जिन शासन का संचालन एवं संवर्धन करते रहेंगे। विदेह क्षेत्रों में चतुर्थ काल सदैव बने रहने से तीर्थंकरों का सदा हीनाधिक रूप में सद्भाव रहता है।
- इस तरह इन जैन आगमिक साक्ष्यों से स्पष्ट है कि श्रमण धर्म को अपनाकर जबअनादिकाल से जीव मोक्ष जा रहे हैं एवं आगे भी जाते रहेंगे।और श्रमण बने बिना मुक्ति संभव नहीं है, तो सिद्ध ही हुआ कि 'श्रमण धर्म' अपरनाम जैनधर्म' अनादि निधन है। इस प्रकार जैन धर्म की अनादिनिधनता जैन आगम के अनुसार तो सिद्ध हुई। पर अपनी सिद्धि में अपने ही साक्ष्य ज़्यादा प्रभावकारी नहीं माने जाते, प्रभाव तो तब माना जाता है, जब अपने विषय में कोई अन्य कहे। जैन धर्म की सनातनता को कहने वाले पुरातात्त्विक,वैदिक,अवैदिक आदि अनेक साक्ष्य उपलब्ध हैं, जिन्हें नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है।
पुरातात्त्विक साक्ष्य
जैन धर्म की सनातनता को सिद्ध करने वाले, अब तक के सबसे प्राचीन माने जाने वाले पुरातात्त्विक साक्ष्य सिंधु घाटी के हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के खनन से प्राप्त हुए हैं। विद्वानों के अनुसार यह संस्कृति लगभग पाँच हजार वर्ष पुरानी है, जिसका संबंध जैन संस्कृति से है। इसे प्रामाणित करते हुए विद्वान् कहते हैं :-
- प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. एम. एल. शर्मा, 'भारत में संस्कृति और धर्म', पृष्ठ ६२ पर लिखते हैं 'मोहनजोदड़ो से प्राप्त मुहर पर जो चिह्न अंकित है वह भगवान ऋषभदेव का है। यह चिह्न इस बात का द्योतक है कि आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व योग साधना भारत में प्रचलित थी और उसके प्रवर्तक जैन धर्म के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव थे। सिंधु निवासी अन्य देवताओं के साथ ऋषभदेव की पूजा करते थे।'
- प्रसिद्ध विद्वान् वाचस्पति गोरैला, भारतीय दर्शन', पृष्ठ ९३ पर लिखते हैं-'श्रमण संस्कृति का प्रवर्तक जैन धर्म प्रागैतिहासिक धर्म है । मोहनजोदड़ो से उपलब्ध ध्यानस्थ योगियों की मूर्तियों की प्राप्ति से जैन धर्म की प्राचीनता निर्विवाद सिद्ध होती है। वैदिक युग में व्रात्यों और श्रमण ज्ञानियों की परंपरा का प्रतिनिधित्व भी जैन धर्म ने ही किया है। धर्म, दर्शन, संस्कृति और कला की दृष्टि से भारतीय इतिहास में जैनों का विशेष योग रहा है।'
- प्रसिद्ध विद्वान् श्री पी. आर. देशमुख, ‘इंडस सिविलाइजेशन ऋग्वेद एण्ड हिंदू कल्चर', पृष्ठ ३४४ में लिखते हैं- 'जैनों के पहले तीर्थंकर सिंधु सभ्यता से ही थे। सिंधु जनों के देव नग्न होते थे। जैन लोगों ने उस सभ्यता/संस्कृति को बनाए रखा और नग्न तीर्थंकरों की पूजा की। सिंधुजनों की भाषा प्राकृत थी। प्राकृत जन सामान्य की भाषा है। जैनों और हिंदुओं में भारी भाषिक भेद है। जैनों के समस्त प्राचीन धार्मिक ग्रंथ प्राकृत में हैं। विशेषतया अर्धमागधी में, जबकि हिंदुओं के समस्त ग्रंथ संस्कृत में हैं। प्राकृत भाषा के प्रयोग से भी यह सिद्ध होता है कि जैन प्राग्वैदिक हैं और सिंधु घाटी से उनका संबंध था।'
- इतिहासकारों के अनुसार वैदिक आर्यों के भारत आगमन अथवा सप्त सिंधु से आगे बढ़ने से पूर्व भारत में द्रविड़, नाग आदि मानव जातियाँ थीं। उस काल की संस्कृति को द्रविड़ संस्कृति कहा गया है। डॉ. हेरास, प्रो. एस. श्रीकंठ शास्त्री जैसे अनेक शीर्षस्थ विद्वानों और पुरातत्त्ववेत्ताओं ने उस संस्कृति को द्रविड़ तथा अनार्य संस्कृति का अभिन्न अंग माना है। प्रो. एस. श्रीकंठ शास्त्री ने सिंधु सभ्यता का जैन धर्म के साथ सादृश्य बताते हुए लिखा है- 'अपने दिगम्बर धर्म, योग मार्ग, वृषभ आदि विभिन्न लांछनों की पूजा आदि बातों के कारण प्राचीन सिंधु सभ्यता जैन धर्म के साथ अद्भुत सादृश्य रखती है, अतः वह मूलतः अनार्य अथवा कम से कम अवैदिक तो है ही।' > इस तरह पुरातात्त्विक साक्ष्यों से जैन धर्म प्राग्वैदिक एवं प्रागैतिहासिक प्रमाणित होता है।
वैदिक व अवैदिक साक्ष्य
साहित्यिक साक्ष्यों में वेद सर्वाधिक प्राचीन माने जाते हैं। विद्वानों ने इन्हें लगभग १५०० वर्ष प्राचीन माना है। ऋग्वेद, अथर्ववेद, यजुर्वेद आदि में श्रमणों का उल्लेख दिग्वासा, वातरसना, निग्रंथ, निरंबर आदि-आदि नामों से उल्लेख किया गया है। 'निघण्टु' की भूषण टीका' में श्रमण शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है-'श्रमणा दिगम्बराः श्रमणाः वातरसनाः।''ऋग्वेद' में प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभनाथजी का उल्लेख तो सौ-डेढ़ सौ बार किया गया है। 'ऋग्वेद' में गवेषणात्मक अध्ययन के आधार पर डॉ. सागरमल जैन ने 'ऋग्वेद में अर्हत और ऋषभवाची ऋचाएँ' नामक लेख' श्रमण' (अप्रैल-जून,१९९४) में लिखा है 'ऋग्वेद में न केवल सामान्य रूप से श्रमण परंपरा और विशेष रूप से जैन परंपरा से संबंधित अर्हत, अहँत, व्रात्य, वातरसना मुनि, श्रमण आदि शब्दों का उल्लेख मिलता है, अपितु उसमें अहँत् परंपरा के उपास्य वृषभ का भी उल्लेख शताधिक बार मिलता है। मुझे ऋग्वेद में वृषभवाची ११२ ऋचाएँ प्राप्त हुई हैं। संभवतः कुछ और ऋचाएँ भी मिल सकती हैं। यद्यपि यह कहना कठिन है कि इन समस्त ऋचाओं में प्रयुक्त वृषभ शब्द ऋषभदेव का ही वाची है, फिर भी कुछ ऋचाएँ तो अवश्य ऋषभदेव से संबंधित ही मानी जा सकती हैं। डॉ. राधाकृष्णन, प्रो. जिम्मर, प्रो. विरूपाक्ष, वॉडियर आदि कुछ जैनेतर विद्वान् भी इस मत के प्रतिपादक हैं कि ऋग्वेद में जैनों के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव से संबंधित निर्देश उपलब्ध होते हैं। उदाहरण स्वरूप
- ऋग्वेद ३९/१७– 'तनमर्त्यस्य देवत्व मजानमग्रे' अर्थात् ऋषभ स्वयं आदिपुरुष थे। जिन्होंने सबसे पहले मर्त्य दशा में देवत्व प्राप्त की थी।
- यजुर्वेद २५/१९- सूर्य,इंद्र, वृहस्पति की तरह से भगवान अरिष्टनेमि भी हम लोगों का कल्याण करें।
- अथर्ववेद १९/४२/४
अहो मुचं वृषभं यज्ञियानां विराजतं प्रक्षयमध्वराणाम्।
अपांन पातमश्चितं हवेधिय इंद्रियेण तमिन्द्रियं दत्भोजः॥
संपूर्ण पापों से मुक्त तथा अहिंसकव्रतियों में प्रथम राजा आदित्य स्वरूप श्री वृषभ या ऋषभ हैं।
जिस प्रकार वेदों में ऋषभदेव का उल्लेख मिलता है, उसी प्रकार श्रीमद्भागवत्, मार्कण्डेयपुराण, शिवपुराण, कूर्मपुराण, वायुपुराण, अग्निपुराण, ब्रह्माण्डपुराण, प्रभासपुराण, नारदपुराण, वाराहपुराण, विष्णुपुराण एवं स्कंदपुराण आदि में ऋषभदेव की स्तुति के साथ ही साथ उनके माता-पिता, पुत्र आदि के नाम तथा जीवन की घटनाओं का भी सविस्तार वर्णन है।
इन सभी साक्ष्यों की दृष्टि से दिगम्बर जैन श्रमण परंपरा की सनातनता स्वतः सिद्ध हो जाती है। 'हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या' वाली कहावत यहाँ चरितार्थ होती है।
भरत चक्रवर्ती और भारत
अंतिम कुलकर (मनु) नाभिराय के पुत्र तीर्थंकर ऋषभदेव हुए उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। इस संबंध में भागवत् पुराण ५/४/९ पर लिखा हुआ है कि महायोगी भरत ऋषभदेवके शत पुत्रों में ज्येष्ठ थे और उन्हीं से ये देश भारतवर्ष कहलाया। इस बात का समर्थन करते हुए अन्य शास्त्रों में भी भरत के नाम से भारतवर्ष नामकरण का उल्लेख शारदीयाख्य नाममाला १४७, वायुपुराण १०४/१६ १७, शिवपुराण ३७/५७, लिंगपुराण ४७/१९-२३, स्कन्दपुराण कौमार्यखण्ड ३७/५७, ब्रह्माण्डपुराण २/१४ , मार्कण्डेयपुराण ५०/३९-४२, नारदपुराण ४८/५-६, अग्निपुराण १०/१०-११ एवं मत्स्यपुराण ११४/५-६ आदि में मिलता है।
इस प्रकार उपर्युक्त उल्लेखों से जहाँ भरत के नाम से इस क्षेत्र का नाम भारतवर्ष सिद्ध होता है, वहाँ भरत के पिता होने के कारण सनातनीय श्रमण परंपरा के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की ऐतिहासिकता और प्राचीनता भी सिद्ध हो जाती है।
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जैन धर्म और विदेशी विद्वान्
- 'वॉइस ऑफ अहिंसा', वॉल्यूम १, भाग द्वितीय, पृष्ठ २० पर डॉ. प्रो. आर्किक, जे. बाह्म यूनिवर्सिटी ऑफ न्यू मेक्सिको लिखते हैं- 'मैं जैनमत को अत्यंत प्रशंसा के भाव से देखता हूँ जिसके कि विशिष्ट सिद्धांतों को आज पश्चिम में पुनः खोजा जा रहा है।'
- वॉइस ऑफ अहिंसा', वॉल्यूम ३, पृष्ठ ८१ पर प्रो. डॉ. हेरर लोथार, वेन्डल, जर्मनी लिखते हैं- 'वह दिन शीर्घ ही आएगा जब सभी जैन तीर्थंकर मानवता के मशालवाहक के रूप में पहचाने जाएंगे।'
- 'जैनधर्म पर लोकमान्य तिलक और प्रसिद्ध विद्वानों का अभिमत', पृष्ठ २७ पर रेवरेंज जे. टीवेंसन महोदय कहते हैं- 'भारतवर्ष का अधःपतन जैन धर्म के अहिंसा सिद्धांत के कारण ही नहीं हुआ था, बल्कि जब तक भारतवर्ष में जैनधर्म की प्रधानता रही थी, तब तक का उसका इतिहास स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है।'
तीर्थंकर महावीर की शिष्य परंपरा
दिगम्बर जैन श्रमण परम्परा के उज्ज्वलरत्न
जैन सिद्धांत भास्कर, भाग १, किरण ४, सन् १९१३, षट्खण्डागम, पुस्तक १, प्रस्तावना, पृष्ठ १८-२५ पर नंदिसंघ की प्राकृत पट्टावली' के अनुसार वीर निर्वाण के पश्चात् तीर्थकर महावीर के शिष्यों की कालगणना इस प्रकार आती है :-
इनके बाद-आचार्य गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबलि, नागहस्ति, यतिवृषभ, जिनचंद्र, कुन्दकुन्द, वट्टकेर, उमास्वामी, समंतभद्र, कुमारस्वामी, पूज्यपाद, योगेन्दु, पात्रकेसरी, रविषेण, वीरसेन, माणिक्यनंदी, जटासिंहनंदी, गुणभद्र, विद्यानन्दि, मानतुंग, अकलंक, जिनसेन, अमृतचंद्र, जयसेन आदि अनेक ज्ञानी-ध्यानी व तपस्वी संत हुए। इन्हीं की परंपरा में २०वीं सदी में दक्षिण भारत के दिवंगत आचार्य १०८ श्री शान्तिसागरजी उसी कड़ी में एक विख्यात, अनुपम तपस्वी, आत्मज्ञानी, पवित्राचारी, परम साहसी, वीतरागी, दिगम्बर जैन साधु हुए। यह इस युग की जैन जनता का सौभाग्य था। आचार्यश्री ने मुंबई के प्रख्यात सेठ पूनमचंद घासीलाल जौहरी की प्रार्थना पर पैदल तीर्थयात्रा संघ के साथ ससंघ श्री गिरिराज सम्मेदशिखर की यात्रा हेतु मार्गशीर्ष वदि प्रतिपदा, सन् १९२७ से प्रारंभ की। तत्पश्चात् सारे भारत का पैदल भ्रमणकर श्रावकों का तो परोपकार किया ही, साथ ही दिगम्बर जैन मुनियों के सार्वत्रिक विहार का मार्ग अपनी इस परम साहसिक धर्म यात्रा से प्रशस्त किया। अब कोई भी दिगम्बर जैन साधु भारत के किसी भी प्रदेश में राजकीय तथा लौकिक जनों की बाधा से रहित परिभ्रमण कर सकता है। १000 वर्ष से लगे हुए दिगम्बर मुनि के विहार के राजकीय प्रतिबंध को केवल अपनी आत्मशक्ति के सहारे तोड़ देने का बहुत बड़ा साहसिक कदम उन्होंने उठाया था। यह कार्य सरल न था।अनेक घोरोपसर्ग उन्हें सहन करने पड़े थे।
इस तरह चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज भगवान महावीर की परंपरा के उन श्रेष्ठ संतों में थे, जिनको पाकर दिगम्बर परंपरा जीवंत रही है। वे स्वयं व्यक्ति ही नहीं, अपितु जीवंत संस्था के रूप में थे। उन्होंने अविरुद्ध मुनिमार्ग को सुदृढ़ ही नहीं बनाया, अपितु अदम्य उत्साह एवं पुरुषार्थ द्वारा
भगवान महावीर की उसी दिगम्बर परंपरा के आदर्श को स्थापित किया, जो भगवान कुंदकुंद एवं तार्किक आचार्य समंतभद्र स्वामी जैसे आचार्यों द्वारा अनुगामित थी। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज के बाद आचार्य श्री वीरसागरजी, आचार्य श्री शिवसागरजी एवं आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज के अद्वितीय सुयोग्य शिष्य वर्तमान में आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज उसी आदर्श आचार्य परंपरा के सर्वोच्च संप्रवाहक हैं।
श्रमणधर्म औरआगम की पर्याय आचार्यश्रीजी
कौन होता है श्रमण
आचार्य श्री कुंदकुंद स्वामीजी प्रवचनसार' में कौन होता है श्रमण, इसको बताते हुए कहते हैं
समसत्तुबंधुवग्गो............................समो समणो ॥ २४१॥
जिसे शत्रु और बंधु वर्ग समान है, सुख व दुःख समान है, प्रशंसा और निंदा के प्रति जिसको समता है, जिसे लोष्ठ (ढला) और स्वर्ण समान है तथा जीवन एवं मरण के प्रति जिसको समता है, वह श्रमण है।
आचार्यश्रीजी श्रमण शब्द को परिभाषित करते हुए कहते हैं- 'केवलज्ञानप्राप्त्यर्थं यः श्रमं करोति सः श्रमणः।' जो केवलज्ञान प्राप्ति के लिए श्रम करे, वह श्रमण है। राग-द्वेष नहीं करना, अभिलाषा नहीं करना, शांति से किसी भी आसन से बैठ जाना, यह ध्यान है। इसकी कोई लंबी-चौड़ी परिभाषा नहीं है। और उसी को प्राप्त करने के लिए श्रमण श्रम करते हैं। योगी (श्रमण) जो होते हैं वह रत्नत्रय एवं पंचाचार पालन, ध्यान, तत्त्व चिंतन आदि में लीन रहते हैं। यह शरीर, जो साथ में लगा हुआ है, उसके लिए भी बहुत कम बिना रुचि के समय देते हैं। जैसे आपके यहाँ कोई मेहमान आ जाते हैं तो आप स्वयं अच्छे से परोसते हैं, क्योंकि वह बहुत दिन बाद आया है और हम जब उनके यहाँ जाएँगे तो वह भी अच्छे से देखभाल करेगा आदि-आदि भाव रहते हैं। पर घर में जो कर्मचारी होते हैं, उनको स्वयं नहीं परोसते और उनके लिए सामान्य भोजन बनवाते हैं। उसे सोने या चाँदी की थाली में भी नहीं परोसते,ये सब क्या है? इसी प्रकार योगी (श्रमण) आत्मा को अच्छी तरह से परोसते हैं और शरीर के लिए नौकर की तरह देना पड़ता है, इस भाव से देते हैं।"
क्या होती है श्रमणता
आचार्यश्रीजी कहते हैं- 'श्रमणता कोई विशेष बात नहीं है, केवल यथाजात कर देना। बाहर से यथाजात हम हो जाते हैं, लेकिन भीतर से ? आचार्य श्री कुंदकुंद स्वामीजी का कहना है कि जो बाहरी और भीतरी दोनों ओर से यथाजात होता है उसका नाम है यथाजात होना। जैसा बाहर है, वैसा ही भीतर हो। बाहर तो यथाजात यानी बालक का रूप हो, और भीतर पालक का रूप हो, ये साम्य कहाँ बैठता है? तन को नग्न बनाया, मन को अभी तक नहीं बनाया तो काम नहीं चलेगा। मन में यदि वह नग्नता आ गई तो तन की नग्नता सार्थक हो जाती है और वह पूज्य हो जाती है, स्व-पर कल्याणकारी हो जाती है।
कैसा होता है श्रामण्य
आचार्यश्रीजी कहते हैं- ‘कैसा भी कर्म का उदय आ जाए, अब
अनुकूलता हो या प्रतिकूलता, विश्वास तो यही रहता है कि अब नियम से कूल-किनारा मिलेगा ही। इसी को कहते हैं श्रामण्य। श्रमणता पाने के उपरांत किसी भी प्रकार की कमी की अनुभूति नहीं होना चाहिए। नवंबर, २००९ में आचार्यश्रीजी का ससंघ विहार चल रहा था। मौसम रात्रि में ठंडा एवं दिन में गर्म रहता।०४ नवंबर के दिन जब आचार्यश्रीजी ने राजेन्द्रग्राम, जिला अनूपपुर, मध्यप्रदेश से विहार किया, तब धूप इतनी तेज थी कि ऐसा लग रहा था मानो ग्रीष्मकाल का विहार हो रहा हो। सड़क तेज गर्म थी। एक श्रावक ने आचार्य भगवन् से निवेदन किया- 'आचार्यश्रीजी! सड़क गर्म है, सड़क पर बनी हुई सफेद पट्टी गर्म नहीं होती, इसलिए इस पट्टी के ऊपर चलना ठीक रहेगा।' आचार्यश्रीजी ने कहा- 'सफेद रंग शुक्ल लेश्या का प्रतीक है और गर्मी प्रतिकूलता का प्रतीक है। शुक्ल लेश्यावाला प्रतिकूलताओं में भी ठण्डा (शांत) रहता है। और काले रंग वाली सड़क कृष्ण लेश्या का प्रतीक है। कृष्ण लेश्यावाला थोड़ी-सी प्रतिकूलता में उबलने लगता है। और मुनि महाराज समता के प्रतीक हैं, अतः उन्हें क्या ठण्डा और क्या गर्म।' इस तरह समता में जीनेवाले श्रमणश्रेष्ठ आचार्य भगवन् ने यथार्थ रूप में श्रामण्य को अंगीकार किया है। एवं उन्होंने एक पल में समझा दिया कि कैसा होता है श्रामण्य।
श्रमण की शोभा ध्यान
आचार्यश्रीजी कहते हैं- 'श्रमण व्यवहार में भी व्यवहार से रहते हैं, ऐसा कहा जाता है। जो भीतर डुबकी लगा लेता है वह सब कुछ पा जाता है। ऐसे आत्मानुष्ठान करने वाले विरले ही होते हैं। जैसे प्लेन (हवाई जहाज) जब जमीन पर चलता है तो अपने तीनों पहियों को बाहर निकाल लेता है। जब उड़ता है तो उन्हें समेट लेता है। ऐसे ही श्रमण जब भी व्यवहार (प्रवृत्ति) रूप में आते हैं तो षट्कारक (आवश्यक) अपनाते हैं। जब ध्यान (निवृत्ति) में आते हैं तो षट्कारकों को अपने भीतर समेट लेते हैं। एक का विधान होता है तो दूसरे का निषेध हो जाता है। विमान जब जमीन पर भागता है तो गति कम होती है तथा उड़ता है तो गति अधिक होती है। इसी तरह प्रवृत्ति में कम कर्म निर्जरा होती है। निवृत्ति के समय ज़्यादा निर्जरा होती है। प्रवृत्ति में षट्कारक भेद रूप और निवृत्ति में अभेद रूप हैं। जैसे उड़ने में ही विमान की शोभा है वैसे ध्यान में ही, निवृत्ति में ही श्रमण की शोभा है।
श्रमण का आधार दिगम्बरत्व
एक बार संघस्थ कुछ साधुओं का दीक्षा दिवस था। सभी महाराजजी आचार्य भगवन् के पास आशीर्वाद लेने गए। आचार्य भगवन् ने कहा- 'बताओ पंगत में सबसे पहले क्या परोसा जाता है?' सभी साधुओं ने अपने-अपने विचार गुरुदेव के समक्ष रखे। आचार्य महाराज मुस्कुराते हुए सब सुनते रहे। अंत में बोले- 'पंगत में सबसे पहले पत्तल परोसते हैं, जिसमें भोजन सुरक्षित रहता है। उसी प्रकार श्रमण को पहले दिगम्बरत्व दिया जाता है, जिसमें सभी व्रत सुरक्षित रहते हैं। भोजन रखने के लिए पत्तल आधार है, तो दिगम्बरत्व श्रमण का आधार है। इस प्रकार आचार्य भगवन् ने शिष्यों को दिगम्बरत्व का महत्त्व बताया। क्योंकि अकेले दिगम्बरत्व और पिच्छिका-कमण्डलु लेने मात्र से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। जितना यह सत्य है उससे भी बड़ा सत्य यह है कि कभी इसके बिना भी मुक्ति नहीं हो सकती।
दिगम्बर का आधार मानव शरीर
सन् १९९३, रामटेक, नागपुर, महाराष्ट्र में इष्टोपदेश ग्रंथ के स्वाध्याय के दौरान १९वीं कारिका की व्याख्या करते हुए आचार्यश्रीजी ने कहा- 'मनुष्यों के शरीर एवं देवादि अन्य गतियों के शरीर में क्या अंतर है? काँच और हीरे के समान अंतर है। अन्य गतियों का शरीर काँच के समान और मनुष्यों का शरीर हीरे के समान है। देवों से भी बढ़कर मानव शरीर महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि दिगम्बर रूप मानव शरीर में ही धारण किया जाता है।
और रत्नत्रय का आधार दिगंबरत्व है। दिगम्बरत्व की धूल अनुपम है। यह स्वर्ग में नहीं मिलती। मानव शरीर से ही जीव को मोक्ष होना संभव है। रत्नत्रय धारण कर कर्मों की निर्जरा करने में अपने आपको व्यस्त कर देना चाहिए। यही एक मात्र बुद्धिमत्ता है, जीव का उपकार है। संसारी प्राणी अनंत हैं, लेकिन संयमी बहुत कम हैं।
रत्नत्रय निधि दुर्लभतम
एक बार एक आर्यिकाश्री ने आचार्यश्रीजी से निवेदन किया- 'आचार्य भगवन्! आपके कर कमलों से मुझे एक शास्त्र मिला था। मेरी भूल से वह कहीं छूट गया। फिर एक माला मिली थी, वह भी खो गई। आपने जो मुझे दिया, वह खो गया। इसका मुझे बहुत दुःख होता है। गुरु के द्वारा दी गई चीज़ को मैं सुरक्षित नहीं रख पाई।' तब आचार्यश्रीजी ने वात्सल्य भरे शब्दों में कहा- 'देखो! मैंने तुमको एक चीज़
और दी है, जो बहुत ही दुर्लभ है। उसको सँभाल कर रखना, वह है 'रत्नत्रय' । रत्नत्रय निधि है, इसकी सुरक्षा करो।'दुर्लभ रत्नत्रय आराधन दीक्षा का धरना।
श्रमण का कर्तव्य
आचार्यश्रीजी कहते हैं- 'जिस श्रमण को शुद्धोपयोग नहीं है, उन्हें कहा है कि शुद्धोपयोगी श्रमण के पास जाकर बैठ जाओ। अपने आप ज्ञात हो
जाएगा कि शुद्धोपयोग क्या है? श्रमण का कर्त्तव्य क्या है, यह भी ज्ञात हो जाएगा।शुद्धोपयोग की गवेषणा करना श्रमण का कर्त्तव्य है।शुभोपयोगी श्रमण को शुद्धोपयोग की प्राप्ति का ध्येय होना चाहिए। उन्हें उसी की ओर जाना है बाकी सब काम तो होते रहते हैं।
सन् १९९९, स्थान गोम्मटगिरि, इंदौर, म.प्र. में वर्षायोग। 'समयसार' ग्रंथ का स्वाध्याय कराते हुए आचार्यश्रीजी श्रमणों को अपने कर्त्तव्य का बोध कराते हुए कहते हैं- 'आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव ने दो प्रकार के श्रमण स्वीकार किए हैं- शुद्धोपयोगी श्रमण और शुभोपयोगी श्रमण। दोनों प्रकार के श्रमण संसार के तारक हैं। दोनों श्रमण हैं । चैत्य संज्ञा को प्राप्त हैं। हाँ, इतना अवश्य है कि पापों से मुक्त होकर एक ने अपने आपको ध्यान में उतार लिया है और दूसरे वे हैं जो ध्यान की भूमिका में हैं । फल-फूल सहित नारंगी के पेड़ के सदृश शुद्धोपयोगी हैं और फल-फूल रहित नारंगी के पेड़ के समान शुभोपयोगी श्रमण हैं । आज भले ही उसमें फल-फूल नहीं लगे हैं, परन्तु शुद्धोपयोग रूपी फल जब भी लगेगा तो शुभोपयोगी रूपी पेड़ पर ही लगेगा।वह यदि अभिमान कर लेगा कि मैं नारंगी का पेड़ हूँ तो ध्यान रखना, शुद्धोपयोग रूपी फल प्राप्त हो ही, यह निश्चित नहीं है।
श्रमण हेतु अपेक्षित ज्ञान
किसी ने जिज्ञासा व्यक्त करते हुए एक बार आचार्यश्रीजी से कहा-'आचार्यश्रीजी! क्या संयम लेने के लिए पूर्ण ज्ञान आवश्यक है?' आचार्यश्रीजी ने उनका समाधान करते हुए कहा- 'पूर्ण ज्ञान के बाद संयम धारण करूँगा, ऐसा सोचनेवालो! पूर्ण ज्ञान तो केवलज्ञान होता है। मोक्षमार्ग में पूर्ण ज्ञान की नहीं, बल्कि पर्याप्त ज्ञान की आवश्यकता है। संयम लेने के बाद पूर्ण ज्ञान अपने आप प्राप्त हो जाएगा। यहाँ पर्याप्त ज्ञान से तात्पर्य है- आचारवस्तु, अष्टप्रवचनमातृका (तीन गुप्ति, पाँच समिति) का ज्ञान होना ।मति व श्रुतज्ञान ही मोक्षमार्ग में पर्याप्त है। इसलिए श्रद्धान मजबूत रखो, निर्दोष चारित्र पालो। अक्षर ज्ञान कम भी हो तो भी कल्याण हो जाएगा। जिस प्रकार मृग (हरिण), सर्प आदि बिना सीखे संगीत का आनंद लेते हैं, लेकिन किसी को व्यक्त नहीं कर सकते हैं। उसी प्रकार ऐसे भी साधु हैं, जिन्हें अक्षर ज्ञान न होने पर बोलना (प्रवचन, उपदेश देना) भी नहीं आता, फिर भी रत्नत्रय का लाभ लेते रहते हैं।
श्रमण के उपकरण
जो साधन धर्म साधना में सहायक होते हैं, वे उपकरण कहलाते हैं। पिच्छिका, कमण्डलु और शास्त्र दिगम्बर जैन मुनि के उपकरण हैं।
पिच्छिका-
पिच्छिका जीव दया का उपकरण है। दिगम्बर जैन मुनि मयूर पंखों की ही पिच्छिका रखते हैं, क्योंकि मयूर पंखों की प्राप्ति के लिए किसी तरह की हिंसा नहीं करनी पड़ती। मयूर पक्षी अपने शरीर में आए हुए अतिरिक्त पंखों को दीपावली के आस-पास स्वतः छोड़ देता है। साथ ही अन्य पक्षियों के पंखों में अथवा सूत के धागे आदि में वे विशेषताएँ नहीं होतीं, जो मयूर पंख में होती हैं। जैसे- मृदुता मयूर पंख इतने मृदु होते हैं कि यदि आँखों में भी चला जाए तो भी चुभन का एहसास नहीं होता। लघुता- इतने लघु अर्थात् हल्के होते हैं कि सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों को उनसे भार तथा बाधा प्रतीत नहीं होती। सुकुमारता- इतने सुकुमार होते हैं कि उनके अग्र भाग को कैसा भी मोड़ दिया जाए पर वह चटकता या टूटता नहीं है। इनकी सुकुमारता लगभग एक वर्ष तक रहती है। यही कारण है कि साधु प्रतिवर्ष वर्षायोग के बाद पिच्छी परिवर्तन करते हैं। अग्राह्यता- ये पंख धूल एवं पसीना, पानी आदि ग्रहण नहीं करते हैं।
कमण्डलु-
बाह्य शुद्धि के लिए कमण्डलु एक आवश्यक उपकरण है। इस उपकरण में शुद्ध, प्रासुक (उबला हुआ) जल रखते हैं। दिगम्बर जैन मुनि मात्र नारियल या लकड़ी का कमण्डलु रखते हैं, अन्य धातु आदि का नहीं।
शास्त्र-
ज्ञान का उपकरण शास्त्र है। अरहंत देव की वाणी इसमें निबद्ध होती है। संयम के प्रति जागरूक बने रहने हेतु साधु धर्म ग्रंथों का स्वाध्याय करते हैं।
क्या है मुक्ति सिद्धांतिदेव
आचार्य श्री नेमिचंद्रजी 'वृहद्रव्यसंग्रह' ग्रंथ में लिखते हैं
सव्वस्स कम्मणो जो खयहेदू अप्पणो हु परिणामो।
णेयो स भावमुक्खो दव्वविमुक्खो य कम्मपुहभावा ॥ ३७॥
.सब कर्मों के नाश का कारण जो आत्मा का परिणाम है, उसको भाव मोक्ष जानना चाहिए। कर्मों का आत्मा से सर्वथा पृथक् होना द्रव्य मोक्ष है।
__ आचार्यश्रीजी मुक्ति का अर्थ बताते हुए कहते हैं- मुक्ति का अर्थ तो यह ही है कि दोषों से अपनी आत्मा को मुक्त बनाना। 'मुञ्च्' धातु से इस मुक्ति शब्द अथवा मोक्ष शब्द का निर्माण हुआ है। ‘मुञ्च् विमोचने त्यागे वा।' मुञ्च् धातु विमोचन अर्थात् छोड़ने के अर्थ में आया है, छूटने के अर्थ में नहीं। इसमें कोई संदेह नहीं कि मुक्ति का मार्ग छोड़ने के भाव में है। और जो छोड़ देगा, उससे प्राप्त होगी निराकुल दशा। उसको कहते हैं वास्तविक मोक्ष।वास्तविक मोक्ष अर्थात् निराकुलता।आकुलता को छोड़ने का नाम है मुक्ति।
भावलिंग बिना मुक्ति नहीं
आचार्य भगवन् श्री कुंदकुंद स्वामीजी भाव पाहुड' में कहते हैं जाणहि भावं.......... ....... जिणउवइ8 पयत्तेण ॥६॥
हे मुने! मोक्ष का मार्ग भाव ही से है इसलिए तू भाव ही का परमार्थभूत जान अंगीकार करना, केवल द्रव्य मात्र से क्या साध्य है।कुछ भी नहीं।
द्रव्यलिंग बिना भावलिंग नहीं
इन्द्रनंदि भट्टारक ने समय भूषण प्रवचन' में कहा है
उक्तं चेन्द्रनन्दिना.................नेत्रविषयं यतः ॥२॥
"द्रव्यलिंग (दिगम्बर अवस्था) को भले प्रकार प्राप्त करके यति भावलिंगी होता है। उस द्रव्यलिंग के बिना वह वंद्य नहीं है, भले ही | नाना व्रतों को धारण क्यों न करता हो। द्रव्यलिंग को भावलिंग का कारण जानो। भावलिंग तो केवल अध्यात्म द्वारा ही देखा जा सकता | है, क्योंकि वह नेत्र का विषय नहीं है।
'समयसार' ग्रंथ की वाचना के समय आचार्यश्रीजी ने कहा- 'बाहर से नग्न हुए बिना अंदर वीतराग परिणाम नहीं आ सकता। दिगम्बरत्व धारण किए बिना निश्चय रत्नत्रय, निर्विकल्प समाधि की भावना नहीं हो सकती। द्रव्यलिंग निगेटिव कॉपी है एवं भावलिंग पॉजिटिव कॉपी है। जिस प्रकार निगेटिव के बिना पॉजिटिव कॉपी नहीं बन सकती, उसी प्रकार द्रव्यलिंगी हुए बिना भावलिंगी नहीं बना जा सकता। हाँ, इतनी बात अवश्य याद रखें कि दुनिया आपको मुनि माने और प्रशंसा करे लेकिन आप अपने आपको बड़ा न मानें एवं अपनी प्रशंसा स्वयं न करें, यही मुनित्व है। द्रव्यलिंग को हमेशा ही उपेक्षित करना बुद्धिमत्ता नहीं कहलाती। यदि ऐसा करोगे तो ‘समयसार' का महत्त्व समझ में नहीं आ सकता है। जैसे दीपक के बिना ज्योति नहीं जलती, उसी प्रकार बिना द्रव्यलिंग के भावलिंग नहीं होता। अगर बाहरी लिंग का महत्त्व नहीं, तो महावीर भगवान ने उसका उपदेश क्यों दिया? पहले बाहरी लिंग एवं भीतरी लिंग की भेद रेखा खींच लो, तो फिर अंतर समझ में अवश्य आ जाएगा।
वस्त्रधारी को मोक्ष नहीं
आचार्य भगवन् श्री कुंदकुंद स्वामी जी सूत्र ‘पाहुड' में कहते हैं
ण वि सिज्झइ.. ...........उम्मग्गया सव्वे ॥२३॥
जिन शासन में तीर्थंकर भी जब तक वस्त्र धारण करते हैं तब तक मोक्ष नहीं पाते। इसलिए एक निग्रंथ ही मोक्षमार्ग है, शेष सर्व मार्ग उन्मार्ग हैं,मिथ्या मार्ग हैं।
१४ अक्टूबर, २००९, अमरकंटक वर्षायोग में आचार्यश्रीजी इस विषय से संबंधित एक संस्मरण सुनाते हुए बोले- 'आचार्य महाराज (आचार्य श्री ज्ञानसागरजी) एक संस्मरण सुनाया करते थे कि एक व्यक्ति उनका गृहस्थ अवस्था का मित्र था। एक बार उसने आचार्य महाराज से कहा, 'हमारे तो भाव शुद्ध हैं। उनमें विकार नहीं है।' तब आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने कहा, 'जब आपके भाव शुद्ध हैं, तो इन कपड़ों से राग क्यों है?' वह बोले, 'हमें इन कपड़ों से राग नहीं है।' तब आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने किसी श्रावक से धीरे से इशारा करते हुए कहा, 'जब ये उठे तो धोती की काँच खोल देना। राग के बिना धोती की काँच लग ही नहीं सकती। जो कपड़े पहने हुए हैं और कहते हैं कि हमें राग नहीं है। वे स्वयं को धोखा देते हैं और जनता को भी धोखा दे रहे हैं।' संस्मरण सुनाने के बाद आचार्यश्रीजी ने कहा कि कपड़े पहने हुए जो व्यक्ति ध्यान कर रहे हैं, और कह रहे हैं कि मैं निर्विकल्प समाधि में लीन हूँ, वे व्यक्ति अभी निर्विकल्पता से भी निर्विकल्प हैं । जब आचार्यश्रीजी यह बात कह रहे थे, तब उनके अन्दर की वेदना साफ़ झलक रही थी। उनका कहना है कि आगम में जैसा कहा है, वैसा ही कहना आगम की उपासना है। अन्यथा आज तो अवर्णवाद ही हो रहा है।
दिगम्बर रूप प्रकृति है, यही सत्य है
२८ नवंबर, २००६, दयोदय, तिलवाराघाट, जबलपुर, म.प्र. में प्रसिद्ध योगगुरु बाबा रामदेवजी आचार्यश्रीजी के दर्शनार्थ आए। तब उन्होंने आचार्यश्रीजी से अनेक गूढ़ विषयों पर चर्चा की। चर्चा के दौरान बाबा रामदेवजी ने पूछा- 'आप लोग दिगम्बर रहते हैं। यह मनुष्य के लिए बड़े साहस की बात है।' आचार्यश्रीजी ने कहा- 'साहस नहीं, किंतु प्रकृति है, यही सत्य है। सच को स्वीकार करना बहुत कठिन है आवरण करने वालों को। उपनिषदों में एक 'अवधूत' शब्द आता है, जो बालयोगी के लिए आता है। बालक के समान सहज होते हैं मुनिराज।' यह सुनकर बाबाजी बोले- 'घर छोड़ते समय तो कठिन होता है। जिस समय विरक्ति आती है, उस समय तो साहस करना पड़ता है?' आचार्यश्रीजी ने कहा- 'हाँ, प्रारंभ में अंतर्जगत् में जाने के लिए तो साहस करना पड़ता है। नदी के किनारे कब तक खड़े रहोगे? डुबकी लगाने का साहस करना ही पड़ता है, बाद में तैरता है।' आगे वेद की चर्चा करते हुए आचार्यश्रीजी ने बताया 'अवधूत,'' श्रमण', 'व्रात्य' ये शब्द वेदों में भी मिलते हैं। अथर्ववेद' में व्रात्य खण्ड है, उसकी टीका नहीं लिखी गई। धीरे-धीरे वह वृत्ति जो श्रमण परंपरा से संबंध रखती थी, वह वेद परंपरा से हट गई।
जिनमुद्रा, मुक्ति सुख ही है
सन् १९९३, रामटेक, नागपुर, महाराष्ट्र में मोक्षपाहुड, गाथा-४७ की व्याख्या करते हुए आचार्यश्रीजी ने कहा- 'जिन भगवान के द्वारा कही गई जिनमुद्रा है, वही सिद्धि सुख है, मुक्ति सुख है। यह कारण में कार्य का उपचार जानना। जिनमुद्रा मोक्ष का कारण है, मोक्षसुख उसका कार्य है। ऐसी जिनमुद्रा जिन भगवान ने जैसी कही है, यदि वैसी ही है तो ऐसी जिनमुद्रा जिस जीव को साक्षात् तो दूर ही रहो, स्वप्न में भी कदाचित् भी नहीं रुचती। उसका स्वप्न आता है तब भी उसके अवज्ञा के भाव होते हैं, तो वह जीव संसाररूप गहन वन में ही भ्रमण करता रहता है। वह मोक्ष के सुख को प्राप्त नहीं कर सकता।अर्थात् जिनमुद्रा की अवज्ञा स्वप्न में भी नहीं होने पावे।'
पंचम काल में मोक्ष नहीं तो दीक्षा क्यों?
सन् १९९३, रामटेक, नागपुर, महाराष्ट्र में मोक्षपाहुड, गाथा-७७ की व्याख्या के दौरान आचार्यश्रीजी ने कहा- 'पंचम काल में भरत और ऐरावत क्षेत्र से मोक्ष नहीं होता है तो दीक्षा क्यों लेना- कुछ लोग ऐसा कहते हैं। ऐसा कहनेवालो! सुनो, आगम क्या कह रहा है- 'व्रत और तप के द्वारा स्वर्ग का प्राप्त होना अच्छा है, परन्तु अव्रत और अतप के द्वारा नरक के दुःख प्राप्त होना, अच्छा नहीं है। छाया और घाम (धूप) में बैठकर इष्ट स्थान की प्रतीक्षा करनेवालों में बड़ा भेद है।' आज भी रत्नत्रय के आराधक, जिन्होंने रत्नत्रय से शुद्ध अपनी आत्मा को बनाया है, ऐसे मुनि महाराज हैं। वह आत्मा के ध्यान के बल पर आज स्वर्ग चले जाते हैं। स्वर्ग में वे इन्द्र होते हैं, लौकांतिक होते हैं। और वहाँ से सीधा मोक्षमार्ग मिल जाता है। लौटकर आ जाते हैं और मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं।
जैसे- कोई यहाँ से दिल्ली जा रहा है एकदम एक्सप्रेस से, लेकिन वह एक्सप्रेस गाड़ी बीच में रुक करके जाती है। वह पटरी नहीं बदलती, उसी पटरी पर चलती है, लेकिन कुछ विश्राम लेती है डायरेक्ट नहीं जाती।आज डायरेक्ट मुक्ति तो नहीं है, बीच में इंद्र रूप या लौकान्तिक रूप स्टेशन पर रुकना पड़ता है। यह रुकना, रुकना नहीं कहलाता, क्योंकि वह उस मोक्ष पथ से च्युत नहीं हुआ। अर्थात् सम्यग्दर्शन छूटता नहीं है, इसलिए रत्नत्रय की जो भावना यहाँ भायी है वह रुकने के उपरांत भी बनी रहती है। भावना रहती है कि कब रत्नत्रय मिले। इस प्रकार इन्द्र या लौकान्तिक आदि देव श्रुत की आराधना करते हुए अपना एक एक समय व्यतीत करते हैं । इस प्रकार, इस अपेक्षा से सोचा जाए, तो आज मुक्ति नहीं है ऐसा कहना, बड़ी
भूल है।
भाव मुक्ति आज भी संभव
४ सितंबर, १९७५, फिरोजाबाद (उ.प्र.) के वर्षायोग में आचार्य भगवन् ने अपने एक प्रवचन में कहा- 'एक सज्जन ने मुझसे प्रश्न किया कि महाराज! इस पंचमकाल में तो मुक्ति होती नहीं, आपकी क्या राय है?' मैंने कहा- 'कथंचित् सही है यह बात।' वे सजन बोले- 'महाराज! जो बात सही है, उसमें भी आप कथंचित् लगा रहे हैं।' मैंने कहा- 'हाँ भाई! कथंचित् लगा रहे हैं, इसलिए कि आज द्रव्य मुक्ति भले न हो, पर भाव मुक्ति तो तुरंत हो सकती है।आहार, निद्रा, भय, मैथुन, धन आदि पदार्थों को आप पकड़े बैठे हैं अपने परिणामों में, भावों में । बस! उसे छोड़ दो तो तुरंत कल्याण है, यही तो है भाव मुक्ति।'
मुक्ति का मार्ग है तो मुक्ति है, और मुक्ति है तो आज भी राग-द्वेष का अभाव है। वह किस अपेक्षा से है, उसे आपको समझना चाहिए।सांसारिक पदार्थों की अपेक्षा किसी से जो राग नहीं है, द्वेष नहीं है, वह मुक्ति है। निराकुलता जितनी-जितनी जीवन में आए, आकुलता जितनी-जितनी घटती जाए, उतना-उतना मोक्ष आज भी है। इसको आचार्यों ने बार-बार नमस्कार किया है। निर्जरा के माध्यम से भी एकदेश मुक्ति मिलती है, पूर्ण भले ही न मिले। एकदेश आकुलता का अभाव होना यह उसी का प्रतीक है कि सर्वदेश का भी अभाव हो सकता है। जितने-जितने भाग में हम राग-द्वेष आदि आकुलता के परिणामों को समाप्त करेंगे, उतने-उतने भाग में निर्जरा बढ़ेगी, उतनी निराकुल दशा का लाभ होगा। इसीलिए बार-बार, एक एक समय में भी आप निर्जरा को बढ़ा सकते हैं, निर्जरा के बढ़ने से मुक्ति भी अपने पास आएगी। ऐसा जीवन आज बन जाए तो कम नहीं है। ये भी सिद्ध परमेष्ठी के समान बन सकते हैं। वे उम्मीदवार अवश्य हैं पर कुछ समय में उनका नंबर आने वाला है। यह सौभाग्य आपको भी प्राप्त हो सकता है। क्योंकि आगम में बताया है कि 'शुद्ध रत्नत्रय की साधना से अष्ट कर्मों की आत्यंतिकी निवृत्ति द्रव्य मोक्ष है और रागादि भावों की निवृत्ति भाव मोक्ष है।
पंचम काल के अंत तक रहेगा चतुर्विध संघ
'रयणसार' ग्रंथ में कहा है
सम्मविसोही.....मणुयाणं
जायदे णियदं ॥३८॥
इस दुःसह दुःखम (पंचम) काल में मनुष्यों के सम्यग्दर्शन सहित तप, व्रत, २८ मूलगुण, चारित्र, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दान आदि सब होते हैं।
काले कलौ.......प्रति समंता:॥३३९-३४०॥
आचार्यश्रीजी यशस्तिलक चंपू महाकाव्य, आश्वास-८, कारिका-३३९-३४० की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि इस दुःषमा नामक पंचम काल में जब मानवों का मन चंचल रहता है और शरीर अन्न का भक्षक कीड़ा बना रहता है, यह आश्चर्य है कि आज भी जिनेन्द्र की मुद्रा के धारक साधु महापुरुष पाए जाते हैं। जैसे पाषाण वगैरह से निर्मित जिनबिम्ब पूज्य हैं वैसे ही वर्तमान के मुनि भी, जिनमें पूर्व मुनियों की सदृशता पाई जाती है, पूज्य हैं।
आचार्यश्रीजी ने एक बार प्रवचन के दौरान कहा- एक विशेष बात और कहता हूँ-'आज के जो कोई भी त्यागी है, तपस्वी हैं, मोक्षमार्गी हैं और सम्यग्दृष्टि हैं उन्हें कर्मों के अलावा लड़ना पड़ता है वर्तमान पंचम काल से। इसे कलिकाल भी कहा जाता है। कलि का अर्थ संस्कृत में झगड़ा है। काल के साथ भी जूझना पड़ता है। ध्यान रखना जिस प्रकार दीपक रात भर अंधकार से जूझता रहता है, इसी प्रकार पंचम काल के अंतिम समय तक सम्यग्दृष्टि से लेकर भावलिंगी सप्तम गुणस्थानवर्ती मुनि महाराज भी संवर तत्त्व के माध्यम से लड़ते रहेंगे। मुनि श्री वीरागंजजी एवं आर्यिका सर्वश्री, अग्निदत्त व पंगुश्री नामक श्रावक-श्राविका ऐसा यह चतुर्विध संघ पंचम काल के अंत तक रहेगा।
पंचम काल में निर्जरा चतुर्थ काल से अधिक
धर्म के सागार (गृहस्थ) एवं अनगार (मुनि) दो पहिए हैं। पंचम काल में हीन संहनन के साथ, प्रतिकूलताओं के साथ जो मुनि चर्या का पालन करते हैं उनकी निर्जरा चतुर्थ काल की अनुकूलता में मुनिचर्या का पालन करने वाले मुनिराजों की अपेक्षा कई गुणी अधिक होती है। चौथे काल में तो साक्षात् समवसरण आदि रहता था तो बैटरी चार्जिंग हो जाती थी, आज तो ये हैं नहीं। लेकिन आज तो केवल नाम स्मरण है। जब तक शाम नहीं हुई तब तक चलते चलो और निर्जरा करते चलो।
दोषी कौन-काल या भाव?
दोषी कौन - काल या भाव या आप स्वयं? इस प्रसंग पर आचार्यश्रीजी ने गुरुणांगुरु कैन्द्रीयजेलसागर रानिर्मित। से जुड़ा हुआ एक संस्मरण को सुनाते हुए कहा- “एक बार एक सज्जन आचार्य महाराज के पास आए और बोले, आज काल के प्रभाव से धर्म नहीं पलता। तब आचार्य महाराज ने उनसे प्रश्न किया- बताओ चतुर्थ काल में और पंचम काल में हलवा बनाने की पद्धति में क्या अंतर है? तब उन्होंने कहा, जैसे उस काल में बनता था वैसे ही इस काल में बनता है। तब
आचार्य महाराज बोले, उस पर काल का प्रभाव नहीं पड़ा? अरे! यह सब काल के कारण नहीं है, बल्कि आप लोगों का पुण्य घटने से है, भावों का प्रभाव है।' आचार्यश्रीजी ने आगे कहा-“विदेह क्षेत्र के जीव यहाँ से मुक्त हो जाते हैं। विदेहक्षेत्रादि से अपहरण कर मुनिराजों को भरत क्षेत्र में रख दिया जाए, तो उन्हें यहाँ से मुक्ति मिल जावेगी, ऐसा आगम का कथन है। ‘काल का प्रभाव है' ऐसा कहना औपचारिक है। काल तो वही है, कालाणु तो असंख्यात थे, हैं, रहेंगे। आचार्यश्रीजी ने हँसते हुए कहा- फिर भी समझ में नहीं आ रहा है तो कहना ही पड़ेगा कि पंचम काल का प्रभाव है। एक बात हमेशा ध्यान रखो यह काल का नहीं, घटिया भावों का प्रभाव है कि आप लोगों के मुनिधर्म पालन करने के भाव नहीं बन रहे।आप स्वयं निर्णय कर लो कि काल दोषी है कि आप या आपके भाव?"
श्रमण बनो
मानव को इस संसार में अपने जीवन संचालन हेतु नाना प्रकार के कार्य-कलापों में उलझे रहना पड़ता है। इससे तंग आकर मानव कभी-कभी अपने जीवन के प्रति उदासीन हो जाते हैं । इस उदासीनता में वे अपघातादि जैसे कार्यों में प्रवृत्त हो जाते हैं, जिससे संसार अनंत हो जाता है। संसारी प्राणियों के कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो, इसके लिए आचार्यश्रीजी उन्हें मुनि धर्म हेतु प्रेरित करने के लिए ‘प्रवचनसार' का उद्धरण देते हुए कहते हैं- 'पडिवजदु सामण्णं जदि इच्छदिदुक्खपरिमोक्खं' -श्रामण्य को अंगीकार करो, दुःख से मुक्ति यदि इष्ट है तो। यदि आप कार्यों से बचना चाहते हैं तो श्रमण बनना एक मात्र श्रेयस्कर मार्ग है। इस मार्ग में कुछ श्रम हो भी जाए तो वह कम होता चला जाता है। रयण मंजूषा, मंगल कामना में एक दोहा लिखा था बहुत पहले
यम, दम, शम, सम तुम धरो, क्रमशः कम श्रम होय।
नर से नारायण बनो, अनुपम अधिगम होय ॥६॥
यम अर्थात् महाव्रत जिसने लिया है, वही मन और इन्द्रियों का दम अर्थात् दमन कर सकता है। यदि वह इन्द्रिय दमन नहीं करता, तो यम (महाव्रत) कार्यकारी नहीं होता। यम के उपरांत श्रम कम हो जाता है, दम के लिए। दम के उपरांत फिर दम घुटने लग जाता है कषायों का। क्योंकि अब कषायें अपने आप ही कृश होने लग जाती हैं, जिसे शम कहते हैं। शम होते ही समता को धारण करने में कोई परिश्रम नहीं होता। इसे एक उदाहरण से समझें। जैसे जब आप गाड़ी को गैरिज से बाहर निकालते हैं तो अधिक श्रम होने के
कारण पसीना-पसीना होना पड़ता है, तकलीफ़ भी अधिक होती है। इसके उपरांत गाड़ी को स्टार्ट करने के लिए किक मारने में अपेक्षाकृत कम श्रम होता है। फिर गाड़ी को गियर में डालने में श्रम और कम हो जाता है। गियर में आते ही गाड़ी जब टॉप में आती है, तब कोई श्रम नहीं होता। समता के फलस्वरूप तीन लोक की संपदा मिल जाती है। आप लोग क्या करना चाहते हो? यदि तीन लोक की संपदा पाना चाहते हो, तो एक बार यम को ग्रहण करो, इन्द्रियों का दमन करो, कषायों का शमन करो और फिर समता में डूब जाओ।
गुरुओं के उपकारयादरखो
सन् १९७९ में जयपुर, राजस्थान में प्रवास के दौरान आचार्य भगवंतों की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए आचार्यश्रीजी ने प्रवचन करते हुए कहा- 'भगवान महावीर के निर्वाण के उपरांत तीर्थंकरों का जो अभाव हुआ है, उसे इस भरत क्षेत्रगत प्राणियों का अभाग्य ही कहना होगा। भगवान के साक्षात् दर्शन व उनकी दिव्यवाणी के पान करने का जब सौभाग्य प्राप्त होता है तो संसार की असारता के बारे में स्वयं ही ज्ञान एवं विश्वास हो जाता है। भगवान के माध्यम से जो कार्य हो सकता था, वह कार्य उनके उपरांत भी कर सकते हैं। भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् अंतिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु स्वामी हुए हैं, तत्पश्चात् भगवान कुंदकुंद एवं तार्किक आचार्य श्री समंतभद्र स्वामी आदि जैसे आचार्यों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। फिर समय का अंतराल होने के बाद बीसवीं शताब्दी में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज हुए। आचार्य परंपरा अक्षुण्ण बनी रही और उनमें भी अनेक प्रौढ़ आचार्य, जिनका जीवन हमारे लिए प्रेरणादायक है, वे बने रहे। उन्होंने (गुरुओं ने) जिस ओर भगवान जा चुके हैं, पहुँच चुके हैं उस ओर जाने का मार्ग प्रशस्त किया। जो संसार से ऊपर उठने की इच्छा रखते हैं, उन्हें दिग्दर्शन दिया, दिशाबोध दिया है। आज जो जैन दर्शन जीवंत है वह गुरुओं की देन हैं, क्योंकि साक्षात् भगवान का दर्शन आज प्राप्त नहीं है, किंतु उनके मुख से निःसृत जनकल्याणी वाणी आज भी अक्षुण्ण है। वह सब गुरु की देन है। जैन धर्म की धारा को यहाँ तक बहाकर लाने में आचार्य (गुरु) स्वयं उस धारा का तट बन गए थे, जब कहीं जाकर यहाँ तक वह धारा निर्मल रूप से बनी हुई है, इसलिए उन गुरुओं के उपकार को याद रखना
उपसंहार
वीतरागमय जिन शासन श्रमण संस्कृति प्रधान शासन रहा है। श्रमण संस्कृति सारे भारत की संस्कृतियों में एक आदर्श संस्कृति मानी जाती है। यह संस्कृति अपनी साधना के बल पर, तपस्या के बल पर, अपने शुद्ध परिणामों के बल पर, इस देश की भूमि को पवित्र करने की चेष्टा करती है। अनादि-अनंत काल से प्रवाहमान जैन दर्शन की ये श्रमण संस्कृति आज भी जीवित है और अभी हजारों वर्ष तक इस युग की अपेक्षा से जीवित रहेगी।
श्रमण संस्कृति के मूल आधार आचार्य श्री कुंदकुंद स्वामी ने इसकी महिमा गाते हुए कहा कि श्रमणता संसार को क्रीड़ा स्थल बनाकर एक बालक के समान खेलता है। जिस समाज में श्रमणता के संस्कार रहते हैं वह संस्कार अपने आप में गृहस्थों के लिए एक बहुत बड़ा वरदान सिद्ध होता है। साधु संत जहाँ अपनी साधना करते हैं, अपना कल्याण करते हैं वहीं उनके पास आने वाले जो भव्य जीव हैं, उनका भी वह मार्ग प्रशस्त करते हैं।
चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी (दक्षिण) की परंपरा में संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज वर्तमान में एक ऐसे ही जिनशासन प्रभावक आचार्य हैं। उनके द्वारा स्वकल्याण में रत रहते-रहते अनेक भव्य जीव मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हो रहे हैं। श्रमण वही है, जो समता के द्वारा अपना शृंगार करता है। आगे के पाठों में दिगंबरत्व रूपीआकाश में दैदीप्यमान सूर्य के स्व-पर कल्याणक प्रसंगों से पाठकों को परिचय कराया जा रहा है।
'जैन धर्म के सिद्धांतों पर मुझे दृढ़ विश्वास है कि यदि सब जगह उनका पालन किया जाए तो वह इस पृथ्वी को स्वर्ग बना देंगे।जहाँ-तहाँ शांति और आनंद-ही-आनंद होगा।"
Edited by Vidyasagar.Guru