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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 15 - जैन भूगोल

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    यह लोक किसी इंजीनियर के द्वारा बनाया हुआ नहीं है। यह तो अनादिनिधन है। इसका चिन्तन करना संस्थान विचय धर्मध्यान है। इसका आकार कैसा है कौन से जीव कहाँ रहते हैं, इसका वर्णन इस अध्याय में है।


    1. लोक किसे कहते हैं ?
    अनन्त आकाश के मध्य का वह अनादि व अकृत्रिम भाग जिसमें जीव आदि षट् द्रव्य रहते हैं, वह लोक कहलाता है। 


    2. लोक का आकार कैसा है ?
    1. तीन गिलास लीजिए एक को उल्टा रखें, उसके ऊपर दूसरे गिलास को सीधा रखें एवं दूसरी गिलास के ऊपर तीसरे गिलास को उल्टा रखें यह जो आकार बनता है, वह लोक का आकार है।

    2. यह लोक पुरुषाकार है, जैसे-एक पुरुष जो दोनों पैर फैलाकर कटि पर दोनों तरफ एक-एक हाथ रखकर खड़ा है, यह जो आकार बनता है, वह लोक का आकार है।

    3. मिस्र देश के गिरजे में बने हुए महास्तूप से यह लोक का आकार किंचित् समानता रखता हुआ प्रतीत होता है। (जै. सि. को. 3/438) 


    3. लोक का विस्तार कितना है ?
    लोक का विस्तार दक्षिणोत्तर दिशा में सर्वत्र 7 राजू मोटा (लम्बा) है। पूर्व-पश्चिम दिशाओं का विस्तार (चौड़ा) नीचे 7 राजू, ऊपर क्रम से घटता हुआ मध्य लोक में 1 राजू, पश्चात् क्रमश: बढ़ता-बढ़ता ब्रह्म स्वर्ग में 5 राजू, फिर क्रमश: घटता हुआ लोक के अंत में 1 राजू चौड़ा है। लोक की ऊँचाई कुल 14 राजू है। सम्पूर्ण लोक का घनफल 7 राजू का घन अर्थात् 7 × 7× 7= 343 घन राजू है।


    4. राजू किसे कहते हैं ?
    जगत् श्रेणी के सातवें भाग को राजू कहते हैं। (सि.सा.दी.4/2-3) यह आगम की परिभाषा है। सामान्य परिभाषा में असंख्यात योजन का एक राजू होता है। रिसर्च स्कालर पंडित माधवाचार्य ने कहा है - 1 हजार भार का 1 गोला इन्द्र लोक से नीचे गिरकर 6 माह में जितनी दूरी तय करता है, वह 1 राजू है। (जम्बूदीप पण्णति में उद्धृत पृष्ठ 23) 


    5. अधोलोक कितने राजू में है एवं वहाँ कौन-कौन रहते हैं ?
    अधोलोक 7 राजू में है। 6 राजू में सात पृथ्वी (नरक) हैं एक पृथ्वी से दूसरी पृथ्वी के बीच 1 राजू में कुछ कम अर्थात् असंख्यात योजन प्रमाण खाली आकाश है। इनमें सबसे ऊपर मेरु पर्वत की आधारभूत रत्नप्रभा नाम की पृथ्वी है जिसके तीन भाग हैं-खरभाग, पङ्कभाग और अब्बहुलभाग। खरभाग 16,000 योजन मोटा है, इसमें भवनवासी और व्यन्तरों के आवास हैं। जिनमें असुरकुमार के अलावा 9 प्रकार के भवनवासी एवं राक्षस देवों के अलावा शेष 7 प्रकार के व्यंतर देव निवास करते हैं। पङ्क भाग 84,000 योजन मोटा है, इसमें भवनवासी देवों के असुरकुमार देव तथा व्यन्तरों के राक्षस नामक देव निवास करते हैं। अब्बहुल भाग 80,000 योजन मोटा है, इसमें नारकी रहते हैं। इस प्रकार प्रथम पृथ्वी की मोटाई 180,000 योजन है, दूसरी शर्कराप्रभा पृथ्वी की मोटाई 32,000 योजन, तीसरी बालुकाप्रभा पृथ्वी की मोटाई 28,000 योजन, चौथी पंकप्रभा पृथ्वी की मोटाई 24,000 योजन, पाँचवीं धूमप्रभा पृथ्वी की मोटाई 20,000 योजन, छठवीं तमःप्रभा पृथ्वी की मोटाई 16,000 योजन एवं सातवीं महातमः प्रभा पृथ्वी की मोटाई 8,000 योजन है एवं अन्तिम एक राजू में निगोद आदि पज्चस्थावर रहते हैं, जिसे कलकला पृथ्वी कहते हैं। (त्रि.सा.,146-149)

     
    6. लोक का आधार कया है ? 
    घनोदधिवलय, घनवातवलय और तनुवातवलय लोक के आधार हैं। जैसे-चमड़ी शरीर को चारों ओर से घेरे रहती है या जैसे-छाल वृक्ष को चारों ओर से घेरे रहती है, वैसे ही ये तीनों वातवलय चारों ओर से लोक को घेरे हुए हैं। लोक के नीचे तथा दोनों पार्श्व भागों में नीचे से एक राजू की ऊँचाई तक अर्थात् जहाँ तक पञ्च स्थावर रहते हैं एवं सातों भूमियों (नरकों) के नीचे एवं ईषत्प्राग्भार नामक आठवीं पृथ्वी के नीचे तीनों वातवलय 20-20 हजार योजन मोटे हैं। दोनों पार्श्व भागों में एक राजू के ऊपर सप्तम पृथ्वी (नरक) के निकट आठों दिशाओं में तीनों वातवलय क्रमश: 7,5,4 योजन मोटे हैं। फिर क्रमश: घटते हुए मध्य लोक की आठों दिशाओं में 5,4, 3 योजन मोटे रह जाते हैं। फिर क्रमश: बढ़ते हुए ब्रह्मलोक की आठों दिशाओं में 7, 5, 4 योजन मोटे हो जाते हैं, फिर ऊपर क्रमश: घटते हुए लोकाग्र के पाश्र्व भाग में 5, 4, 3 योजन मोटे रह जाते हैं। ये तीनों वातवलय लोक शिखर पर क्रमशः 2 कोस (4000 धनुष), 1 कोस (2000 धनुष) एवं 1575 धनुष मोटे रह जाते हैं। (ति. प., 1/273-276)

     
    7. वातवलय किस रंग के हैं ? 
    घनोदधिवलय गोमूत्र के रंग का, घनवातवलय काले रंग की मूंग के समान एवं तनुवातवलय अनेक रंगों वाला है। (ति. प., 1/271-272) 


    8.मध्यलोक का विस्तार कितना है ?
    मध्यलोक एक राजू तिर्यक् (चारों ओर) फैला हुआ है और 1 लाख 40 योजन सुमेरु पर्वत के बराबर ऊँचा है। सुमेरु पर्वत की जड़ 1 हजार योजन जो चित्रा पृथ्वी में नींव के रूप में है। 99,000 योजन ऊँचा एवं 40 योजन की चोटी (चूलिका) है। इस मध्य-लोक में असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र एक दूसरे को घेरे हुए हैं। 1/2 राजू में अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र है एवं शेष 1/2 राजू में असंख्यात द्वीप व समुद्र हैं। मध्यलोक के बीचों बीच जम्बूद्वीप है, यह थाली के आकार का है। जिसका विस्तार 1 लाख योजन है, जम्बूद्वीप को घेरे हुए लवण समुद्र है, यह चूड़ी के आकार का है। इसका विस्तार 2 लाख योजन है। लवणसमुद्र धातकीखण्ड द्वीप से घिरा है, इसका विस्तार 4 लाख योजन है। धातकीखण्ड द्वीप कालोदधि समुद्र से परिवेष्टित है, इसका विस्तार 8 लाख योजन है। पुष्कर द्वीप, पुष्कर समुद्र से घिरा है। इसका विस्तार 16 लाख योजन है किन्तु बीच में मानुषोत्तर पर्वत पड़ जाने पर इसका विस्तार 8 लाख योजन है। जम्बूद्वीप के बाद का विस्तार दोनों तरफ लेना है,

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    अढ़ाईद्वीप

    अत:1+2+4+8+8+2+4+8+8=45 लाख योजन है। इस अढ़ाई द्वीप में मनुष्य रहते हैं। मनुष्य इसके आगे नहीं जा सकते अत: इस पर्वत का मानुषोत्तर पर्वत नाम सार्थक है।


    9. इस द्वीप का नाम जम्बूद्वीप क्यों पड़ा ?
    जम्बूद्वीप के उत्तरकुरु में स्थित एक अनादिनिधन जम्बू का वृक्ष है, जिससे इस द्वीप का नाम जम्बूद्वीप पड़ा। इसी प्रकार धातकीखण्ड के उत्तरकुरु में धातकी वृक्ष होने के कारण उस द्वीप का नाम धातकीखण्ड है। इसी प्रकार पुष्करद्वीप के उत्तरकुरु में पुष्कर वृक्ष होने के कारण उस द्वीप का नाम पुष्करद्वीप है। (स. सि.,3/9/383)


    10. जम्बूद्वीप को विभाजित करनेवाले पर्वतों के नाम, उनका रंग, उनपर स्थित तालाब, तालाबों के मध्य कमल पर निवास करने वाली देवियों के नाम एवं तालाबों से निकलने वाली नदियों के नाम बताड़ए ?

    क्र.

    पर्वत

     रङ्ग

    तालाब

    देवियाँ

    नदियाँ

    1.

    हिमवन्

    स्वर्ण के समान

    पद्म

    श्री

    गङ्गा, सिन्धु और रोहितास्या

    2.

    महाहिमवन्

    चाँदी के समान

    महापद्म

    ह्री

    रोहित, हरिकान्ता

    3.

    निषध

    तपाये हुए स्वर्ण के समान

    तिगिञ्छ

    धृति

    हरित, सीतोदा

    4.

    नील

    वैडूर्य मणि के समान

    केसरी

    कीर्ति

    सीता, नरकान्ता

    5.

    रुक्मी

    चाँदी के समान

    महापुण्डरीक

    बुद्धि

    नारी, रूप्यकूला

    6.

    शिखरी

    स्वर्ण के समान

    पुण्डरीक

    लक्ष्मी

    सुवर्णकूला, रक्ता और रतोदा

     

    11.छ: पर्वतों से सात क्षेत्र कौन से होते हैं  ? 
    भरतवर्ष, हैमवतवर्षं, हरिवर्ष, विदेहवर्षं, रम्यकवर्षं, हैरण्यवतवर्ष और ऐरावतवर्ष ये सात क्षेत्र होते हैं। 


    12.कौन-सी नदी किस समुद्र में मिलती है  ? 
    गंगा, रोहित, हरित, सीता, नारी, सुवर्णकूला और रक्ता ये सात नदियाँ पूर्व लवण समुद्र में मिलती हैं। सिन्धु, रोहितास्या, हरिकांता, सीतोदा, नरकान्ता, रूप्यकूला और रतोदा ये सात नदियाँ पश्चिम लवण समुद्र में मिलती हैं। (तसू, 3/21)
     

    13. इन नदियों की सहायक नदियाँ कितनी-कितनी हैं ?

     

    गंगा-सिन्धु की

    14000

    रोहित-रोहितास्या की

    28OOO

    हरित-हरिकांता की

    56000

    सीता-सीतोदा की

    112OOO

    नारी-नरकान्ता की

    56000

    सुवर्णकूल-रूप्यकूला की

    28000

    रता-रतोदा की

    14OOO

    विशेष - प्रत्येक की एक-सी अर्थात् गंगा की 14000 एवं सिन्धु की भी 14000 सहायक नदियाँ हैं। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए। (स.सि., 3/23/410)


    14. भरत क्षेत्र का विस्तार कितना है ?
    भरत क्षेत्र का विस्तार 526% योजन। (तसू,3/24) 


    15. अढ़ाई द्वीप में कितने आर्यखण्ड एवं म्लेच्छखण्ड हैं ? 
    अढ़ाई द्वीप में 170 आर्यखण्ड एवं 850 म्लेच्छखण्ड हैं। 


    16. अढ़ाई द्वीप में कितनी भोगभूमियाँ एवं कर्मभूमियाँ हैं ? 
    अढ़ाई द्वीप में 30 भोगभूमियाँ एवं 15 कर्मभूमियाँ हैं। 


    17. कर्मभूमियाँ, भोगभूमियाँ इतनी ही हैं कि और भी हैं ? 
    अढ़ाईद्वीप के बाद, अंतिम स्वयंभूरमण द्वीप में स्थित नागेन्द्र पर्वत (बू.द्र.सं.टी.,35) तक समस्त द्वीपों में जघन्य भोगभूमि हैं। किन्तु वहाँ मात्र तिर्यज्च रहते हैं। नागेन्द्र पर्वत के परवर्ती स्वयंभूरमण द्वीप के शेष भाग और स्वयंभूरमण समुद्र में कर्मभूमि है। वहाँ भी मात्र तिर्यज्च रहते हैं। (त्रि.सा. 323-324) 


    18. द्वीप समुद्रों का आकार कैसा है ? 
    जम्बूद्वीप थाली के आकार का है, इसके बाद सभी द्वीप और समुद्र चूड़ी के आकार के हैं। 


    19. मध्यलोक को तिर्यक् लोक क्यों कहते हैं ?

    स्वयंभूरमण पर्यन्त असंख्यात द्वीप, समुद्र तिर्यक्-समभूमि पर तिरछे अवस्थित हैं, अतः इसको तिर्यक्लोक कहते हैं। (रा.वा.उ., 3/7)


    20. ज्योतिषी देव किन्हें कहते हैं ?

    सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारे ये पाँच प्रकार के देव ज्योतिर्मय हैं। प्रकाश करने का ही स्वभाव होने से इन देवों की ज्योतिषी देव यह संज्ञा सार्थक है। (स.सि., 4/12/465)


    21. सूर्य-चन्द्रमा क्या हैं ? 
    सूर्य-चन्द्रमा ज्योतिषी देवों के विमान हैं। सूर्य बिम्ब में आतप नाम कर्म का उदय है जो मूल में शीतल एवं उसकी प्रभा (किरणें) गर्म होती हैं तथा चन्द्रबिम्ब में उद्योत नाम कर्म का उदय है, जो मूल में भी शीतल एवं उसकी प्रभा भी शीतल है। ज्योतिषी देवों के विमान पृथ्वीकायिक के होते हैं। (गो.क., 33)


    22. ज्योतिषी देवों का आवास कहाँ-कहाँ पर है ?

    ये देव चित्रा पृथ्वी से 790 योजन की ऊँचाई से लेकर 900 योजन की ऊँचाई तक अर्थात 110 योजन में निवास करते है एवं एक राजू तिर्यक घनोदधि वलय तक फैले है |

    790 योजन तक तराएँ 

    इससे

    10 योजन (800 योजन) ऊपर सूर्य (32 लाख मील ऊपर)

    इससे

    80 योजन (880 योजन) ऊपर चन्द्रमा

    इससे

    4 योजन (884 योजन) ऊपर नक्षत्र

    इससे

    4 योजन (888 योजन) ऊपर बुध

    इससे

    3 योजन (891 योजन) ऊपर शुक्र

    इससे

    3 योजन (894 योजन) ऊपर गुरु

    इससे

    3 योजन (897 योजन) ऊपर मंगल (अंगरक)

    इससे

    3 योजन (900 योजन) ऊपर शनि (मंदगति)

     

    110 योजन

    बुध और शनिश्चर के अंतराल में अवशिष्ट 83 ग्रहों की नित्य नगरियाँ अवस्थित हैं। (त्रिसा, 332-333)

    नोट -

    1. जैनदर्शन के अनुसार सूर्य यहाँ से 32 लाख मील दूरी पर है एवं विज्ञान के अनुसार 9 करोड़ 30 लाख मील दूरी पर है।
    2. जैनदर्शन के अनुसार चन्द्रमा यहाँ से 45 लाख 20 हजार मील दूरी पर है एवं विज्ञान इसे मात्र 2 लाख 40 हजार मील दूरी पर मानता है। 
       

    23. ज्योतिष्क विमान का पारस्परिक अंतर कितना है ?
    ताराओं का जघन्य अन्तर 1 कोस का सातवाँ भाग, मध्यम अंतर 50 कोस और उत्कृष्ट अंतर 1000 योजन है। सूर्य से सूर्य का और चन्द्र से चन्द्र का जघन्य अंतर 99,640 योजन है। उत्कृष्ट अंतर 1 लाख 660 योजन है। (रावा, 4/13/6) 
     

    24. चन्द्र, सूर्य आदि की कितनी-कितनी किरणें हैं ? 
    चन्द्रमा की 12,000 किरणें हैं वे शीतल हैं। सूर्य की भी 12,000 किरणें हैं किन्तु वे तीक्ष्ण (उष्ण) हैं। शुक्र की 2500 किरणें हैं, वे तीव्र अर्थात् प्रकाश से उज्वल हैं। शेष ज्योतिषी देवों की किरणें मंद प्रकाश वाली हैं। (त्रिसा, 341)
     

    25. ज्योतिषी देवों के विमान का आकार कैसा है ? 
    एक संतरा के दो खंड करके उन्हें ऊध्र्वमुखी रखा जाए तो चौड़ाई वाला भाग ऊपर और गोलाई वाला थोड़ा-सा भाग नीचे रहता है, वैसे ही इन देवों के विमान होते हैं। हमें मात्र नीचे का भाग देखने में आता है। (त्रि.सा., 336)


    26. ग्रहण क्या है ?

    राहु का विमान चन्द्र विमान के नीचे और केतु का विमान सूर्य विमान के नीचे गमन करता है। प्रत्येक छ: माह बाद पर्व के अन्त में अर्थात् पूर्णिमा और अमावस्या के अन्त में राहु चन्द्रमा को और केतु सूर्य को आच्छादित करता है, इसी का नाम ग्रहण है। (त्रि.सा. 339)

     
    27. अढ़ाई वर्ष में एक माह कैसे बढ़ता है ? 
    सूर्य के गमन की 184 गलियाँ हैं, एक गली से दूसरी गली दो योजन दूरी पर है, जिसे पार करने में एक मुहूर्त लगता है, अत: 30 दिन में 30 मुहूर्त (1 दिन) बढ़ जाता है, इसी प्रकार वर्ष में 12 दिन एवं अढ़ाई वर्ष में एक माह बढ़ जाता है। (त्रिसा., 410)

     

    28.चन्द्रादिक विमानों के वाहक देवों का आकार कैसा है एवं वे किस-किस दिशा में गमन करते हैं ? 
    पूर्व दिशा में सिंह, दक्षिण दिशा में हाथी, पश्चिम दिशा में बैल और उत्तर दिशा में घोड़े के आकार वाले देव अपने-अपने विमानों को ढोते हैं। चन्द्र एवं सूर्य को ढोने वाले एक दिशा में 4000, चारों दिशाओं में कुल 16000 देव होते हैं। शेष विमानों में एक दिशा में 2000 एवं चारों दिशाओं में कुल 8000 देव होते हैं। किन्तु नक्षत्रों में एक दिशा में 1000 एवं चारों दिशाओं में कुल 4000 देव होते हैं तथा ताराओं में एक दिशा में 500 एवं चारों दिशाओं में कुल 2000 देव होते हैं। आभियोग्य जाति के देव विमान ढोते हैं, अत: वे ही गज आदि बनते हैं। (त्रिसा, 343)


    29. मनुष्य लोक में सूर्य-चन्द्रमा आदि कितने-कितने हैं ?

     

    द्वीप-समुद्र

    सूर्य

    चन्द्रमा

    ग्रह

    नक्षत्र

    जम्बूद्वीप में

    2

    2

    176

    56

    लवण समुद्र में

    4

    4

    352

    112

    धातकी खण्ड में

    12

    12

    1056

    336

    कालोदधि में

    42

    42

    3696

    1176

    पुष्करार्ध में

    72

    72

    6336

    2016

    कुल

    132

    132

    11616

    3696

    अढ़ाई द्वीप में तो ज्योतिषी देवों की संख्या संख्यात है, किन्तु सम्पूर्ण तिर्यक् लोक में ज्योतिषी देवों की संख्या असंख्यात है।


    30. एक चन्द्रमा का परिवार कितना है ? 
    एक चन्द्रमा के परिवार में एक सूर्य, 28 नक्षत्र, 88 ग्रह एवं 66,975 कोड़ाकोड़ी तारे हैं। (सि.सा.दी., 14/54)

     
    31. एक सूर्य जम्बूद्वीप की पूर्ण प्रदक्षिणा कितने दिन में करता है ? 
    दो दिन (दिन-रात) में करता है। 


    32. एक चन्द्रमा जम्बूद्वीप की पूर्ण प्रदक्षिणा कितने दिन में करता है ? 
    दो दिन से (दिन-रात) अधिक समय लगता है, इसी से चन्द्रोदय में हीनाधिकता आती है। 


    33. अमावस्या और पूर्णिमा क्या है ?
    राहु प्रतिदिन 1-1 पथ में चन्द्रमंडल के 16 भागों में से 1-1 कला (भाग) को आच्छादित करता हुआ क्रम से 15 कला पर्यन्त आच्छादित करता है। इस प्रकार अंत में जिस मार्ग में चन्द्र की केवल 1 कला दिखाई देती है। वह अमावस्या है। प्रतिपदा के दिन से वह राहु 1-1 वीथी में गमन विशेष से 1-1 कला को छोड़ता जाता है। जिसके कारण 1 दिन चन्द्र बिम्ब परिपूर्ण दिखता है, वह पूर्णिमा है। अथवा चन्द्र बिम्ब स्वभाव से ही 15 दिनों तक कृष्ण कांति स्वरूप और इतने ही दिनों तक शुक्ल कांति स्वरूप परिणमता है। (त्रि.सा. 342 विशेषार्थ )


    34. उत्तरायन और दक्षिणायन क्या है ? 
    जब सूर्य प्रथम गली में रहता है, तब श्रावण कृष्ण प्रतिपदा से दक्षिणायन प्रारम्भ होता है और जब वह अन्तिम गली में पहुँचता है तब उत्तरायन प्रारम्भ होता है। श्रावण माह से पौष माह तक (183 दिन) सूर्य दक्षिणायन तथा माघ माह से आषाढ़ माह तक (183 दिन) उत्तरायन रहता है। (त्रि. सा., 412) 


    35. सूर्य और चन्द्रमा की कितनी-कितनी गलियाँ हैं ? 
    सूर्य की 184 गलियाँ हैं और इसी क्षेत्र में चन्द्रमा की 15 गलियाँ हैं। इनमें ये दोनों गमन करते हैं।

     
    36. जब सूर्य प्रथम गली में आता है तो क्या होता है ? 
    जब सूर्य प्रथम गली में आता है तब अयोध्या नगर के भीतर अपने भवन के ऊपर से चक्रवर्ती सूर्य विमान में स्थित जिनबिम्ब के दर्शन करता है। चक्रवर्ती की चक्षु इन्द्रिय का विषय 47263/योजन अर्थात् 18,90,53,400 मील प्रमाण है। (त्रि.सा. 391) 


    37. सूर्य और चन्द्रमा एक-एक मिनट में कितना गमन करते हैं ? 
    प्रथम मार्ग में सूर्य एक मिनट में 4,37,623"/ मील प्रमाण गमन करता है एवं प्रथम मार्ग में चन्द्रमा एक मिनट में 4,22,797 */ मील प्रमाण गमन करता है। (त्रिसा.,388, विशेषार्थ) 


    38. क्या पृथ्वी घूमती है ? 
    नहीं। सूर्य और चन्द्रमा सुमेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करते हैं। सुमेरु पर्वत अर्थात् पृथ्वी स्थित है एवं सूर्य चन्द्रमा उसकी प्रदक्षिणा करते हैं।


    39. क्या सभी ज्योतिषी मंडल गमन करते हैं ? 
    अढ़ाईद्वीप और दो समुद्र में अर्थात् समस्त मनुष्य लोक में पाँचों प्रकार के ज्योतिषी देव निरन्तरगमन करते रहते हैं। मनुष्य लोक से बाहर के सभी ज्योतिषी देव स्थित रहते हैं। (तसू,4/13-15)


    40. दिन छोटे-बड़े कैसे होते हैं ? 
    जब सूर्य अभ्यन्तर वीथी (प्रथम वीथी) में भ्रमण करता है, तब दिन 18 मुहूर्त का (14 घंटा 24 मिनट) और रात्रि 12 मुहूर्त (9 घंटा 36 मिनट) की होती है तथा बाह्य (अंतिम) वीथी में भ्रमण करता है, तब 18 मुहूर्त की रात्रि और 12 मुहूर्त का दिन होता है। श्रावण माह में सूर्य अभ्यंतर वीथी में भ्रमण करता है। माघ मास में सूर्य सबसे बाह्य वीथी में भ्रमण करता है। (त्रिसा, 379)

     
    41. क्या सूर्य और चन्द्रमा की गति घटती-बढ़ती है ? 
    हाँ। सूर्य और चन्द्रमा की प्रथम वीथी में हाथीवत् (अतिमंद), मध्यम वीथी में घोड़े की चाल समान (मध्यम गति) और बाह्य वीथी में सिंह सदृश (तेज गति) गति है। (त्रिसा, 388)

     
    42. क्या सभी ज्योतिषी विमानों की गति एक-सी है ? 
    नहीं। चन्द्रमा सबसे मंद गति वाला है, इससे शीघ्रगति सूर्य की, सूर्य से शीघ्र गति ग्रहों की, ग्रहों से शीघ्र गति नक्षत्रों की और उससे भी अधिक शीघ्र गति ताराओं की है। (त्रि सा., 403) 


    43. सूर्य का ताप कहाँ तक फैलता है ? 
    सूर्य का ताप सुदर्शन मेरु के मध्य भाग से लेकर लवण समुद्र के छठवें भाग तक फैलता है तथा सूर्य बिम्ब से चित्रा पृथ्वी 800 योजन नीचे है और 1000 योजन चित्रा पृथ्वी की जड़ हैं सूर्य का ताप नीचे की ओर 1800 योजन अर्थात् 72,00000 मील तक फैलता है। सूर्य बिम्ब से ऊपर 100 योजन पर्यन्त ज्योतिलक है। अत: सूर्य का ताप ऊपर की ओर 100 योजन (4,00,000 मील) दूर तक फैलता है। 


    44.चन्द्र और सूर्य का गमन क्षेत्र कितना है ?

    चन्द्र और सूर्य के गमन करने को चार क्षेत्र कहते हैं। दो चन्द्र और दो सूर्य के प्रति 1-1 चार क्षेत्र होता है। जम्बूद्वीप के दो सूर्यों का एक चार क्षेत्र है। लवण समुद्र के चार सूर्यों के 2 चार (संचार) क्षेत्र, धातकीखण्ड द्वीप के 12 सूर्यों के 6 चार क्षेत्र हैं, कालोदधि समुद्र के 42 सूर्यों के 21 चार क्षेत्र हैं और पुष्करार्धद्वीप के 72 सूर्यों के 36 चार क्षेत्र हैं। जम्बूद्वीप सम्बन्धी चन्द्र और सूर्य जम्बूद्वीप में तो 180 योजन प्रमाण क्षेत्र में ही विचरते हैं और शेष 330*/ प्रमाण क्षेत्र लवण समुद्र में विचरते हैं। अर्थात् 2– 2 चन्द्र और सूर्य 180+330'/= 510*/, योजन प्रमाण क्षेत्र में विचरते हैं। शेष पुष्करार्ध पर्यन्त के चन्द्र और सूर्य अपने -अपने क्षेत्र में विचरते हैं। (त्रिसा, 374-375)


    45. दिन-रात कैसे होते हैं ? 
    सूर्य जब सुमेरु पर्वत के पूर्व-पश्चिम में होता है तब पूर्व विदेह एवं पश्चिम विदेह क्षेत्र में दिन एवं भरत-ऐरावत क्षेत्र में रात्रि होती है एवं जब सूर्य सुमेरु पर्वत के दक्षिण-उत्तर में होता है, तब भरतऐरावत क्षेत्र में दिन एवं विदेह क्षेत्र में रात्रि होती है। 


    46. ऊध्र्वलोक कितने राजू में है एवं वहाँ क्या-क्या है ? 
    मध्यलोक के सुमेरु पर्वत की चूलिका से एक बाल की मोटाई प्रमाण स्थान के बाद स्वर्ग प्रारम्भ हो जाते हैं। चित्रा पृथ्वी से 15 राजू में सौधर्म-ऐशान स्वर्ग आमने-सामने हैं। 15 राजू में सानत्कुमार-माहेन्द्र 1त्रिलोकसार,397 स्वर्ग हैं। 1/2 राजू में ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर स्वर्ग हैं। 1/2 राजू में लान्तव-कापिष्ठ स्वर्ग हैं। 1/2 राजू में शुक्रमहाशुक्र स्वर्ग हैं। 1/2 राजू में शतार-सहस्रार स्वर्ग हैं। 1/2 राजू में आनत-प्राणत स्वर्ग हैं। 1/2 राजू में आरण-अच्युत स्वर्ग हैं। ये सभी स्वर्ग आमने-सामने हैं। इस प्रकार 6 राजू में 16 स्वर्ग हैं तथा 16 स्वर्गों के ऊपर 1 राजू में 9 ग्रैवेयक, 9 अनुदिश, 5 अनुत्तर विमान एवं सिद्ध शिला भी है। इस प्रकार 7 राजू में ऊध्र्व लोक एवं 7 राजू में अधोलोक हैं। इस तरह लोक की ऊँचाई कुल 14 राजू है।

    नोट- सुमेरु पर्वत की ऊँचाई ऊध्र्वलोक में ही गर्भित है। (त्रिसा.,458)

     
    47. स्वगों के विमानों का आधार क्या है ? 
    सौधर्म युगल के विमान घनस्वरूप जल के ऊपर तथा सानत्कुमार युगल के विमान पवन (हवा) के ऊपर स्थित हैं। ब्रह्मादि चार कल्प जल व वायु दोनों के ऊपर तथा आनत-प्राणत आदि शेष विमान शुद्ध आकाश में स्थित हैं। (ति.प., 8/206-207)


    48. सिद्धालय कहाँ है ?
    सर्वार्थसिद्धि विमान के ध्वजदण्ड से 12 योजन ऊपर जाकर अष्टम ईषत् प्राग्भार नामक पृथ्वी के बीचोंबीच 45 लाख योजन गोल एवं 8 योजन मध्य में मोटी चाँदी एवं स्वर्ण के सदृश और नाना रत्नों से परिपूर्ण सिद्ध शिला है। जो आगे-आगे क्रमश: कम होती हुई अंत में 1 अंगुल प्रमाण रह जाती है। वह उतान धवल छत्र के सदृश है। ईषत्प्राग्भार नामक अष्टम पृथ्वी की चौड़ाई (पूर्व-पश्चिम) एक राजू, लम्बाई(उत्तर-दक्षिण) सात राजू तथा मोटाई (ऊँचाई) आठ योजन प्रमाण है। (ति.प., 8/675-681) इस पृथ्वी के ऊपर 3 वातवलय हैं, जो क्रमशः 2 कोस (4000 धनुष), 1 कोस (2000 धनुष) और 1575 धनुष मोटे हैं अंतिम वातवलय के ऊपरी भाग में 525 धनुष की उत्कृष्ट अवगाहना को आदि लेकर 3.5 हाथ की अवगाहना तक के सिद्ध परमेष्ठी विराजमान रहते हैं।

     
    49. सिद्धक्षेत्र का विस्तार कितना है ?
    मनुष्य क्षेत्र प्रमाण 45,00,000 योजन है।
     

    50. त्रस नाली कितनी लंबी, चौड़ी एवं ऊँची है ? 
    लोक के मध्य भाग में एक राजू लंबी, एक राजू चौड़ी और कुछ कम तेरह राजू ऊँची त्रसनाली है। एवं सप्तम पृथ्वी के मध्य भाग में नारकी रहते हैं। नीचे 3999 / योजन अर्थात् 3,19946662/ धनुष में त्रस जीव नहीं हैं। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि विमान से ईषत् प्राग्भार का अंतर 12 योजन अर्थात् 96,000 धनुष है एवं ईषत् प्राग्भार की मोटाई 8 योजन अर्थात् 64,000 धनुष है एवं तीनों शिखरवर्ती वातवलय 2 कोस (4000 धनुष), 1 कोस (2000 धनुष) एवं 1575 धनुष इस क्षेत्र में त्रस जीव नहीं रहते (समुद्धात एवं उपपाद को छोड़कर) हैं। 3,19,94.6667/, धनुष + 96,000धनुष + 64,000 धनुष+7575धनुष =3,21,62,2417/, धनुष कम 13 राजू ऊँची त्रस नाली है। (तिप, 2/6-7)

     

    51. सुमेरु पर्वत और नंदीश्वर द्वीप की विशेषताएँ बताइए।
    सुमेरु पर्वत यह मध्यलोक का सर्वप्रथम पर्वत है - विदेह क्षेत्र के बहुमध्य भाग में स्थित स्वर्ण वर्ण व कूटाकार पर्वत है, यह जम्बूद्वीप में एक, धातकीखण्ड में दो और पुष्करार्ध द्वीप में दो पर्वत हैं कुल 5 सुमेरु पर्वत हैं, इसमें प्रत्येक में 16-16 चैत्यालय हैं कुल मिलाकर 80 चैत्यालय हैं, जिसमें 8,640 प्रतिमाएँ हैं। यह पर्वत तीर्थंकरों के जन्माभिषेक का आसन रूप माना जाता है। सुमेरु पर्वत की ऊँचाई 1 लाख 40 योजन है। सुमेरु पर्वत की जड़ 1000 योजन है, इसके ऊपर भद्रशाल वन, नन्दन वन, सौमनस वन और पाण्डुक वन है, पाण्डुक वन के मध्य से सुमेरु पर्वत की चोटी (चूलिका) प्रारम्भ होती है जो 40 योजन है, उस चोटी की ईशान दिशा में पाण्डुक शिला, आग्नेय में पाण्डुकम्बला, नैऋत्य में रक्ता और वायव्य में रक्त कम्बला शिला है जो अर्द्धचन्द्राकार है, इनमें क्रमश: भरत, पश्चिम विदेह, ऐरावत तथा पूर्व विदेह के सर्व तीर्थंकरों का देव जन्माभिषेक करते हैं। इसी प्रकार धातकीखण्ड द्वीप में पूर्व तथा पश्चिम दिशा में विजय और अचल नामक दो मेरु हैं तथा पुष्करद्वीप में पूर्व तथा पश्चिम दिशा में मंदर और विद्युन्माली नामक दो मेरु हैं। इन पर अकृत्रिम चैत्यालयों की रचना, सुमेरु (सुदर्शन मेरु) के समान ही है। विशेषता इतनी है कि इन पर्वतों में प्रत्येक की ऊँचाई 84,000 योजन है। एवं 1000 योजन की जड़ पृथक् है अत: इन चारों पर्वतों की कुल ऊँचाई 85,000 योजन है। (ति.प.4/2617)

    नन्दीश्वर द्वीप

    इस मध्यलोक में असंख्यात द्वीप व समुद्र हैं जिसमें 7 द्वीप और 7 समुद्र के बाद आठवाँ द्वीप नन्दीश्वर द्वीप है। इस द्वीप की पूर्व दिशा में एक अंजनगिरि नामक काले रंग का पर्वत है, उसके चारों ओर एक लाख योजन छोड़कर चार वापियाँ हैं, प्रत्येक वापी के चारों दिशाओं में अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम्र नामक 4 वन हैं, इस द्वीप की एक दिशा में 16 और चारों दिशाओं में कुल 64 वन हैं, प्रत्येक वापी के मध्य में सफेद रंग वाला दधिमुख नाम का एक-एक पर्वत है, प्रत्येक वापी के चारों कोनों पर लाल रंग के 4 रतिकर पर्वत हैं। अभ्यन्तर रतिकरों पर देव क्रीड़ा करते हैं एवं बाह्य रतिकरों पर जिनमन्दिर हैं। इस प्रकार एक दिशा में 1 अंजनगिरि, 4 दधिमुख एवं 8 रतिकर पर्वत हैं, इनके ऊपर 13 अकृत्रिम चैत्यालय हैं, इसी प्रकार शेष तीन दिशाओं में भी 13-13 चैत्यालय हैं, अत: नन्दीश्वर द्वीप सम्बन्धी 52 अकृत्रिम चैत्यालय हैं, प्रत्येक मंदिर में 108 जिनबिम्ब रत्नों के हैं। देवी-देवताओं के मन को आकर्षित करने वाली 500 धनुष की पद्मासन प्रतिमाएँ हैं, उनके नाखून, चेहरा लाल, आँखें काली और सफेद, भौंह काली, सिर के बाल काले शोभा देते हैं, मुख मुद्रा ऐसी लगती है, जैसे पापों को हरण करने वाली दिव्यध्वनि खिरती है, रत्नमयी प्रतिमा में करोड़ों सूर्य और चन्द्रमा की भी आभा उन प्रतिमाओं के प्रकाश के आगे फीकी पड़ जाती है, जो महावैराग्य परिणाम वाले हैं, वे उनके दर्शन करते हैं, वे प्रतिमाएँ बोलती नहीं हैं, उन्हें देखकर ही सम्यकदर्शन करते हैं। सौधर्म इन्द्र आदि देवगण अष्टाहिका पर्व में अपने परिवार सहित इन प्रतिमाओं का अभिषेक-पूजन करने आते हैं। पूर्व दिशा में कल्पवासी देव, दक्षिण दिशा में भवनवासी देव, पश्चिम दिशा में व्यन्तर देव तथा उत्तर दिशा में ज्योतिषी देव भक्ति-भाव से पूजन करते हैं। मनुष्य वहाँ नहीं जा सकते हैं, वे यहाँ पर ही जिनालयों में नन्दीश्वर द्वीप के जिनालयों की स्थापना कर पूजन करते हैं।

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