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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. गवान जिनेन्द्रदेव की मूर्ति के साथ अष्ट मंगल या अष्टप्रातिहार्यों का अंकन पारंपरिक रूप से होता रहा है। प्रस्तुत आलेख में शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर अष्ट मंगलों का स्वरूप विवेचित किया गया है। प्राचीन काल से जैन मंदिरों में अष्ट मंगल प्रातिहार्य का जिन प्रतिमाओं के साथ अंकन होता आ रहा है। अष्ट मंगल प्रातिहार्यमंगल स्वरूप बनाये जाते हैं। जिनेन्द्र भगवान की समवशरण स्थली में अनेंक मंगल द्रव्य रूपी सम्पदायें थीं। अष्टमंगल प्रातिहार्य उन्हीं सम्पदाओं में से हैं समवशरण तीर्थंकरों के धर्मोपदेश देने का पवित्र स्थान होता है, जिसे देवों द्वारा निर्मित किया जाता है। अष्ट मंगल प्रातिहार्य पूजनीय व पवित्रता के प्रतीक स्वरूप समवशरण स्थली में इस प्रकार समलंकृत हैं:- तरू अशोक निकट में सिंहासन छविदार। तीन छत्र सिर पर लसैं भा-मण्डल पिछवार।। दिव्य ध्वनि मुख से खिरे, पुष्प वृष्टि सुर होय। ढोरे चौसठ चमर चष, बाजे दुन्दुभि जोय।।
  2. जीवदया के मसीहा आचार्य १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद से स्थापित एवं संचालित दयोदय महासंघ की गौशालाओं हेतु आप दानराशि सीधे बैंक खाते में भी जमा कर सकते हैं, जमा उपरांत सूचना दें, फोन या ईमेल कर अवगत कराएँ ताकि आपको पक्की रसीद भेजी जा सके -
  3. गौशाला निर्माण में सहयोग प्रदान कर परम संरक्षक १,००,०००/- संरक्षक ५१,०००/- आजीवन सदस्य१ १,०००/- प्रति कमरा निर्माण हेतु ५१,०००/- प्रति ३० फीट गुणित १२० फीट शेड निर्माण हेतु ४,२५,०००/- प्रति ६० फीट गुणित १२० फीट चारा गोदाम हेतु ११,००,०००/- चिकित्सालय निर्माण हेतु १०,००,०००/- चिकित्सालय उपकरण हेतु ७,५०,०००/- वृद्धाश्रम निर्माण हेतु प्रति कमरा ५१,०००/- जल व्यवस्था हेतु प्रति टंकी (५००० लि.) २१,०००/- जल वितरण व्यवस्था प्रति शेड ५०,००१/- प्रति नलकूप हेतु ७५,०००/-
  4. प्रति गाय गोद लेने हेतु खर्च ११०१/- गाय त्रैमासिक व्यय १५०१/- गाय अर्द्धवार्षिक व्यय २५०१/- गाय वार्षिक व्यय ५००१/- प्रति १२१ पशुओं पर प्रतिदिन व्यय २००१/- अनुरोध – मूक पशु के त्रैमासिक, अर्द्धवार्षिक अथवा आयु पर्यंत ‘दयोदय’ पालक बनकर पुण्य लाभ पाएं।
  5. प्रतिदिन कुल भोजन व्यय २००१/-अनुमानित प्रतिदिन कुल औषधि व्यय १००१/-अनुमानित प्रतिमास कुल भोजन व्यय ६०,००१/-अनुमानित प्रतिमास कुल औषधि व्यय ३०,०००/-अनुमानित प्रति वृद्ध मासिक भोजन व्यय ७५१/-अनुमानित प्रति वृद्ध मासिक औषधि व्यय ३५१/-अनुमानित प्रति वृद्ध त्रैमासिक भोजन व्यय २५०१/-अनुमानित प्रति वृद्ध त्रैमासिक औषधि व्यय १२५१/-अनुमानित प्रति वृद्ध वार्षिक भोजन व्यय १०,००१/-अनुमानित प्रति वृद्ध वार्षिक औषधि व्यय ५००१/-अनुमानित हमें आपके सहयोग की सदैव प्रतीक्षा है। हमारे द्वारा संपादित कार्यों का निरीक्षण करें, यह विनम्र आग्रह है, अतएव अवश्य पधारें यह मनुहार है।
  6. अवश्यक सूचना :-??जिज्ञासा समाधान मे मुनि श्री 108सुधा सागर जी महाराज जी ने सभी को '' जो भगवान् महावीर स्वामी को मानता है, कसम दी है, अपने नाम के साथ "जैन" अवश्य लिखें. ??इस सूचना को सभी जैन तक भेजे. ?? ।।जय जिनेन्द्र बन्दुओं।। आज जैन समाज के लिए एक दुखत घटना सामने आयी हैं, बन्दुओं हमारे जैन समाज के कुछ लोगों की भूल सेअपने नाम के पीछे"जैन"न लिखने से आज झांसी जिले में स्थित बरुआसागर नगर में वर्णी जी द्वारा खुलबाय जैन छात्रावास जो कि जैनों का हैं लेकिन आज up हाईकॉर्ट उसे जैन न बताकर उसे अवेध घोषित कर अन्य समाज को सौप रही हैं जैनसमाज up हाईकोर्ट से केस हार गया।। अब दिल्ली हाईकोर्ट में केस चल रहा है,,,,,! मुनिपुंगवश्री108सुधासागर जी का सम्पूर्ण जैन समाज को आदेश दिया है कि हम सभी अपने नाम लिखने के बाद जैन जरूर लिखे। (आपको महावीर स्वामी जी की सौगन्ध)
  7. विद्यासागर की, गुणआगर की, शुभ मंगल दीप सजाय के। आज उतारूँ आरतिया…..॥1॥ मल्लप्पा श्री, श्रीमती के गर्भ विषैं गुरु आये। ग्राम सदलगा जन्म लिया है, सबजन मंगल गाये॥ गुरु जी सब जन मंगल गाये, न रागी की, द्वेषी की, शुभ मंगल दीप सजाय के। आज उतारूँ आरतिया…..॥2॥ गुरुवर पाँच महाव्रत धारी, आतम ब्रह्म विहारी। खड्गधार शिवपथ पर चलकर, शिथिलाचार निवारी॥ गुरुजी शिथिलाचार निवारी, गृह त्यागी की, वैरागी की, ले दीप सुमन का थाल रे। आज उतारूँ आरतिया…..॥3॥ गुरुवर आज नयन से लखकर, आलौकिक सुख पाया। भक्ति भाव से आरति करके, फूला नहीं समाया॥ गुरु जी फूला नहीं समाया, ऐसे मुनिवर को, ऐसे ऋषिवर को, हो वंदन बारम्बार हो। आज उतारुँ आरतिया…..॥4॥
  8. तर्ज:- तुझे सूरज कहूँ या चन्दा…. दोहा: गुरु गोविन्द से हैं बडे, कहते हैं सब धर्म। गुरु पूजा तुम नित करो, तज के सारे कर्म॥ पूजन का अवसर आया, वसु द्रव्य से थाल सजाया। संसार धूप है तपती, गुरु चरण है शीतल छाया॥ हे तपोमूर्ति, हे तपस्वी, हे संयम सूरी यशस्वी। हे संत शिरोमणि साधक, हे महाकवि, हे मनस्वी॥ मेरे उर मे आ विराजो, श्रद्धा से हमने बुलाया। नयन ही गंगा बन गये, अब क्या हम जल को मंगायें। इन बहते अश्रु से ही, गुरु चरणा तेरे धुलायें॥ अब जन्म जरा मिट जाये, इस जग से जी घबराया। शीतल शीतल पगर्तालयाँ, शीतल ही मन की गलियाँ। शीतल है संघ तुम्हारा, बहे शीतल संयम धारा॥ शीतल हो तप्त ये अंतर, चन्दन है चरण चढाया। है, शरद चाँद से उजली, चर्या ये चारू न्यारी। शशि सम याते ये अक्षत, हम लायें हैं भर के थाली॥ तुम अक्षय सुख अभिलाशी, क्षण भंगुर सुख ठुकराया। तपा-तपा के तन को, तप से है पूज्य बनाया। तन से तनिक न मतलब, आतम ही तुमको भाया॥ हे आत्म निवासी गुरुवर, तुम अरिहंत की छाया। हो भूख जिसे चेतन की, षट रस व्यंजन कब भाते। रूखा-सूखा लेकर वो, शिव पथ पर बढते जाते॥ गुरु सदा तृप्त तुम रहते, हमें क्षुधा ने लिया रुलाया। जगमग जगमग ये चमके, है रोशनी आतम अन्दर। हम मिथ्यातम में भटके, हो तुम सिद्धों के अनुचर॥ निज दीप से दीप जला दो, मत करना हमें पराया। वसु कर्म खपाने हेतु ध्यान अग्नि को सुलगाया। हे शुद्धोपयोगी मुनिवर, मुक्ति का मार्ग दिखाया॥ तुम धन्य-धन्य हो ऋषिवर हमें अघ ने दिया सताया। फल पूजा का हम माँगें तुम उदार बनना गुरुवर। बस रखना सम्भाल हमको, जब तक ना पाऊँ शिवघर॥ गुरु शिष्य का नाता अमर है, तुमने ही तो बतलाया। देवलोक की दौलत इस जमीं पे सारी मंगाए। हो तो भी अर्घ न पूरा, फिर क्या हम तुम्हें चढाए॥ अब हार के गुरुजी हमने, जीवन ही दिया चढाया। डोहा:- बन्धन पंचमकाल है वरना गुरु महान। पाकर केवलज्ञान को बन जाते भगवान॥ तर्ज:- [चौपाई छन्द] ॥जयमाला॥ कंठ रुंधा नयना छलके हैं। अधर कंपित नत पलके हैं॥ कैसे हो गुरु गान तुम्हारा। बहती हो जब अश्रु धारा॥ एक नाम है जग में छाया। विद्यासागर सबको भाया॥ भू से नभ तक जोर से गूंजा। विद्यासागर सम न दूजा॥ नदियाँ सबको जल हैं देतीं। नहीं क्षीर निज गायें पीती॥ बाँटे जग को फल ये तरुवर। ऐसे ही हैं मेरे गुरुवर॥ रहकर पंक में ऊपर रहता। देखो कैसे कमल है खिलता॥ अलिप्त भाव से गुरु भी ऐसे। जग में रहते पंकज जैसे॥ बाहुर्बाल सम खडगासन में। वीर प्रभु सम पद्मासन में॥ कदम उठाकर जब हो चलते। कुन्द-कुन्द से सच हो लगते॥ फसल आपकी महाघनी है। लम्बी संत कतार तनी है॥ व्यापार आपका सीधा सादा। आर्या भी है सबसे ज्यादा॥ कभी आपको नहीं है घाटा। माल खूब है बिकता जाता॥ दुकान देखो बढती जाये। नहीं कभी विश्राम ये पाये॥ जननी केवल जन्म है देती। नहिं वो भव की नैया खेती॥ गुरुजी मांझी बनकर आते। अतः सभी से बडे कहाते॥ मल्लप्पा और मान श्री ही। जिनके आंगन जन्में तुम जी॥ ज्ञान गुरु से लेके दीक्षा। कर दी सार्थक आगम शिक्षा॥ शिष्य जो होवे तुमसा होवे। गुरु का जिससे नाम ये होवे॥ गुरु गौरव बन सच हो चमके। जयकारा सब बोले जम के॥ सौ-सौ जिह्वा मिल भी जायें। युगों-युगों तक वो सब गायें॥ जयमाला हो कभी न पूरी। पूजन रहे सदा अधूरी॥ दोहा:- नाम अमर गुरु का किया विद्यासागर संत। गुरु के भी तुम गुरु बने सदा रहो जयवंत॥
  9. श्री विद्यासागर के चरणों में झुका रहा अपना माथा। जिनके जीवन की हर चर्यावन पडी स्वयं ही नवगाथा।। जैनागम का वह सुधा कलश जो बिखराते हैं गली-गली। जिनके दर्शन को पाकर के खिलती मुरझायी हृदय कली।। ऊँ ह्रीं श्री 108 आचार्य विद्यासागर मुनीन्द्र अत्र अवतर सम्बोषट आव्हानन।अत्र तिष्ठ ठः ठः स्थापनं। अत्र मम सन्निहितो भवः भव वषद सन्निध्किरणं। सांसारिक विषयों में पडकर, मैंने अपने को भरमाया। इस रागद्वेष की वैतरणी से, अब तक पार नहीं पाया।। तब विद्या सिन्धु के जल कण से, भव कालुष धोने आया हूँ। आना जाना मिट जाये मेरा, यह बन्ध काटने आया हूँ।। जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् निर्व स्वाहा। क्रोध अनल में जल जल कर, अपना सर्वस्व लुटाया है। निज शान्त स्वरूप न जान सका, जीवन भर इसे भुलाया है।। चन्दन सम शीतलता पाने अब, शरण तुम्हारी आया हूँ। संसार ताप मिट जाये मेरा, चन्दन वन्दन को जाया हूँ।। संसार ताप विनाशनाय चन्दनं निर्व स्वाहा। जड को न मैंने जड समझा, नहिं अक्षय निधि को पह्चाना। अपने तो केवल सपने थे, भ्रम और जगत को भटकाना।। चरणों में अर्पित अक्षय है, अक्षय पद मुझको मिल जाये। तब ज्ञान अरुण की किरणों से, यह हृदय कमल भी खिल जाये।। अक्षयपद प्राप्ताय अक्षतं निर्व स्वाहा। इस विषय भोग की मदिरा पी, मैं बना सदा से मतवाला। तृष्णा को तृप्त करें जितनी, उतनी बढती इच्छा ज्वाला।। मैं काम भाव विध्वंस करू, मन सुमन चढाने आया हूँ। यह मदन विजेता बन ना सकें, यह भाव हृदय से लाया हूँ।। कामवाण विनाशनाय पुष्पं निर्व स्वाहा। इस क्षुदा रोग की व्याथा कथा, भव भव में कहता आया हूँ। अति भक्ष-अभक्ष भखे फिर भी, मन तृप्त नहीं कर पाया हूँ।। नैवेद्य समर्पित कर के मैं, तृष्णा की भूख मिटाउँगा। अब और अधिक ना भटक सकूँ, यह अंतर बोध जगाउँगा।। क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्य निर्व स्वाहा। मोहान्ध्कार से व्याकुल हो, निज को नहीं मैंने पह्चाना। मैं रागद्वेष में लिप्त रहा, इस हाथ रहा बस पछताना।। यह दीप समर्पित है मुनिवर, मेरा तम दूर भगा देना। तुम ज्ञान दीप की बाती से, मम अन्तर दीप जला देना।। मोहांधकार विनाशनाय दीपम् निर्व स्वाहा। इस अशुभ कर्म ने घेरा है, मैंने अब तक यह था माना। बस पाप कर्म तजपुण्य कर्म को, चाह रहा था अपनाना।। शुभ-अशुभ कर्म सब रिपुदल है, मैं इन्हें जलाने आया हूँ। इसलिये अब गुरु चरणों में, अब धूप चढाने आया हूँ।। अष्टकर्म दहनाय धूपम् निर्व स्वाहा। भोगों को इतना भोगा कि, खुद को ही भोग बना डाला। साँध्य और साधक का अंतर, मैंने आज मिटा डाला।। मैं चिंतानन्द में लीन रहूँ, पूजा का यह फल पाना है। पाना था जिनके द्वारा, वह मिल बैठा मुझे ठिकाना है।। मोक्षफल प्राप्ताय फलम् निर्व स्वाहा। जग के वैभव को पाकर मैं, निश दिन कैसा अलमस्त रहा। चारों गतियों की ठोकर को, खाने में अभ्यस्त रहा।। मैं हूँ स्वतंत्र ज्ञाता दृष्टा, मेरा पर से क्या नाता है। कैसे अनर्ध पद जाउँ, यह अरुण भावना भाता हूँ।। अनर्ध्य पद प्राप्ताय अधर्म निर्व स्वाहा। जयमाला हे गुरुवर तेरे गुण गाने, अर्पित हैं जीवन के क्षण क्षण। अर्चन के सुमन समर्पित हैं, हरषाये जगती के कण कण ॥१॥ कर्नाटक के सदलगा ग्राम में, मुनिवर तुमने जन्म लिया। मल्लप्पा पूज्यपिताश्री को, अरु श्रीमति को कृतकृत्य किया ॥२॥ बचपन के इस विद्याधर में, विद्या के सागर उमड़ पड़े। मुनिराज देशभूषण से तुम, व्रत ब्रह्मचर्य ले निकल पड़े ॥३॥ आचार्य ज्ञानसागर ने सन्, अड़सठ में मुनि पद दे डाला। अजमेर नगर में हुआ उदित, मानों रवि तम हरने वाला ॥४॥ परिवार तुम्हारा सबका सब, जिन पथ पर चलने वाला है। वह भेद ज्ञान की छैनी से, गिरि कर्म काटने वाला है ॥५॥ तुम स्वयं तीर्थ से पावन हो, तुम हो अपने में समयसार। तुम स्याद्वाद के प्रस्तोता, वाणी-वीणा के मधुर तार ॥६॥ तुम कुन्दकुन्द के कुन्दन से, कुन्दन-सा जग को कर देने। तुम निकल पड़े बस इसीलिए,भटके अटकों को पथ देने ॥७॥ वह मन्द मधुर मुस्कान सदा, चेहरे पर बिखरी रहती है। वाणी कल्याणी है अनुपम, करुणा के झरने झरते हैं ॥८॥ तुममें कैसा सम्मोहन है, या है कोई जादू टोना। जो दर्श तुम्हारे कर जाता, नहिं चाहे कभी विलग होना ॥९॥ इस अल्प उम्र में भी तुमने, साहित्य सृजन अति कर डाला। जैन गीत गागर में तुमने, मानो सागर भर डाला ॥१०॥ है शब्द नहीं गुण गाने को, गाना भी मेरा अनजाना। स्वर ताल छन्द मैं क्या जानूँ, केवल भक्ति में रम जाना ॥११॥ भावों की निर्मल सरिता में, अवगाहन करने आया हूँ। मेरा सारा दुख दर्द हरो, यह अर्घ भेंटने लाया हूँ ॥१२॥ हे तपो मूर्ति! हे आराधक! हे योगीश्वर! हे महासन्त!। है 'अरुण' कामना देख सके, युग-युग तक आगामी बसन्त॥१३॥ ओं हूं श्री आचार्यविद्यासागरमुनीन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये पूर्णार्घ निर्वपामीति स्वाहा। इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिं क्षिपामि
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