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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 18 - मनुष्यगति

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    अद्वितीय अर्थात् तृतीय गति मनुष्य गति है। मनुष्यों के भेद उनके सुख-दु:ख का वर्णन एवं इसमें कितने गुणस्थान होते हैं, मोक्ष कौन प्राप्त करता है आदि का वर्णन इस अध्याय में है।

     

    1. मनुष्यगति किसे कहते हैं ?

    1. जिस कर्म का निमित्त पाकर आत्मा मनुष्य भाव को प्राप्त करता है, वह मनुष्यगति है।
    2. जो मन से उत्कृष्ट होते हैं, वे मनुष कहलाते हैं और इनकी गति को मनुष्यगति कहते हैं। 
    3. जो मन के द्वारा नित्य ही हेय-उपादेय, तत्व-अतत्व, धर्म-अधर्म का विचार करते हैं और कार्य करने में निपुण हैं, वे मनुष्य कहलाते हैं और उनकी गति को मनुष्यगति कहते हैं। (गोजी,149) 
    4. मनु (कुलकर) की संतान होने से मनुष्य कहलाते हैं।

     

    2. क्षेत्र की अपेक्षा मनुष्य के कितने भेद हैं ? 
    क्षेत्र की अपेक्षा मनुष्य के दो भेद हैं

    1. कर्मभूमिज - जहाँ पात्रदान के साथ आजीविका चलाने के लिए असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य कर्म किए जाते हैं। अशुभ कर्म से नरक, शुभ कर्म से स्वर्ग, तपस्या के द्वारा (मुनि बनकर) सर्वार्थसिद्धि विमान तक एवं समस्त (अष्ट) कर्मों का क्षय करके मोक्ष इसी कर्मभूमि से प्राप्त होता है और कर्मभूमि में जन्म लेने वाले कर्मभूमिज कहलाते हैं। 
    2. भोगभूमिज - जहाँ आजीविका चलाने के लिए षट्कर्म नहीं करने पड़ते हैं। जहाँ दस प्रकार के कल्पवृक्षों से प्राप्त सामग्री का भोग करते हैं। वह भोगभूमि कहलाती है और भोगभूमि में जन्म लेने वाले भोगभूमिज कहलाते हैं। (स.सि. 3/37/437) 

     

    3. कल्पवृक्ष किसे कहते हैं वे कौन-कौन से हैं ? 

    मनोवांछित वस्तु को देने वाले कल्पवृक्ष कहलाते हैं। वे दस प्रकार के होते हैं -

    1. पानांग - मधुर, सुस्वादु, छ: रसों से युक्त बत्तीस प्रकार के पेय को दिया करते हैं। 
    2. तुर्यांग - अनेक प्रकार के वाद्य यंत्र देने वाले होते हैं। 
    3. भूषणान्ग - कंगन, कटिसूत्र, हार, मुकुट आदि आभूषण प्रदान करते हैं।
    4. वस्त्रांग - अच्छी किस्म (सुपर क्वालिटी) के वस्त्र देने वाले हैं। . 
    5. भोजनांग  - अनेक रसों से युक्त अनेक व्यञ्जनों को प्रदान करते हैं। . 
    6. आलयांग - रमणीय दिव्य भवन प्रदान करते हैं। . 
    7. दीपांग - प्रकाश देने वाले होते हैं। . 
    8. भाजनांग - सुवर्ण एवं रत्नों से निर्मित भाजन और आसनादि प्रदान करते हैं।
    9. मालांग - अच्छे-अच्छे पुष्पों की माला प्रदान करते हैं। 
    10. तेजांग  - मध्य दिन के करोड़ों सूर्य से भी अधिक प्रकाश देने वाले इनके प्रकाश से सूर्य,चन्द्र का प्रकाश कांतिहीन हो जाता है। (ति.प., 4/346)

    पानांग जाति के कल्पवृक्ष को अघांग कहते हैं। ये अमृत के समान मीठे रस देते हैं। वास्तव में ये वृक्षों का एक प्रकार का रस है, जिन्हें भोगभूमि में उत्पन्न होने वाले आर्य पुरुष सेवन करते हैं, किन्तु यहाँ पर अर्थात् कर्मभूमि में जो मद्य पायी लोग जिस मद्य का पान करते हैं, वह नशीला होता है और अन्त:करण को मोहित करने वाला है, इसलिए आर्य पुरुषों के लिए सर्वथा त्याज्य है। (आ.पु., 9/37-39) 

     

    4. आचरण की अपेक्षा मनुष्य के कितने भेद हैं ? 
    आचरण की अपेक्षा मनुष्य के दो भेद हैं-आर्य और म्लेच्छ। धर्म-कर्म सहित उत्तम गुण वाले मनुष्य आर्य कहलाते हैं और जो धर्म-कर्म गुण से रहित आचार-विचार से भ्रष्ट हों, वे म्लेच्छ कहलाते हैं। आर्य मनुष्य दो प्रकार के हैं- ऋद्धि प्राप्त आर्य और ऋद्धि रहित आर्य। बुद्धि, तप, बल, विक्रिया, औषध, रस और क्षेत्र (अक्षीण महानस व अक्षीण महालय) रूप इन सात प्रकार की ऋद्धियों के धारी मुनिराज ऋद्धि प्राप्त आर्य कहलाते हैं। ऋद्धि रहित आर्य पाँच प्रकार के हैं-

    1. क्षेत्रार्य - काशी कौशल, मालवा आदि उत्तम देशों में उत्पन्न हुआ क्षेत्रार्य है। 
    2. जात्यार्य - इक्ष्वाकु, ज्ञाति, भोज आदि कुलों में उत्पन्न हुआ जात्यार्य है।
    3. कर्मार्य - असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य रूप कर्म करने वाले कर्मार्य है।
    4. चारित्रार्य - संयमधारी मनुष्य चारित्रार्य है।
    5. दर्शनार्य - व्रत रहित सम्यकद्रष्टि  मनुष्य दर्शनार्य है ।

    म्लेच्छ मनुष्यों के दो भेद हैं-अन्तर्दीपज और कर्मभूमिज। अन्तद्वीपों में उत्पन्न हुए अन्तद्वीपज म्लेच्छ, म्लेच्छ खण्ड में उत्पन्न म्लेच्छ और शक, यवन, शवर व पुलिन्दादिक कर्मभूमिज आर्यखण्ड के म्लेच्छ हैं।

     

    5. अन्तद्वीपज म्लेच्छ कहाँ रहते हैं, उनका आकार एवं आहार क्या है ? 
    अन्तद्वपिज जहाँ निवास करते हैं, वह कुभोगभूमि कहलाती है। यह लवण समुद्र में जम्बूद्वीप के तट पर चारों दिशाओं में चार, चारों विदिशाओं में चार, प्रत्येक दिशा, विदिशा के मध्य एक-एक अर्थात् आठ तथा भरत, ऐरावत के विजयार्ध पर्वत के दोनों छोरों पर एक-एक अर्थात् कुल चार एवं हिमवन् और शिखरी पर्वत के दोनों छोरों पर एक-एक अर्थात् कुल चार। इस प्रकार कुल 4+4+8+4+4=24 अन्तद्वीप हैं। इसी प्रकार 24 अन्तद्वीप लवण समुद्र के दूसरे तट पर और कालोदधि समुद्र के दोनों तटों पर भी 24 - 24 हैं। इस प्रकार कुल 48+48=96 कुभोगभूमियाँ हैं। इनमें कुमानुष निवास करते हैं, इसलिए इन्हें कुभोगभूमि कहते हैं। 
    उन अन्तद्वीपों में पूर्व दिशा में एक टांग वाले, दक्षिण में पूँछ वाले, पश्चिम में सींग वाले और उत्तर में गूंगे। आग्नेय आदि विदिशाओं में शष्कुली कर्ण (मत्स्य कर्ण), कर्ण प्रावरण, लम्बकर्ण और शशकर्ण अर्थात् खरगोश के कर्ण के समान होते हैं। इसी प्रकार शष्कुली कर्ण और एक टांग आदि के बीच में अर्थात् अंतर्दिशाओं में आठ कुमानुष सिंह, अश्व, श्वान, महिष, वराह, शार्दूल (व्याघ्र, बाघ), घूक और बंदर के समान मुख वाले होते हैं। हिमवन् पर्वत के पूर्व दिशा में मत्स्य मुख और पश्चिम दिशा में कालमुख, दक्षिण विजयार्ध के पूर्व दिशा में मेषमुख और पश्चिम दिशा में गौमुख। शिखरी पर्वत के पूर्व में मेघमुख और पश्चिम दिशा में विद्युतमुख तथा उत्तर विजयार्ध के पूर्व में आदर्शमुख और पश्चिम दिशा में हाथी मुख वाले कुमानुष रहते हैं। इनमें एक टांग वाले मनुष्य गुफाओं में निवास करते हैं और मिट्टी का आहार करते हैं तथा शेष मनुष्य फल-फूलों का आहार करते हैं तथा वृक्षों पर रहते हैं। कुभोगभूमि में जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। (त्रिसा, 913-921)

     

    6. म्लेच्छों में कितने गुणस्थान होते हैं ? 
    अन्तद्वीपज म्लेच्छ (कुभोगभूमि) का जन्म तो मिथ्यात्व, सासादन के साथ होता है, किन्तु वह सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है। अत: प्रथम गुणस्थान से चतुर्थ तक। (तिप,4/2554-55) सब म्लेच्छखण्डों में प्रथम गुणस्थान ही होता है। (तिप,4/2982) म्लेच्छखण्ड से आर्यखण्ड में आए हुए कर्मभूमिज म्लेच्छ तथा उनकी कन्याओं से उत्पन्न हुई चक्रवर्ती की संतान कदाचित् दीक्षा के योग्य भी होती है। (लसा.टी., 195) 

     

    7. कुभोगभूमि में उत्पन्न होने का क्या कारण है ? 
    मिथ्यादेवों की भक्ति में तत्पर, दिगम्बर साधुओं की निंदा करने वाले। जो जिनलिंग धारण कर मायाचारी करते हैं। गृहस्थों के विवाह आदि कराते हैं। जो सूक्ष्म व स्थूल दोषों की आलोचना गुरुजनों के समीप नहीं करते हैं, आदि कुमानुष म्लेच्छों में उत्पन्न होने के कारण हैं। (ति.प., 4/2540-2551) 

     

    8. भोगभूमि में उत्पन्न होने का क्या कारण है ? 
    जो मिथ्यात्व भाव से युक्त होते हुए भी मंद कषायी हैं, मद्य, माँस, मधु और उदम्बर फलों के त्यागी हैं। जो यतियों को आहार दान देते हैं या अनुमोदना करते हैं। ऐसे कर्मभूमि के मनुष्य और तिर्यच्च भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं एवं जिन मनुष्यों ने पहले मनुष्यायु, तिर्यच्चायु का बंध कर लिया है एवं बाद में क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त किया है ऐसे सम्यग्दृष्टि मनुष्य भी भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं। (तिप,4/369-372)

     

    9. कुभोगभूमि में मनुष्य ही रहते हैं या तिर्यञ्च भी रहते हैं ? 
    कुभोग भूमि में मनुष्य एवं तिर्यञ्च दोनों के युगल रहते हैं। (ति.प., 4/2552) 

     

    10. संमूच्छन मनुष्य की क्या विशेषता है? 
    संमूच्छन मनुष्य छ: पर्याप्तियाँ एक साथ प्रारम्भ करता है, किन्तु एक भी पर्याप्ति पूर्ण नहीं करता और मरण हो जाता है। इनकी आयु क्षुद्रभव प्रमाण एवं अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग रहती है इनका मात्र नपुंसक वेद ही होता है ये स्त्रियों के काँख वगैरह एवं गुह्य (गुप्त) स्थानों में उत्पन्न होते हैं। आँखों से नहीं देखे जाते।

     

    11. मनुष्यगति में कौन-कौन से दु:ख हैं ? 
    संमूच्छन मनुष्य हुआ तो वह शीघ्र मरण कर गया। गर्भज हुआ तो, सात माह से दस माह तक गर्भ में रहना पड़ता है, वहाँ अंग, उपांग को संकुचित करके रहना पड़ता है और जब जन्म लेता है तो बड़ी वेदना होती है। बाल अवस्था में भूख, प्यास, रोग को सहन करता है, क्योंकि वह अपने कष्ट को कह नहीं सकता है। बाल अवस्था में ही माता-पिता का अवसान हो गया, तो दूसरों के द्वारा दिया गया भोजन करके बड़ा होता है और बड़ा हुआ पढ़ गया तो ठीक नहीं तो सबके सामने नीचा देखना पड़ता है। किसी की स्त्री नहीं है। किसी की स्त्री है किन्तु दुष्टा (दुश्चरित्र) है। किसी की अच्छी तो है, किन्तु जल्दी ही मरण को प्राप्त हो गई। किसी का पुत्र नहीं है, किसी का है, किन्तु दुव्र्यसनों में फैसा हुआ है। किसी का पुत्र आज्ञाकारी भी है, पढ़ने में होशियार भी है, किन्तु अल्पायु में ही मरण को प्राप्त हो गया। स्त्री, बच्चे भी हैं, किन्तु बीमार रहते हैं, कोई स्वस्थ है, किन्तु धन नहीं है। धन है, नष्ट हो गया तो भी कष्ट होता है। आज वर्तमान में बेरोजगारी से लोग पीड़ित हैं। विवाह की उम्र बढ़ती जा रही है, जिससे मातापिता भी परेशान हैं। कन्या का विवाह करना है तो दहेज चाहिए और न जाने कैसे-कैसे दु:ख हैं, बड़े भाई को भी छोटे भाइयों से अपमानित होना पड़ता है। पिता को भी पुत्र से अपमानित होना पड़ता है। संक्षेप में कहा जाए तो यही कहेंगे, कोई तन दुखी, कोई मन दुखी कोई धन दुखी है। (का.अ., 44-57)

     

    12. क्या सभी मनुष्य दु:खी रहते हैं ? 
    भोगभूमि के मनुष्यों में तो सुख है, किन्तु कर्मभूमि के मनुष्यों में सुख भी है, दुख भी है। जिनका पुण्यकर्म का उदय है, वे सुखी हैं, जिनका पाप कर्म का उदय है, वे दु:खी हैं।

     

    13. मनुष्यगति में कितने गुणस्थान होते हैं ?
     भोगभूमि के मनुष्यों में 1 से 4 तक गुणस्थान होते हैं एवं कर्मभूमि में 1 से 14 तक गुणस्थान होते हैं। 

     

    14. मनुष्य कहाँ रहते हैं एवं मुक्ति कहाँ से होती है? 
    मनुष्य अढ़ाईद्वीप में रहते हैं एवं मुक्ति भी अढ़ाईद्वीप से होती है। 

     

    15. अढ़ाईद्वीप का क्या अर्थ है ? 
    अढ़ाईद्वीप एवं दो समुद्र। जम्बूद्वीप, लवण समुद्र, धातकीखण्ड, कालोदधि समुद्र एवं पुष्कर द्वीप आधा। 

     

    Edited by admin


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