अन्तिम गति देवगति है। देवों की विशेषताएँ, उनके भेद, प्रभेद, उनकी आयु, ऊँचाई, उनकी आठ ऋद्धियों के नाम एवं सुख-दु:ख आदि का वर्णन इस अध्याय में है।
1. देव किसे कहते हैं ?
- आभ्यन्तर कारण देवगति नाम कर्म का उदय होने पर जो नाना प्रकार की बाह्य विभूति से द्वीप समुद्रादि अनेक स्थानों में इच्छानुसार क्रीड़ा करते हैं, वे देव कहलाते हैं।
- जो दिव्य भाव-युक्त अणिमादि आठ गुणों से नित्य क्रीड़ा करते रहते हैं और जिनका प्रकाशमान दिव्य शरीर है, वे देव कहलाते हैं।
- दीव्यन्ति क्रीडन्तीति देवाः । (स.सि., 4/1/443)
2. देवगति किसे कहते हैं ?
जिस कर्म का निमित्त पाकर आत्मा देव भाव को प्राप्त होता है, वह देवगति है।
3. देव कितने प्रकार के होते हैं ?
देव चार प्रकार के होते हैं - भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक।
4. देवों की कौन-कौन-सी विशेषताएँ हैं ?
देवों की निम्न विशेषताएँ हैं
- देवों का आहार (अमृत का) तो होता है, किन्तु नीहार (मल-मूत्र), पसीना एवं सप्तधातुएँ नहीं होती हैं।
- देवों के शरीर में बाल नहीं होते हैं एवं उनके शरीर में निगोदिया जीव भी नहीं होते हैं एवं शरीर वैक्रियिक होता है।
- देवों के शरीर की परछाई नहीं पड़ती है एवं पलकें भी नहीं झपकती हैं।
- समचतुरस्र संस्थान ही होता है किन्तु संहनन कोई भी नहीं होता है।
- देवों का अकालमरण नहीं होता है।
- देवों का जन्म उपपाद शय्या पर होता है एवं अन्तर्मुहूर्त में छ: पर्याप्तियाँ पूर्ण कर 16वर्षीय नवयुवक के समान हो जाते हैं एवं इनका बुढ़ापा भी नहीं आता है। (त्रि.सा. 550)
- सम्यक् दृष्टि देव स्वर्गों में प्रतिदिन अभिषेक-पूजन करते हैं एवं सीनियर (पुराने) देवों के कहने से मिथ्यादृष्टि देव भी जिनेन्द्र भगवान् की कुलदेवता मानकर अभिषेक-पूजन करते हैं। (त्रिसा,551-553)
- एक देव की कम-से-कम 32 देवियाँ होती हैं।
- चार निकाय के देव तीर्थंकरो के पञ्चकल्याणकों में आते हैं किन्तु सोलहवें स्वर्ग के ऊपर वाले अहमिन्द्र देव वहीं से नमस्कार करते हैं एवं पज्चम स्वर्ग के लोकान्तिक देव मात्र तीर्थंकर के दीक्षा कल्याणक में वैरागी तीर्थंकर के वैराग्य की प्रशंसा करने के लिए आते हैं। (त्रिसा,554)
- देवों को रोग नहीं होते हैं।
- देवों में स्त्री और पुरुष दो वेद होते हैं।
- देवों को सभी भोग सामग्री, सोचते ही, दस प्रकार के कल्पवृक्षों से प्राप्त हो जाती है। (ज्ञा.36/175)
5. नख, केश (बाल) के बिना देव कैसे लगते होंगे ?
देवों के शरीर में नख व केश नहीं होते हैं तथापि उनका स्वरूप बीभत्स, भयावह, ग्लानि उत्पन्न करने वाला नहीं है तथापि नख व केश का आकार होता है। जैसे-स्वर्ण या पाषाण की प्रतिमा में नख व केश का आकार होता है वैसे ही देवों में होता है। (मू.1056)
6. देवों में आठ गुणों (ऋद्धियों) का स्वरूप बताइए?
देवों की आठ ऋद्धियाँ निम्न हैं
- अणिमा - अपने शरीर को अणु के बराबर छोटा करने की शक्ति है जिससे वह सुई के छेद में से भी निकल सकता है।
- महिमा - अपने शरीर को सुमेरु के समान बड़ा करने की शक्ति होती है।
- लघिमा - अपने शरीर को बिल्कुल हल्का बना लेना, जिससे मकड़ी के जाल पर भी पैर रखे तो वह भी न टूटे।
- गरिमा - सुमेरु पर्वत से भी भारी शरीर बना लेना जिसे हजारों व्यक्ति भी मिलकर न उठा सकें।
- प्राप्ति - एक स्थान पर बैठे-बैठे ही दूर स्थित पदार्थों का स्पर्श कर लेना जैसे-यहाँ बैठे-बैठे ही शिखरजी की टोंक का स्पर्श कर लेना।
- प्राकाम्य - जल के समान पृथ्वी में और पृथ्वी के समान जल पर गमन करना।
- ईशत्व - जिससे सब जगत् पर प्रभुत्व होता है।
- कामरूपित्व - जिससे युगपत् बहुत से रूपों को रचता है, वह कामरूपित्व ऋद्धि है। (क.अ.टी.370)
7. भवनवासी देव किन्हें कहते हैं ?
जो भवनों में रहते हैं, उन्हें भवनवासी कहते हैं।
8. भवनवासी देवों के नाम में कुमार शब्द क्यों जुड़ा है ?
इनकी वेशभूषा, शस्त्र, यान, वाहन और क्रीड़ा आदि कुमारों के समान होती है, इसलिए कुमार शब्द जुड़ा है। (स.सि. 4/10/461)
9. भवनवासी देवों के कितने भेद हैं एवं उनके मुकुट पर चिह्न, आहार का अंतराल, श्वासोच्छास का अन्तराल, अवगाहना एवं आयु कितनी है ?
देवों के नाम |
मुकुट पर चिंह |
आहार का अन्तराल |
श्वासोच्छवास का अन्तराल |
आयु उत्कष्ट |
आयु जघन्य |
अवगाहना |
असुरकुमार |
चूड़ामणि |
1000 वर्ष |
15 दिन |
1 सागर |
सर्वत्र 10,000 वर्ष |
25 धनुष |
नागकुमार |
सर्प |
12.5 दिन |
12.5 मुहूर्त |
3 पल्य |
10 धनुष |
|
सुपर्णकुमार |
गरुड़ |
12.5 दिन |
12.5 मुहूर्त |
2.5 पल्य |
10 धनुष |
|
द्वीपकुमार |
हाथी |
12.5 दिन |
12.5 मुहूर्त |
2 पल्य |
10 धनुष |
|
उदधिकुमार |
मगर |
12 दिन |
12 मुहूर्त |
1.5 पल्य |
10 धनुष |
|
स्तनतकुमार |
स्वस्तिक |
12 दिन |
12 मुहूर्त |
1.5 पल्य |
10 धनुष |
|
विद्युतकुमार |
वज्र |
12 दिन |
12 मुहूर्त |
1.5 पल्य |
10 धनुष |
|
दिक्कुमार |
सिंह |
7.5 दिन |
7.5 मुहूर्त |
1.5 पल्य |
10 धनुष |
|
अग्निकुमार |
कलश |
7.5 दिन |
7.5 मुहूर्त |
1.5 पल्य |
10 धनुष |
|
वायुकुमार |
तुरंग |
7.5 दिन |
7.5 मुहूर्त |
1.5 पल्य |
10 धनुष |
नोट - 1 पल्य आयु वाले देव 5 दिन के अंतराल से आहार एवं श्वासोच्छास 5 मुहूर्त में ग्रहण करते हैं एवं 10,000 वर्ष आयु वाले देव 2 दिन के अंतराल से आहार एवं यहाँ 7 श्वासोच्छास लेने पर वहाँ एक श्वासोच्छास ग्रहण करते हैं।
10. व्यंतर देव किन्हें कहते हैं ?
‘यत्र तत्र विचरन्तीति व्यन्तरा:” जो पहाड़, गुफा, द्वीपसमुद्र, ग्राम, नगर, देवालय आदि में विचरण करते रहते हैं, वे व्यंतर कहलाते हैं।
11. व्यतंर देवों के निवास स्थान कितने प्रकार के हैं ?
भवन - चित्रा पृथ्वी के नीचे स्थित हैं।
भवनपुर - द्वीप और समुद्रों में।
आकस - तालाब, वृक्ष, पर्वत, आदि के ऊपर। (त्रि.सा. 295)
12. व्यन्तर देवों के कितने भेद हैं एवं उनके आहार, श्वासोच्छास का अंतराल कितना है एवं आयु और अवगाहना कितनी है ?
व्यन्तरों के आठ भेद हैं-किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच (ति. प., 6/25)। व्यन्तर देवों की उत्कृष्ट आयु कुछ अधिक एक पल्य एवं जघन्य आयु 10,000 वर्ष (तिप, 6/83)। अवगाहना 10 धनुष (ति.प.,6/98)एक पल्य आयु वाले देवों का आहार अंतराल 5 दिन एवं श्वासोच्छास 5 मुहूर्त (तिप,6/88-89)। 10,000 वर्ष आयु वाले देवों का आहार अंतराल 2 दिन एवं श्वासोच्छास का अंतर सात श्वासोच्छास।
13. ज्योतिषी देव किन्हें कहते हैं ?
ज्योतिषी देव ज्योतिर्मय होते हैं, इसलिए इनकी ज्योतिषी संज्ञा सार्थक है। ये पाँच प्रकार के होते हैं- सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र व तारे। (त.सू,4/12)
14. ज्योतिषी देवों की आयु,अवगाहना कितनी है, आहार एवं श्वासोच्छास का अंतराल कितना है ?
चन्द्र की उत्कृष्ट आयु1 लाख वर्ष अधिक 1 पल्य, सूर्य की 1000 वर्ष अधिक 1 पल्य, शुक्र की 100 वर्ष अधिक 1 पल्य, गुरु की 1 पल्य, शेष ग्रहों एवं नक्षत्रों की / पल्य है, ताराओं की / पल्य है। तारा और नक्षत्रों की जघन्य आयु / पल्य है शेष सूर्य,चन्द्रमा, सोम, मगल,बुध,गुरु शुक्र और शनि इनकी जघन्य आयु / पल्य है एवं अवगाहना सभी की 7 धनुष है। इनके आहार, श्वासोच्छास का अंतराल भवनवासी देवों के समान है। (रावा, 4/40-41)
ज्योतिषी देवों का विशेष वर्णन जैन भूगोल अध्याय में है।
15. भवनत्रिक में उत्पति के क्या कारण हैं ?
आदि के तीन निकाय (समूह)को भवनत्रिक कहते हैं। इसमें उत्पति के कारण ये हैं - जिनमत से विपरीत आचरण, निदान पूर्वक तप, अग्नि, जल आदि में मरण, अकामनिर्जरा, पञ्चाग्नि आदि तप और सदोष चारित्र को धारण करने वाले जीव भवनत्रिक में जन्म लेते हैं। (त्रिसा, 450)
16. वैमानिक देव किन्हें कहते हैं ?
- ‘विगत: मान: इति विमान:' जिनका मान कम है, वे वैमानिक हैं क्योंकि व्यन्तर आदि अधिक मान वाले हैं और ऊपर-ऊपर देवों में मान कम होता है इससे कम मान वाले भी वैमानिक हैं।
- ‘विमानेषु भवा वैमानिका:” जो विमानों में रहते हैं, वे वैमानिक हैं। (स सि,4/16/473)
17. वैमानिक देवों के भेद कितने व कौन से हैं ?
वैमानिक देवों के दो भेद हैं। कल्पोपपन्न और कल्पातीत। जहाँ दस प्रकार के इन्द्र सामानिक आदि की कल्पना होती है, उन 16 स्वर्गों को ‘कल्प' कहते हैं। ये कल्पोपपन्न देव कहलाते हैं। इसके ऊपर वाले, जहाँ दस प्रकार के इन्द्र आदि की कल्पना नहीं है, वे कल्पातीत कहलाते हैं। नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश एवं पञ्च अनुतर में रहने वाले देव कल्पातीत हैं।
18. कल्पवासी देव की आयु व अवगाहना कितनी है ?
कल्पवासी देव |
उत्कृष्ट आयु |
जघन्य आयु |
अवगाहना |
सौधर्म—ऐशान |
2 सागर से कुछ अधिक |
1 पल्य से कुछ अधिक |
7 हाथ |
सानत्कुमार-माहेन्द्र |
7 सागर से कुछ अधिक |
2 सागर से कुछ अधिक |
6 हाथ |
ब्रह्म—ब्रह्मोत्तर |
10सागर से कुछ अधिक |
7 सागर से कुछ अधिक |
5 हाथ |
लान्तव-कापिष्ठ |
14सागर से कुछ अधिक |
10सागर से कुछ अधिक |
5 हाथ |
शुक्र-महाशुक्र |
16सागर से कुछ अधिक |
14सागर से कुछ अधिक |
4 हाथ |
शतार-सहस्रार |
18सागर से कुछ अधिक |
16सागर से कुछ अधिक |
4 हाथ |
अन्नत-प्रणात |
20सागर से अधिक नहीं |
18सागर से अधिक नहीं |
3.5 हाथ |
आरण-अच्युत |
22सागर से अधिक नहीं |
20सागर से अधिक नहीं |
3 हाथ
|
19. कल्पातीत देवों की आयु व अवगाहना कितनी है ?
कल्पातीत देव |
उत्कृष्ट आयु |
जघन्य आयु |
अवगाहना |
ग्रैवेयकों (अधो)में क्रमशः |
23, 24, 25 सागर |
22, 23, 24 सागर |
2.5 हाथ |
मध्यम ग्रैवेयकों मे क्रमशः |
26, 27, 28 सागर |
25, 26, 27 सागर |
2 हाथ |
उपरिम ग्रैवेयकों में क्रमशः |
29, 30, 31 सागर |
28, 29, 30 सागर |
1.5 हाथ |
नव अनुदिशों में अनुतरों में |
32 सागर |
31 सागर |
1.5 हाथ |
चार अनुतरों में |
33 सागर |
32 सागर |
1 हाथ |
सर्वार्थसिद्धि में |
33 सागर |
33 सागर |
1 हाथ |
विशेषः-अनुदिशों में अवगाहना 1.25 हाथ (सि.सा.दी. 15/257)
20. साधिक आयु (कुछ अधिक) का अर्थ क्या है, यह कौन से स्वर्ग तक लेते हैं ?
किसी जीव ने संयम अवस्था में उपरिम स्वर्गों की देवायु का बंध किया, पश्चात् संक्लेश परिणामों के निमित्त से संयम की विराधना कर दी और अपवर्तनाघात अर्थात् बध्यमान आयु का घात कर अधस्तन स्वर्गों या भवनत्रिक में उत्पन्न होता है, उसे घातायुष्क कहते हैं। घातायुष्क सम्यक दृष्टि को अपने-अपने विमानों की आयु से अन्तर्मुहूर्त कम / सागर अधिक आयु मिलती है और वह मिथ्यादृष्टि हो गया तो उसे उस आयु से पल्य के असंख्यातवें भाग अधिक मिलेगी। घातायुष्क बारहवें स्वर्ग तक उत्पन्न होते हैं। (धपुवि, 4/385)
21. कल्पवासी और कल्पातीत देवों में आहार और श्वासोच्छास कब होता है ?
जितने सागर की आयु वाले देव होते हैं, उतने हजार वर्ष के बाद आहार ग्रहण करते हैं एवं उतने पक्ष (15 दिन) के बाद श्वासोच्छास ग्रहण करते हैं। जैसे - 7 सागर किसी देव की आयु है, वह 7000 वर्ष बाद आहार एवं 7 पक्ष अर्थात् 3.5 माह बाद श्वासोच्छास ग्रहण करते हैं। (त्रिसा, 544)
22. देव आहार में क्या लेते हैं ?
देवों में मानसिक आहार होता है अर्थात् उनके मन में आहार की इच्छा होते ही कण्ठ में अमृत झर जाता है और तृप्ति हो जाती है। (ति.प., 6/87)
23. चार प्रकार के देवों में विशेष भेद कितने होते हैं ?
चार प्रकार के देवों में ये दस भेद होते हैं
- इन्द्र - जो दूसरे देवों में न पाई जाने वाली अणिमा आदि ऋद्धि रूप ऐश्वर्य वाला हो,जिनकी आज्ञा चलती हो, वह इन्द्र कहलाता है।
- सामानिक - आज्ञा और ऐश्वर्य के अलावा जो स्थान, आयु, वीर्य, परिवार, भोग और उपभोग आदि में इन्द्र के समान हों, वे सामानिक कहलाते हैं। ये पिता, गुरु और उपाध्याय के समान होते हैं।
- त्रायस्त्रिश - जो मंत्री और पुरोहित के समान इन्द्र को सम्मति देते हैं। ये सभा में 33 ही होते हैं। इससे त्रायस्त्रिश कहलाते हैं।
- पारिषद - जो सभा में मित्र और प्रेमीजनों के समान होते हैं, वे पारिषद कहलाते हैं।
- आत्मरक्ष - जो अंग रक्षक के समान होते हैं, वे आत्मरक्ष कहलाते हैं।
- लोकपाल - जो देव कोतवाल के समान होते हैं, वे लोकपाल कहलाते हैं।
- अनीक - जैसे - यहाँ सेना है, उसी प्रकार सात तरह के पैदल, घोड़ा, बैल, रथ, हाथी, गन्धर्व और नर्तकी रूप सेना ये देव अनीक कहलाते हैं।
- प्रकीर्णक - जो गाँव और शहरों में रहने वाली प्रजा के समान हैं, उन्हें प्रकीर्णक कहते हैं।
- आभियोग्य - जो देव दास के समान वाहन (हाथी, घोड़ा) आदि कार्य में प्रवृत्त होते हैं, उन्हें आभियोग्य कहते हैं।
- किल्विषिक - जो इन्द्र की सभा में नहीं आ सकते, बाहर द्वार पर बैठते हैं, उन्हें किल्विषिक कहते हैं। (स.सि., 4/4/449)
नोट - व्यंतर और ज्योतिषियों में त्रायस्त्रिश और लोकपाल नहीं होते हैं। (तसू,4/5)
24. देवियों की उत्कृष्ट आयु कितनी होती है ?
16 स्वर्गो में क्रमशः 5,7,9,11,13,15,17,19,21,23, 25,27,34,41,48 एवं 55 पल्य है। प्रथम स्वर्ग में 5 पल्य है, 12 वें स्वर्ग तक 2-2 पल्य बढ़ाना है, इसके उपरांत 7-7 पल्य बढ़ाना है।
25. देवियों की जघन्य आयु कितनी होती है ?
सौधर्म - ऐशान स्वर्ग की देवियों की जघन्य आयु कुछ अधिक 1 पल्य है। शेष स्वर्गों की देवियों की उत्कृष्ट आयु, आगे - आगे के स्वर्गों की देवियों की जघन्य आयु है। जैसे - ऐशान स्वर्ग की देवियों की उत्कृष्ट आयु 7 पल्य है वही सानत्कुमार स्वर्ग की देवियों की जघन्य आयु है। (त्रिसा, 542)
26. देवियाँ कौन से स्वर्ग तक उत्पन्न होती हैं ?
देवियाँ दूसरे स्वर्ग तक ही उत्पन्न होती हैं। वहाँ भी रहती हैं एवं उन स्वर्गों में उत्पन्न हुई देवियों को उनके नियोगी देव, देवियों के चिह्न अवधिज्ञान से जानकर, अपनी - अपनी देवियों को अपने-अपने स्वर्ग में ले जाते हैं। प्रथम स्वर्ग में उत्पन्न देवियाँ3, 5, 7, 9, 11, 13 एवं 15 वें स्वर्ग तक जाती हैं। दूसरे स्वर्ग में उत्पन्न देवियाँ 4, 6, 8, 10, 12, 14 एवं 16 वें स्वर्ग तक जाती हैं। (त्रि.सा., 524-525)
27. सोलह स्वर्गों में कितने इन्द्र होते हैं ?
सोलह स्वर्गों में बारह इन्द्र होते हैं।
कल्प |
दक्षिणेन्द्र |
उत्तरेन्द्र |
सौधर्म-ऐशान कल्प में |
सौधर्म इन्द्र |
ऐशान इन्द्र |
सानत्कुमार-माहेन्द्र कल्प में |
सानत्कुमार इन्द्र |
माहेन्द्र इन्द्र |
ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर कल्प में |
ब्रह्म इन्द्र |
- |
लान्तव-कापिष्ठ कल्प में |
लान्तव इन्द्र |
- |
शुक्र-महाशुक्र कल्प में |
शुक्र इन्द्र |
- |
शतार-सहस्रार कल्प में |
शतार इन्द्र |
- |
आनत-प्राणत कल्प में |
आनत इन्द्र |
प्राणत इन्द्र |
आरण-अच्युत कल्प में |
आरण इन्द्र |
अच्युत इन्द्र |
28. एक भवावतारी जीव कौन-कौन से होते हैं ?
सौधर्म इन्द्र,सौधर्म इन्द्र की शची, उसी के सोमादि चार लोकपाल (पूर्वादि दिशाओों में क्रमशः सोम, यम, वरुण और धनद (कुबेर) होते हैं), सानत्कुमारादि दक्षिणेन्द्र, लौकान्तिक देव और सर्वार्थसिद्धि विमान के देव एक भवावतारी होते हैं। (त्रिसा, 548)
29. लौकान्तिक देव कौन हैं एवं कहाँ रहते हैं ?
पाँचवें ब्रह्मलोक नामक स्वर्ग के अंत में रहने वाले देव लौकान्तिक देव हैं। ये एक भवावतारी होते हैं। इनके लोक (संसार) का अन्त आ गया है, इसलिए इन्हें लौकान्तिक कहते हैं। ये विषयों से रहित होते हैं, अत: इन्हें देवर्षि भी कहते हैं। ये द्वादशांग के पाठी होते हैं, मात्र तिर्थंकरो के तपकल्याणक में उनके वैराग्य की प्रशंसा करने आते हैं। इनकी शुक्ल लेश्या होती है। जघन्य एवं उत्कृष्ट आयु आठ सागर की होती है। (स.सि., 4/24-25, 42/489, 491, 525)
30. लौकान्तिक देवों के कितने भेद हैं ?
लौकान्तिक देवों के 8 भेद हैं-सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध और अरिष्ट।
31. लौकान्तिक देव कौन बनते हैं ?
सतत् बारह भावनाओं का चिन्तन करने वाले सम्यकद्रष्टि मुनि लौकान्तिक देव बनते हैं तथा श्रावक भी इन्द्र या लौकान्तिक पद प्राप्त कर सकता है। (द्र.सं.टी.38,उ.पु.67/201-207)
32. कौन से स्वर्ग के देव मरणकर कितने समय बाद उसी स्वर्ग के देव हो सकते हैं ?
स्वर्ग |
अन्तर काल |
भवनत्रिक |
अन्तर्मुहूर्त |
सौधर्म—ऐशान |
अन्तर्मुहूर्त |
सानत्कुमार-माहेन्द्र |
मुहूर्त पृथक्त्व |
ब्रह्म—ब्रह्मोत्तर |
दिवस पृथक्त्व |
लान्तव—कापिष्ठ |
दिवस पृथक्त्व |
शुक्र-महाशुक्र |
पक्ष पृथक्त्व |
शतार-सहस्रार |
पक्ष पृथक्त्व |
आनता-प्राणात |
माह पृथक्त्व |
आरण-अच्युत |
माह पृथक्त्व |
नवग्रैवेयक |
वर्ष पृथक्त्व |
नवअनुदिश |
वर्ष पृथक्त्व |
चार अनुतरों में |
वर्ष पृथक्त्व |
विशेष - पृथक्त्व का अर्थ 3 से 9 तक। किन्तु नवग्रैवेयक, नवअनुदिश एवं चार अनुत्तर विमानों में वर्ष पृथक्त्व से 8 वर्ष अन्तर्मुहूर्त से 9 वर्ष तक लेना होगा। क्योंकि कल्पातीत विमानों में मुनि ही जाते हैं और आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त से पहले मुनि नहीं बन सकते हैं।
33. वैमानिक देवों में उत्पत्ति के कारण क्या हैं ?
सम्यक् दर्शन, देशव्रत और महाव्रत से तो वैमानिकों में ही उत्पत्ति होती है। मंदकषायी, पीत, पद्म, शुक्ल लेश्या और अनेक प्रकार के तपादि करने से भी वैमानिक देवों में उत्पति होती है।
34. सभी देवों में आपस में बड़ा प्रेम रहता होगा ?
यद्यपि अधिकांश देवों में शुभ लेश्या होने के कारण प्रीतिभाव रहता है परन्तु कुछ देव ईष्या-द्वेष आदि भावों से भी युक्त होते हैं। जैसे-चमरेन्द्र (असुरकुमार में इन्द्र) सौधर्म इन्द्र से। वैरोचन (असुरकुमार में इन्द्र) ऐशान इन्द्र से। भूतानन्द (नागकुमार में इन्द्र) वेणु से (सुपर्णकुमार में इन्द्र) । धरणानन्द (नागकुमार में इन्द्र) वेणुधारी से स्वभावत: नियम से ईष्या करते हैं। (त्रि.सा. 212)
35. देवों में कितनी शक्ति होती है ?
एक पल्योपम प्रमाण आयु वाला देव पृथ्वी के छः खण्डों को उखाड़ने के लिए और उनमें स्थित मनुष्यों व तिर्यच्चों को मारने अथवा उनकी रक्षा करने में समर्थ है। सागरोपम आयु वाले देव जम्बूद्वीप को भी पलटने के लिए और उसमें स्थित मनुष्यों व तिर्यच्चों को मारने अथवा उनकी रक्षा करने में समर्थ हैं। सौधर्म इन्द्र जम्बूद्वीप को उलट सकता है। (ति.प., 8/720-721)
36. देव अवधिज्ञान से कहाँ तक का जानते हैं ?
इन्द्र |
नीचे कहाँ तक |
सौधर्म-ऐशान |
प्रथम नरक्र तक्र |
सानत्कुमार-माहेन्द्र |
दूसरे नरक तक |
ब्रह्म—ब्रह्योत्तर, लान्तव–कापिष्ठ |
तीसरे नरक तक |
शुक्र-महाशुक्र,शतार-सहस्रार |
चौथे नरक तक |
आनत-प्राणत, आरण-अच्युत |
पाँचवें नरक तक |
नव ग्रैवेयक |
छठवें नरक तक |
नव अनुदिश |
लोकनाली पर्यन्त |
पञ्च अनुत्तर |
लोकनाली पर्यन्त (रा.वा., 1/21/7) |
सभी देव ऊपर अपने-अपने विमान के ध्वजदंड तक जानते हैं। तथा असंख्यात कोड़ाकोड़ी योजन तिर्यक् रूप से जानते हैं।
37. देवगति के दुखों का वर्णन कीजिए ?
देवों में शारीरिक दुख नहीं है, किन्तु मानसिक दु:ख बहुत हैं। शारीरिक सुख होते हुए भी मन दु:खी है तब सारी भोग-उपभोग सामग्री नीरस हो जाती है। देव दूसरे बड़े इन्द्रों के वैभव को देखकर ईर्षा करते हैं। कोई प्रियजन-आयुपूर्ण कर स्वर्ग से च्युत होते हैं तो उनके वियोग को भी देव, देवी सहन करते हैं एवं मरण के छ:माह पहले स्वयं की माला मुरझा जाती है इसलिए स्वर्ग छूटने का भी दुख देव, देवियाँ सहन करते हैं। देवों में अपवाद जनित दुख नहीं होते हैं, क्योंकि स्वर्गों में अपवाद होते ही नहीं है। (का.आ. , 58-61)
38. देवगति में कितने गुणस्थान होते हैं ?
देवगति में 1 से 4 तक गुणस्थान होते हैं।
39. 100 इन्द्र कौन-कौन से होते हैं ?
भवणालय चालीसा वितर देवाण होंति बत्तीसा।
कप्यामरचउवीसा, चन्दो सूरो णरो तिरियो ।
भवनवासी देवों के 40 इन्द्र
व्यन्तर देवों के 32 इन्द्र
वैमानिक देवों के 24 इन्द्र
ज्योतिषी देवों में सूर्य 1 इन्द्र
ज्योतिषी देवों में चन्द्रमा 1 इन्द्र
मनुष्यों में चक्रवर्ती 1 इन्द्र
तिर्यऊचों में सिंह 1 इन्द्र
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100 इन्द्र
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