मैं कौन हूँ? इसको जानना है; पर मेरा क्या है? इसको बस समझना है। गुरु चरणों में बस एक बार शिष्य इसी भाव से अपना अपर्ण कर दे इसलिये वह जान जायेगा। स्वयं को पहचान जायेगा। जहाँ समर्पण होता है, वह प्रश्न चिह्न और विकल्पों का विराम होता है। कैसे हो समर्पण शिष्य का इसको समझाया आचार्याश्री ने। पढ़े यह प्रसंग :-
5 जून 1998 रविवार- भाग्योदय तीर्थ सागर में शाम को प्रतिदिन की तरह हम लोग आचार्यश्री जी की वैय्यावृत्ति कर रहे थे। तभी कलकत्ता निवासी श्री संपतलालजी छाबड़ा जो चातुर्मास में प्राय: 1-2 माह रहते हैं, वे शाम के समय आ गए। आचार्यश्री जी से संपतलालजी छाबड़ा बोले- 'महाराज जी हम लोगों के साथ अन्याय हो रहा है।' आचार्यश्री जी बोले- 'भाई कैसा अन्याय हो रहा है?"
छाबड़ाजी ने कहा 'आचार्यश्री जी! आप अपने शिष्यों को दो-दो क्लासें लगाकर स्वाध्याय कराते हैं, और हम जैसे शिष्यों के लिए कोई क्लास में न बैठाते हैं, न अलग से क्लास लगाते हैं।' आचार्यश्री जी ने कहा- 'आप लोगों ने अभी सही शिष्यत्व स्वीकार नहीं किया है। क्योंकि आप लोगों जैसे शिष्यों को 20 वर्ष से देख रहे हैं। ज्यों के त्यों हैं। आप कहते हैं- कलकत्ता छोड़ना तो अब हम कैसे सोचें? छाबड़ा जी बोले- 'क्या हम लोग आपके शिष्य नहीं बन सकते? क्या हमारे पास उस एकलव्य की तरह गुरु भक्ति नहीं है?
आप हमें भी एकलव्य बना दो?" आचार्यश्री जी बोले- 'छाबड़ाजी- एकलव्य बनाया नहीं जाता है, बनना पड़ता है?' संपतजी बोले- 'कैसे बनना पड़ता है?" आचार्यश्री जी- 'समर्पण से।' संपतजी- 'कैसा समर्पण होना चाहिए?’ आचार्यश्री- 'आचार्यों ने लिखा है- शिष्य गुरु के चरणों में ऐसा समर्पित हो कि उसके पास कुछ भी शेष ना रहे। पूरी तरह खाली होकर गुरु चरणों में समर्पित हो जाता है, वही समर्पण कहलाता है। ऐसा समर्पण एकलव्य ने किया था।
एक उदाहरण देते हुए कहा जैसे पानी की वह बिंदु जब सिंधु के लिए अपना समर्पण करती है, तो वह अपना अस्तित्व समाप्त करके सिंधु में मिल जाती है। उसका अब अलग कोई अस्तित्व नहीं होता है। उसी प्रकार शिष्य के लिए होना चाहिए, उसका अपना अब कोई शेष न रहे, अपना सब कुछ गुरु चरणों में समर्पित कर देना ही सही गुरु भक्ति है। संपतजी बोले- इतनी कमी तो है, हम लोगों में।