Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    895

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. गुरु औ शिष्य, आगे-पीछे, दोनों में, अन्तर कहाँ ? हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  2. छाया सी लक्ष्मी, अनुचरा हो, यदि, उसे न देखो। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  3. जल में तैरे, स्थूल-काष्ठ भी, लघु-, कंकर डूबे। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  4. जल कण भी, अर्क तूल को, देखा !, धूल खिलाता। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  5. अन्धकार में, अन्धा न, आँख वाला, डर सकता। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  6. तपस्वी बना, पर्वत सूखे पेड़, हड्डी से लगे। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  7. स्व-स्व कार्यों में, सब लग गये पै, मन न लगा । हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  8. सच्चे देव-शास्त्र-गुरु पर श्रद्धान करना सम्यक् दर्शन कहलाता है। इनका स्वरूप क्या है। इसका वर्णन इस अध्याय में है। 1. आप्त किसे कहते हैं ? सच्चे देव को आप्त कहते हैं। 2. सच्चे देव कौन हैं ? जो वीतरागी, सर्वज्ञ तथा हितोपदेशी होते हैं, वे ही सच्चे देव हैं। 3. वीतरागी किसे कहते हैं ? जिस महान् आत्मा में 18 दोष नहीं पाए जाते हैं, उन्हें वीतरागी कहते हैं। अथवा ‘वीतो नष्टो रागो येषां ते वीतराग:'। जिनका राग नष्ट हो गया है, उन्हें वीतराग कहते हैं। 4. सर्वज्ञ किसे कहते हैं ? जो लोक के समस्त पदार्थों को और उनकी त्रिकालवर्ती अनन्त पर्यायों को युगपत् जानते हैं, ऐसे परमात्मा को सर्वज्ञ कहते हैं। 5. हितोपदेशी किसे कहते हैं ? जो रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग के नेता हैं तथा भव्य जीवों को मोक्षमार्ग पर लगाने के लिए हित का उपदेश देते हैं, उन परमात्मा को हितोपदेशी कहते हैं। 6. वीतरागी एवं सर्वज्ञ कितने परमेष्ठी हैं ? वीतरागी एवं सर्वज्ञ दो परमेष्ठी हैं-अरिहंत एवं सिद्ध। 7. हितोपदेशी कौन से परमेष्ठी हैं ? हितोपदेशी अरिहंत परमेष्ठी हैं। 8. अठारह दोष कौन से हैं जो वीतरागी में नहीं पाए जाते हैं ? आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में श्लोक 6 में अठारह दोष इस प्रकार बताए हैं क्षुत्पिपासाजरातंक, जन्मान्तकभयस्मयाः॥ न राग-द्वेष-मोहाश्च, यस्याप्तः स प्रकीत्र्यते॥ अर्थ - क्षुधा (भूख), पिपासा (प्यास), बुढ़ापा, रोग, जन्म, मरण, भय, घमण्ड, राग, द्वेष, मोह, और च से चिन्ता, अरति, आश्चर्य, निद्रा, खेद, शोक और पसीना ये अठारह दोष नहीं होते हैं। 9. कोई यह मानते हैं कि केवली भगवान कवलाहार करते हैं, उसी से एक पूर्व कोटि वर्ष तक जीवित रहते हैं ? केवली (अरिहंत) को संसारी जीवों के समान कवलाहार कभी नहीं होता है, उनको कवलाहारी मानना मिथ्यात्व के बंध का कारण है। यदि केवली को कवलाहारी मानेंगे तो भूख, प्यास का सद्भाव मानना पड़ेगा, जिससे दोषों का सद्भाव होगा तथा वीतरागता भी नहीं रहेगी इसलिए उन्हें केवली भी नहीं कह सकते हैं। 10. केवली कवलाहारी नहीं होते हैं, सिद्ध कीजिए ? केवली कवलाहारी नहीं हो सकते, इस तथ्य को निम्न प्रकार से सिद्ध कर सकते हैं क्षुधा की प्रवृत्ति वेदनीय कर्म के उदय से होती है, वेदनीय कर्म का फल मोहनीय कर्म के साहचर्य से मिलता है। मोहनीय कर्म का अभाव होने से केवली को क्षुधा लगती ही नहीं है। आहार संज्ञा छठवें गुणस्थान तक होती है एवं आहार क्रिया सप्तम गुणस्थान में भी होती है, अत: वहाँ आहार संज्ञा नहीं है आहार क्रिया है। किन्तु सयोग केवली का तेरहवाँ गुणस्थान है, अत: वह आहार नहीं करते हैं। केवली के पास केवलज्ञान है, लोक के अनन्तानन्त शुभाशुभ पदार्थ स्पष्ट दिख रहे हैं इसलिए अशुभ पदार्थों को देखने से अन्तराय का प्रसंग आ जाएगा। जब अशुभ पदार्थ देखने से सामान्य श्रावक भी अंतराय करते हैं तो केवली न करें, यह संभव नहीं है। (र.क.श्रा.टी., 6) हमारे शरीर में अनन्त स्थावर एवं असंख्यात त्रसजीव भरे हुए हैं, वे हमारे शरीर में स्थित भोजन को करते हैं, जिससे हमारा शरीर निरन्तर क्षीण होता रहता है। उस कमी को दूर करने के लिए हमें आहार लेना आवश्यक होता है। केवली भगवान के शरीर में अन्य कोई भी जीव नहीं पाया जाता है, अत: उनको कवलाहार की आवश्यकता नहीं पड़ती है। 11. आहार के बिना केवली का शरीर कुछ कम एक पूर्व कोटि वर्ष तक कैसे स्थिर रहता है ? नोकर्माहार के माध्यम से। उनके शुद्ध परिणामों के निमित्त से निरन्तर शुद्ध पुद्गल वर्गणाएँ आती रहती हैं, जो नोकर्म रूप शरीर की स्थिति में सहायक होती है। 12. केवली नोकर्माहार करते हैं तो आहार कितने प्रकार के होते हैं तथा वे कौन-सा आहार करते हैं ? आहार 6 प्रकार के होते हैं। नोकर्माहार केवली का कर्माहार नारकियों का कवलाहार मनुष्य एवं तिर्यञ्चों का (कवल अर्थात् ग्रास) लेपाहार वनस्पति आदि में ओंज आहार अण्डस्थ पक्षियों में मानसिक आहार देवों में। (र.श्रा.वि., 6) 13. आप्त के पर्यायवाची नाम बताइए ? परमेष्ठी, पंरज्योति, वीतराग, विमल, क्रती, सर्वज्ञ, अनादिमद्यांत, सर्व, शास्ता अर्धनारीश्वर और जगन्नाथ आदि । 14. नवदेवता के नाम बताइए ? अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य एवं जिनचैत्यालय, ये नवदेवता हैं। 15. आचार्य, उपाध्याय और साधु को देव क्यों कहते हैं ? अरिहंत के पश्चात् छद्मस्थ ज्ञान के धारक उन्हीं के समान दिगम्बर रूप धारण करने वाले आचार्य, उपाध्याय एवं साधु हैं। वह भी देव हैं, क्योंकि अरिहंत में जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र है, उस रत्नत्रय की एकदेश शुद्धता उनमें भी पाई जाती है और वे ही संवर, निर्जरा और मोक्ष का कारण है। इसलिए अरिहंत की भाँति ये तीनों भी एक देश रूप से निर्दोष हैं, वे मोक्षमार्ग के साधक हैं व उपदेश करने वाले हैं, पूज्य हैं, अत: उन्हें भी देव कहते हैं। 16. कोई कहता है सर्वज्ञ हैं ही नहीं, क्योंकि देखने में नहीं आते हैं ? इसका समाधान क्या है ? यदि आप कहते हैं कि सर्वज्ञ नहीं हैं, तो मैं पूछता हूँ कि सर्वज्ञ कहाँ नहीं हैं ? इस क्षेत्र में और इस काल में अथवा तीनों लोक में अथवा तीनों काल में ? यदि इस क्षेत्र में और इस काल में सर्वज्ञ नहीं हैं ऐसा कहो तो वह स्वीकार ही है। यदि तीनों लोक में और तीनों काल में सर्वज्ञ नहीं है। ऐसा कहो, तो बताइए वह आपने कैसे देखा-जाना ? यदि तीनों लोक को और तीनों काल को सर्वज्ञ के बिना आपने जान लिया तो आप ही सर्वज्ञ हो गए, क्योंकि जो तीन लोक और तीनों काल को जाने वही सर्वज्ञ है और यदि सर्वज्ञ रहित तीनों लोक और तीनों काल को आपने नहीं देखा-जाना है तो फिर तीन लोक और तीन काल में सर्वज्ञ नहीं है, ऐसा आप कैसे कह सकते हो ? इस प्रकार सिद्ध होता है कि तुम्हारे द्वारा किया गया सर्वज्ञ का निषेध उचित नहीं है। सूक्ष्म अर्थात्परमाणु आदिक, अन्तरित अर्थात् काल की अपेक्षा से दूर राम - रावणादि और दूरस्थ सुमेरु आदि, किसी - न-किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं, क्योंकि अनुमेय हैं। जैसे-अग्नि आदि पदार्थ अनुमान के विषय हैं सो ही किसी के प्रत्यक्ष भी अवश्य होते हैं। ऐसे सर्वज्ञ का भले प्रकार निश्चय होता है। अत: सर्वज्ञ की सिद्धि होती है। वेदान्ती और बौद्धों ने भी सर्वज्ञ को स्वीकार किया है। 17. सच्चे शास्त्र का स्वरूप क्या है ? केवली भगवान् के द्वारा कहा गया तथा अतिशय बुद्धि, ऋद्धि के धारक गणधर देवों के द्वारा जो धारण किया गया है एवं आचार्य, उपाध्याय और साधु द्वारा लिपिबद्ध किए गए शास्त्र ही सच्चे शास्त्र कहलाते हैं। 18. सच्चे गुरु का स्वरूप बताइए ? रत्नकरण्ड श्रावकाचार की कारिका 10 के अनुसार सच्चे गुरु का स्वरूप इस प्रकार है विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः ॥ ज्ञानध्यान तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥ अर्थ - जो पञ्चेन्द्रिय विषयों की आशा के वशीभूत नहीं हैं, आरम्भ तथा परिग्रह से रहित हैं, निरंतर ज्ञानध्यान तथा तप में लवलीन रहते हैं, वे ही सच्चे गुरु प्रशंसा के योग्य हैं। 19. गुरु शब्द का अर्थ क्या है ? गुरु शब्द का अर्थ महान् होता है। लोक में शिक्षकों को गुरु कहते हैं। माता-पिता भी गुरु कहलाते हैं। परन्तु धार्मिक प्रकरण में आचार्य, उपाध्याय व साधु ही गुरु कहलाते हैं, क्योंकि वे जीव को उपदेश देकर अथवा बिना उपदेश दिए ही केवल अपने जीवन का दर्शन कराकर कल्याण का सच्चा मार्ग बताते हैं, जिसे पाकर वह सदा के लिए कृतकृत्य हो जाता है। 20. साधुका मुख्य लक्षण क्या है ? साधु का मुख्य लक्षण प्रवचनसार की गाथा 241 के अनुसार इस प्रकार है– समसतुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिदसमो। समलोट्टकंचणो पुण जीवितमरणेसमो समणो॥ अर्थ - जिसे शत्रु और बंधु वर्ग समान हैं, सुख-दुख समान हैं, प्रशंसा और निंदा के प्रति जिसको समता है, जिसे पत्थर और सोना (स्वर्ण) समान है तथा जीवन - मरण के प्रति जिसको समता है, वह श्रमण है। 21. साधु के अनेक सामान्य गुण कौन-कौन से हैं ? श्री धवलाजी, पुस्तक 1 में साधु के अनेक सामान्य गुण इस प्रकार प्रदर्शित किए हैं सीह-गय-वसह-मिय-पसु-मारुद-सूरुवहिं मंदरिंदु-मणी। खिदि-उरगंबर-सरिसा परम-पय-विमग्गया साहू॥ अर्थ - सिंह के समान पराक्रमी, गज के समान स्वाभिमानी, बैल के समान भद्रप्रकृति, मृग के समान सरल, पशु (गाय) के समान निरीह गोचरी वृत्ति करने वाले, पवन के समान नि:संग या सब जगह बेरोकटोक विचरने वाले, सूर्य के समान तेजस्वी या सकल तत्वों के प्रकाशक, सागर के समान गम्भीर, मेरु के समान अकम्प व अडोल, चन्द्रमा के समान शांतिदायक, मणि के समान प्रभापुंजयुक्त, क्षिति के समान सर्व प्रकार की बाधाओं को सहने वाले, सर्प के समान अनियत वसतिका में रहने वाले, आकाश के समान निरालम्बी, निलेंप और सदाकाल परमपद का अन्वेषण करने वाले साधु होते हैं।
  9. जिस प्रकार नींव के बिना मकान का महेत्व नहीं, उसी प्रकार सम्यकदर्शन के बिना संसारी आत्माओं का महत्व नहीं। सम्यकदर्शन किसे कहते हैं, यह कितने प्रकार का होता है, इसके कितने दोष हैंआदि का वर्णन इस अध्याय में है। 1. सम्यकदर्शन किसे कहते हैं ? सच्चे देव, शास्त्र और गुरु का तीन मूढ़ता रहित, आठ मद से रहित और आठ अंग सहित श्रद्धान करना सम्यकदर्शन है। 2. चार अनुयोगों में सम्यकदर्शन की क्या परिभाषा है ? प्रथमानुयोग - सच्चे देव-शास्त्र-गुरु पर श्रद्धान करना। करणानुयोग - सात प्रकृतियों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम से होने वाले श्रद्धा रूप परिणाम। चरणानुयोग - प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य का भाव होना। द्रव्यानुयोग - तत्वार्थ का श्रद्धान करना सम्यकदर्शन है। 3. सम्यकदर्शन के कितने भेद हैं ? सम्यकदर्शन के दो भेद हैं - 1. सराग सम्यकदर्शन 2. वीतराग सम्यकदर्शन। 1. सराग सम्यकदर्शन अ. धर्मानुराग सहित सम्यकदर्शन सराग सम्यकदर्शन है। ब. प्रशम, संवेग, अनुकम्पा औरआस्तिक्य आदि की अभिव्यक्ति इसका मुख्य लक्षण है।(ध.पु. 1/152 ) प्रशम - रागादि की तीव्रता का न होना। संवेग - संसार से भयभीत होना। अनुकम्पा - प्राणी मात्र में मैत्रीभाव रखना। आस्तिक्य - ‘जीवादि पदार्थ हैं” ऐसी बुद्धि का होना। 2. वीतराग सम्यकदर्शन - राग रहित सम्यकदर्शन वीतराग सम्यकदर्शन कहलाता है, यह वीतराग चारित्र का अविनाभावी है। यहाँ श्रद्धान और चारित्र में एकता होती है। उदाहरण-रामचन्द्रजी सम्यकद्रष्टि थे। एक तरफ जब सीताजी का हरण हुआ तो वह सीताजी को खोजते हैं, वृक्ष, नदी आदि से भी पूछते हैं कि मेरी सीता कहाँ है ? दूसरी तरफ जब रामचन्द्रजी मुनि अवस्था में शुद्धोपयोग में लीन हो जाते हैं और सीता जी का जीव विचार करता है कि इनके साथ हमारा अनेक भवों का साथ रहा है, यदि ये ऐसे ध्यान में लीन रहे तो मुझसे पहले मोक्ष चले जाएंगे। अत: सम्यकद्रष्टि सीताजी का जीव मुनि रामचन्द्रजी के ऊपर उपसर्ग करता है पर रामचन्द्रजी ध्यान से च्युत नहीं हुए। तो विचार कीजिए कि पहले भी रामचन्द्रजी सम्यकद्रष्टि थे और मुनि अवस्था में भी सम्यकद्रष्टि थे, फिर अन्तर क्या रहा तो पहले उनके सम्यक्त्व के साथ राग था आस्था और आचरण में भेद था, इसलिए सीताजी को खोज रहे थे। अत: सराग सम्यकदर्शन था। जब मुनि थे तो आस्था और आचरण में एकता आ गई थी, वीतराग सम्यकद्रष्टि बन गए। इससे सीताजी के जीव द्वारा किए गए उपसर्ग को भी सहन करते रहे और केवलज्ञान को प्राप्त किया। 4. व्यवहार सम्यकदर्शन और निश्चय सम्यकदर्शन किसे कहते हैं ? शुद्ध जीव आदि तत्वार्थों का श्रद्धानरूप सरागसम्यक्त्व व्यवहार सम्यक्त्व जानना चाहिए और वीतराग चारित्र के बिना नहीं होने वाला वीतराग सम्यक्त्व निश्चय सम्यक्त्व जानना चाहिए। 5. सम्यकदर्शन के उत्पत्ति की अपेक्षा कितने भेद हैं ? सम्यकदर्शन की उत्पति की अपेक्षा दो भेद हैं - निसर्गज सम्यकदर्शन - जो पर के उपदेश के बिना जिनबिम्ब दर्शन, वेदना, जिनमहिमा दर्शन आदि से उत्पन्न होता है, उसे निसर्गज सम्यकदर्शन कहते हैं। अधिगमज सम्यकदर्शन - जो गुरु आदि पर के उपदेश से उत्पन्न होता है, वह अधिगमज सम्यकदर्शन है। 6. निसर्गज और अधिगमज में अंतरंग निमित्त क्या है ? दोनों ही सम्यक्त्व में मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्रप्रकृति और अनन्तानुबंधी चतुष्क इन सात प्रकृतियों का उपशम, क्षय व क्षयोपशम होना, अंतरंग निमित है। (तसू, 1/3) 7. अन्तरंग निमित्त की अपेक्षा से सम्यकदर्शन के कितने भेद हैं ? तीन भेद हैं- 1. उपशम सम्यकदर्शन 2. क्षयोपशम सम्यकदर्शन 3. क्षायिक सम्यकदर्शन। 8. उपशम सम्यकदर्शन के कितने भेद हैं ? दो भेद हैं। 1. प्रथमोपशम सम्यकदर्शन 2. द्वितीयोपशम सम्यकदर्शन। प्रथमोपशमसम्यकदर्शन' - मिथ्यादूष्टि जीव को, जो दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृति अर्थात् मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्रप्रकृति एवं अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ इन सात प्रकृतियों के उपशम से जो सम्यकदर्शन होता है, उसे प्रथमोपशम सम्यकदर्शन कहते हैं। यह चारों गतियों के जीवों को हो सकता है। द्वितीयोपशम सम्यकदर्शन - क्षयोपशम सम्यकदर्शन के अनन्तर जो उपशम सम्यकदर्शन होता है, उसे द्वितीयोपशम सम्यकदर्शन कहते हैं। यह भी सात प्रकृतियों के उपशम से होता है। सप्तम गुणस्थानवर्ती मुनि यदि उपशम श्रेणी चढ़े तब उसको क्षायिक सम्यकदर्शन या द्वितीयोपशम सम्यकदर्शन आवश्यक होता है। विशेष - अन्य आचार्यों के मतानुसार द्वितीयोपशम सम्यकदर्शन चतुर्थ गुणस्थान से सप्तम गुणस्थानवर्ती क्षयोपशम सम्यकद्रष्टि प्राप्त करता है। (ध.पु., 1/211, का.अ.टी., 484, मूलाचार, 205 टीका) 9. सर्वप्रथम जीव कौन-सा सम्यकदर्शन प्राप्त करता है ? सर्वप्रथम जीव प्रथमोपशम सम्यकदर्शन प्राप्त करता है। 10. प्रथमोपशम एवं द्वितीयोपशम सम्यकदर्शन प्राप्त करने के स्वामी कौन हैं ? प्रथमोपशम सम्यकदर्शन - संज्ञी, पञ्चेन्द्रिय, पर्याप्त, गर्भजन्म और उपपाद जन्म वाले मिथ्यादृष्टि ही प्राप्त करते हैं। संज्ञी पज्चेन्द्रिय सम्मूच्छन जन्म वाले प्राप्त नहीं कर सकते हैं। द्वितीयोपशम सम्यकदर्शन - इसे क्षयोपशम सम्यकदर्शन वाले मुनि या 4 से 7 गुणस्थान वाले क्षयोपशम सम्यकद्रष्टि कर्मभूमि के मनुष्य ही प्राप्त कर सकते हैं। भोगभूमि के प्राप्त नहीं कर सकते। 11. प्रथमोपशम एवं द्वितीयोपशम सम्यकदर्शन में क्या अंतर है ? निम्नलिखित अंतर हैं - प्रथमोपशाम सम्यकदर्शन द्वितीयोपशम सम्यकदर्शन 1. धर्म का प्रारम्भ इससे ही होता है। 1. यह धर्म प्रारम्भ होने के बाद ही होता है। 2. यह चारों गतियों के जीवों को होता है। 2.यह मात्र साधु को होता है या 4 से 7 वेंगुणस्थानवर्ती मनुष्यों को होता है। 3. इसमें गुणस्थान 4 से 7 तक होते हैं। 3. इसमें 4 से 11 गुणस्थान तक होते हैं। 4. किसी भी गति की अपर्याप्त अवस्था में नहीं रहता है। 4. मात्र देवगति की अपर्याप्त अवस्था में रह सकता है। 5. यह मिथ्यादृष्टि प्राप्त करता है। 5. यह क्षयोपशम सम्यकद्रष्टि प्राप्त करता है। 6. इसमें मरण नहीं होता है। 6. इसमें मरण हो सकता है। 7.यह अर्धपुद्गल परावर्तन काल में असंख्यात बार हो सकता है। 7.यह एक भव में दो बार तथा संसार चक्र में कुल चार बार हो सकता है। 8.एक बार प्रथमोपशम सम्यकदर्शन होने के बाद पुनः प्रथमोपशम सम्यकदर्शन असंख्यात वर्ष के बाद ही हो सकता है। 8. यह अन्तर्मुहूर्त बाद पुन: हो सकता है। 9. अन्तर्मुहूर्त होने पर भी इसका काल कम है। 9. इसका काल प्रथमोपशम सम्यकदर्शन के काल से संख्यात गुणा अधिक है। 10. इसमें त्रिकरण परिणामों की शुद्धि हीन है। 10. इसमें प्रथमोपशम सम्यकदर्शन की अपेक्षा त्रिकरण परिणामों की शुद्धि अनन्तगुणी अधिक है। 12. क्षयोपशम सम्यकदर्शन किसे कहते हैं ? अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्व इन 6 प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय व उपशम से तथा सम्यक्रप्रकृति के उदय में जो सम्यकदर्शन होता है, उसे क्षयोपशम सम्यकदर्शन कहते हैं। 13. क्षयोपशम सम्यकदर्शन प्राप्त करने के स्वामी कौन-कौन हैं ? चारो गतियों वाले संज्ञी, पञ्चेन्द्रिय, पर्याप्त, गर्भजन्म, उपपाद जन्म एवं सम्मूर्च्छन जन्म वाले मिथ्यादृष्टि प्राप्त करते हैं। प्रथमोपशम, द्वितीयोपशम सम्यकद्रष्टि एवं सम्यग्मिथ्यादृष्टि भी प्राप्त करते हैं। विशेष : वर्तमान में प्रथमोपशम एवं क्षयोपशम सम्यकदर्शन होता है, या हो सकता है। 14. क्षायिक सम्यकदर्शन किसे कहते हैं ? सात प्रकृतियों के क्षय (नाश) से जो सम्यकदर्शन होता है, उसे क्षायिक सम्यकदर्शन कहते हैं। 15. क्षायिक सम्यकदर्शन प्राप्त कौन कर सकता है ? मात्र कर्मभूमि का मनुष्य क्षयोपशम सम्यकद्रष्टि केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में प्राप्त करता है। 16. यदि क्षायिक सम्यकदर्शन, मनुष्य प्राप्त करता है, तो चारों गतियों में क्षायिक सम्यकद्रष्टि कैसे पाए जाते हैं ? जिस मनुष्य ने पहले नरकायु, तिर्यच्चायु या मनुष्यायु का बंध कर लिया है और बाद में क्षायिकसम्यकदर्शन प्राप्त किया है, वह मरण कर प्रथम नरक में ही जाएगा, भोगभूमि का तिर्यच्च या मनुष्य होगा। जिसने देवायु का बंध किया है, या किसी भी आयु का बंध नहीं किया है, तो वह नियम से देवगति में ही जाएगा और वैमानिक ही होगा। इस प्रकार चारों गतियों में क्षायिक सम्यकद्रष्टि पाए जाते हैं। (र. क. श्रा, 35) 17. क्षायिक सम्यकद्रष्टि अधिक-से-अधिक कितने भवों में मोक्ष जा सकता है ? चार भवों में। पहला मनुष्य (जिसमें प्राप्त किया था,) दूसरा भोगभूमि का तिर्यञ्च या मनुष्य, तीसरा देवगति, चौथा कर्मभूमि का मनुष्य होकर मोक्ष प्राप्त कर लेगा। 18. तीनों सम्यकदर्शनों का काल कितना है ? सम्यकदर्शन जधान्यकाल उत्कृष्टकाल प्रथमोपशम अन्तमुहूर्त अन्तर्मुहूर्त द्वितीयोपशम अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त क्षयोपशम अन्तमुहूर्त 66 सागर क्षायिक हमेशा (सादि अनन्त) (होने के बाद छूटता नहीं) हमेशा (सादि अनन्त) (होने के बाद छूटता नहीं) 19. तीन सम्यकदर्शन में कितने सराग एवं कितने वीतराग सम्यकदर्शन हैं ? क्षयोपशम सम्यकदर्शन तो सराग सम्यकदर्शन ही है, शेष दो सराग, वीतराग दोनों हैं। 20. तीनों सम्यकदर्शनों में कितने निसर्गज एवं कितने अधिगमज हैं ? तीनों सम्यकदर्शन निसर्गज भी हैं एवं अधिगमज भी हैं। 21. क्षायिक सम्यकदर्शन तो केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में होता है, अत: अधिगमज हुआ। निसर्गज कैसे हुआ ? दूसरे और तीसरे नरक से आकर जो जीव तीर्थंकर होते हैं, उनके लिए क्षायिक सम्यकदर्शन की प्राप्ति में परोपदेश की आवश्यकता नहीं होती है, किन्तु परोपदेश के बिना ही उनके क्षायिक सम्यकदर्शन की प्राप्ति होती है, अत: यहाँ क्षायिक सम्यकदर्शन निसर्गज हुआ। 22. सम्यकदर्शन की प्राप्ति में अन्य हेतु क्या हैं ? 1.जाति स्मरण पूर्व जन्मों की स्मृति। 2.धर्मश्रवण धर्म उपदेश का सुनना। 3.जिन बिम्ब दर्शन जिनबिम्ब दर्शन से। सम्मेदशिखरजी, ऊर्जयन्तजी, चम्पापुरजी, पावापुरजी एवं लब्धि सम्पन्न ऋषियों के दर्शन भी जिनबिम्ब दर्शन में ही गर्भित हैं। 4. वेदनानुभव तीव्र वेदना होने से। 5. देवद्धि दर्शन अपने से अधिक ऋद्धि अन्य देवों के पास देखकर के। 6.जिनमहिमा दर्शन तीर्थङ्करों के पञ्चकल्याणक के दर्शन से। 23. उपरोक्त छ: हेतुओं में से किस गति में किन-किन हेतुओं से सम्यकदर्शन उत्पन्न होता है ? नरकगति में - जाति स्मरण, धर्मश्रवण (तीसरी पृथ्वी तक) और वेदनानुभव से। तिर्यञ्चगति व मनुष्यगति में - जाति स्मरण, धर्मश्रवण और जिनबिम्ब दर्शन से। विशेष - जिन बिम्ब दर्शन में जिनमहिमा भी गर्भित है। देवगति में - जाति स्मरण, देवद्धिदर्शन (12 वें स्वर्ग तक), धर्मश्रवण, जिनमहिमा दर्शन (16 वें स्वर्ग तक)। नवग्रैवेयक में - जाति स्मरण और धर्मश्रवण से। नवअनुदिश एवं पञ्च अनुतरों में - सम्यकद्रष्टि ही रहते हैं। (रावा, 2/3/2) भोगभूमि में - जाति स्मरण और धर्मश्रवण से। (देवों के द्वारा प्रतिबोधित करने से एवं चारण ऋद्धिधारी मुनि के उपदेश से) 24. दस प्रकार के सम्यकदर्शन कौन-कौन से होते हैं ? आज्ञा सम्यकदर्शन - वीतराग भगवान् की आज्ञा से ही जो तत्व श्रद्धान होता है, वह आज्ञा सम्यकदर्शन है। मार्ग सम्यकदर्शन - ग्रन्थ श्रवण के बिना जो कल्याणकारी मोक्षमार्ग का श्रद्धान होता है, उसे मार्ग सम्यकदर्शन कहते हैं। उपदेश सम्यकदर्शन - 63 शलाका पुरुषों की जीवनी को सुनकर जो तत्व श्रद्धान उत्पन्न होता है, उसे उपदेश सम्यकदर्शन कहते हैं। सूत्र सम्यकदर्शन - मुनियों की चर्या को बताने वाले ग्रन्थों को सुनकर जो श्रद्धान होता है, उसे सूत्र सम्यकदर्शन कहते हैं। बीज सम्यकदर्शन - बीज पदों के श्रवण से उत्पन्न श्रद्धान को बीज सम्यकदर्शन कहते हैं। संक्षेप सम्यकदर्शन - जो जीवादि पदार्थों के स्वरूप को संक्षेप से ही जान कर तत्व श्रद्धान को प्राप्त हुआ है, उसे संक्षेप सम्यकदर्शन कहते हैं। विस्तार सम्यकदर्शन - जो भव्य जीव 12 अंगो को सुनकर तत्व श्रद्धानी हो जाता है, उसे विस्तार सम्यकदर्शन कहते हैं। अर्थ सम्यकदर्शन - वचन विस्तार के बिना केवल अर्थ ग्रहण से जिन्हें सम्यकदर्शन हुआ है, वह अर्थ सम्यकदर्शन है। अवगाढ़ सम्यकदर्शन - श्रुतकेवली का सम्यकदर्शन अवगाढ़ सम्यकदर्शन कहलाता है। परमावगाढ़सम्यकदर्शन - केवली का सम्यकदर्शन परमावगाढ़ सम्यकदर्शन कहलाता है। (रा. वा, 3/36) 25. सम्यकदर्शन के 25 दोष कौन-कौन से हैं ? 3 मूढ़ता, 8 मद, 6 अनायतन और 8 शंकादि दोष (8 अंगो से उलटे दोष) ये 25 दोष सम्यकदर्शन के हैं। (द्र.सं.टी., 41) 26. मूढ़ता किसे कहते हैं एवं कौन-कौन सी होती हैं ? सम्यक्त्व में दोष उत्पन्न करने वाले विवेक रहित कार्य को मूढ़ता कहते हैं। लोक मूढ़ता - धर्म बुद्धि से नदियों व समुद्रों में स्नान करना, बालू का ढेर लगाना, पर्वत से गिरना,अग्नि में जलना आदि लोक मूढ़ता है। देव मूढ़ता - आशा - तृष्णा के वशीभूत होकर वांछित फल की प्राप्ति की अभिलाषा से रागी - द्वेषी देवी - देवताओं की पूजा करना देव मूढ़ता है। गुरु मूढ़ता - आरम्भ, परिग्रह, हिंसा, भय से युक्त और संसार में डुबाने वाले कार्यों में लीन साधुओं की पूजा, सत्कार करना गुरु मूढ़ता है। 27. मद किसे कहते हैं एवं कितने होते हैं ? अहंकार, गर्व, घमण्ड करने को मद कहते हैं। ये आठ प्रकार के होते हैं। ज्ञानमद - मुझे तो इतना ज्ञान है कि मैं बता सकता हूँ कि श्री धवला, श्री जयधवला जैसे महान् ग्रन्थों के कौन से पृष्ठ पर क्या लिखा है, किन्तु इनको तो ये भी नहीं मालूम कि एकेन्द्रिय जीव किस गति में आते हैं, ऐसा कहना ज्ञानमद है। पूजामद - मेरी पूजा, मेरा सम्मान तो प्रत्येक घर में होता है, यहाँ तक कि विदेशों में भी होता है एवं आपका सम्मान तो नगर क्या घर में भी नहीं होता है। ऐसा कहना पूजामद है। कुलमद - मेरा जन्म तो उस कुल में हुआ है, जहाँ अनेक मुनि हो गए, अनेक आर्यिकाएँ हो चुकी हैं, किन्तु तुम्हारे कुल में तो कोई रात्रिभोजन का भी त्यागी नहीं हुआ है, ऐसा कहना कुलमद है। जातिमद - मेरी माता तो उस घर में जन्मी है, जहाँ सदाचार का सदैव पालन होता है, एवं तुम्हारी माता तो उस घर में जन्मी है, जहाँ सदाचार का थोड़ा भी पालन नहीं होता है, ऐसा कहना जातिमद है। बलमद - मेरे पास इतना बल है कि मैं सौ - सौ व्यक्तियों से युद्ध में जीत सकता हूँ एवं तुम्हारे पास तो इतना भी बल नहीं है कि तुम एक मक्खी से भी जीत सको, ऐसा कहना बलमद है। ऋद्धिमद - मेरे पास अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ हैं, जहाँ - जहाँ मेरे चरण पड़ जाते हैं, वहाँ से रोग, दुर्भिक्ष, महामारी आदि भाग जाते हैं एवं आपके पास तो कोई भी ऋद्धि नहीं है, ऐसा कहना ऋद्धिमद है। धन मद भी ऋद्धिमद में गर्भित है। तपमद - मैं बहुत बड़ा तपस्वी हूँ हर माह में कम-से-कम दस उपवास कर लेता हूँ लेकिन आप रोज-रोज आहार करने जाते हैं, ऐसा कहना तपमद है। रूपमद - मैं बहुत रूपवान हूँ, सुंदर हूँ बिना क्रीम, पावडर के भी कामदेव के समान लगता हूँ एवं आप तो बिल्कुल अष्टावक्र एवं काले हैं, ऐसा कहना रूपमद है। 28. अनायतन किसे कहते हैं ? आयतन का अर्थ होता है स्थान। यहाँ सम्यकदर्शन का प्रकरण होने से आयतन का अर्थ धर्म का स्थान। इससे विपरीत अधर्म के स्थान को अनायतन कहते हैं। अनायतन छ: होते हैं। कुगुरु, कुगुरु सेवक, कुदेव, कुदेव सेवक, कुधर्म और कुधर्म सेवक। इनकी मन, वचन, काय से प्रशंसा, भक्ति, सेवा नहीं करना। यदि प्रशंसा, भक्ति, सेवा करते हैं तो यह सम्यकदर्शन में दोष है। 29. शंकादि आठ दोष कौन-कौन से हैं ? शांका - जिनेन्द्र देव द्वारा कथित तत्वों में विश्वास नहीं करना। कांक्षा - धर्म के सेवन से, सांसारिक भोगों की वांछा करना। विचिकित्सा - रत्नत्रयधारी मुनियों के शरीर को देखकर ग्लानि करना। मूढ़दृष्टि - मिथ्यामार्ग और मिथ्यामार्गियों की मन से सहमति करना, वचन से प्रशंसा करना एवं काय से सेवा करना। अनुपगूहन - धर्मात्माओं के दोषों को प्रकट करना। अस्थितिकरण - धर्म से चलायमान लोगों को पुन: धर्म में स्थित नहीं करना। अवात्सल्य - साधमीं भाइयों से प्रेम न कर उनकी निंदा करना। अप्रभावना - अपने खोटे आचरण से जिनशासन की अप्रभावना करना। नोट - ये शंकादिसम्यकदर्शन के 8 दोष हैं, इसके विपरीत नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना, ये 30.सम्यकदर्शन के 8 अंग होते हैं। 30. सम्यकदर्शन के आठ गुण कौन-कौन से होते हैं ? सम्यकदर्शन के आठ गुण इस प्रकार हैं संवेग - संसार के दुखों से नित्य डरते रहना अथवा धर्म के प्रति अनुराग रखना । निवेग - भोगों में अनासति। निंदा - अपने दोषों की निंदा करना। गहा - गुरु के समीप अपने दोषों को प्रकट करना। उपशम - क्रोधादि विकारों को शांत करना। भत्ति - पञ्च परमेष्ठी में अनुराग। वात्सल्य - साधर्मियों के प्रति प्रीति भाव रखना। अनुकम्पा - सभी प्राणियों पर दया भाव रखना। (चारित्रसार श्रावकाचार, 7) नोट - सम्यकद्रष्टि नारकी एवं तिर्यच्च भी होता है, जैसा कि प्रश्न 16 में कहा था। सम्यकद्रष्टि क्या-क्या प्राप्त करता है ? देवों में श्रेष्ठ पद इन्द्र, मनुष्यों में श्रेष्ठ पद चक्रवर्ती एवं तीर्थङ्कर के पद को भी प्राप्त करता है। 31. सम्यकद्रष्टि जीव कहाँ कहाँ उत्पन्न नहीं होते है ? सम्यकद्रष्टि जीव नरक , तिर्यच्च , भावनत्रिक देव, नपुंसक , स्त्री, पर्याय ,निच्कुल विकलांग, अल्पायु एकेन्द्रिय, विकलचतुष्क और दरिद्रता को प्राप्त नहीं होता है। नोट - सम्यकद्रष्टि नारकी एवं तिर्यच्च भी होता है, जैसा कि प्रश्न 16 में कहा था। 32. सम्यकद्रष्टि क्या-क्या प्राप्त करता है ? देवों में श्रेष्ठ पद इन्द्र, मनुष्यों में श्रेष्ठ पद चक्रवर्ती एवं तीर्थंकर के पद को भी प्राप्त करता है। 33. सम्यकद्रष्टि की क्या पहचान है ? आचार्य नेमिचन्द्र जी जीवकाण्ड में कहते हैं मिच्छंतं वेदंतो जीवो विवरीयदंसणो होदि॥ णय धम्मं। रोचेदि हु महुरं खुरसं जहाजरिदो॥ अर्थ - मिथ्यात्व का अनुभव करने वाला जीव विपरीत श्रद्धान वाला होता है। जैसे : - पित्तज्वर से युक्त जीव को मधुर रस भी रुचिकर नहीं होता है वैसे ही मिथ्यादृष्टि जीव को यथार्थ धर्म रुचिकर नहीं होता है। अर्थात् इस गाथा से स्पष्ट हो जाता है कि धर्म जिसे अच्छा लग रहा है वह सम्यकद्रष्टि है क्योंकि मिथ्यात्व रूपी ज्वर से ग्रसित व्यक्ति के लिए धर्म अच्छा नहीं लगता है। जो अपनी प्रशंसा के साथ दूसरे की निंदा नहीं करते हैं वे भी सम्यकद्रष्टि हैं क्योंकि जो अपनी प्रशंसा के साथ दूसरे की निंदा करते हैं तो नीच गोत्र का बंध होता है एवं नीच गोत्र का बंध दूसरे गुणस्थान तक ही होता है। अत: अपनी प्रशंसा के साथ पर की निंदा करने वाला सम्यकद्रष्टि नहीं हो सकता है। 34. कौन से सम्यकदर्शन से कौन-सा सम्यकदर्शन उत्पन्न होता है ? प्रथमोपशम सम्यकदर्शन से क्षयोपशम सम्यकदर्शन। द्वितीयोपशम सम्यकदर्शन से क्षयोपशम सम्यकदर्शन। क्षयोपशम सम्यकदर्शन से द्वितीयोपशम सम्यकदर्शन एवं क्षायिक सम्यकदर्शन। क्षायिक सम्यकदर्शन से कोई भी सम्यकदर्शन नहीं होता है। 35. सम्यकदर्शन के पर्यायवाची नाम कौन-कौन से हैं ? श्रद्धा, आस्था, रुचि, प्रतीति आदि।
  10. महिलाओं में सर्वोच्च पद आर्यिका का होता है, इनकी चर्या किस प्रकार की होती है। इसका वर्णन इस अध्याय में है। 1. आर्यिका किसे कहते हैं एवं इनकी चर्या किस प्रकार होती है ? स्त्री पर्याय की अपेक्षा उत्कृष्ट संयमधारी स्त्रियाँ आर्यिका कहलाती हैं। ये मुनियों के समान दिगम्बरत्व को धारण नहीं कर सकती हैं, अत: एक 16 हाथ की सफेद साड़ी पहनती हैं तथा बैठ कर ही कर पात्र में आहार करती हैं। शेष चर्या मुनियों के समान है। आर्यिकाओं के लिए वृक्षमूल, आतापन योग, अभ्रावकाश आदि विशेष योग निषिद्ध हैं। आर्यिकाओं को उपचार से महाव्रती कहा गया है। ये पञ्चम गुणस्थानवर्ती होती हैं। इनका पद एलक और क्षुल्लक से श्रेष्ठ है। श्रावक इन्हें वंदामि कहकर नमस्कार करते हैं। आर्यिकाएँ भी परस्पर में समाचार वंदामि कहकर करती हैं। इनकी वसतिका श्रावकों से, न अति दूर न अति पास रहती है। वसतिका में ये आर्यिकाएँ दो-तीन अथवा तीस - चालीस पर्यन्त भी एक साथ रहती हैं। मुनियों की वंदना एवं आहार आदि क्रियाओं में गणिनी या प्रमुख आर्यिका के साथ या उनसे पूछकर कुछ आर्यिकाओं के साथ जाती हैं। 2. आर्यिका पद के अयोग्य कौन-कौन से कार्य आर्यिकाएँ नहीं करती हैं ? आर्यिका पद के अयोग्य रोना, नहलाना, खिलाना, भोजन बनाना, सिलाई - कढ़ाई करना, स्वेटर बुनना आदि गृहस्थों के योग्य कार्यों को आर्यिकाएँ नहीं करती हैं। 3. आर्यिकाएँ कौन-कौन से कार्य करती हैं ? स्वाध्याय करने में, पाठ याद करने में और अनुप्रेक्षा के चिन्तन में तथा तप में और संयम में नित्य ही उद्यत रहती हुई ज्ञानाभ्यास में तत्पर रहती हैं। 4. आर्यिकाएँ एवं महिलाएं कितनी दूर से आचार्य, उपाध्याय एवं साधुपरमेष्ठी को नमस्कार करती है ? आचार्य परमेष्ठी को पाँच हाथ दूर से, उपाध्याय परमेष्ठी को छ: हाथ दूर से एवं साधु परमेष्ठी को सात हाथ दूर से नमस्कार करती हैं।
  11. मिलिट्रीवाले अनुशासन का पालन न करें तो वे देश की रक्षा नहीं कर सकते, उसी प्रकार मुनि आगम की आज्ञा का पालन न करे तो वे अपने व्रतों कि रक्षा नही कर सकते | अत : दोनों में क्या-क्या समानताएँ हैं इसका वर्णन इस अध्याय में है। जिस प्रकार मुनि अपनी प्रत्येक क्रियाओं में सजग रहते हैं, उसी प्रकार मिलिट्री वाले भी अपनी क्रियाओं में सजग रहते हैं, दोनों की कुछ क्रियाओं में समानता है। उनके कुछ बिन्दु निम्नलिखित हैं-1. भोजन 2. अभ्यास 3. गुप्त मंत्रणा 4. कहाँ जाना है 5. जनसम्पर्क से दूर 6. शत्रुओं से रक्षा 7. ड्यूटी 8.रोड 9. स्थान परिवर्तन 10. आदेश का पालन 11. बगावत नहीं करते हैं 12. मरण से नहीं डरते हैं 13. सिर कटा सकते हैं पर सिर झुका सकते नहीं 14. क्रियाओं में कठोरता 15.यथालब्ध भोजन 16.अलाभ 17. विवित्त शय्यासन तप 18. कायक्लेश तप 19. एकल विहारी का निषेध 20. जीते जी मरण। भोजन - मिलिट्री में भोजन सीमित दिया जाता है उसी प्रकार मुनि भी सीमित भोजन करते हैं, क्योंकि अधिक भोजन से प्रमाद आता है। मिलिट्री वाले जहाँ कहीं भी भोजन नहीं करते हैं, उन्हें तो PURE QUALITY का माल सरकार से मिलता है। उसी प्रकार मुनि भी उत्तम श्रावक के घर में जाकर PURE (प्रासुक, शुद्ध एवं भक्ष्य)भोजन करते हैं। अभ्यास - जिस प्रकार मिलिट्री में हमेशा अभ्यास किया जाता है, जिससे युद्ध के समय जीत हो जाए एवं वाहनों का भी प्रयोग करते रहते हैं, जिससे वे जाम न हो जाएँ, उसी प्रकार मुनि भी परीषह उपसर्ग को सहन करते रहते हैं। परीषह उपसर्ग नहीं आते तो 12 तपों को तपते रहते हैं, जिससे समाधि के समय जीत हो जाए अर्थात् समाधि अच्छी तरह से हो जाए, क्योंकि मुनि मार्ग मंदिर है तो समाधि मंदिर पर कलश है। कलश बिना मंदिर अधूरा है, तो समाधि के बिना तपस्या अधूरी है। गुप्त मंत्रणा - जो मिलिट्री वालों की गुप्त बातें हैं, वे किसी को नहीं बताते हैं। उसी प्रकार श्रावक कहते हैं कि महाराज ‘आचार्य श्री' ने आपसे क्या कहा है ? यह मुनि नहीं बताते हैं, नहीं तो अनेक बार बड़ी परेशानी हो जाती है। मान लीजिए ‘आचार्यश्री' ने कहा तीन स्थान में से एक स्थान पर वर्षायोग करना है, कहाँ करना, यह महाराज आप को नहीं बताएगे, स्वम निर्णय करेगे | कहाँ जाना है - मिलिट्री की ट्रेन कहाँ जाती है, वह कहते हैं, पता नहीं है, उसी प्रकार महाराज आप कहाँ जा रहे हैं, बताया नहीं जाता है, और अनेक बार तो रास्ता बीच में से भी CHANGE हो जाता है। जनसम्पर्क से दूर - मिलिट्री वालों को जनसम्पर्क से दूर रखा जाता है, जनसम्पर्क करेंगे तो वह अपने कर्तव्य का सही पालन नहीं कर सकते। उसी प्रकार प्रवचनसार ग्रन्थ में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने मुनियों के लिए जनसम्पर्क नहीं करने को कहा है। शत्रुओं से रक्षा - जिस प्रकार सैनिक देश की सीमा में रहते हुए देश की रक्षा, शत्रुओं से करते हैं। उसी प्रकार मुनि भी शत्रुओं से आत्मा (देश) की रक्षा करते हैं। शत्रुओं से आशय क्रोध, मान, माया, लोभ और कर्म आदि से है। ड्यूटी - DUTY के समय यदि सैनिक ड्यूटी पर नहीं रहता तो उसे दण्ड दिया जाता है, दण्ड से आशय शारीरिक दण्ड से है। उसी प्रकार मुनि की ड्यूटी है कि समय पर प्रतिक्रमण, सामायिक, वंदना आदि आवश्यक करना ही है, नहीं तो प्रायश्चित रूपी दण्ड दिया जाता है। मुनि को भी आर्थिक नहीं शारीरिक दण्ड दिया जाता है। जैसे-अनशन, अवमौदर्य, रस परित्याग, कायोत्सर्ग आदि । रोड - मिलिट्री की अलग से रोड रहती है, उसी प्रकार मुनि भी प्राय: देखते हैं कि महाराज मार्ग (कच्चा रास्ता) मिल जाए, जंगलों के रास्ते में MILE STONE नहीं होते हैं, उसी प्रकार मिलिट्री रोड में भी MILESTONE नहीं होते है | स्थान परिवर्तन - जिस प्रकार मुनि एक स्थान पर अधिक दिन तक नहीं रहते हैं, उसी प्रकार मिलिट्री वालों के लिए समय का विभाजन है, 3 वर्ष तक गर्म क्षेत्र में रहते हैं, 3 वर्ष तक शीत क्षेत्र में रहते हैं, 3 वर्ष तक शांति वाले क्षेत्र में रहते हैं एवं 3 वर्ष युद्ध के लिए जाते हैं। आदेश का पालन - COMMANDER का आदेश पाते ही उसे वह कार्य करना होता है, चाहे कुछ भी हो, इसी प्रकार मुनि भी COMMANDER (गुरु) के आदेश से चलते हैं, कहीं-कहीं तो महीनों बैठे रहेंगे और कभी-कभी तो एक दिन में ही 40-40 किलोमीटर गमन करते हैं। बगावत नहीं करते हैं - सैनिक कभी बगावत नहीं करते हैं, उसी प्रकार मुनि भी बगावत नहीं करते हैं, अर्थात् वह आगम और गुरु को अपने सामने रखते हैं। मरण से नहीं डरते - सैनिक मरण से नहीं डरते बल्कि मरण होने पर राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया जाता है, उसी प्रकार मुनि भी मरण से नहीं डरते वह भी हमेशा समाधि के लिए तैयार रहते हैं एवं समाधिमरण होने पर अर्थी नहीं बनाते बल्कि राजकीय सम्मान (विमान में बिठाकर) के साथ अंतिम संस्कार किया जाता है। सिर कटा सकते पर सिर झुका सकते नहीं - सैनिक शत्रु के सामने झुक नहीं सकते भले ही सिर चला जाए, उसी प्रकार मुनि भी कर्म रूपी शत्रु के सामने झुक नहीं सकते भले ही प्राण चले जाएं। क्रियाओं में कठोरता - सैनिक सामान्य कार्य भी सुविधापूर्वक नहीं करते हैं। एक बार सेना का वाहन फर्नीचर को लेने दुकान पर गया, फर्नीचर में पेच कसना बाकी था, दुकान पर मिस्तरी नहीं था, COMMANDER ने सैनिक से कहा पेच कसी, उसे औजार दिए गए, सैनिक ने लकड़ी में छिद्र किए बिना पेच कसना प्रारम्भ कर दिया, COMMANDER से पूछा कि सैनिक ऐसा क्यों कर रहा है, COMMANDER ने कहा कि युद्ध के समय तो इस्पात में पेच कसना पड़ता है, छिद्र किए बिना, ये तो लकड़ी है और मैंने आदेश में छिद्र करने को नहीं कहा है। इसी प्रकार मुनि भी अपनी क्रियाओं का कठोरता से पालन करते हैं, एक शिष्य को सामायिक करते समय बहुत प्रमाद आता था, गुरु ने कहा खड़े हो जाओ, वह मुनि 24 घंटे तक खड़े रहे क्योंकि गुरु ने बैठने के लिए नहीं कहा था। मुनि केशलोंच करते समय कंडे की राख का प्रयोग करते हैं, एक बार मुनि को केशलोंच करना था,राख उपलब्ध नहीं थी, अत: महाराज ने राख के बिना ही केशलोंच कर लिए ऐसी अनेक क्रियाओं को कठोरता के साथ करते हैं। यथालब्ध भोजन - जिस प्रकार मुनि यथालब्ध भोजन करते हैं। यथालब्ध से आशय जैसा श्रावक देता है वैसा ही लेते जाते हैं। वैसे ही सैनिकों को युद्ध के समय ऊपर विमान आदि से जो भोजन दिया जाता है, वही भोजन करते हैं। अलाभ - मुनियों को कई बार विधि न मिलने से, जंगलों में भटक जाने से अलाभ (आहार का न मिलना) हो जाते हैं। उसी प्रकार सैनिकों को युद्ध के समय अनेक बार भोजन न मिलने पर अलाभ हो जाते हैं। विवित्तशय्यासन तप - जिस प्रकार मुनि निद्रा को जीतने के लिए एकान्त स्थान में शयन करते हैं, आसन लगाते हैं, उसी प्रकार सैनिक भी कंकरीली भूमि, कंटक भूमि, ऊँची-नीची भूमि पर अल्प निद्रा लेते हैं। कायक्लेश तप - जिस प्रकार मुनि, वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे, ग्रीष्म ऋतु में धूप में बैठकर, शीत ऋतु में नदी तट पर ध्यान लगाते हैं, उसी प्रकार सैनिक भी हमेशा शीत, उष्ण एवं वर्षा की बाधा को सहते रहते हैं। एकल विहारी का निषेध - जिस प्रकार मुनियों के लिए एकल विहारी का निषेध किया है। उसी प्रकार मिलिट्री वालों के लिए भी एकल विहारी का निषेध किया है। उन्हें स्वयं का सामान लेने भी बाजार जाना है, तब भी दो सैनिक जायेंगे। क्योंकि एक तो सुरक्षा, दूसरा वह किसी को गुप्त बात न बता दे। जीते जी मरण - जिस प्रकार मुनि समाधि लेते अर्थात् जीते जी अपने मरण को देखते हैं, उसी प्रकार सैनिक को भी रिटायर्ड से पूर्व अन्तिम संस्कार का भी पैसा दे दिया जाता है। इस प्रकार वह भी जीते जी अपने मरण को देखता है।
  12. पञ्चम परमेष्ठी के कितने मूलगुण एवं उत्तरगुण होते हैं, इसका वर्णन इस अध्याय में है। 1. साधु परमेष्ठी किसे कहते हैं ? जो सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान एवं सम्यकचारित्र रूप रत्नत्रयमय मोक्षमार्ग की निरन्तर साधना करते हैं तथा समस्त आरम्भ एवं परिग्रह से रहित होते हैं। पूर्ण नग्न दिगम्बर मुद्रा के धारी होते हैं जो ज्ञान,ध्यान और तप में लीन रहते हैं, उन्हें साधु परमेष्ठी कहते हैं। 2. साधु परमेष्ठी के कितने मूलगुण होते हैं ? साधु परमेष्ठी के 28 मूलगुण होते हैं - 5 महाव्रत, 5 समिति, 5 इन्द्रिय निरोध, 6 आवश्यक और 7 शेष गुण। 3. साधु परमेष्ठी के पर्यायवाची नाम कौन-कौन से हैं ? श्रमण, संयत, वीतराग, ऋषि, मुनि, साधु और अनगार। श्रमण - तपश्चरण करके अपनी आत्मा को श्रम व परिश्रम पहुँचाते हैं। संयत - कषाय तथा इन्द्रियों को शांत करते हैं, इसलिए संयत कहलाते हैं। वीतराग - वीत अर्थात् नष्ट हो गया है राग जिनका वे वीतराग कहलाते हैं। ऋषि - सप्त ऋद्धि को प्राप्त होते हैं, इसलिए ऋषि कहलाते हैं। मुनि - आत्मा अथवा अन्य पदार्थों का मनन करते हैं, इसलिए मुनि कहलाते हैं। साधु - रत्नत्रय को सिद्ध करते हैं, इसलिए साधु कहलाते हैं। अनगार - नियत स्थान में नहीं रहते हैं, इसलिए अनगार कहलाते हैं। 4. महाव्रत किसे कहते हैं एवं उसके कितने भेद हैं ? हिंसादि पाँचों पापों का मन, वचन, काय व कृत, कारित, अनुमोदना से त्याग करना महापुरुषों का महाव्रत है। इसके 5भेद हैं। अहिंसा महाव्रत - छ: काय के जीवों को मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से पीड़ा नहीं पहुँचाना, सभी जीवों पर दया करना, अहिंसा महाव्रत है। सत्य महाव्रत - क्रोध, लोभ, भय, हास्य के कारण असत्य वचन तथा दूसरों को संताप देने वाले सत्य वचन का भी त्याग करना, सत्य महाव्रत है। अचौर्य महाव्रत - वस्तु के स्वामी की आज्ञा बिना वस्तु को ग्रहण नहीं करना, अचौर्य महाव्रत है। ब्रह्मचर्य महाव्रत - जो मन, वचन, काय एवं कृत, कारित, अनुमोदना से वृद्धा, बाला, यौवन वाली स्त्री को देखकर अथवा उनकी फोटो को देखकर उनको माता, पुत्री, बहिन समझ स्त्री सम्बन्धी अनुराग को छोड़ता है, वह तीनों लोकों में पूज्य ब्रह्मचर्य महाव्रत है। परिग्रह त्याग महाव्रत - अंतरंग चौदह एवं बाहरी दस प्रकार के परिग्रहों का त्याग करना तथा संयम, ज्ञान और शौच के उपकरणों में भी ममत्व नहीं रखना, परिग्रह त्याग महाव्रत है। 5. समिति किसे कहते हैं एवं उसके कितने भेद हैं ? ‘सम्’अर्थात् सम्यक् ‘इति'अर्थात् गति या प्रवृत्ति को समिति कहते हैं। चलने-फिरने में, बोलने-चालने में, आहार ग्रहण करने में, वस्तुओं को उठाने-रखने में और मल-मूत्र का निक्षेपण करने में यत्न पूर्वक सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति करते हुए जीवों की रक्षा करना, समिति है। ईयर्र समिति - प्रासुक मार्ग से दिन में चार हाथ (छ: फुट) प्रमाण भूमि देखकर चलना, यह ईयर्र समिति है। भूमि देखकर चलने का अर्थ भूमि पर चलने वाले जीवों को बचाकर चलना। भाषा समिति - चुगली, निंदा, आत्म प्रशंसा आदि का परित्याग करके हित, मित और प्रिय वचन बोलना, भाषा समिति है। जैसे-कपड़ा मीटर से नापते हैं और धान्य आदि बाँट से तौलते हैं, वैसे ही नाप-तौल कर बोलना चाहिए अर्थात् हमारे वाक्य ज्यादा लम्बे न हों फिर भी अर्थ ठोस निकले। एषणा समिति - 46 दोष एवं 32 अंतराय टालकर सदाचारी उच्चकुलीन श्रावक के यहाँ विधि पूर्वक निर्दोष आहार ग्रहण करना, एषणा समिति है आदाननिक्षेपण समिति - शास्त्र, कमण्डलु, पिच्छी आदि उपकरणों को देखकर-शोधकर रखना और उठाना, आदाननिक्षेपण समिति है। उत्सर्ग समिति - जीव रहित स्थान में मल-मूत्र आदि का त्याग करना, उत्सर्ग समिति है। 6. पञ्चेन्द्रिय निरोध किसे कहते हैं एवं उसके कितने भेद हैं ? स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पाँच इन्द्रियों के मनोज्ञ-अमनोज्ञ विषयों में राग-द्वेष का परित्याग करना पञ्चेन्द्रिय निरोध है। स्पर्शन इन्द्रिय निरोध - शीत-उष्ण, कोमल - कठोर, हल्का - भारी और स्निग्ध - रूक्ष इन स्पर्शन इन्द्रिय के विषयों में राग - द्वेष नहीं करना, स्पर्शनेन्द्रिय निरोध है। रसना इन्द्रिय निरोध - खट्टा, मीठा, कडुवा, कषायला और चरपरा इन रसना इन्द्रिय के विषयों में राग - द्वेष नहीं करना, रसना इन्द्रिय निरोध है। घ्राण इन्द्रिय निरोध - सुगंध और दुर्गध इन घ्राण इन्द्रिय के विषयों में राग - द्वेष नहीं करना, घ्राण इन्द्रिय निरोध है। चक्षु इन्द्रिय निरोध - काला, पीला, नीला, लाल और सफेद इन चक्षु इन्द्रिय के विषयों में राग - द्वेष नहीं करना, चक्षु इन्द्रिय निरोध है। श्रोत्र इन्द्रिय निरोध - मधुर स्वर, गान, वीणा आदि को सुनकर राग नहीं करना एवं कठोर निंद्य, गाली आदि के शब्द सुनकर द्वेष नहीं करना, श्रोत्र इन्द्रिय निरोध है। 7. आवश्यक किसे कहते हैं एवं उसके कितने भेद हैं ? अवश्य करने योग्य क्रियाएँ आवश्यक कहलाती हैं। साधु को अपने उपयोग की रक्षा के लिए नित्य ही छ: क्रियाएँ करनी आवश्यक होती हैं, उन्हें ही छ: (षट्) आवश्यक कहते हैं। जो कषाय, राग-द्वेष आदि के वशीभूत न हो वह अवश है। उस अवश का जो आचरण होता है व आवश्यक है, आवश्यक छ: होते हैं। समता या सामायिक - राग-द्वेष आदि समस्त विकार भावों का तथा हिंसा आरम्भ आदि समस्त बहिरंग पाप कर्मो का त्याग करके जीवन - मरण, हानि - लाभ, सुख - दुःख आदि में साम्यभाव रखना समता या सामायिक है। स्तुति - 24 तिर्थंकरो के गुणों का स्तवन करना स्तुति है। वन्दना - चौबीस तिर्थंकरो में से किसी एक की एवं पज्चपरमेष्ठियों में से किसी एक की मुख्य रूप से स्तुति करना वंदना है। यह दिन में तीन बार करते हैं। प्रतिक्रमण - व्रतों में लगे दोषों की आलोचना करना प्रतिक्रमण है। अथवा ‘‘मेरा दोष मिथ्या हो ' ऐसा कहना प्रतिक्रमण है। ‘तस्स मिच्छा मे दुक्कड”। प्रतिक्रमण भी दिन में तीन बार करते हैं। प्रतिक्रमण सात प्रकार के होते हैं। दैवसिक, रात्रिक, ईर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, संवत्सरिक (वार्षिक), औतमार्थिक प्रतिक्रमण जो सल्लेखना के समय होता है। प्रत्याख्यान - आगामी काल में दोष न करने की प्रतिज्ञा करना प्रत्याख्यान है। अथवा सीमित काल के लिए आहारादि का त्याग करना प्रत्याख्यान है। कायोत्सर्ग - परिमित काल के लिए शरीर से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग का अर्थ होता है शिथिलीकरण - रिलेक्सेशन। इससे शरीर की शक्ति शिथिल हो जाएगी एवं आत्मा की शक्ति सक्रिय हो जाएगी। 8. मुनियों के शेष 7 गुण कौन-कौन से हैं ? अस्नान व्रत - स्नान करने का त्याग, साधु का शरीर धूल, पसीने से लिप्त रहता है, उसमें अनेक सूक्ष्म जीव रहते हैं, उनका घात न हो इससे स्नान नहीं करते हैं। भूमि शयन - थकान दूर करने के लिए शयन आवश्यक है। रात्रि में एक करवट से थोड़ा शयन करने के लिए भूमि, शिला, लकड़ी के पाटे, तृण अर्थात् सूखी घास या चटाई का उपयोग करते हैं। और किसी का नहीं। अचेलकत्व - वस्त्र, चर्म और पत्ते आदि से शरीर को नहीं ढकना अर्थात् नग्न रहना। दिशाएँ ही जिनके अम्बर अर्थात् वस्त्र हैं, वे दिगम्बर हैं। केशलोंच - दो माह से चार माह के बीच में प्रतिक्रमण सहित दिन में उपवास के साथ अपने हाथों से सिर, दाढ़ी एवं मूंछों के केशों को उखाड़ना केशलोंच है। दो माह में करना उत्कृष्ट है, चार माह में करना जघन्य है एवं दोनों के बीच में करना मध्यम है। एक भुति - चौबीस घंटों में मात्र एक बार आहार करना। सूर्योदय के 3 घड़ी के बाद (72 मिनट) एवं सूर्यास्त से 3 घड़ी पहले। सामायिक का काल छोड़कर शेष काल में 3 मुहूर्त (2 घंटे 24 मिनट) तक आहार ले सकते हैं। (मू.प्र., 500-502) अदंतधावन - अडुली, नख, दातुन, छाल, मंजन, बुश, पेस्ट आदि से दाँतों के मल का शोधन नहीं करना, इन्द्रिय संयम की रक्षा करने वाला अदंतधावन मूलगुण है। स्थिति भोजन - दीवार आदि का सहारा लिए बिना खड़े होकर आहार करना। खड़े होते समय दोनों पैर के बीच 4 अर्जुल का अंतर या पीछे 4 अर्जुल एवं आगे 4 से 12 अड्डुल तक का अंतर रह सकता है। (आ.पु., 18/3) 9. मुनियों के उत्तर गुण कितने हैं ? मुनियों के 34 उत्तर गुण होते हैं। 12 तप और 22 परीषहजय। 10. क्या आचार्य, उपाध्याय परमेष्ठी के 28 मूलगुण नहीं होते हैं ? साधु जिन 28 मूलगुणों का पालन करते हैं। उन 28 मूलगुणों का पालन आचार्य, उपाध्याय परमेष्ठी भी करते हैं, किन्तु आचार्य के अतिरिक्त 36 मूलगुण एवं उपाध्याय के अतिरिक्त 25 मूलगुण होते हैं।
  13. चतुर्थपरमेष्ठी के कितने मूलगुण होते हैं इसका वर्णन इस अध्याय में है। 1. उपाध्याय परमेष्ठी किसे कहते हैं ? जो चारित्र का पालन करते हुए संघ में पठन-पाठन के अधिकारी होते हैं, जो मुनियों के अतिरिक्त श्रावकों को भी अध्ययन कराते हैं, तथा ग्यारह अङ्ग और चौदह पूर्व के ज्ञाता होते हैं अथवा वर्तमान शास्त्रों के विशेष ज्ञाता होते हैं, वे उपाध्याय परमेष्ठी कहलाते हैं। 2. उपाध्याय परमेष्ठी के कितने मूलगुण होते हैं ? उपाध्याय परमेष्ठी के 25 मूलगुण होते हैं। ग्यारह अंग और चौदह पूर्व। 3. ग्यारह अंगो के नाम कौन-कौन से हैं ? 1.आचारांग, 2.सूत्रकृतांग, 3.स्थानांग, 4.समवायांग, 5.व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग, 6.ज्ञातृधर्मकथांग, 7.उपासकाध्ययनांग, 8.अन्तकृद्दशांग, 9.अनुत्तरोपपादकदशांग, 10.व्याकरणांग, 11.विपाकसूत्रांग। 4. बारहवाँ अंग कौन-सा है एवं उसके कितने भेद हैं ? बारहवाँ अंग दृष्टिवादांग है। इसके 5 भेद हैं। 1.परिकर्म, 2.सूत्र, 3. प्रथमानुयोग, 4. पूर्वगत, 5.चूलिका। 5. परिकर्म के कितने भेद हैं ? पाँच भेद हैं। 1. चन्द्रप्रज्ञप्ति, 2. सूर्यप्रज्ञप्ति, 3. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, 4. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, 5. व्याख्याप्रज्ञप्ति। 6. चूलिका के कितने भेद हैं ? पाँच भेद हैं। 1. जलगता चूलिका, 2. स्थलगता चूलिका, 3. मायागता। चूलिका, 4. आकाशगता चूलिका, 5. रूपगता चूलिका। 7. पूर्वगत के कितने भेद हैं ? चौदह भेद हैं -1. उत्पाद पूर्व, 2. आग्रायणीय पूर्व, 3. वीर्यानुप्रवाद पूर्व, 4. अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व, 5. ज्ञानप्रवाद पूर्व, 6. सत्यप्रवाद पूर्व, 7. आत्मप्रवाद पूर्व, 8. कर्मप्रवाद पूर्व, 9. प्रत्याख्यान पूर्व, 10. विद्यानुवाद पूर्व, 11. कल्याणानुवाद पूर्व, 12. प्राणानुप्रवाद पूर्व, 13. क्रियाविशाल पूर्व, 14. लोकबिन्दुसार पूर्व।
  14. रत्नत्रय प्रदाता आचार्य परमेष्ठी के कितने मूलगुण होते हैं, हृसका वर्णन द्वस अध्याय में है। 1. आचार्य परमेष्ठी किसे कहते हैं ? जो पञ्चाचार का स्वयं पालन करते हैं एवं दूसरे साधुओं से पालन कराते हैं, उन्हें आचार्य परमेष्ठी कहते हैं। ये संघ के नायक होते हैं और शिष्यों को दीक्षा एवं प्रायश्चित देते हैं। 2. आचार्य परमेष्ठी के कितने मूलगुण होते हैं ? आचार्य परमेष्ठी के 36 मूलगुण होते हैं। 12 तप, 10 धर्म, 5 आचार, 6 आवश्यक एवं 3 गुप्ति। 3. तप किसे कहते हैं ? "कर्मक्षयार्थ तप्यत इति तप:" कर्मक्षय के लिए जो तपा जाता है, वह तप है। तप के मूल में दो भेद हैं - बाह्य तप और आभ्यंतर तप। 4. बाह्य तप और आभ्यंतर तप किसे कहते हैं ? बाह्य तप - बाह्य द्रव्य के आलम्बन से होता है और दूसरों के देखने में आता है, इसलिए इनको बाह्य तप कहते हैं। आभ्यंतर तप - आभ्यंतर तप (अतरंग तप) प्रायश्चित्तादि तपों में बाह्य द्रव्य की अपेक्षा नहीं रहती है। अंतरंग परिणामों की मुख्यता रहती है तथा इनका स्वयं ही संवेदन होता है। ये देखने में नहीं आते तथा इसको अनाहत (अजैन) लोग धारण नहीं कर सकते। इसलिए प्रायश्चित्तादि को अतरंग तप माना है। 5. बाह्य तप कितने होते हैं ? बाह्य तप छ: होते हैं - अनशन, अवमौदर्य, वृतिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विवितशय्यासन एवं कायक्लेश। 6. अनशन तप किसे कहते हैं ? अशन का अर्थ है - आहार और अनशन का अर्थ है, चारों प्रकार के आहार का त्याग यह एक दिन को आदि लेकर बहुत दिन तक के लिए किया जाता है। 7. अनशन तप क्यों किया जाता है ? प्राणि संयम व इन्द्रिय संयम की सिद्धि के लिए एवं कर्मों की निर्जरा के लिए अनशन तप किया जाता है। 8. अवमौदर्य (ऊनोदर) तप किसे कहते हैं ? भूख से कम खाना अवमौदर्य नामक तप है। पुरुष का स्वाभाविक आहार 32 ग्रास है उसमें से एक ग्रास को आदि लेकर कम करके लेना अवमौदर्य तप है। 1000 चावल का 1 ग्रास माना गया है। महिलाओं का स्वाभाविक आहार 28 ग्रास है। यह उत्तम, मध्यम और जघन्य, तीन प्रकार का होता है। 9. अवमौदर्य तप क्यों किया जाता है ? अवमौदर्य तप संयम को जागृत रखने, दोषों को प्रशम करने, संतोष और स्वाध्याय आदि की सुख पूर्वक सिद्धि के लिए किया जाता है। 10. वृतिपरिसंख्यान तप किसे कहते हैं ? जब मुनि आहार के लिए जाते हैं तब मन में संकल्प लेकर जाते हैं, जिसे आप लोग विधि कहते हैं। जैसे एक कलश, दो कलश से पड़गाहन होगा तो जाएंगे नहीं तो नहीं। एक मुहल्ला, दो मुहल्ला तक ही जाऊंगा | यहे व्रतिपरिसंख्यान तप है | ऐसा करे ही, नियम नहीं है | रोज (प्रतिदिन) करे यहे भी नियम नहीं है | 11. वृत्तिपरिसंख्यान तप क्यों किया जाता है ? वृत्तिपरिसंख्यान तप आशा की निवृत्ति के लिए, अपने पुण्य की परीक्षा के लिए एवं कर्मों की निर्जरा के लिए किया जाता है। 12. रस परित्याग तप किसे कहते हैं ? घी, दूध, दही, शक्कर, नमक, तेल, इन छ: रसों में से एक या सभी रसों का त्याग करना रस परित्याग तप है। अथवा वनस्पति, दाल, बादाम, पिस्ता आदि का त्याग करना भी रस परित्याग तप है। 13. रस परित्याग तप क्यों किया जाता है ? रस परित्याग तप रसना इन्द्रिय को जीतने के लिए निद्रा वप्रमाद को जीतने के लिए, स्वाध्याय की सिद्धि के लिए एवं कर्मो की निर्जरा के लिए किया जाता है। 14. विवित्तशय्यासन तप किसे कहते हैं ? स्वाध्याय, ध्यान आदि की सिद्धि के लिए एकान्त स्थान पर शयन करना, आसन लगाना, विवितशय्यासन तप है। 15. विवित्तशय्यासन तप क्यों किया जाता है ? विवितशय्यासन तप चित्त की शांति के लिए, निद्रा को जीतने के लिए एवं कर्मों की निर्जरा के लिए किया जाता है। 16. कायक्लेश तप किसे कहते हैं ? शरीर को सुख मिले ऐसी भावना को त्यागना कायक्लेश तप है। अथवा वर्षाऋतु में वृक्ष के नीचे, ग्रीष्म ऋतु में धूप में बैठकर तथा शीत ऋतु में नदी तट पर कायोत्सर्ग करना, ध्यान लगाना कायक्लेश तप है। 17. कायक्लेश तप क्यों किया जाता है ? कायक्लेश तप से कष्टों को सहन करने की क्षमता आती है, जिनशासन की प्रभावना होती है एवं कर्मो की निर्जरा हो इसलिए किया जाता है। 18. अतरंग तप कितने होते हैं ? अतरंग तप छ: होते हैं। प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान। 19. प्रायश्चित तप किसे कहते हैं ? प्रमाद जन्य दोष का परिहार करना प्रायश्चित तप है। व्रतों में लगे हुए दोषों को प्राप्त हुआ साधक, जिससे पूर्व किए अपराधों से निर्दोष हो जाय वह प्रायश्चित तप है। 20. विनय तप किसे कहते हैं ? मोक्ष के साधन भूत सम्यकज्ञानादिक में तथा उनके साधक गुरुआदि में अपनी योग्य रीति से सत्कारआदि करना विनय तप है। पूज्येष्वादरो विनय: - पूज्य पुरुषों का आदर करना, विनय तप है। 21. वैयावृत्य तप किसे कहते हैं ? अपने शरीर व अन्य प्रासुक वस्तुओं से मुनियों व त्यागियों की सेवा करना, उनके ऊपर आई हुई आपत्ति को दूर करना, वैयावृत्य तप है। 22. स्वाध्याय तप किसे कहते हैं ? ‘ज्ञानभावनालस्यत्यागः स्वाध्याय:' आलस्य त्यागकर ज्ञान की आराधना करना, स्वाध्याय तप है। अंग और अंगबाह्य आगम की वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मकथा करना, स्वाध्याय तप है। 23. व्युत्सर्ग तप किसे कहते हैं ? अहंकार ममकार रूप संकल्प का त्याग करना ही, व्युत्सर्ग तप है। बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करना, व्युत्सर्ग तप है। 24. ध्यान तप किसे कहते हैं ? उत्तम संहनन वाले का एक विषय में चित्तवृत्ति का रोकना ध्यान है, जो अन्तर्मुहूर्त तक होता है। 25. दस धर्म कौन-कौन से हैं ? उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयमः, तप, त्याग, आकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्य । उत्तम क्षमा धर्म - उपसर्ग आने पर, अपशब्द सुनने पर अथवा क्रोध का निमित मिलने पर भी क्रोध नहीं करना, उत्तम क्षमा धर्म है। उत्तम मार्दव धर्म - उत्तम कुल, विद्या, बल आदि का गर्व नहीं करना, उत्तम मार्दव धर्म है। उत्तम आर्जव धर्म - जो विचार मन में स्थित है वही वचन से कहना तथा शरीर से उसी के अनुसार करना अर्थात् मायाचारी नहीं करना, उत्तम आर्जव धर्म है। उत्तम शौच धर्म - लोभ का त्याग करके आत्मा को पवित्र बनाना, उत्तम शौच धर्म है। उत्तम सत्य धर्म - अच्छे पुरुषों के साथ साधु वचन बोलना, उत्तम सत्य धर्म है। उत्तम संयम धर्म - अपनी इन्द्रियों व मन को वश में करना और षट्काय के जीवों की रक्षा करना ही, उत्तम संयम धर्म है। उत्तम तप धर्म - कर्मों की निर्जरा हेतु बाह्य और आभ्यंतर बारह प्रकार के तपों को तपना, उत्तम तप धर्म है। उत्तम त्याग धर्म - संयमी जीवों के योग्य ज्ञानादि का दान करना अथवा राग-द्वेष का त्याग करना उत्तम त्याग धर्म है। उत्तम आकिञ्चन्य धर्म - आत्मा के अलावा, संसार का कोई भी पदार्थ मेरा नहीं है इस प्रकार ममत्व परिणाम से रहित होना, उत्तम आकिञ्चन्य धर्म है। उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म - स्त्री सम्बन्धी राग का त्यागकर आत्मा के शुद्ध स्वरूप में लीन रहना, उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म है। 26. आचार का अर्थ क्या है एवं वे कौन-कौन से होते हैं ? धार्मिक नियमों को आगम के अनुसार स्वयं पालन करना तथा शिष्यों से पालन कराना, आचार कहलाता है। वे आचार पाँच प्रकार के हैं दर्शनाचार - नि:शंकादि आठ अंगो का निर्दोष पालन करना, दर्शनाचार है। ज्ञानाचार - काल, विनयादि आठ अंगो सहित सम्यकज्ञान की आराधना करना तथा स्व-पर तत्व को आगमानुसार जानना, ज्ञानाचार है। चारित्राचार - निर्दोष सम्यक्चारित्र का पालन करना, चारित्राचार है। तपाचार - बारह तपों को निर्दोष पालन करना, तपाचार है। वीर्याचार - परिषहादिक आने पर अपनी शक्ति को न छिपाकर उत्साहपूर्वक धीरता से साधना करना, विर्याचार है। 27. छ: आवश्यक कौन-कौन से हैं ? समता या सामायिक, वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान एवं कायोत्सर्ग। ये छ: आवश्यक मुनियों के समान होते हैं। 28. गुप्ति किसे कहते हैं एवं कितनी होती हैं ? गुप्ति-संसार के कारणों से आत्मा के गोपन (रक्षण) को, गुप्ति कहते हैं। मनोगुप्ति - मन को राग-द्वेष से हटाकर अपने वश में करना । वचनगुप्ति - अपने वचनों को वश में करना। कायगुप्ति - अपने शरीर को वश में करना। 29. आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने आचार्य परमेष्ठी के लिए कौन-सा दोहा लिखा है ? आचार्य श्री ने आचार्य परमेष्ठी के लिए सूर्योदय शतक में निम्न दोहा लिखा है ज्ञायक बन गायक नहीं, पाना है विश्राम। लायक बन नायक नहीं, जाना है शिवधाम। 8 ॥
  15. द्वितीय परमेष्ठी के कितने मूलगुण होते हैं एवं अन्य गुण कौन-कौन से होते हैं, कितने समय में कितने जीव मोक्ष जाते हैं आदि का वर्णन द्वस अध्याय में है। 1. सिद्ध परमेष्ठी किसे कहते हैं ? जिन्होंने अष्ट कर्मों को नाश कर दिया है, जो शरीर से रहित हैं तथा ऊध्र्वलोक के अंत में शाश्वत विराजमान हैं, वे सिद्ध परमेष्ठी कहलाते हैं। या जो द्रव्यकर्म (ज्ञानावरणादि), भावकर्म (रागद्वेषादि) और नोकर्म (शरीरादि) से रहित हैं, उन्हें सिद्ध परमेष्ठी कहते हैं। 2. सिद्ध परमेष्ठी के कितने मूलगुण होते हैं ? सिद्ध परमेष्ठी के 8 मूलगुण होते हैं :- अनन्तज्ञान गुण - ज्ञानावरणकर्म के पूर्ण क्षय होने से अनन्त पदार्थों को युगपत् जानने की सामथ्र्य प्रकट होने को अनन्तज्ञानगुण कहते हैं। अनन्तदर्शन गुण - दर्शनावरणकर्म के पूर्ण क्षय होने से अनन्त पदार्थों के सामान्य अवलोकन की सामथ्र्य के प्रकट होने को अनन्तदर्शनगुण कहते हैं। अव्याबाधत्व गुण - वेदनीय कर्म के पूर्ण क्षय होने से अनन्तसुख रूप आनन्दमय सामथ्र्य को अव्या बाधत्व गुण कहते हैं। क्षायिक सम्यक्त्वगुण - मोहनीय कर्म के पूर्ण क्षय होने से प्रकट होने वाली आत्मीय सामथ्र्य को क्षायिक सम्यक्त्वगुण कहते हैं। अवगाहनत्व गुण - आयु कर्म के पूर्ण क्षय होने से एक जीव के अवगाह क्षेत्र में अनन्त जीव समा जाएँ ऐसी स्थान देने की सामथ्र्य को अवगाहनत्वगुण कहते हैं। सूक्ष्मत्वगुण - नाम कर्म के पूर्ण क्षय होने से इन्द्रियगम्य स्थूलता के अभाव रूप सामथ्र्य के प्रकट होने को सूक्ष्मत्वगुण कहते हैं। अगुरुलघुत्व गुण - गोत्र कर्म के पूर्ण क्षय होने से प्रकट होने वाली सामथ्र्य को अगुरुलघुत्व गुण कहते हैं। अनन्तवीर्य गुण - अन्तराय कर्म के पूर्ण क्षय होने से आत्मा में अनन्त शक्ति रूप सामथ्र्य के प्रकट होने को अनन्तवीर्यगुण कहते हैं। 3. क्या सिद्धों के अन्य गुण भी होते हैं ? हाँ। सिद्धों के अन्य गुण भी होते हैं। सम्यक्त्वादि आठ गुण मध्यम रुचि वाले शिष्यों के लिए हैं। विस्तार रुचि वाले शिष्य के प्रति विशेष भेद नय के अवलंबन से गति रहितता, इन्द्रिय रहितता, शरीर रहितता, योग रहितता, वेद रहितता, कषाय रहितता, नाम रहितता, गोत्र रहितता तथा आयु रहितता आदि विशेष गुण और इसी प्रकार अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व आदि सामान्य गुण इस तरह जैनागम के अनुसार अनंत गुण जानने चाहिए। (द्र.सं., 14/34) 4. मोक्ष के कितने भेद किए जा सकते हैं ? अथवा मोक्ष अभेद है ? यों तो मोक्ष अभेद है। मोक्ष का कारण भी रत्नत्रयरूप एक मात्र है, अत: वह कार्यरूप मोक्ष भी सकल कर्मक्षयरूप एकविध है। तदपि मोक्ष की दृष्टि से द्रव्यमोक्ष एवं भावमोक्ष की अपेक्षा मोक्ष के दो भेद हैं। अथवा मोक्ष चार प्रकार का है। नाममोक्ष, स्थापनामोक्ष, द्रव्यमोक्ष एवं भावमोक्ष। 5. मोक्ष का साधन क्या है ? सम्यकदर्शन-सम्यकज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकता रूप रत्नत्रय मोक्ष का साधन है। 6. कर्मों से छूटने का उपाय संक्षिप्त शब्दों में बताइए ? मात्र-ममता (मोह) से रहित होना ही कर्मों से छूटना है। 7. कौन बंधता है और कौन छूटता है ? पर में आत्मा की बुद्धि करने वाला बहिरात्मा अपने आत्मस्वरूप से भ्रष्ट हुए बिना किसी संशय के अवश्य बंधन को प्राप्त होता है तथा अपने आत्मा के स्वरूप में अपने आत्मपने की बुद्धि रखने वाला अन्तरात्मा, ज्ञानी पर (शरीरादि एवं कर्म) से अलग होकर मुक्त हो जाता है। 8. सिद्धों को कितना सुख है ? तीनों लोकों में मनुष्य और देवों के जो कुछ भी उत्तम सुख का सार है वह अनन्तगुण होकर के भी एक समय में अनुभव किए गए सिद्धों के सुख के समान नहीं है। अर्थात् समस्त संसार सुख के अनन्तगुणे से भी अधिक सुख को सिद्ध एक समय में भोगते हैं। 9. मोक्ष की स्थिति कितनी है ? सादि अनन्त । 10. अनादि से जीव मोक्ष प्राप्त करते आए हैं तो क्या यह जगत् कभी शून्य हो जाएगा ? नहीं। जिस प्रकार भविष्यकाल के समय क्रम-क्रम से व्यतीत होने से भविष्यकाल की राशि में कमी होती है तो भी उसका कभी भी अन्त नहीं होता है, न होगा। यह तो साधारण कोई भी प्राणी सोच सकता है। उसी प्रकार जीव के मोक्ष जाने पर यद्यपि जीवों की राशि में कमी आती है, फिर भी उसका कभी अन्त नहीं होता है। सब अतीतकाल के द्वारा जो सिद्ध हुए हैं, उनसे एक निगोद शरीर के जीव अनन्त गुणे हैं। कहा भी है ‘‘एकस्मिन्निगोत-शरीरे जीवाः सिद्धानामनन्त गुणाः’' तो फिर एक निगोद शरीर मात्र में स्थित जीवों को ही मोक्ष जाने में अतीतकाल का अनन्तगुणा काल लग जाएगा। (स.सि., 9/7/809) और अनन्तगुणाकाल अर्थात् 'भूतकाल गुणित अनन्त' आएगा नहीं अतः अन्त होगा नहीं। 11. कितने समय में कितने जीव किस प्रकार से मोक्ष जाते हैं ? एक समय में जघन्य से एक और उत्कृष्ट से 108 जीव सिद्ध दशा को प्राप्त हो सकते हैं। छ: माह और आठ समय में नियम से 608 ही जीव सिद्ध होते हैं, उससे कम अथवा अधिक नहीं हो सकते हैं। यदि छ: माह का अन्तर पड़ गया तब लगातार आठ समयों में क्रमश: 32,48,60,72,84,96,108 तथा 108 जीव सिद्ध हो सकते हैं। अत: जघन्य से एक समय में एक एवं उत्कृष्ट से छ: माह के अन्तर होने के बाद 8 समय में 608 जीव मुक्त होते हैं। (ति.प.,4/3004)
  16. पञ्च परमेष्ठी में प्रथम अरिहंत परमेष्ठी के कितने मूलगुण होते हैं एवं अरिहंत परमेष्ठी कितने प्रकार के होते हैं, इसका वर्णन इस अध्याय में है। 1. अरिहंत परमेष्ठी किसे कहते हैं ? जो सौ इन्द्रों से वंदित होते हैं, जो वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी होते हैं। जिन्होंने चार घातिया कर्मों को नष्ट कर दिया है, जिससे उन्हें अनन्त चतुष्टय प्राप्त हुए हैं। जिनने परम औदारिक शरीर की प्रभा से सूर्य की प्रभा को भी फीका कर दिया है। जो कमल से चार अज़ुल ऊपर रहते हैं। जो 34 अतिशय तथा 8 प्रातिहार्यों से सुशोभित हैं, जो जन्म-मरण आदि 18 दोषों से रहित हो गए हैं, उन्हें अरिहंत परमेष्ठी कहते हैं। 2. अरिहंत परमेष्ठी के पर्यायवाची नाम कौन-कौन से हैं ? अरिहत, अरुहत, अर्हन्त, जिन, सकल परमात्मा और सयोगकेवली। अरिहत - 'रहस्याभावाद्वा अरिहन्ता' रहस्य के अभाव से भी अरिहन्त होते हैं। रहस्य अन्तराय कर्म को कहते हैं। अन्तराय कर्म का नाश शेष तीन घातिया कर्मो के नाश का अविनाभावी है।(ध.पु., 1/45) अरुहंत - घातिकर्म रूपी वृक्ष को जड़ से उखाड़ देने से वे अरुहंत कहे जाते हैं। अर्हन्त - ‘अतिशयपूजार्हत्वाद्वार्हन्त:” अथवा, सातिशय पूजा के योग्य होने से अर्हन्त होते हैं।(ध.पु., 1/45) जिन-जो रागादि शत्रुओं को जीतें व अज्ञानादि आवरणों को हटा लें, उस आत्मा को जिन कहते हैं। सकल परमात्मा - कल का अर्थ है शरीर, जो परम औदारिक शरीर सहित हैं, ऐसे परमात्मा को सकल परमात्मा कहते हैं। सयोग केवली- जो केवलज्ञानी हैं, किन्तु अभी योग सहित हैं, वे सयोग केवली हैं। 3. अरिहंत परमेष्ठी के कितने मूलगुण होते हैं ? अरिहंत परमेष्ठी के 46 मूलगुण होते हैं। जिनमें 34 अतिशय (10 जन्म के, 10 केवलज्ञान के एवं 14 देवकृत) 8 प्रातिहार्य एवं 4 अनन्त चतुष्टय। 4. अरिहंत परमेष्ठी के जन्म के 10 अतिशय बताइए ? अतिशय सुन्दर शरीर, अत्यन्त सुगंधित शरीर, पसीना रहित शरीर, मल-मूत्र रहित शरीर। हित-मित-प्रिय वचन, अतुल बल, सफेद खून, शरीर में 1008 लक्षण होते हैं। जिसमें शंख,गदा, चक्र आदि 108 लक्षण तथा तिल मसूरिका आदि 900 व्यञ्जन होते हैं, समचतुरस्र संस्थान, वज़ऋषभनाराचसंहनन। 5. अरिहंत परमेष्ठी के केवलज्ञान के 10 अतिशय बताइए ? भगवान् के चारों ओर सौ-सौ योजन (चार कोस का एक योजन,एक कोस में दो मील एवं 1.5 कि.मी. का एक मील) तक सुभिक्षता हो जाती है अर्थात् अकाल आदि नहीं पड़ते हैं। आकाश में गमन-कमल से चार अर्जुल ऊपर विहार (गमन) होता है। चतुर्दिग्मुख-एक मुख रहता है, किन्तु चारों दिशाओं में दिखता है। अदया का अभाव अर्थात् दया का सद्भाव रहता है, आस-पास किसी प्रकार की हिंसा नहीं होती है। उपसर्ग का अभाव - केवली भगवान् के ऊपर उपसर्ग नहीं होता, न ही उनकी सभा में उपसर्ग होता है। पहले से उपसर्ग चल रहा हो तो वह केवलज्ञान होते ही समाप्त हो जाता है। जैसे-भगवान् पार्श्वनाथ का हुआ था। कवलाहार का अभाव - केवलज्ञान होने के बाद आहार (भोजन) का अभाव हो जाता है। अर्थात् उन्हें आहार की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है। समस्त विद्याओं का स्वामीपना। नख- केश नहीं बढ़ना। नेत्रों की पलकें नहीं झपकना। शरीर की परछाई नहीं पड़ना। 6. अरिहंत परमेष्ठी के देवकृत 14 अतिशय बताइए ? अर्धमागधी भाषा-भगवान् की अमृतमयी वाणी सब जीवों के लिए कल्याणकारी होती है तथा मागध जाति के देव उन्हें बारह सभाओं में विस्तृत करते हैं। मैत्रीभाव-प्रत्येक प्राणी में मैत्री भाव हो जाता है। जिससे शेर-हिरण, सर्प-नेवला भी बैर-भाव भूलकर एक साथ बैठ जाते हैं। दिशाओं की निर्मलता - सभी दिशाएँ धूल आदि से रहित हो जाती हैं। निर्मल आकाश - मेघादि से रहित आकाश हो जाता है। छ: ऋतुओं के फल-फूल एक साथ आ जाते हैं। एक योजन तक पृथ्वी का दर्पण की तरह निर्मल हो जाना। चलते समय भगवान् के चरणों के नीचे स्वर्ण कमल की रचना हो जाना। गगन जय घोष-आकाश में जय-जय शब्द होना। मंद सुगन्धित पवन चलना। गंधोदक वृष्टि होना। भूमि की निष्कंटकता अर्थात् कंकड़, पत्थर, कंटक रहित भूमि का होना। समस्त प्राणियों को आनंद होना। धर्म चक्र का आगे-आगे चलना। अष्ट मंगल द्रव्य का साथ-साथ रहना। जैसे-छत्र, चवर, कलश, झारी, ध्वजा, पंखा, ठोना और दर्पण। 7. अष्ट प्रातिहार्य किसे कहते हैं और कौन-कौन से होते हैं ? देवों के द्वारा रचित अशोक वृक्ष आदि को प्रातिहार्य कहते हैं। वे आठ होते हैं-1. अशोक वृक्ष, 2. तीन छत्र, 3. रत्नजड़ित सिंहासन, 4. दिव्यध्वनि, 5. दुन्दुभिवाद्य, 6. पुष्पवृष्टि, 7. भामण्डल, 8. चौंसठ चवर । (ति. प., 4/924-936) अशोक वृक्ष - समवसरण में विराजित तीर्थंकर के सिंहासन के पीछे-मस्तक के ऊपर तक फैला हुआ, रत्नमयी पुष्पों से सुशोभित, लाल-लाल पत्रों से युक्त देवरचित अशोक वृक्ष होता है। तीन छत्र - तीन लोक की प्रभुता के चिह्न, मोतियों की झालर से शोभायमान, रत्नमयी, ऊपर से नीचे की ओर विस्तार युत, तीन छत्र भगवान् के मस्तक के ऊपर स्थित रहते हैं। रत्न जड़ित सिंहासन - उत्तम रत्नों से रचित, सूर्यादिक की कान्ति को जीतने वाला, सिंह जैसी आकृति वाला सिंहासन होता है, सिंहासन में रचित एक सहस्रदल कमल होता है। भगवान् उससे चार अंगुल ऊपर अधर में विराजते हैं। दिव्यध्वनि - केवलज्ञान होने के पश्चात् प्रभु के मुख से एक विचित्र गर्जना रूप अक्षरी ओकार ध्वनि खिरती है, जिसे दिव्यध्वनि कहते हैं। यह ध्वनि तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देवों की भाषा के रूप में परिणत होने के स्वभाव वाली, मधुर, मनोहर, गम्भीर और विशद, भगवान् की इच्छा न होते हुए भी भव्य जीवों के पुण्य से सहज खिरती है, पर गणधरदेव की अनुपस्थिति में नहीं खिरती है। देवदुन्दुभि - समुद्र के समान गम्भीर, समस्त दिशाओं में व्याप्त, तीन लोक के प्राणियों के शुभ समागम की सूचना देने वाली, तिर्थंकरो का जयघोष करने वाली देवदुन्दुभि होती है। पुष्पवृष्टि - समवसरण में आकाश से सुगन्धित जल की बूंदों से युक्त एवं सुखद मन्दार, सुन्दर, सुमेरू, पारिजात आदि उत्तम वृक्षों के सुगन्धित ऊध्र्वमुखी दिव्य पुष्पों (फूलों) की वर्षा होती रहती है। भामण्डल - तीर्थंकर के मस्तक के चारों ओर, प्रभु के शरीर को उद्योतन करने वाला अति सुन्दर, अनेक सूर्यों से भी अत्यधिक तेजस्वी और मनोहर भामण्डल होता है। इसकी तेजस्विता तीनों जगत् के द्युतिमान पदार्थों की द्युति का तिरस्कार करती है। इस भामण्डल में भव्यात्मा अपने सात भवों को देख सकता है (तीन अतीत के, तीन भविष्य के और एक वर्तमान का) (ति.प., 4/935) विशेष : वापिका के जल व भामण्डल में सात भव लिखे नहीं रहते, किन्तु तीर्थंकर की निकटता के कारण वापिका के जल व भामण्डल में इतना अतिशय हो जाता है कि उनके अवलोकन से अपने सात भवों के ज्ञान का क्षयोपशम हो जाता है। (पं. रतनचन्द्र मुख्तार, व्यक्तित्व और कृतित्व, पृ. 1214) चौंसठ चंवर - तीर्थंकर के दोनों ओर सुन्दर सुसजित देवों द्वारा चौंसठ चंवर ढोरे जाते हैं। ये चंवर उत्तम रत्नों से जड़ित स्वर्णमय दण्ड वाले, कमल नालों के सुन्दर तन्तु जैसे-स्वच्छ, उज्वल और सुन्दर आकार वाले होते हैं। 8. अनन्तचतुष्टय कौन-कौन से होते हैं ? अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य। 9. अतिशय किसे कहते हैं ? चमत्कारिक, अद्भुत तथा आकर्षक विशेष कार्यों को अतिशय कहते हैं। अथवा सर्वसाधारण में न पाई जाने वाली विशेषता को अतिशय कहते हैं। 10. केवली कितने प्रकार के होते हैं ? केवली 7 प्रकार के होते हैं तीर्थंकर केवली - 2, 3 एवं 5 कल्याणक वाले केवली। सामान्य केवली - कल्याणकों से रहित केवली । अन्तकृत केवली - जो मुनि उपसर्ग होने पर केवलज्ञान प्राप्त करके लघु अन्तर्मुहूर्त काल में निर्वाण को प्राप्त होते हैं। उपसर्ग केवली - जिन्हें उपसर्ग सहकर केवलज्ञान प्राप्त हुआ हो। जैसे-मुनि देशभूषणजी और मुनि कुलभूषणजी को हुआ था। मूक केवली - केवलज्ञान होने पर भी वाणी नहीं खिरती। अनुबद्ध केवली - एक को मोक्ष होने पर उसी दिन दूसरे को केवलज्ञान उत्पन्न होना। जैसे-गौतम स्वामी, सुधर्माचार्य और जम्बूस्वामी। ये तीन अनुबद्ध केवली हुए। समुद्धात केवली - केवली भगवान् की आयु अन्तर्मुहूर्त एवं शेष कर्मों की स्थिति अधिक रहती है, अत: वे आयु कर्म के बराबर शेष कर्मों की स्थिति करने के लिए समुद्धात करते हैं।
  17. जिन शासन में सर्वोच्च पद प्राप्त करने वाले परमेष्ठी कितने होते हैं, कहाँ रहते हैं, उनकी प्रतिमाएँ कैसी बनती हैं, कितने परमेष्ठीयों का अभिषेक होता है आदि का वर्णन इस अध्याय में है। 1. परमेष्ठी किसे कहते हैं ? जिनशासन में जिनका पद महान् होता है, जो गुणों में सर्वश्रेष्ठ होते हैं तथा जिन्हें राजा, इन्द्र, चक्रवर्ती, देव और सिंह आदि भी नमस्कार करते हैं, उन्हें ‘परमेष्ठी' कहते हैं। "परमे पदे तिष्ठति इति परमेष्ठी उच्यते।" इस व्युत्पति के अनुसार जो परमपद में स्थित हो, उन्हें परमेष्ठी कहते हैं। यहाँ परम शब्द का अर्थ है 'पारलौकिक'। 2. परमेष्ठी कितने होते हैं, नाम बताइए ? परमेष्ठी पाँच होते हैं। अरिहंत परमेष्ठी, सिद्ध परमेष्ठी, आचार्य परमेष्ठी, उपाध्याय परमेष्ठी एवं साधु परमेष्ठी। 3. सबसे बड़े परमेष्ठी कौन से हैं ? सबसे बड़े परमेष्ठी सिद्ध परमेष्ठी हैं। 4. सबसे बड़े सिद्ध परमेष्ठी हैं, तो पहले अरिहंत परमेष्ठी को क्यों नमस्कार किया ? अरिहंत परमेष्ठी ने चार घातिया कर्मों का क्षय किया है, वे जीवन मुक्त हैं। संसार मुक्त नहीं। किन्तु सिद्ध परमेष्ठी ने तो आठों ही कर्मों का नाश कर दिया है। अत: सिद्ध परमेष्ठी बड़े हैं, किन्तु अरिहंत परमेष्ठी के माध्यम से ही सिद्ध परमेष्ठी, आप्त (देव), आगम और पदार्थ का ज्ञान होता है। इसलिए उपकार की अपेक्षा से आदि में अरिहंत परमेष्ठी को नमस्कार किया है। 5. पाँच परमेष्ठी कहाँ-कहाँ रहते हैं एवं कहाँ-कहाँ विहार करते हैं ? पाँच परमेष्ठी में सिद्ध परमेष्ठी को छोड़कर शेष चार परमेष्ठी मध्यलोक के अढ़ाईद्वीप (2.5) एवं दो समुद्र अर्थात्45 लाख योजन प्रमाण क्षेत्र में रहते हैं। जिनमें तीर्थंकर व केवली भगवान् सभी आर्यखण्डों में ही विहार करते हैं। किन्तु आचार्य, उपाध्याय, साधु परमेष्ठी भोगभूमि में भी उपदेश देने के निमित से चले जाते हैं। सिद्ध परमेष्ठी ऊध्र्वलोक के अन्तिम तनुवातवलय के अंत में निवास करते हैं। ईषत्। प्राग्भार नामक अष्टम भूमि में स्थित सिद्ध शिला से 7050 धनुष ऊपर से लोकान्त तक सिद्ध भगवान् रहते हैं। किन्तु आगे धर्मास्तिकाय का अभाव होने से अनन्तशतिधारी सिद्ध परमेष्ठी वहीं रुक जाते हैं। 6. कितने परमेष्ठी के साक्षात् दर्शन कर सकते हैं ? सिद्ध परमेष्ठी को छोड़कर शेष चार परमेष्ठियों के, किन्तु वर्तमान इस पञ्चमकाल में भरत-ऐरावत क्षेत्र में तीन परमेष्ठी आचार्य, उपाध्याय और साधु के ही दर्शन हो पाते हैं। 7. तिरेसठ (63) शलाका पुरुषों में कौन से परमेष्ठी आते हैं ? तिरेसठ (63) शलाका पुरुषों में मात्र अरिहंत परमेष्ठी आते हैं। 8. विदेशों में कोई साधु बन सकते हैं कि नहीं ? हाँ, विदेशों में साधु बन सकते हैं किन्तु अभी तक बने नहीं हैं। 9. कितने परमेष्ठी दीक्षा देते हैं ? तीन परमेष्ठी दीक्षा देते हैं। आचार्य, उपाध्याय और साधु। मुख्य रूप से आचार्य परमेष्ठी दीक्षा देते हैं। 10. पञ्च परमेठियों में देव और गुरु कौन-कौन हैं ? अरिहंत एवं सिद्ध परमेष्ठी देव हैं। आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी गुरु हैं। 11. तीन कम नौ करोड़ मुनिराजों में कौन-कौन से परमेष्ठी आते हैं ? चार परमेष्ठी। अरिहंत, आचार्य, उपाध्याय और साधु। 12. कौन से परमेष्ठी का किस रंग में और शरीर के किस अंग में ध्यान करना चाहिए? परमेष्ठी रंग अंग में अरिहंत श्वेत नाभि में सिद्ध लाल मस्तक में आचार्य पीला कंठ में उपाध्याय हरा हृदय में साधु काला मुख में 1. मानसार, अध्याय 35, स्थापत्य एवं मूर्तिकला ग्रन्थ 2. ज्ञा., 38/108 13. कितने परमेष्ठी आपके घर में आते हैं ? तीन परमेष्ठी घर में आहार करने एवं उपदेश देने के लिए आते हैं। 14. आर्यिका, एलक, क्षुल्लक, क्षुल्लिका एवं भट्टारक जी कौन से परमेष्ठी हैं ? ये पाँचों ही कोई भी परमेष्ठी नहीं हैं। 15. कितने परमेष्ठी शयन करते हैं ? तीन परमेष्ठी शयन करते हैं। आचार्य, उपाध्याय एवं साधु। 16. कितने परमेष्ठी की मूर्तियाँ बनती हैं ? सभी परमेष्ठियों की मूर्तियाँ बनती हैं। 17. पाँच परमेष्ठियों की प्रतिमाएँ किस प्रकार की होती हैं ? चिह्न एवं अष्ट प्रातिहार्य सहित अरिहन्त प्रतिमा होती है, चिह्न एवं अष्ट प्रातिहार्य से रहित सिद्ध प्रतिमा होती है, वरदहस्त सहित आचार्य की, शास्त्र सहित उपाध्याय की तथा पिच्छी-कमण्डलु सहित साधु की प्रतिमा होती है। (जैसिको, 2/301) वर्तमान में सिद्ध भगवान् की पुरुषाकार वाली मूर्तियों की भी परम्परा है। नोट - हू-ब-हू आचार्य, उपाध्याय एवं साधु की प्रतिमा नहीं बनती है। 18. कितने परमेष्ठियों का अभिषेक होता है ? साक्षात् किसी भी परमेष्ठी का अभिषेक नहीं होता है। प्रतिमा में जिन परमेष्ठियों की स्थापना की गई है, उनका अभिषेक होता है।
  18. गन्ध जिह्वा का, खाद्य न, फिर क्यों तू, सौगंध खाता ? हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  19. अर्पित यानी, मुख्य, समर्पित सो, अहंका त्याग। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  20. तुलनीय भी, सन्तुलित तुला में, तुलता मिला। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  21. अनागत का, अर्थ, भविष्य न, पै, आगत नहीं। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  22. बाँध भले ही, बाँधो, नदी बहेगी, अधो या ऊर्ध्व। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  23. तीर न छोड़ो, मत चूको अर्जुन !, तीर पाओगे। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  24. नाड़ हिलती, लार गिरती किन्तु, तृष्णा युवती। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  25. ऊपर जाता, किसी को न दबाता, घी गुरु बना। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
×
×
  • Create New...